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देवदारु
- हजारी प्रसाद द्विवेदी
निष्टजनानुमोदित
'सज्जा' को 'छाया' नाम दिया था वह जरूर इस पेड़ की
शोभा से प्रभावित हुआ था। पेड़ क्या है, किसी सुलझे
हुए कवि के चित्त का मूर्तिमान छंद है - धरती के
आकर्षण को अभिभूत करके लहरदार वितानों की श्रंखला को
सावधानी से सँभालता हुआ, विपुल-व्योम की ओर एकाग्रीभूत
मनोहर छंद। कैसी शान है, गुरुत्वाकर्षण के जड़-वेग को
अभिभूत करने की कैसी स्पर्धा है - प्राण के आवेग की
कैसी उल्लासकार अभिव्यक्ति है! देवताओं का दुलारा पेड़
नहीं तो क्या है। क्या यों ही समाधि लगाने के लिए
महादेव ने 'देवदारुद्रुम-वेदिका' को ही पसंद किया था?
कुछ बात होनी चाहिए। कोई नहीं बता सकता कि महादेव
समाधि लगाकर क्या पाना चाहते थे। उन्हें कमी किस बात
की थी? कालिदास ने बताया है कि उन्होंने इस
प्रयोजनातीत (निष्प्रयोजन तो कैसे कहें) समाधि के लिए
देवदारु-द्रुम के नीचे वेदिका बनायी थी। शायद इसलिए कि
देवदारु भी अर्थातीत छंद है - प्राणों का उल्लासनर्तन,
जड़शक्ति के द्वारा आकर्षण को पराभूत करके
विपुल-व्योम-मंडल में विहार करने का अर्थातीत आनंद!
कहते हैं, शिव ने जब उल्लासतिरेक में उद्दाम-नर्तन
किया था तो उनके शिष्य तंडु मुनि ने उसे याद कर लिया
था। उन्होंने जिस नृत्य का प्रवर्तन किया उसे 'तांडव'
कहा जाता है। 'तांडव' अर्थात् 'तंडु' मुनि द्वारा
प्रवर्तित 'रस भाव-विवर्जित' नृत्य! रस भी अर्थ है,
भाव भी अर्थ है, परंतु तांडव ऐसा नाच है, जिसमें रस भी
नहीं। भाव भी नहीं नाचनेवाले का कोई उद्देश्य नही,
मतलब नहीं, 'अर्थ' नहीं। केवल जड़ता द्वारा आकर्षण को
छिन्न करके एकमात्र चैतन्य की अनुभूति का उल्लास! यह
'एकमात्र' लक्ष्य ही उसमें छंद भरता है, इसी से उसमें
ताल पर नियंत्रण बना रहता है। एकाग्रीभाव छंद की आत्मा
है। अगर यह न होता तो शिव का तांडव बेमेल धमाचौकड़ी और
लस्टम-पस्टम उछल-कूद के सिवा और कुछ न होता। तांडव की
महिमा आनंदोमुखी एकाग्रता में है। समाधि भी एकाग्रता
चाहती है। ध्यान-धारणा, और समाधि की एकाग्रता से ही
'योग' सिद्ध होता है। बाह्य-प्रकृति द्वारा आकर्षण को
छिन्न करने का उल्लास तांडव है। अंतःप्रकृति के असंयत
फिंकाव को नियंत्रित करने के उल्लास का नाम ही समाधि
है। देवदारु वृक्ष पहले प्रकार के उल्लास को सूचित
करता है, शिव का निर्वात 'निष्कम्पइवप्रदीप:' रूप
दूसरे प्रकार के, दोनों में एक ही छंद है। शिव ने
समझ-बूझकर ही देवदारुद्रुम की वेदिका को पसंद किया
होगा। देवदारु के नीचे समाधिस्थ महादेव! तुक मिल रही
है, शानदार तुक! कौन कहता है कि कालिदास ने तुक मिलाने
की परवाह नहीं की। मेरा मन कहता है कि कालिदास भी
तुकाराम थे, तुक मिलाने के मौजी वागविलासी! मगर ये
तुकें भोंडे किस्म की नहीं थीं, यह तो निश्चित है।
'झगरे-रगरे बगरे-डगरे' ये भी कोई तुक है। मगर सारी
दुनिया इसी तुक को तुक कहती आ रही है। कुछ-न-कुछ तो
होगा ही। सारी दुनिया पागल नहीं हो सकती है। लेकिन यह
भी सही है कि 'बात-बात' में तुक मिला करती है। अगर ऐसा
ना होता तो 'बेतुकी' हाँकनेवालों को बुरा न माना जाता
जो लोग 'तुक की बात करते हैं' वे शब्द की ध्वनियों की
तुक तो नहीं मिलाते। फिर तुक है क्या?
