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तुम चंदन हम पानी
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विद्यानिवास मिश्र
घर में पिताजी और दो पितृव्य पूजा-पाठ बहुत
निष्ठापूर्वक करते हैं, इसलिए तीन होरसे तो कम-से-कम
घर में हैं ही प्रतिदिन इन पर चंदन और प्राय: मलयागिरि
चंदन ही घिसा जाता है। रक्तचंदन या देवी चंदन तो
नवरात्र में या रविवार को ही इन होरसों पर घिसता है।
इसलिए चंदन से बड़ी पुरानी जान-पहचान है। पाँच-छह वर्ष
का था, मैं अपने बड़े पितृव्य के पास जाकर चुपचाप बैठ
जाता था और उनका महिम्न स्तोत्र पूर्वक चंदन घिसना
देखा करता था। पूजा उनकी घण्टों चलती थी। बीच-बीच में
किसी वस्तु की आवश्यकता हुई, तो वे देव भाषा में ही
संकेत करते और मैं ला देता। पूजा समाप्त होने पर गौरी,
गणेश, पार्थिव शिव, एकादश रुद्र और श्री दुर्गासप्तशती
तथा श्रीमद्भागवत पर चढ़ने से जो चंदन अवशिष्ट रहता
था, उसको पितृव्य मेरे भाल पर या ग्रीवा में चर्चित
करते और तब अपने भाल पर तिलक लगाते। इसके बाद प्रसाद
देते, जिसके लोभ से मैं इतनी देर तक बैठा रहता था। उस
चंदन-तिलक से भाल चर्चित करने के सुअवसर अब नहीं
मिलते, पर उसकी सुरभि मन में यत्न से सुरक्षित है।
कारण शायद यह हो कि जो उस समय मेरी जिज्ञासा के समाधान
में पितृव्य चरण ने बतलाया था कि चंदन अपने-आप घिसकर
बिना देवता को चढ़ाये अपने सिर पर लगाने से पाप होता
है, उस वाक्य के पीछे युग की शिक्षा पर संघृष्ट महान
सत्य की पावन स्मृति हो कि मनुष्य को अपने जीवन-संघर्ष
से सुरभि अर्जित करने का अधिकार तभी मिलता है, जब वह
अर्पित भाव से संघर्ष में रत होता है। या शायद चंदन के
आमोद में पार्थिव आनदं के चरम उत्कर्ष की प्राप्ति
होने के कारण जगदात्मा की उस चंदन से एकाकारता का भान
हो, जिससे प्रेरित होकर किसी संत कवि ने गाया था-
'प्रभुजी तुम चंदन हम पानी' या शायद चंदन के तिलक से
उभरे हुए उन गुरुजनों के व्यक्तित्व की मन पर गहरी छाप
हो। बहराल, भाल चंदन-चर्चित हो न हो, मन मलयज से अब भी
सुवासित है।
सोचता हूँ प्रभुजी चंदन क्यों हैं? हम जिनके प्रति
अपने को अर्पित कर रहे हैं, उन्हें अपने जीवन के साथ
घिसने में सार्थकता क्या है? मुझे कभी-कभी तब यह ध्यान
आता है कि काठ के टुकड़े की तरह सामान्य रूप से हमारे
अंतस् के कोने में पड़ा हुआ चिदंश जब तक हमारे जीवन के
साथ सम्पृक्त नहीं होता, तब तक वह निर्गुण, निरामोद और
निर्व्यक्त बना रहता है ज्यों ही वह इस पार्थिव शरीर
के शिलाखंड पर जीवन के छिड़काव से बार-बार रगड़ खाने
लगता है, त्यों ही उसका गुण, उसका आमोद और उसका चैतन्य
अभिव्यक्त हो उठते हैं। विश्वात्मा की सुषुप्त शक्ति
स्फुरित हो जाती है। पर जो अभागा आदमी इस चंदन को
घिसकर अपनी प्रेयसी का अंगराग बना डालता है, या अपने
शारीरिक ताप का उपशम-साधन मात्र समझने लगता है, उसका
जागरित, परिस्फुरित और प्रमुदित चिदंश पुन: उसकी
प्रिया के विलासश्रमबिंदुओं या उसकी ही कायिक,
मलिनताओं में घुलकर विलुप्त हो जाता है। जब विश्वात्मा
के आंनद का वह लव कायिक धरातल से सुरभिकण के रूप में
ऊपर उठता है तब चराचर विश्व में अभिव्याप्त
आनंद-पारावार से एक हो जाता है. इसलिए इस सुरभि के
अभ्युत्थान की सार्थकता इस पूर्णता की प्राप्ति में
है, पूर्णता की प्राप्ति अर्थात एकांशिता से विमुक्त।
नए मानवीय मानों पर बल देने वाले अभिनव मलयानिलों से
मैंने यह संकेत पाया है कि मनुष्य महान है, वह दूसरे
किसी महत्तर के प्रति अर्पित क्यों हो। भुजंगों से
लिपटा हुआ चंदन का वृक्ष ही स्वत: महान है, वह आस-पास
के कंकोल, निम्ब और कुटुज तक को चंदन बना डालता है।
विषयों से परिवृत मानव अपने यश से अपने परिवेश में
प्रत्येक युग में सुरभि भरता आया है, उसे अर्पित होने
की क्या आवश्यकता है। ये मलयानिल दक्षिण से नहीं
पश्चिम से आए हैं, अर्थात दाएँ से नहीं पीछे से आए
हैं। इनकी पुकार इसलिए पीछे मुड़कर सुनने की सबके मन
में उत्कंठा-सी जग जाती है। सबसे बड़ा सृष्टि में
मूर्धन्य कौन है? यह मनुष्य है। वह तब क्यों स्फीत
होकर न चले, क्यों वह विनीत होने को विवश हो?
