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कार्तिक मास सुहावना
- विद्या निवास मिश्र


कार्तिक मास बहुत पवित्र माना गया है। कार्तिक, माघ और वैशाख इन महीनों में स्नान, जप, अनुष्ठान इन सबका बड़ा महत्त्व है। कार्तिक महीना शरद ऋतु का दूसरा महीना है। उद्दाम वर्षा के उपशम के बाद नदी का जल निथरकर स्फटिक की तरह निर्मल होने लगता है। धरती शेफाली के फूलों से सवेरे-सवेरे तक पट जाती है। आकाश निरभ्र हो जाता है। कृष्ण पक्ष की रातें विशेष रूप से शान पर चढ़ाए हुए शस्त्र की भाँति निर्बल हो जाती हैं। शुक्ल पक्ष में चंद्रमा छलकने लगता है।


अगहन की फ़सल अपनी सुनहली बालियों से खेतों में दमकने लगती है। जाने कहाँ-कहाँ से पक्षी उड़ान भरते हुए सरोवरों और नदियों के तट पर आ जाते हैं। कमल और कुमुद के पुष्प अपने जोबन पर आ जाते हैं। सप्तपर्ण की मदमाती गंध हवा में झूमने लगती है। कार्तिक के महीने में ओस पड़नी शुरू होती है, ओस-भीनी रात में नहाने का विशेष महत्त्व है। कार्तिक की हर साँझ तुलसी का चौरा दीपों से आलोकित हो उठता है।

कार्तिक महीने में उत्सवों और पर्व की झड़ी-सी लगी रहती है। बुआई-जुताई से थोड़ी-सी फुरसत लेकर, जहाँ बैलों से खेती होती है, बैल नहला-धुलाकर सजाए जाते हैं, उनकी पूजा भी होती है।
पूरा महीना ही उत्सवों और पर्वों का महीना है । इस महीने में पहला पर्व पड़ता है करवाचौथ का । इसमें भित्तिचित्र बनते हैं । अनेक प्रकार के चित्र उकेरे जाते हैं, इसमें पूरा ब्रहमांड लघु रूप में आ जाता है, मानों यह पर्व अव्यवस्थाओं के समुद्र से सृष्टि के उभार का पर्व है। धरती भी नए अंकुरों पर पड़ी ओस की बूँदों से सवेरे-सवेरे सुशोभित होती है तो यही लगता है कि आकाश के मोती धरती पर बिछ गए हैं। इस पर्व पर मिट्टी के बरतनों (करवों) पर देवता को अर्पित की जानेवाली सामग्री रखी जाती है। इसलिए इसे करवाचौथ कहा जाता है।

इसके बाद गोपाष्टमी पड़ती है, जब गउओं और बछड़ों को सजाया जाता है, टीका लगाया जाता है और उन्हें उत्तम भोजन कराया जाता है। कार्तिक में धनतेरस पड़ती है, जिस दिन धन्वंतरि अमृत-कलश लेकर समुद्र-मंथन के बाद जन-कल्याण के लिए अवतीर्ण हुए। धन्वंतरि का स्मरण जीवन के अमरत्व की संभावना का स्मरण है और उस दिन नए पात्र खरीदने का विशेष अभिप्राय है, जैसे वह पात्र अमृत से भरने के लिए खरीदा जाता है। इस महीने के मध्य में दीपावली पड़ती है।

दीया हम क्यों जलाते हैं, इसका एक अभिप्राय और है। यों तो रोशनी के लिए हम दीए जलाते ही रहे हैं। अब बिजली की रोशनी जगमगाने लगी है, इसलिए दीया कुछ त्योहारों पर, कुछ और अवसरों पर ही याद किया जाता है। कार्तिक का महीना तो तरह-तरह के दीयों की विधियों का महीना है। इसी महीने बाँस गाड़कर दीए की छितनी रस्सी से ऊपर पहुँचाई जाती है। इसे आकाशदीप कहते हैं। नदियों, तालाबों के वक्ष पर दीए पंक्तिबदूध तैराए जाते हैं, इसे दीपदान कहा जाता है।
तुलसी के चौरे पर हर शाम दीए (अनपके) जलाए जाते हैं। अमावस्या को और शुक्ल पक्ष की एकादशी को विशेष रूप से दीपमालिका सजाई जाती है। वैसे हम पूजा में दीप जलाते हैं, आरती करते समय कई-कई दीए थाली में रख देते हैं, उसे घुमाते हैं।

पर यह सब हम किस अभिप्राय से करते हैं ? यह समझ लें। दीप दिखाना वस्तुत: केवल बाहर प्रकाश के लिए नहीं, भीतर के प्रकाश को अर्पित करने के लिए भी है। दीपक अग्नितत्व है, इसी का एक रूप है सूर्य, जो सौरमंडल को प्रकाशित करता है। इसी सूर्य से प्रकाश पाकर रात्रि में शीतल प्रकाश देनेवाला है चंद्र, जो पृथ्वी को प्रकाशित करता है। तीसरा रूप है आग, जो धरती पर जलती है तो प्रकाश भी देती है, गरमी भी देती है। वही पदार्थों को पकाती है और उनमें रस पैदा करती है।

कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट मनाया जाता है। छप्पन प्रकार के भोग लगाए जाते हैं। ब्रज क्षेत्र में छप्पन की संख्या पूरी करने के लिए सारी सब्ज़ियाँ सारे मसालों के साथ पकाई जाती हैं। यह भोग गोवर्धन को ही निवेदित होता है। कार्तिक शुक्ल दूवितीया को भैया दूज का त्योहार होता है। इस दिन ब्रज क्षेत्र में यमुना में भाई-बहन साथ-साथ नहाते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में गोवर्धन बनाया जाता है। गाय के गोबर से न जाने कितनी चीज़ें एक चौकोर मंडल के भीतर बनाई जाती हैं। उनके ऊपर अनगिनत प्रकार के काँटे, कँटीले झाड़ बिछाए जाते हैं। उनको स्त्रियाँ मूसल से कूटती हैं। एक तरह से यह जीवन के विघ्न-बाधा के निवारण का अनुष्ठान है। इसके बाद विविध प्रकार की बनी हुई मिठाइयाँ यम को चढ़ाती हैं और उसका प्रसाद भाइयों को देती हैं। इसलिए इसे यम दूवितीया और श्रातृ दूवितीया दोनों नामों से पुकारा जाता है।

कार्तिक सुदी में सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व है--देवोत्थान एकादशी (डिठवन) और कार्तिक पूर्णिमा, जिसे महारास पूर्णिमा भी कहा जाता है, यह गुरु नानक का जन्मोत्सव भी है। कार्तिक में यमुना स्नान का तो महत्त्व है ही, पर कार्तिक पूर्णिमा के दिन सभी नदियों में स्नान-पर्व मेले लगते हैं। इसी दिन से सहालग के दिन शुरू हो जाते हैं। ओकारेश्वर में नर्मदा के तट पर दूर-दूर से विवाहित होनेवाली कुल-कन्याओं की भीड़ गाती हुई भगवान ओंकारेश्वर के दर्शन के लिए आती है और नर्मदा का तट मधुर गीतों तथा सौभाग्यवती स्त्रियों के नूपुरों की रुनझुन से गूँज उठता है।

भारत के पश्चिमी भूभाग में इस दिन दीवाली भी मनाई जाती है और प्राय: समस्त भारत में इस दिन घर के आँगन में चौक पूरे जाते हैं। इसी दिन सबसे पहले गन्ने का, सिंघाड़े का और शरद ऋतु की अनेक फ़सलों का भोग लगता है। हरिप्रबोधिनी से ही पूर्णिमा-पर्यत उत्सव का क्रम शुरू हो जाता है। कार्तिक सुदी से ही पुराने समय से नई बही शुरू होती आई है। कालिदास का जन्म ही देवोत्थान एकादशी को मान लिया गया और इसीलिए कालिदास से संबद्ध समारोह स्थान-स्थान पर होते हुए भी उज्जयिनी में विशेष रूप से नाट्य प्रस्तुति के साथ होता है।

कार्तिक माह में सुबह-सुबह एक चिड़िया पुकारती है--बोओ-जोतो, बोओ-जोतो। एक दूसरी चिड़िया पुकारती है--'ठाकुर जी' ‘ठाकुर जी’। एकादशी से पूर्णिमा तक पाँच दिन काशी के घाट, काशी की गंगा का पूरा परिदृश्य दीयों की ज्योति से गमगाने लगता है। काशी का आकाश दीपों के आलोक से आलोकित हो उठता है। आलोक के छोटे-छोटे पुंजों का महीना कार्तिक अंत में ऐसा सज जाता है कि उस दिन का चंद्रमा ज्योति कलश-सा छलकने लगता है।

इस महीने में एक भी क्षण खोना नहीं है, सोना नहीं है, सचेत, सचेष्ट होकर कर्मपथ पर चलना है। अपने को दीया बनाकर दूसरों को प्रकाश देना है। स्वाति नक्षत्र इसी माह में आता है और स्वाति नक्षत्र में जलद चातक के लिए अमृत बरसाता है, चंद्रमा चकोर के लिए आग की चिनगारी में भी शीतलता भरता है। एक तरह से कार्तिक का महीना आशा पूरी करता है। यह महीना हर तरह से भीतर-बाहर की संपन्‍नता का महीना है। उस संपन्‍नता को उत्सव से जोड़ा जाता है तो यह महीना मानवीय हो जाता है और यह महीना पुण्यशाली हो जाता है।

१ नवंबर २०२५

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