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भीतर मन के आग है बाहर बरसे मेघ
- नर्मदा प्रसाद उपाध्याय


धरती के जलस्रोतों से उठी वाष्प को जल की बूँदों में बदलकर पुनः धरती पर बरसा देना बादल का स्वभाव है। लेकिन इन दिनों बादल ने अपना यह स्वभाव धरती को ही सौंप दिया है। बादल सूने-से हैं और धरती बरस रही है। मनुष्य के मन मेघ हो गए, जो पूरे वेग से उठकर आँखों के आकाश में छा जाते हैं और फिर उनसे मूसलाधार बरस पड़ते हैं।

इस सृष्टि ने ऐसा मानसून पहले कभी कहीं देखा। ऐसी बरसात का पहले कभी अनुभव कहीं किया। आज मेघ भले बाहर बरस रहे हों, लेकिन मन में तो अग्नि प्रज्वलित है। निर्मल उपाध्याय की पंक्तियाँ हैं-
मौसम ने फिर व्यंग्य के लिखे अनूठे लेख
भीतर मन के आग हैं, बहर बरसे मेघ

मन के मेघों में बसी गरम वाष्प उनकी आग है, जो इन दिलों आँखों से बरस रही है। 'कोरोना का कहर हर आँख की कोर से बहकर धरती के कोने-कोने को भिगोता है और उसकी हर लहर लू बनकर झुलसाती है। यह कैसी बारिश है?
हमने तो अभी तक वह बारिश देखी है, जिसके बारे में अनंत आलोक कहते हैं--
भीगे भीगे दिन हुए गीली-गीली रात
दीप जलाकर चल पड़ी जुगनू की बारात
हमारे पास तो उस बरसात के संदर्भ हैं, जिसके अधिष्ठाता पर्जन्य की आध्यर्धना वौदिक ऋषि पिता के रूप में करते हुए कहता है- माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु॥ और उन्हें इसलिए प्रणाम करता है कि वे उनके अंदर सिंचित पानी को असमय नहीं गिरने देते तथा हमारे अंदर तप एकत्र करते हैं।

आदि कवि वाल्मीकि कहते हैं कि सूर्य अपनी किरणों से सागर का पानी सोख लेता है, फिर यहा सागर का पानी आकाश अपने गर्भ में नौ माह रखता है और जलवर्ष के रूप में अमृतपुत्र को जन्म देता है। वे मेघमाल को ऐसी सीढ़ी कहते हैं, जिन पर चढ़कर 'कुटज और अर्जुन की माला से सूर्य का हम अभिनंदन कर सकते हैं। आगे के काल में संस्कृत और प्राकृत के कवियों ने वर्षा के बड़े मनोरम चित्र खींचे हैं। इनमें सबसे आगे महाकवि कालिदास हैं। मेघदूत तो वर्षा का ही काव्य है। वे सेघ के तत्वों का उल्लेख करते हुए कहते हैं- 'धूमज्योति: सलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः

आशय हैं कि धुआँ, प्रकाश, जल और वायु के सहयोग से मेघ की उत्पत्ति हुई है। उन्हें मेघ ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोई हाथी ढूसा मारने में मगन हो। कालिदास का यक्ष इसी मेघ को ताजे खिले हुए कुटल के पुष्प का अर्ध्य देकर उसका अभिनंदन करता है और काव्य के अंत में कामना करता है कि मेघ का उसकी पत्नी बिजली से कभी विरह न हो। कालिदास ने अपनी विलक्षण काब्य सामर्थ्य से वर्षा का मानवीकरण कर दिया है। वे पावस की तुला उस राजा से करते है, जो जलबिंदुओं से भरे बादलों के मतवाले हाथी पर सवार होकर बिजली की पताका फहराते हुए आ गया हो।

वर्षा के देवता इंद्र के घोड़े मेष हैं और बिजली उनका कोड़ा।
संस्कृत वांग्मय में वर्षा के साथ इन उपादानों के अनेक वर्णन हैं, लेकिन इनमें सबसे सुंदर वर्णन है शूद्रक के “मृच्छकटिकम्' नामक नाटक में, जहाँ नायिका वसंतसेना बिजली को संबोधित करते हुए कहती है कि मेघ गरजता है तो गरजे, पुरुष तो 'निष्ठुर होते ही हैं, किंतु तू तो स्त्री है, क्या तू भी सुंदर प्रेमिकाओं के दुःख को नहीं जानती। शुद्रक, गरजते मेघ, आँधी और कौंधती बिजली को आकाश की डरावनी जम्हाई कहते हैं। भर्तृहरि ने अपने नीतिशतक में मेघ की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि वे किसी से कुछ नहीं माँगते, फिर भी पूरे विश्व पर वृष्टि करते हैं, लेकिन कादंबरी में बाणभटट ने वर्षा ऋतु का भयावह वर्णन करते हुए वर्ष की बूँदों को बाणों की संज्ञा दी है।