इस प्रश्न का उत्तर देने का साहस कौन करे? मुझे तो जय
देव के प्रसिद्ध विरह-गीत की कड़ियाँ बरबस याद आ जाती
हैं-
निंदति चंदनमिंदुकिरणमनुविंदति खेदमधीरम
व्यालनिलयमिलनेनगरलमिव कलयति मलयसमीरम्
सा विरहे तव दीना
माधव मनसिजविशिखभयादिव भावनया त्वयि लीना
माधव के विरह में राधा अंग में आलिप्त चंदन को
अधिक्षिप्त करती हैं और चंद्रमा की शीतल किरणों से दुख
पाती हैं। सर्पों के वास से सम्पर्क होने के कारण
मलय-समीर को विषतुल्य अनुभव करने लगती हैं, क्योंकि ये
माधव के विरह में दीन हैं और पुष्पधंवा के बाणों से
भयभीत होकर भावना के द्वारा माधव में ही लीन होने का
उपाय रच रही हैं। तो ऐसा समय भी आता है, जब चंदन की
निंदा होती है, जब माधव, अपने प्रत्यगात्मा, अपने
पारमार्थिक रूप, अपनी विश्वप्रसृत क्षमता और अपने
आदर्श से बिछुड़ जाते हैं. मलयज का मान तभी है, जब मलयज
भारवाही पवन सागर-प्रक्षालित चरणों से हिम मण्डित
मुकुट तक उत्तर यान के लिए ललित गति से सतत प्रवहमान
है। चंद्रिका का मान तभी है, जब मन में अविकल और पूर्ण
काम चंद्रप्रकाश मान है. मनुष्य का गौरव भी तभी है तब
वह अपने आप में अधिष्ठित है। जिस क्षण वह
आत्म-विश्लिष्ट हो जाता है, उस क्षण वह अत्यंत हेय बन
जाता है। इसलिए जब वह अपने को परात्पर के लिए अर्पित
करता है, तब उस समय वह सचमुच बिकता नहीं है। उल्टे उसी
समय उसका गिरा हुआ मूल्य एकदम ऊँचे चढ़ जाता है,
क्योंकि उसके लघुतर और क्षुद्रतर अंश स्वयं उसी के
वृहत्तर और महत्तर अंशी के प्रति प्रणत होते ही उसे और
महत्तर सत्ता से एकाकार कर देते हैं। जो नर के नियत
भावी उत्कर्ष में विश्वास करेगा, वही नारायण में भी
विश्वास करेगा, क्योंकि 'नराणां नरोत्तम' और नारायण
दोनों वंदनीयता की समान कोटि में आते हैं। 'नार' का
अर्थ पुराणों और स्मृतियों में जल अर्थात आदि सृष्टि
कहा गया है, इस आदि सृष्टि में अभिव्याप्त सत्ता का
नाम ही नारायण कहा गया है। इसलिए नरों में जो नरोत्तम
होना चाहता है, उसे स्वभावत: नारायणाभिमुख होना ही
पड़ता है, क्योंकि नर का अर्थ ही है अपने में सिमटा
हुआ। जिन लोगों ने मनुष्य मात्र को नमो नारायण कहकर
प्रणाम करने की परंपरा चलायी, वे मनुष्य की अंतर्निहित
शक्ति के सबसे बड़े दृष्टा थे, वे मनुष्य के विस्तार
शील रूप को आवाहित करना जानते थे, इसलिए सामान्य से
सामान्य जन को देखकर वे यही कहते थे, नारायण को
नमस्कार है, तुम्हारे अंदर जो विश्व-भावना तत्व है,
उसे नमस्कार करता हूँ ताकि वह तत्व तुम्हारी क्षुद्रता
और संकीर्ण्ता के बहिरावण को फोड़कर बाहर आए।
शायद कुछ लोग 'प्रभुजी हम चंदन, तुम पानी' कहकर मानव
की क्षुद्रता और दुर्बलता को गौरव देना चाहें और कहें
कि जरा-सा-उलट दिया, बात तो वही है, चाहे खरबूज गिरे
छुरी पर या छुरी गिरे खरबूजे पर, खरबूजे का कटना
अवश्यम्भावी है, चाहे प्रभुजी चंदन हों और हम पानी हों
