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कड़वी
नीम के मीठे फूल
- विश्वास पाटिल
प्रकृति का आनन और आँगन पेड़ों से सजा है। पेड़ों का
उत्सव मन में एक नई चेतना जगाने वाला रसायन है। धरा का
उर्ध्वमुखी गगनस्पर्शी चैतन्य का दूसरा नाम वृक्ष है।
पेड़ ज्ञानोपासक, बोध के परिणाम के दर्शक, बड़ के पेड़
के तले ज्ञान साधना का विकास हुआ। पीपल के पेड़ के तले
मिथकों की मायावी दुनिया सजी। गूलड़ के आत्मप्रकाश में
अनेकों को गुरुसत्ता का दर्शन हुआ। नीम की छाया में
निरोगी काया का गीत लिखा गया। हरसिंगार के चरणों में
खुश्बू की बरसात हुई। गुलाब के पैरों तले की मिट्टी को
सुगंध का झोंका आ मिला। बेला के कदमों में गंधित धरणी
का भाग्य सजा। कितने प्रकार से पेड़ों ने मानवी जीवन
को भाव अर्पित किया, समृद्ध किया। मेरे मन के अतः कोश
में बूँद बूँद से एकत्रित दुग्ध तुषारों को पेड़ों की
ममता का सहज स्पर्श मिला, स्नेह मिला।
मैंने बहुत सहेजकर आँगन में नीम का पेड़ सजाया—कड़वा
नीम। कड़वे नीम के पौधे को सँभालना नहीं होता, सहेजना
नहीं होता। वह पितृविहीन संवेदना के समान धरणी के उदर
में समा जाता है। यह है धरा की स्वयंभू संतति। उसके
माध्यम से किसी कायिक यज्ञ के बिना ही पिता का सत्य
स्वतंत्र रूप से प्रकाशित होता है। पखेरुओं के
उत्सर्जन से बीज आकार ग्रहण कर लेते हैं, मिट्टी के
कोने में किसी बड़े वृक्ष की तने की आड़ में कुएँ की
जगत् पर नीम खड़ा हो जाता है। नीम के बचपन के गीत,
यौवन की मौज मस्ती, बुद्धत्व के समय में सर्जित संयत
तपस्वी भाव सब कुछ मन को आनंद देने वाले क्षणसंभार के
अंग हैं। अनेक बार मैं नीम के तले खटिया बिछाकर बैठा
रहा हूँ। जलती दुपहरी के समय धूप से मुकाबला करने के
विचार से क्या कभी आपने नीम का आसरा लिया है? तपती धूप
के अग्निस्पर्श को झेलते हुए, कोयल की कूक को तो सुनने
का कोई प्रश्न ही नहीं है। यह तो सबका अनुभव है, लेकिन
क्या जलती दुपहरिया के समय नीम के पेड़ की छाया तले
बैठ कभी आपने कौओं के कर्कश ध्वनिसमूह को सुना है?
सायंकाल के समय नीम की देह पे उतरा हुआ पखेरुओं का
समूह। उनका उच्च स्वरमंडल। रात के समय में देर तक
बोलने वाले घुग्घू का भयद स्वर। उल्टे लटके हुए
चमगादड़ों की दुनिया। नीम के आसरे आने वाले नाना
पक्षियों का समूह। तिनका तिनका चुनकर बनाए हुए कौओं के
घोसले तो मुख्यतः नीम के ही पेड़ की शोभा हैं। कोकिल
की मादा अपने अंडों को सहेजने के लिए कौओं के घरौंदों
में रखती है। वैसे तो चतुराई के लिए कौओं की जाति
मशहूर है, फिर भी उन्हें इस बात का अता पता नहीं लगता।
वह तो ‘बसंत समये प्राप्ते’ दोनों के ध्यान में आता
है। एक बार बसंत का आगमन हो जाने पर काले –कलूटे रंग
को चमचमाती त्वचा ओढ़े कौए और कोकिल स्वरों के आरोह
अवरोह आत्यंतिक स्पष्टता से उभरते हैं।
चाँदनी रात में नीम के पेड़ तले लेटे रहने की मौज को
तो कोई अनुभव किए बिना जान ही नहीं सकता है। पत्तों की
मरमर लय के साथ काया और मन मानो पालने में सोए बालक
समान आनंदमग्न हो जाते हैं। जागरण और सुषुप्ति के दो
किनारों के बीच तरंगायमान स्वप्न सृष्टि के मदिर
प्रवाह की रुपहली किनार जगमगाती रहती है। क्या यह
स्वप्न सृष्टि हमारे लिए परिचित होती है? न न, वह तो
अनेक बार अपरिचित हुआ करती है। इन स्वप्न पुष्पों के
नाजुक चुंबन जागरण प्रांत के दंश के समान अनिवार हुआ
करते हैं। इन प्रतिमा प्रतीकों के माध्यम से अनुभवों
की एक रमणीय दुनिया सज उठती है। ये अनुभव कभी बौने तो
कभी ऊँचे, कभी उजाले तो कभी मटमैले, कभी फीके तो कभी
तेज, कभी अंधकार भरे तो कभी रजतवर्णी हुआ करते हैं।
कभी इनके माध्यम से एक उल्लास जागता है तो कभी मन थक
जाता है।
सही माने में जागरण के समय के अनुभवों की दुनिया को
सतर्कता का एक सजीव संदर्भ होता है, फिर भी वे प्रमाथी
और एकाकार क्यों हो जाते हैं? उनका स्वर झंकार
विविधांगी होते हुए भी वे अंतरात्मा के कोष में गहराई
से स्थिरपद क्यों नहीं रह जाते? साक्षात् की तुलना में
मयसभी की दुनिया अधिक सत्तावान क्यों लगने लगती है?