बारहवीं सदी के महान कवि जयदेव ने अपने कालजयी ग्रंथ 'गीतगोविंद' का आरंभ ही वर्षा से किया है। इस ग्रंथ के आरंभ में ही मंगल श्लोक में वर्षा है। इस मंगल श्लोक में पूरा कृष्ण दर्शन ही समाया हुआ है। इस श्लोक में नंद राधा से कह रहे हैं कि बरसात का मौसम है, मेघों के कारण अंधकार छा गया है और इस अँधेरे को तमाल के काले वृक्ष और दूना कर रहे हैं, इसलिए इस वातावरण में यह बालक कृष्ण डर जाएगा, रास्ता भटक आएगा, अतः तुम इसे अपने घर पहुँचा आओ । बात तो सीधी है, लेकिन इसका अंतर्निहित आशय यह है कि राधा के बिना कृष्ण गतिहीन हैं। वही उनकी परम आह्लादिनी शक्ति हैं, जो उनके अस्तित्व की रचना करती हैं और इसलिए वही कृष्ण को अपने वास्तविक घर तक पहुँचाने में समर्थ है। बहुत विस्तार से हमारे प्राचीन साहित्य में वर्णित वर्षा प्रखंगों का उल्लेख किया जा सकता हैं। यह एक बानगी है।

मध्यकाल में जायसी से लेकर तमाम भक्त और रीतिकालीन कवियों ने वर्षा को खूब अपने छंदों में बाँधा। जायसी आषाढ़ को लक्ष्य कर कहते हैं--' चढ़ा अपाढ़ गगन घनगाजा, साजा बिरह दुन्द दल बाजा।"
सूर ने तो गोवर्धन धारण की लीला को गाते समय बरसात के रौद्र रूप का चित्र खींचते हुए लिखा-
घटा घनघोर हहरात, अररात, दररात, थररात ब्रज लोग डरपे
लेकिन तुलसी को वह गर्जन सुहाता है, मानस की पंक्तियाँ हैं
वरषा काल मेष तम छाए
गरजत लागत परम सुहाए
लेकिन उनके राम को अपनी प्रिया के बिना ये मेघ डराते हैं।
राम इन्हें देखकर लक्ष्मण से कहते हैं--
घन घमंड गरजत घनघोरा
प्रियाहीन डरपत मन मोरा
और कबीर की घटा गहरी है, वह पूरब से उठकर बरसती है, वे कहते हैं -
गगन घटा घहरानी साधो गगन घटा घहरानी
'पूरब दिसि से उठी बदरिया रिमझिम बरसत पानी

और मीरा को तो सबसे अधिक प्रिय है सावन की बदरिया, क्योकि इसमें होनेवाली वर्षा में उन्हें अपने हरि के आने की आहट सुनाई देती है। वे विभोर होकर कह रही हैं-
बरसै बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की
सावन में उमग्यो मेरो मनवा, भनक सुनी हरि आवन की
'रीतिकाल के अग्रगण्य कवि केशव ने बारामासा में वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए उसके घटक इन शब्दों में वर्णित किए हैं- बरषा हंस पयान बक दादुर, चातक, मोर
केतिक पुष्प कदंब जल, सौदामिनि घनघोर॥

आधुनिक काल में तो वर्षा और उससे जुड़े उपादानों के अगणित बिंब हैं। महादेवी की तो पहचान ही उनकी इन अमर पंक्तियों से है--
मै नीर भरी दुःख की बदली
उमड़ी कल थी मिट आज चली
और वे बादलों की पूरी देह का चित्र भी खींच देती हैं, इन दो शब्दों में
आँसू का तन विद्युत का मन, प्राणों में वरदानों का प्रण
धीर पदों छोड़ चले घर, दुःख पाथेय सँभाले!
कहाँ से आए बादल काले।

निराला की कविता 'बादल छाए' की पंक्तयाँ हैं--
बादल छाये,
ये मेरे अपने सपने
आँखों से निकले, मँडलाये।
बूँदें जितनी
चुनी अधखिली कलियाँ उतनी
बूँदों की लड़ियों के इतने
हार तुम्हें मैंने पहनाये !