चाहे हम चंदन हों, प्रभुजी पानी हों, घिसना तो
अवश्यम्भावी है, तो उनका तर्क तो बहुत ठीक है, परंतु
चंदन तब नहीं घिसेगा तो जरा-सा हमारा पानी लगता है और
प्रभु का चंदन पसीज जाता है, पर हमारा छोटा-सा चंदन
प्रभु के अपार कृपा सिंधु में होरसा समेत बह निकलेगा,
फिर चंदन घिसने की बात भी समाप्त हो जाएगी। इस
सम्भावना को वे लोग एकदम भूल जाते हैं वस्तुत:
छोटाई-बड़ाई की यह सापेक्षता किसी बाहरी वस्तु की तुलना
में नहीं की गई है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं अपने में ही
छोटाई-बड़ाई दोनों से समवेत है और दोनों की सापेक्षता
अपने में ही वह अल्प-मात्र आयास से अनुभव कर सकता है।
मेरे बड़े दादा मिट्टी सानकर पार्थिव शिव की सुंदर
आकृति बनाते, उनके आस-पास मिट्टी का ही गौरी गणेश रचते
और चारों ओर ग्यारह रुद्रों की पंक्ति मिट्टी की ही
खड़ी करते, तदनंतर इनके ऊपर रुद्राभिषेक के मंत्रों से
जलाभिसिंचन करते और इन पर चंदन चढ़ाते। चंदन-चर्चित हो
जाने पर ही उन्हें वे अन्य गंध-मालय, धूप-दीप और
नैवेद्यादि का अधिकारी मानते। मैं समझता हूँ कि वे
अपनी पार्थिव सीमा में बँधे महादेवता को अपने पवित्रतम
जीवन से रससिक्त करने के अनंतर अपने जीवन के साथ
संघृष्ट उत्कृष्टतम महत्त्व वासना का आमोद चढ़ाकर ही
अपने महादेवता को पूर्ण प्रतिष्ठा दे पाते थे, या यों
कहें अपने में दूर फैलने की महान बनने की और निर्माण
करने की जो भी शक्ति सन्निहित है, उसको अपूर्णरूप से
जगाकर ही मनुष्य अपने को प्रकाश का अधिकारी बना सकता
है। निवेदनीय पात्र बनकर नैवेद्यका भोक्ता बना सकता
है। इज्य बनकर धूप अर्थात-आहुति का अधिकारी बना सकता
है। इसलिए पहले चंदन को, जो प्रभु का ही जड़ीभूत रूप
है, जीवन के संस्पर्श से शरीर को शिला की तरह दृढ़ आधान
बनाकर घिसो, तब तक घिसो, जब तक नख न घिस जाएँ। "चंदन
घिसत-घिसत घिस गयो नख मेरो, वासना न पूरत माँग को
सँवार।" तानसेन के इस ध्रुपद की यह पुकार है कि जब तक
वासना न पूरे तब तक नख घिस भी जाए, घिसने की प्रक्रिया
न रुके, वासना पूरी तरह से जब तक इस चंदन के साथ घिसकर
उतर न आए, तब तक वह चंदन अर्पणीय कैसे होगा! और यदि इस
पूर्ण तल्लीनता के साथ चंदन घिसते ही तो चंदन बिना
चढ़ाये ही जहाँ चढ़ाना है चढ़ जाएगा और तुम चंदन घिसते ही
रहोगे, तुम्हारे चंदन का अर्चनीय तुम्हें तुम्हारे
अनजाने में चंदन से तिलक कर जाएगा, "तुलसीदास चंदन
घिसें तिलक देत रघुवीर।" यह न हो कि चंदन तो उतारते
जाओ, पर उसी को भूल जाओ, जिसके लिए तुम चंदन उतारने
बैठे थे, जैसा कि मेरे एक संबंधी के यहाँ के एक
ब्राह्मण देवता किया करते हैं। निष्काम-भाव से वे
छटाँक-छटाँक भर चंदन उतार डालते हैं और जब चंदन उनकी
आवश्यकता से कहीं अधिक उतर जाता है, तो कई घर जाकर
अनेक पुजारियों को इस लोभ में दे आते हैं कि चंदन
घिसने में उनका जो परिश्रम बचा, उसके बदले में वे कुछ