सत्य की तुलना में असत्य क्यों भला लगने लगता है?
वास्तव की तुलना में कल्पित अनन्य क्यों लगता है? मूल
की अपेक्षा चित्र अधिक सज्जित क्यों लगता है? जागरण की
अपेक्षा सुषुप्ति काल की चेतना अधिक तन्मय क्यों लगती
है? अनुभूति विश्व के लिए अज्ञात अलीबाबा की गुफा
सुषुप्ति काल की व्यामिश्र प्रतिमाओं से सज्जित होती
है। अनाकलनीय द्रव देह-मन के रंध्र रंध्र के माध्यम से
अखंडित रूप में किस प्रकार से प्रवाहित होता रहता है।
दृश्य संदर्भों की तुलना में अदृश्य अनुभव तलैया की
जलराशि अंतर्यामी आरक्तवर्णी बन क्योंकर सजती है?
सुषुप्ति जगत् के आँगन में पता नहीं क्या क्या होता
है? निद्रा विश्व की आकाश गंगा में खोए हुए संदर्भ
मूल्य, दुर्लभ रत्नों के कोष, भूचाल में ध्वस्त नगर-
रचनाओं के अवशेष, उत्तुंग किलों के टूटे खंडहरों के
सपने, जल विहार करने वाले सागरपुत्रों की चौड़ी
छातियों के साथ जल की अथाह गहराई में संचित जलपोतों के
फड़फड़ाते शिखर ध्वज, उत्तम अन्न पदार्थों के आश्वासक
सुगंध जाल, मत्त मदिरा की साबूत सुराहियाँ, सीप के उदर
में समाई मौक्तिक माया, सरीसर्पों की भयद दुनिया, नील
रंग के तल में बसे हुए मोहक जलचरों के आक्रोश, शांति
पर रचा शांति का एक स्तर और सबके तल में एक विश्रब्ध
अवस्था का जागरण, शांति की पहचान, एकाकीपन का समय।
मैं नीम के तले खाट पर लेटा हूँ। नीम की देहकांति पर
एक नई नवेली बहू की सज्जा है। ये हैं नीम के फूल। सफेद
फूलों का स्तबक, फूलों का गुच्छ। इन नन्हें-नन्हें
नाजुक फूलों के अस्तित्व की कथा कितनी तन्मयता से हम
तक पहुँचती है! इस विषय पर विचार कर रहा हूँ। इन फूलों
में हृदयस्थ एक पीतवर्णी बूँद सजी है श्रीहरि के समान।
इन फूलों में महक भी है, भीनी भीनी महक। ये फूल जमीन
पर झरते हैं। मुझे लगता है धरा पर झरने वाले फूलों में
हरसिंगार के साथ नीम के ही फूल होंगे या और भी कोई फूल
होंगे, राम जाने। चमेली के मंडवे तले फूलों की भीनी
खुश्बू का अवतरण आनंदवर्धक होता है। चाहे गुलमोहर हो
या और कोई फूल। फूलों की बरसात तो धरती पर हुआ करती है
न। बोगनबेलिया के समान हरे, पीले, केसरवर्णी, जामुनी
पुष्पराशि का अनुभव अनेकों के अनुभव का विषय है। लेकिन
ये सारे फूल मुरझाने के बाद धरती पर गिरते हैं।
निर्माल्य गिरता है। सतेज उजले रूप में धरती की शिव
पिंडी पर बरसने वाले फूल शायद हरसिंगार और नीम के ही
हैं।
नीम के फूलों का बौर सजता है, यह कल्पना करना अत्यंत
मनोरम और आनंददायी है। रसभान भूलकर भरपूर आत्मीयता से
सराबोर पीले रंग में रंगी इन निम्बोरियों की शोभा तो
अवर्णनीय ही मानी जाएगी। संभावना की जरा सी आहट न होते
हुए भी नीम फूलते हैं। कारागार की ऊँची दीवारें
स्वाधीनता के सूर्योदय को क्या कभी रोक पाई हैं? नग्न
खड्गों के जागृत पहरे होते हुए भी कृष्ण जन्म एक
अपरिहार्यता हुआ करती है। दबाकर रखे हुए सत्य कथन किसी
भी उत्खनन के बिना काल की परिवर्तित इयत्ताओं के साथ
धरती की कब्र से उठकर खड़े हो जाते हैं। ‘मिटा देंगे,
कुचल देंगे’ इन गगनभेदी घोषणाओं के होते हुए भी अजेय,
अवध्य, अमर, सनातन तत्व प्रकट होते ही रहते हैं। इस
संदर्भ में निर्माण का यह रहस्य विध्वंस के ओठों पर
बाँसुरी बन सुरीला बन जाता है।
हवाएँ बहती रहती हैं। संवत्सर के पवन अभियान का बोध
जिस प्रकार पत्तों के माध्यम से डोलता है, वैसे ही