'माखनलाल चतुवेदी ने अपने चिए-परिचित तेवर में लिखा-
बदरिया थम-थम कर झर री
सागर को मत भरे अभागिन
गागर को भर री
और नागार्जुन ने “घन कुरंग' और “मेघ बजे' से लेकर पुष्करावर्त मेघों के साथ उड़नेवाले कालिदास के मर्म को अनावृत करनेवाली "कालिदास सच-सच बतलाना' जैसी कविता लिखी और 'बादल को घिरते देखा है” जैसी वह कविता लिखी, जिसकी मनोरम पंक्तियाँ हैं-
अमल धवलगिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है
छोटे-छोटे मोती जैसे उसके शीतल तुहिन कणों को
मानसरोबर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है

वर्षा को लेकर हमारे नवीतकारों ने वीरेन्द्र मिश्र, महेश्वर तिवारी, नईम और विनोद निशम से लेकर बुद्धिनाथ मिश्र, इसाक अश्क और पूर्णिमा वर्मन सहित तमाम कवियों, कवयित्रियों ने वर्षा के अदभुत बिंब रचे। पूर्णिमा वर्मन की सांगीतिक पंकितयँ हैं-
बज रहे संतूर बूँदों के बरसती शाम हैं
गूँजता है बिजलियों में दादरे का तीव्र सप्तक
और बादल रच रहे हैं फिर मल्हारों के सुखद पद
मत मुदित नभ भी धनकता ढोल मीठी तान है
इस हवा मैं ताड़ के करतल निरंतर बज रहे हैं
आह्लादित सागरों के ज्वार संयम तज रहे है
उमगते अंकुर धरा पट खोल जग अनजान हैं

लेकिन बरसात के प्रकोप को भी कवि शब्द देता है। 'बुद्धिनाथ मिश्र के नवगीत 'बागमती' में बागमती की बाढ़ का वर्णन कुछ इस तरह है-
'दुःखनी की आँखों की कोर फिर भिगो गई।
अबकी फिर वागमती चर-आँगन धो गई॥
हमारे लोकगीतों की समृद्ध परंपरा मे वर्षा और बादलों पर ढेर गीत हैं। एक मार्मिक बुंदेली लोकगीत की पंक्तियाँ हैं--
राते से बरस गओ पानी 'काय राजा तुमने न जानी
अंटा जो भीजे अटारी भींजी भींजी है धुतिया पुरानी
वर्षाकाल में विशेष रूप से आल्हा, क0री, बिरहा और झूला देश के विधिन अंचलों में गाए जाते हैं। सावन में किशोरियों और नववधुओं के मुख से कजरी के बोल राधा रानी को आमंत्रित करने के लिए फूट पड़ते हैं-- राधे झूलन पधारो झुकि आईं बदरा

हिंदी गद्य में भी बारिश के अनेक बिंब हैं। निर्मल वर्मा के उपन्यास 'अंतिम आरण्य' में एक पात्र कहता है, “आप घबराइए नहीं...एक बार झड़ी शुरू हो जाए तो जल्दी रुकती नहीं...यहाँ हम लोग इसे हिचकी बारिश कहते है...हिचकियों में चलती है...दो दिन बंद, फिर शुरू तथा बंद, फिर शुरू।” बरिश का मतलब मानसून के आने से है। यह मानसून क्या है? मानसून शब्द अंग्रेजी शब्द मॉनसून से आया है और अंग्रेजी में यह शब्द पु्र्तगाली शब्द मान्साओ से लिया गया है, जिसका मूल उद्गम अरबी शब्द मॉसिम है। सरल शब्दों में कहें तो यह हवा के प्रवाह में आनेवाला मौसमी बदलाव है। इस मौसमी बदलाव के कारण हिंद महासागर और अरब सागर की ओर से भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर जो मौसमी हवाएँ आती हैं, उनसे भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश आदि दक्षिण एशिया के देशों मे वर्षा होती है। इस प्रकार की मौसमी वर्षा को चीन में मेडियू, कोरिया में चांग्मा और जापान मैं बाई यु कहते हैं। भारत की तरह की मनसून प्रणालियाँ पश्चिमी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका में भी है।