दे दें। मैं जानता हूँ ऐसे परार्थ-घटकों का, कहीं भी
जाइए, अभाव नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में जाइए तो
कई एक ऐसे साहित्य के सेवी मिलेंगे, जो किसी-न-किसी
पुजारी के लिए रात-दिन चंदन उतारते ही रहते हैं। बदले
में कुछ दान-दक्षिणा मिल ही जाती है। राजनीति के
क्षेत्र में तो बड़ा पुजारी केवल आरती के समय ही आता
है। चंदन उतारना तो हमेशा टुकड़खोरों के कर्तव्य-वितरण
की सूची में आता है।
हाँ, केवल रक्तचंदन उतारने वाला पुजारी निष्काम भाव से
चंदन नहीं घिसता। वह तो शक्ति का पुजारी होता है।
जिसके मस्तक पर वह रक्तचंदन का तिलक लगा देगा , वह या
तो पशु होगा या फिर वीर ही होगा। पशु होगा, तो बलि
होगा और वीर होगा, तो मुक्त होगा। मलयज घिसा जाता है,
तो गंध जगती है, पर रक्त चंदन जब घिसा जाता है, तब राग
जगता है। इस राग से रंजित होकर या तो मनुष्य बिल्कुल
अध:पतित ही होता है, या फिर ऊँचे उठता है, या तो उसका
उठान निस्सीम हो जाता है। मलयज में प्रभु की कृपा अधिक
घिसती है और अपना जीवन यापन अल्पमात्र लगता है,
रक्तचंदन उतरने में देवी की प्रेरणा कम, अपने जीवन का
रस अधिक लगता है। इसलिए यह वक्रपंथगामियों की उपासना
में ही अधिक उपयोगी माना जाता है। राजमार्ग पर चलने
वाले धवल वेशधारियों के मस्तक पर यह फब ही नहीं सकता।
यह तो सुनसान अंधकारित पथों पर निर्भय विचरण करने वाले
नीलकंचुक धारियों के उज्ज्बल भाल का श्रंगार है।
काव्य में एक पथ के पांथ हैं तुलसीदास और दूसरे के
कालिदास। तुलसी शील की छँह में छँहाते चलते हैं, और
कालिदास बिजलियों की कौंध से आँखें मिलाते चलते हैं
तुलसी में मलयज की तरह ताप-निवारण की क्षमता है,
कालिदास में लोहित चंदन की तरह उन्मादन राग-विवर्धन की
शक्ति है। एक तीसरा भी पंथ है, केशर या हल्दी के रंग
में मलयज को संसक्त करके तिलक देने वालों का।
रागात्मिका भक्ति के द्वारा दक्षिण और वाम पंथ के बीच
सहज समाधान प्राप्त करने वालों का। इनके तिलक में
बंकिमा और सादगी दोनों होती है। सूरदास, हितहरिवंश,
व्यास आदि इसी पंथ के प्रणेता हैं। और एक चौथा चंदन भी
है, जिसको वैष्णव जन गोपी-चंदन कहते हैं। मेरी एक परम
वैष्णव चाची हैं, वे बतलाती हैं कि जिस सरोवर में
गोपियों ने स्नान करके अपने प्रेष्ठ भगवान का
साक्षात्कार पाया, उस सरोवर की मिट्टी ही समर्पित गोपी
के अंग से लगकर चंदन बन गई है। सम्भवत: जितने भी
दुराव, आवरण और आत्मसंकोच आदि कृपणभाव हो सकते हैं, उन
सबसे मुक्त होकर अपने को निश्शेष भाव से जो अपने
सर्वश्रष्ठ काम के लिए अर्पण करते हैं, तो मलयाचल की
तरह अपने आश्रय-मात्र को चंदन बनाने में वे समर्थ हो
ही जाते हैं हाँ, यह गोपी-चंदन बहुत ही उच्चतर भूमिका
वाले सिद्ध भक्तों के लिए ही है।
पर मैं तो यह मानता हूँ कि चंदन जो भी हो, किसी रंग
में भी सना हो, वह हमारी विश्वभावना का ही एक
