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स्नेह
पगी पाती
- उषा वधवा
जन्म
दिन की सुबह मैंने अपना ई मेल बॉक्स खोला तो उसमें
विदेश रहती अपनी बिटिया का शुभकामनाओं वाला कार्ड
मिला, एकदम सही दिन और सही समय। मैं कुछ देर उसे देखती
रही और फिर वह कम्प्यूटर स्क्रीन से ग़ायब हो गया। मैं
अपने माऊस की एक क्लिक से उसे दुबारा स्क्रीन पर ला
सकती हूँ चाहूँ तो प्रिण्ट भी निकाल सकती हूँ पर उसमे
क्या अपनी बिटिया के हाथों का वह स्पर्श महसूस कर
पाउँगी जो उसके अब तक के भेजे कार्डों में महसूस करती
रही हूँ? उसने यह कार्ड स्वयं ही भेजा है अथवा अपनी
अति व्यस्त ज़िन्दगी में अपने सेक्रेटरी से ही भेजने को
कह दिया है यह भी निश्चित नहीं। कार्ड के नीचे उसके
स्वयं के हस्ताक्षर तक तो हैं नहीं।
कुछ समय पूर्व तक वह मेरे लिए उपयुक्त कार्ड ढूँढने के
लिए पूरा बाज़ार खंगाल डालती थी। छपी इबारत में जो कमी
रह जाती वह स्वयं जोड़कर पूरा करती। इस तरह से वह पूरी
तरह से भरा कार्ड कभी मुझे जन्म दिन से दो एक दिन पहले
मिल जाता कभी जन्म दिन बीत जाने के पश्चात। पर वह सब
कार्ड आज तक मेरी अलमारी में सहेज कर रखे हुए हैं–
किसी अनमोल धरोहर की तरह।
आजकल वह पत्र भी ई मेल से ही भेजती है। कोई काटा पीटी
नहीं हिज्जों की कोई गलती नहीं। एकदम साफ सुथरे। उसे
पत्र लिखने का हमेशा से ही शौक रहा है। लम्बे लम्बे
रोचक ढंग से लिखे पत्र। उसके पत्र इतने लम्बे हुआ करते
कि ऊपर नीचे हाशिये पर कुछ भी जगह न छूटती। नाम लिखने
तक की भी नहीं। पर इससे क्या? मैं तो दूर से देखकर ही
उसका पत्र पहचान सकती हूँ। कभी कभी उसके पत्रों पर
चॉकलेट टॉफी या मक्खन के चिकने निशान होते। मैं कल्पना
करती कि पत्र लिखने के लिए उसने अपनी नन्हीं बिटिया को
इन्हीं चीज़ों से फुसलाया होगा और बिटिया ने धैर्य चुक
जाने पर अपनी माँ का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश में
काग़ज़ को ही पकड़ लिया होगा। मैं उन निशानों पर अपना हाथ
स्नेह युक्त फिरा कर उन गदबदे हाथों का स्पर्श महसूस
करने का प्रयत्न करती।
हाथ से लिखे उन पत्रों में लिखने वाले हाथों का स्पर्श
हुआ करता था, मिठास और गर्माहट होती थी। बहुत कुछ
अनलिखा भी बाँच लिया जाता। हाईटैक जीवन शैली के युग
में स्क्रीन पर उभर आए इन शब्दों की चाहे तो मेल पढ़ लो
चाहे समाचार पत्र। दोनों ही सिर्फ संदेशवाहक होते हैं
बस।
हमारे बचपन में डाकिए का आगमन दिन भर का सबसे अहम्
हिस्सा होता था। दिन में तीन बार आता था डाकिया। डाक
डालते समय अपने साईकल की घंटी बजाता। बाहर से लौटा हर
सदस्य एक बार लैटर बॉक्स में झाँक अवश्य लेता। पिताजी
दफ्तर से लौटते तो उनका पहला प्रश्न यही होता ‘कोई
चिट्टी आई क्या?’ सबसे अधिक प्रतीक्षा तो विवाहिता बहन
के अपनी ससुराल से लिखे पत्रों की रहती। परिवार का हर
व्यक्ति उन्हें चाव से पढ़ता। माँ स्वयं न पढ़ पाने के
कारण हम सब भाई बहनों से एक एक बार उस पत्र को अवश्य
पढ़वा कर सुन लेतीं। पर इसके बावजूद उनकी क्षुधा शांत न
होती। किसी न किसी के हाथ थमा फिर से पढ़ने को कहतीं।
‘ठीक से पढ़ तो ज़रा उसके पप्पू को दस्त हो रहे थे अब
कैसा है वह?’ अथवा ‘फिर से तो पढ़ ज़रा- उसकी ननद आई हुई
थी जच्चगी के लिए उसके बारे में कुछ नहीं लिखा क्या?’