ऊत्तर भारत में बरसात हवाओं के रोचक नामों से पं. विद्यानिवास मिश्र ने अवगत
कराया है, ये नाम हैं, जो हवा आँधी के बाद तुरंत कुछ मेह ला दे तो वह अर्रबाऊ
कहलाती है। गाँवों में चक्रवात को बुढ़िया आँधी कहते हैं और यदि यह तूफान हलका
हुआ तो इसे घूमरी या चकरी कहा जाता है। जो हवा सावन-भादों में बड़े वेग से चलती है, उसे बहरा और झपटी भी कहते हैं। फागुन-चैत की हवा को फगुनहट कहा जाता है।
पूस में तेजी से दिशा बदलनेवाली हवा चौवाई और हिरनवाई कही जाती है। पूरब से
चलनेवाली हवा को पुरवाई कहते हैं। सूखी पुरवैया राँड और बरसानेवाली सुहगिल या
सुहागिन कही जाती है। एक हवा झब्बरा पुरवैया होती है, जो हहकारती है और यादि घर खुला हो तो वह घर भीग जाता है।

वर्षा से जुड़ा एक और महत्वपूर्ण उपदान है सतरंगी इंद्रधनुष। कालिदास ने इंद्र के
धनुषखंड को 'धतुःखंडमाखंडलस्य' कहते हुए याद किया हैं, जिसे लोक ने इंद्रघनु भी
कहा। 'बर्षा ऋतु के अभिनय की भी परंपर हमर यहाँ रही है। नाट्यशस्त्र के रचनाकार ने कदंब, निंब कुटज, तृणशदवल, बीरबहूटी और मयूरसमूह के उल्लेख इस ऋतु के अभिनय को किए जाने हेतु विधान किया है।

वर्षा को लेकर सर्वाधिक लोकप्रिय और चर्चित प्रसंग है उस घनश्याम का, जिसने द्वापर में वर्षा के देवता घनपति इंद्र के मद को चूर-चूर कर दिया। जसोदा मैया से लेकर नंद बाबा और गोप-गोपियों से लेकर पेड़-पौधे तक इंद्र की प्रलयंकारी वर्षा से भयभीत हो गए, मगर नंदलाल के ओठों की मुसकान उनके चेहरे से हटी नहीं और अंतत: इंद्र का हठ हार गया। लेकिन गोवर्धन पर्वत को उठाए गिरधारी का वह हाथ, जो इंद्र की अतुल सामर्थ्य के आगे अडिग रहा, वह हाथ राधा के एक लीला कटाक्ष को देखकर बिचलित हो गया। उन्होंने किशोरीजी को देखा तो हाथ किंचित काँपा तभी गोवर्धन जैसे ही डोला तो बृजवासी सिहर उठे और नंदलाल लजा गए। बिहारी ने इस दृश्य को कुछ यों बाँधा है--

'डिगत पानि डिगुलात गिरि लखि सब ब्रज बेहाल।
कंपि किसोरी दरासि कै, खरैं लजाने लाल॥

गोवर्धन धारण की यह लीला मध्यकाल के काव्य से लेकर मूर्तिकला में, चित्रकला में, सहित्य की विभिन्‍न विधाओं में और यों कहें उस काल की पूरी रचनात्मकता में मुखर हो उठी और इस लीला से जुड़ी तमाम कृष्ण लीलाएँ और राधा-माधव का प्रणय इस रचनात्मकता में साकार हो गया। इंद्र पराजित देवता होकर इतिहास की गलियों में खो गए और अपराजेय घनश्याम ललित कलाओं के अधिष्ठाता बन गए। हिमालय के तराई क्षेत्रों में जब श्रीकृष्ण नृत्य आरंभ होता है तो इंद्र नृत्य समाप्त हो जाता है।

वर्षा से जुड़े अनेक उत्सव मनाए जाते हैं, जिनमें कृष्ण से जुड़े रथयात्रा और वह जन्माष्टमी शामिल है, जब वर्षा से भरपूर रात के अंधकार में अँधेरे के इस आलोकपुत्र ने जन्म लिया था। इसी वर्षाकाल में सावन आता है, जिसमें झूले सजते हैं। वात्स्यायन ने इसे 'प्रेंखा विलास' कहा है और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी सूचित करते हैं कि संस्कृत के कवियों ने वर्षा वर्णन करते समय इसका दोला केलि कहते हुए इसका अवश्य वर्णन किया है। केशव के बारामासा काव्य में वर्णित वर्षा वर्णन से लेकर अभिसारिका नायिका और वर्षा केंद्रित अंकन मध्यकाल की पहाड़ी और राजस्थान की सभी प्रमुख शैलियों में बने।