तुक वह है जो देवदारु की गगनचुंबी शिखा और समाधिस्थ
महादेव की निवात-निष्कंप प्रदीप की ऊर्ध्वगामिनी
ज्योति में है! अर्थात् तुक अर्थ में रहती है
ध्वनि-साम्य के तुक में कुछ न कुछ अर्थचारुता होनी
चाहिए। ध्वनिसाम्य साधन है, तुक अर्थ का धर्म होना
चाहिए। मगर कहना खतरे से खाली नहीं है। किसी नये आलोचक
ने अर्थ को लय की वकालत की है। मैं अच्छी तरह जानता
हूँ कि सारी पंडित-मंडली उस गरीब पर बरस पड़ी है। अगर
तुक अर्थ में मिल सकती है तो लय क्यों नहीं मिल सकती।
मेरे अंतर्यामी कहते हैं कि तुक तो अर्थ में रहती है
लय नहीं रहती। बहुत से लोग अंतर की आवाज को आँख मूँदकर
मान लेते हैं। मैं नहीं मान पाता। आँखें खोलने पर भी
यदि अंतर की आवाज ठीक जँचे तो मान लेना चाहिए। क्योंकि
उस अवस्था में भीतर और बाहर की तुक मिल जाती है। शिवजी
ने अंतर और बाहर की तुक मिलाने के लिए ही तो देवदारु
को चुना था। अंतर्यामी भी बहिर्यामी के साथ ताल मिलाते
रहें यही उचित है। महादेव ने आँखें मूँद ली थीं,
देवदारु ने खोल रखी थीं। महादेव ने भी जब आँखेँ खोल
दीं तो तुक बिगड़ गई, छंदोभंग हो गया, त्रैलोक्य को
मदविह्वल करने वाला देवता भस्म हो गया। उसका फूलों का
तूणीर जल गया, रत्नजटित धनुष टूट गया। सब गड़बड़ हो
गया। सोचता हूँ, उस समय देवदारु की क्या हालत हुई
होगी। क्या इतनी ही फक्कड़ाना मस्ती से झूम रहा होगा?
क्या ऐसा ही बेलौस खड़ा होगा? शायद हाँ, क्योंकि शिव
की समाधि टूटी थी, देवदारु का तांडव-रस-भावविवर्जित
महानृत्य - नहीं टूटा था। देवता की तुलना में भी
निर्विकार रहा - काठ बना हुआ। कौन जाने इसी कहानी को
सुनकर किसी ने इसे 'देवता का काठ' (देव-दारु) नाम दे
दिया हो। फक्कड़ हो तो अपने लिए हो बाबा, मनुष्य के
लिए तो निरकाठ हो, दया नहीं, माया नहीं, आसक्ति नहीं,
निरे काठ! ऐसों से तो देवता ही भला! कहीं न कहीं उसमें
दिल तो है। मगर यह भी कैसे कहा जाए! देवता के दिल होता
तो लाज-शरम भी होती, लाज-शरम होती तो आँखों की पलकें
भी झँपती। लेकिन देवता है कि ताकता रहता है, पलक उसकी
झँपती ही नहीं! एक क्षण के लिए उसने आँखें मूँदी कि
अनर्थ हुआ! बहुत सावधान, सदा जाग्रत्।
अलबत्त, महादेव इन देवताओं से भिन्न थे। जहाँ आँखें
झुकनी चाहियें, वहाँ उनकी आँखें झुकती थीं, जहाँ टकटकी
बँधनी चाहिए वहाँ बँध जाती थी। पार्वती जब वसनापुष्पों
के आभरण से सजी हुई संचारिणी पल्लविनी लता की भाँति
उनके सामने आयी, तो उनके (पार्वती) बिंबफल के समान
अधरोष्ठ वाले मोहक मुख पर उनकी टकटकी बँध गई। फिर उनकी
आँखें झुकीं भी। वे मनुष्य के समान विकारग्रस्त हुए।
वे देवताओं में मनुष्य थे -महादेव! उस दिन देवदारु चूक
गया। वह सब देखता रहा। इतना बड़ा अनर्थ हो गया और आपने
अवधूतपन का बाना नहीं छोड़ा। वह महावृक्ष नहीं बन सका
'देवरदारु' बन गया। आँखें खोले रहना भी कोई तुक की बात
है! महावृक्ष वनस्पति होते हैं, जिनमें भावुकता तो
नहीं पर सार्थकता होती है, जो फूल तो नहीं देते पर फल
देते हैं - 'अपुष्पा फलवंतो ये'। देवदारु चूक गया,
'वनस्पति' की मर्यादा से वंचित रह गया। तो क्या हुआ?