वह स्नेह पूर्वक पत्र पर हाथ फिराती मानो दूर बैठी
अपनी बिटिया को ही दुलार रही हो। और फिर या तो आँचल
में बाँध लेती अथवा एक बार फिर से फुरसत से सुनने के
लिए रसोई की अलमारी में सहेज कर रख देतीं।
पढ़ी लिखी न होने पर भी दुनियादारी निभाने की एवं अपने
लम्बे चौढ़े परिवार की कुशलक्षेम लेते रहने की पूरी
ज़िम्मदारी माँ की ही थी। अतः वह हम बहनों में से किसी
एक को बिठा कर दूर दराज़ रहते परिजनों को पत्र
लिखवातीं। उन प्रत्रों का हर वाक्य ‘माता जी ने कहा
है’ अथवा ‘माता जी ने पूछा है’ से ही प्रारम्भ होता।
अनेक बातें लिखवा कर कटवा देतीं वह। ‘रहने दे तेरी बुआ
बहुत गुस्से वाली है नाराज़ हो गई तो?’ या फिर ‘कहीं
बिटिया की सास न पढ़ ले काट दे इसे।’
पर बहुत खास ही होते थे कुछ पत्र। गुलाबी नीले लिफाफों
वाले यह पत्र कभी इत्र से महकते आते कभी गुलाब की सूखी
पंखुड़ियों से। इन पत्रों की जो सबसे बड़ी फितरत होती थी
वह यह कि ऐसे पत्र प्रायः ही तो लिफाफे पर लिखे नाम
वाले मालिक के हाथ में न पड़ किसी अन्य के हाथ ही लगा
करते थे और तब शुरू होता छेड़ छाड़ मिन्नत और घूस का
सिलसिला। कुलफी खिलाने से लेकर पिक्चर दिखाने तक का।
माँग पूरी तरह से स्वीकार करा के ही मिलता वह पत्र।
क्यों न हो प्रीत परिणय के खेल का सुन्दरतम हिस्सा
होते हैं मुहब्बत की स्याही में कलम डुबो कर लिखे गये
यह पत्र। पिक्चरों में दिखाया जाता है न कि ख़त पढ़ते
हुए लिखने वाले का चित्र ही उभर आता है पन्नों पर।
आवाज़ तक सुनाई देने लगती है। सच में ऐसा ही होता है रे
कभी स्नेह पगा पत्र लिख-पढ़ के तो देखो।
प्यार कभी सामाजिकता के नियमों तले रौंद दिया जाता कभी
परिणय सूत्र में बँध वास्तविकता के हथौड़ों से स्वयं ही
पिट जाता पर गुलाबी रिबनों से बँधे यह पत्र वर्षों
अलमारी या बक्से के कोने में सहेजे पड़े रहते। आज के
प्रेमी द्वय वंचित ही रह गये इस थाती से। दिन भर
मोबाइल से बतियाते रहें चाहे ऐस ऐम ऐस से जुड़े रहें मन
को द्रव्य बना काग़ज़ पर उड़ेल दिये इन पत्रों की बात तो
निराली ही होती है। नहीं जान पायेंगे कि दो चार ऐसे
पत्र उम्र के किसी भी पड़ाव पर विशाद में डूबे मन को
उबारने में सहायक हो सकते हैं।
प्राचीन काल में चाहे डाकिये का काम कबूतरों ने बहुत
मुस्तैदी से निभाया हो पर पत्र आने की सूचना देने का
कर्तव्य कौवे का था। सुबह सवेरे ही मुंडेर पर बैठ वह
चिट्टी आने का ऐलान कर जाता। जिस किसी प्रिया को पत्र
मिलने की उम्मीद होती वह अवश्य बाहर निकल उसे खाने को
कुछ डाल जाती। मारवाड़ी प्रियतमा बहुत बड़े दिलवाली होती
है शायद ‘सोने में चोंच मड़ाऊँ म्हारे कागा, जद म्हारे
पिऊजी घर आये’ वह वचन देती। पता नहीं वह प्रिय के आने
पर उस कागा को कैसे ढूँढती होगी जिसने उसे सर्वप्रथम
प्रिय आगमन की सूचना दी थी? मुझे तो सब कौवे एक से ही
लगते हैं। या वह आसपास के सभी कौवों की चोंचें सोने
में मड़ा देती थी क्या?