मध्यकाल की पहाड़ और राजस्थान की विभिन्‍न लघुचित्र शैलियों में वर्षा में भीगते और भीगने से बचने के लिए किसी छतरी की ओट में सिमटे राधा-माधव, पवन के झकोरों और घनघोर वर्षा के बीच अपने प्रेमी से मिलने जाती कोमल, लेकिन साहसिक अभिसारिकाओं, मयूर नृत्य से विह्वल वियोगिनियों, घनघोर घटाओं से घबराई अभिसारिकाओं, मयूर नृत्य से विह्वल वियोगिनियों, घनघोर घटाओं से घबराई 'पथिकवधुओं और सावन के झूलों में अपनी सुध-बुध भूलकर दोला विलास में खोई नवयौवनाओं के मनभावन अंकन समर्पित चितेरों ने किए। राग मेघ और मेघ मल्हार के अंकन भी इन शैलियों में किए गए। वर्षाकालीन राग बड़े मशहूर और पुराने हैं। इनमें सबसे प्राचीन काफी थाट का राग मेघ मल्हार है।

'पावस के आगमन की यह ऋतु अदभुत होती है। यह आती है तो लगता है कि एक हरी कालीन धरती के आँगन में बिछने लगी, पंछियों के कलरव से वातावरण गुंजार हो उठा और बड़ी मनुहार के बाद बूँदें जब आकाश से झरीं तो लगा, जैसे सागर की तलहटी में पड़ी सीपियों के खोल को तोड़कर मोतियों ने आकाश में छलाँग लगाई और फिर एक साथ धरती की छाती पर बरसने लगे।

वर्षा का मौसम खेतों के उपवास को तोड़नेवाला अनुष्ठान है। निर्मल की फिर याद आई। उनका दोहा है--
खिली-खिली पगडांडियाँ चरवाहे की आस
खेतों के पूरे हुए अनुष्ठान उपवास

बादल वाष्प के पुंज हैं और वर्षा इन बादलों का बूँदों में बदल जाना है। वर्षा से पहले आनेवाली ग्रीष्म जल को वाष्प में बदलकर उसका अपहरण कर आकाश में ले जाती है। लेकिन यह जल कभी वाष्प होना नहीं चाहता। वह अपने परिवार से बिछुड़ना नहीं चाहता, अपना अस्तित्व नहीं बदलना चाहता। इसलिए जब बादलों को सघन होने के लिए, द्रवीभूत होने के लिए विवश होना पड़ता है, तब यह वाष्पीभूत जल फिर जलबिंदुओं में बदल जाता है। उसका द्वैत समाप्त हो जाता है। वह फिर अपने सरोवर, सरिता और सागर जैसे सहोदरों से मिलने के लिए तत्पर हो उठता है। बरसात होने लगती है। वर्षा अद्वैत से द्वैत में और फिर दवैत से अद्बैत में परिवर्तित होने का दर्शन है।

आज जब वर्षा आई है तो न तो मन उल्लास से भीग रहे हैं, न दादुर, मोर और पपीहे के कंठों से मिलन के स्वर झर रहे हैं, न कोई अभिसारिका अपने नायक से मिलने जा रही है, न ही उत्साह से कोई पायल बज रही है और न ही कहीं छतनार वृक्षों की युगल शाखाओं पर झूले सज रहे हैं। हम इन सबके बीच हैं, लेकिन अकेले हैँ। यह घरती के बदले स्वभाव का परिणाम है। इस अकेलेपन से अब भय लगता है, लेकिन आस नहीं टूटती। मन अपने श्याम से यही आग्रह करता है कि वे अब बंद न रहें, उन चंदन के दवारों को खोलें, जिनके पीछे वे छुपे हैं, ताकि यह कजरी पं. छन्नूलाल मिश्र
के कंठ से गाई जा सके-
सावन झर लागे ला धीरे-धीरे
बादल गरजै रामा बिजुरी चमकै, चूनर मोरी भीजै ला धीरे-धीरे
दादुर मोर पपीहा बोले, पायल मोरी बाजे ला धीरे-धीरे
खोलो श्याम अब चंदन किवड़िया, अकेली डर लाये ला धीरे-धीरे

१ अगस्त २०२२

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