उसका आर्द्र भाव मन के पटल पर एक छायापट आरेखित करता
रहता है। नीम की याद हमें कब आती है? चैत सज उठता है।
निर्माण की पुकार के आरंभ में आकाश से विनाशक तत्व भरी
धूप तिरती रहती है। कटी पतंग के समान नीम का पर्ण
संभार गलने लगता है। इस गलने की एक ध्वनि संहिता होती
है। एक कंप होता है, एक दंश होता है, शरीर भर एक वेदना
जगती है। नीम के आइने में परिवर्तित ऋतुओं के आवर्तनों
को जाँचना बड़ा ही मनोवेधक होता है। पत्तों की केशर
काया सजती है। कुछ अंगूरी रंग के पत्ते झाँककर देखते
हैं, फिर श्वेत पुष्पों के स्तबक आते हैं। इन फूलों की
विलक्षण गंध होती है। रात विश्राम के लिए हौले हौले
धरा पर उतरती है। नीम के रंध्र रंध्र से चाँदनी झरती
है। आसमान उजाले का गाँव बन जाता है, एकांत क्षण जागता
है, नीम की देह में कांति का शृंगार लिपटता है, नीम के
बाहुपाश से अलग होने के लिए प्रयत्नशील चंद्रमा की
जगमगाती दुनिया देखते ही रहने योग्य बन जाती है। धवल
दुग्धधारा प्रवाहित हो उठती है। नन्हें कोमल पत्तों को
वह नहलाती है। यह स्पर्श मनः पूर्वक होता है। यह नहाना
पारदर्शी हुआ करता है।
फागुन अलविदा कहना चाहता है। चैत्र के आगमन का संकेत
जागता है। स्वप्न संवेदना के ध्वज नीम की काया पर
फड़फड़ा उठते हैं। हवा रंगीनियों भरी हो जाती है। सुबह
की रुपहली ठंड़ी बयार अपराह्न तक पीली दाहक ज्योति बन
जाती है। सायंकाल में हवाएँ जामुनी नीली बनते हुए रात
होने तक काली कंबली ओढ़ लेती हैं। यों हवा को रंगों का
परिमाण प्राप्त होता है। मुझे नहीं लगता कि किसी और
ऋतुकाल में हवाएँ यों रंगीन बनकर प्रवाहित होती हैं।
नीम के श्वेत पुष्पों के मध्य में वत्स लांछन की तरह
पीली बूँद सजी है। ये आनंद के लघु क्षणों के प्रतीक
हैं। क्षण पर अनंत की सत्ता नहीं होती, फिर भी क्षण के
माध्यम से अनंत की उपासना का आरंभ होता है। क्षण ही
मुक्ति का वरदान होता है। क्षण ही जीवन का परिचायक
होता है। क्षण ही मरण और मोक्ष के फासले को समझाते
हैं। नीम के फूल क्षण की आसक्ति की असीम तृप्ति यात्रा
का आरंभ है। नगण्य से आरंभ होने वाली अग्रगण्य
व्यवस्था है। नीम के पुष्प शेष की अशेष कथा हैं। कटुता
पर मधुरता का विजय- गीत है । विकार को अतिक्रमित करने
वाली जीवन- गंध इस माध्यम से प्रकट होती है।
नीम के फूल असाधारण हैं, ये विकार से मुक्ति की राह
दिखाएँगे। क्षुद्रता से बचाएँगे, कल्मष से मुक्ति
दिलाएँगे, वंचना से मुक्त करेंगे, मरणावस्था को अमरता
का संकेत प्रदान करेंगे। मन- दर्पण को साफ करेंगे,
नकारात्मक व्यवस्था को सकारात्मक अनुभव की दीक्षा
अर्पित करेंगे, विषधारी जीवों को मणिधर बनाएँगे।
अँधेरी रातों को प्रकाश का दान करेंगे। नीम के फूलों
की काया पर वैदिकों का सांख्य सजेगा, बौद्धों का सांखर
विकसित होगा। इसकी ओर देखकर ही तो रुद्र गान करने वाले
ऋषि ने गाया होगा-
‘क्षुल्लकोभ्यश्च नमो नमः’
नीम के फूल क्षुल्लक को अभिवादन करने की सिद्धि है।
अँधेरी सुरंगों को पार करते हुए दिखाई देने वाले उजाले
का यह भरोसा है। यही तो पूजा घर में सजी नन्हीं
दीपमालिका है। यह जीने का प्रमाण है, यह है जूझने की
प्रेरणा, यही तो है समर्पित होने का प्रमेय। नीम के
पुष्प बरस रहे हैं। मैं आत्मतृप्ति से घिरा उसके
आनंदकोष को उन्मुक्त भाव से लुटा रहा हूँ।
१ जून २०१८ |