प्रेमी का पत्र पढ़ कर सुनाने वाले डाकिए के संग
प्रेमिका का इश्क हो जाना एक मज़ाक हो सकता है पर सच तो
यह है कि गाँवों में पत्र बाँचने का काम प्रायः ही
डाकिया कर दिया करता था और ज़रूरत पड़ने पर उत्तर भी वही
लिख देता।
दादा जी की शिक्षा विभाजन पूर्व पाकिस्तान में हुई थी
अतः वह उर्दू में ही पत्राचार कर पाते जो पिताजी के
दफतर से लौटने के पश्चात ही पढ़ा जा सकता था वह भी उनके
दो चार उपक्रम करने के पश्चात ही। पर यों ही नहीं कहा
गया है कि ‘खत का मजबून जान लेते हैं लिफाफा देखकर।’
पत्र पढ़ने के पूर्व ही काफी कुछ समझ लेते हम।‘केसर
छिड़का पत्र आया है तो चाची के बेटा हुआ है वही तो पूरे
दिनों से थी आजकल’ बेटी होने की सूचना अलबता साधारण
पत्र द्वारा दी जाती। ‘कोना कटा कार्ड आया है तो
मृत्यु समाचार है और मासी के श्वसुर ही तो मृत्यु शैया
पर थे बहुत दिनो से।’ अतः ख़बर वहीं से आई होगी। वैसे
ही यदि होस्टल में रह कर पढ़ते बेटे का पत्र आया है तो
अवश्य उसे पैसों की ज़रूरत आन पड़ी है क्यों कि यों तो
उसे अपनी अति व्यस्तता के कारण पत्र लिखने का समय ही
नहीं मिलता।
किसी को तत्काल सूचना देनी होती तो तार भेजा जाता। तार
मिलने का कोई निश्चित समय नहीं होता था। देर रात को भी
तारवाला आपकी साँकल खटका तार पहुँचा जाता। पर जब तक
उसके द्वारा आगे बढ़ाये काग़ज़ पर हस्ताक्षर कर आप तार
लें तब तक दिल इतनी ज़ोर से धड़कता रहता कि लिफाफा खोलना
कठिन। घर के अन्य सदस्य भी घेरे खड़े रहते। सब के चेहरे
पर एक ही भाव ‘क्या हुआ?’ क्योंकि ऐसे तार प्रायः दुखद
समाचार के वाहक ही होते थे।
हाँ विवाह, पुत्र जन्म इत्यादि के मुबारकी तार भी हुआ
करते पर वह तो ऐसे अवसरों पर ही आते। रंग बिरंगे फूलों
वाले इन तारों के नम्बर निर्धारित थे अतः अवसर विशेष
पर आए उन सब की इबारत एक सी रहती बस प्रेषक का नाम ही
मायने रखता। जब से सुना है कि तार भेजने का महकमा समेट
दिया गया है लगता है जैसे अपनी कोई बहुत प्रिय वस्तु
ही खो गई है।
टेलीफोन ने पहले तो तार का स्थान पकड़ा। आप के घर नहीं
है तो आस पड़ोस में तो होगा। अतः आवश्यक सूचना वहीं दे
दी जाती। धीरे धीरे टेलीफोन की संख्या और प्रभाव बढ़ने
लगा। हर घर में टेलीफोन है, उठाओ और बात कर लो। उत्तर
भी संग ही मिल जाता है। यह संदेह नहीं रहता कि तार
अथवा पत्र पहुँचा कि नहीं। मोबाइल ने आकर तो क्रान्ति
ही कर डाली है। विश्व के किसी भी कोने में रहते स्वजन
से चौबीसों घण्टे जुड़े हैं आप। टेलीफोन और मोबाइल का
ही साम्राज्य है अब। अँगूठा छाप अम्मा हाथ में टेलीफोन
नम्बर का पुर्ज़ा पकड़े आप से ‘फून’ मिला कर देने की
याचना करती है पत्र पढ़वाने लिखवाने की नहीं। बड़े शहर
जा बसे अपने बेटे के मोबाइल पर वह सीधे ही बात कर सकती
है अब।
बात तो हो जाती है पर वह तसल्ली नहीं हो पाती जो लम्बा
सा पत्र पढ़ कर हुआ करती थी। विदेश रहते बेटे का फोन
आता है ‘माँ कैसी हो?’ “सब ठीक है बेटा और तुम?” कुशल
क्षेम हुई। खबरों का आदान प्रदान हुआ और बस टेलीफोन रख
देने के बाद याद आता है ‘फलाँ बात पूछना तो भूल ही गई,
यह बात बतानी तो रह ही गई।’ अनेक बातें घुमड़ रही थीं
मन में पर कहना चाह कर भी कहाँ कह पाई कितना कुछ तो रह
गया भीतर ही। चलते मीटर के आगे कोई कितना बतिया
पायेगा? कहाँ बता पाई कि कल पप्पू की बारात कितनी
धूमधाम से निकली थी। कितनी ही तो आतिशबाज़ी हुई थी।
कैसे कैसे तो पकवान बने थे। नहीं बता पाई कि मन कल से
बहुत उदास है अकारण ही।
पर आज की पीढी की दौड़ती भागती ज़िन्दगी में पत्रों का
कोई स्थान नहीं। तार अथवा तार वाले देखे ही नहीं
उन्होंने। एक दो पीढ़ी बाद के बच्चे ‘डाकिया डाक लाया’
गीत सुन माँ बाप से पूछेंगे-‘माँ डाकिया कौन होता है?’
सच है प्रगति जब तेज़ रफ्तार से आगे बढ़ती है तो बहुत
कुछ किनारों पर ढकेलती चलती है। ऐसे ही किसी किनारे पर
छूट गई है इस बार स्नेह पगी पाती भी।
१ जनवरी २०१६ |