शुष्कप्राय खंड है, जिसे रस-सिक्त करना हमारा सतत
कर्तव्य है। जिस किसी भी शिला का हम होरसा बनवाएँ, वह
धरती पर टिकी हो, संघर्षण में वह डगमागाने वाली न हो।
हम जो कोई भी जल सींच-सींचकर चंदन को आद्र करें, वह
शुचि हो, स्वच्छ हो और अभिमंत्रित हो। हम तिलक जो भी
लगाएँ, वह अर्पित चंदन का तिलक हो, स्वार्थ संघृष्ट न
हो. सुविस्तृत विश्व को सुरभित करने से जो बचा हो, वही
हम अपने सिर-आँखों लें, इसी में हमारी भव्य परंपरा की
अभिवृद्धि और हम सभी के अंत:करणों का सौमन्य सन्निहित
है तत्त्वत: हमीं चंदन हैं, हमीं पानी हैं। हमीं होरसा
हैं, हमी कटोरी हैं, जिसमें चंदन रखा जाता है। हमीं
अर्चनीय देवता हैं और हमीं अर्चक भक्त हैं, पर यह
हमारा विस्तार बोध भी तभी जगता है, जब हम प्रभु को
चंदन और अपने को पानी मानकर चलते हैं। उदात्त रूपों का
आकार सामने रखकर उनसे उनका सार ग्रहण करते हुए जीवन
में उतारना है, यह ध्येय सामने रखकर चलते हैं और जो भी
उदात्त गुण हम अर्जित करते हैं, उनको विश्वहित में
विनियोजित करने का संकल्प लेकर चलते हैं।
यही हमारी चंदन-चर्चा की पारमार्थिक परिभाषा है और इसी
से हमारे गंधहीन, नि:स्व, रिक्त सांस्कृतिकम्मन्य जीवन
में चंदन मांगल्य का अंग बना हुआ है। लिलार हमारा चाहे
चंदन लगाने से चर्राने लगे और चंदन लगाते ही हम अपने
को दशहरे के हाथी जैसा उपहसनीय प्राणी मानने लगें, पर
हमारे अंतर्मन में चंदन का छिड़काव अभी गीला है,
क्योंकि हमारे अक्षर अज्ञान के भीतर वह रागिनी अभी
जागती है, जिसके किवाड़ चंदन के बनते हैं, जिसकी चौकी
चंदन से गढ़ी जाती है, जिसके द्वार पर चंदन का बिरवा
रोपा जाता है, जिसके गलहार भी चंदन के ही बनते हैं और
जिस पर चंदन लिप्त हथेलियों की छाप पड़े बिना मंगल विधि
नहीं पूरी होती। वह रागिनी ही जनता-जनार्दन की
चंदन-खण्डिका है, जो एक कठोर विचार पीठिका पर बराबर
ग्राम देवता की विलीयमान आनंदाश्रु बिंदुओं से
परिषिक्त होकर घिसी जा रही है, घिसते-घिसते वह अब सूत
मात्र रह गई है। उसकी सुरभि बिखर रही है, पर देवता
नहीं उठ रहा है। कारण मैं नहीं जानता केवल इतना जानता
हूँ कि निर्ममता से इस चंदन की छोटी-सी टुकड़ी को न
घिसो। इसे सँभालकर घिसो. देवता को जगाओ, जिसके
उद्बोधन से प्रत्येक काष्ठ चंदन बन लहक उठे। जिन
भुजंगों के विष के भय से पेड़-के-पेड़ सूख-से गए, उनको
भुजदंड बजाने वाले हिमवासी शंकर का इस तप्त मिट्टी के
पिंड में आवाहन करो। वे चंदन स्वीकारें, जिससे
जन-चेतना और उमंगित होकर पसरे, चंदन की महक प्रत्येक
दिशा में फैले और चंदन का छिड़काव प्रत्येक पथ पर हो
जाय। तभी हमारा बचा-खुचा पानी सार्थक होगा और तभी चंदन
की प्रचुरता हमें इतना उदार बनने की प्रेरणा देगी कि
चंदन की कुटी छवाकर निंदक को भी अपने निकट रख सकें।
तभी चंदन-चर्चित संस्कृति का मंगलास्पद रूप अपना
नवोत्कर्ष पा सकेगा।
१ मई २०१८ |