यह सब मनुष्य की आत्म-केंद्रित दृष्टि का प्रसाद है।
देवदारु को इससे क्या लेना-देना! वह तो जैसा है वैसा
बना हुआ है। तुम उसे वनस्पति कहो या देवता का काठ कहो।
तुम्हें अच्छा लगता है तो अच्छा नाम देते हो, बुरा
लगता है तो बुरा नाम देते हो। नाम में क्या धरा है।
मुमकिन है, इसका पुराना नाम देवतरु हो। देवता का तरु
नहीं, देवता भी और तरु भी। देव होकर वह छंद है, तरु
होकर अर्थ है। छंद, समष्टिव्यापिनी जीवन-गति के
समानांतर चलने वाले व्यष्टिगत-प्राणवेग का नाम है,
अर्थ, समाज स्वीकृत-प्राप्त संकेत हुआ करता है।
जहाँ बैठकर लिख रहा हूँ वहाँ ऊपर और नीचे पर्वत पृष्ठ
पर देवदारु वृक्षों की सोपान-परंपरा-सी दीख रही है।
कैसी मोहक शोभा है। वृक्ष और भी हैं, लोगों ने नाम भी
बताए हैं, पर सब छिप गये हैं। दिखते हैं, आकाश-चुंबी
देवदारु ऐसा लगता है कि ऊपर वाले देवदारु वृक्षों की
फुनगी पर से लुढ़का दिया जाऊँ तो फुनगियों पर ही लोटता
हुआ हजारों फीट नीचे तक जा सकता हूँ अनायास! पर ऐसा
लगता ही भर हैं। भगवान न करे कोई सचमुच लुढ़का दे।
हड्डी पसली चूर हो जाएगी। जो कुछ लगता है वह सचमुच हो
जाए तो अनर्थ हो जाए। लगने में बहुत-सी बातें लगती
हैं। इसलिए कहता हूँ कि लगना अर्थ नहीं होता, कई बार
अनर्थ होता है। अर्थ वास्तविकता है, वास्तविक जगत् की
सच्चाई है, लगता है सो मन का विकल्प है, अंतर्जगत् की
स्पृहा मात्र है, छंद है। दोनों में कहीं ताल-तुक मिल
जाते तो काम की बात होती। नहीं मिलते, यह खेद की बाद
है। ताल-तुक मिलना अर्थ है, न मिलना अनर्थ है।
प्रत्येक व्यक्ति के मन में कुछ न कुछ लगता ही रहता
है। मजेदार बात यह है कि व्यक्ति का लगना अलग-अलग होता
है। 'अ-लग' अर्थात् जो न लगे। लगता है पर नहीं लगता,
यह भी कोई तुक की बात हुई? तुक की बात तब होती जब लगना
'अलग' लगना न होता। इसीलिए कहता हूँ कि तुक अर्थ में
होती है। जिसने इस पेड़ का नाम देवदारु दिया था उसे
क्या लगा था, कह नहीं सकता। बात औरों को भी कमोबेग लगी
होगी, तभी सबने मान लिया। जो सबको लगे सो अर्थ, एक को
लगे, बाकी को न लगे तो अनर्थ! अलगाव को ही पुराने
आचारों ने पृथकत्व-बुद्धि का नाम दिया है। और भी समझा
कर कहा है कि यह अलगाव 'मैं पन' है, 'अहंकार' है। इधर
कवि लोग हैं उन्हें कि हमेशा कुछ देखकर कुछ न कुछ लगता
ही रहता है। खुले-आम कहते हैं कि मुझे ऐसा लग रहा है।
दुनिया की ओर भी देखो। वह तुम्हें पागल कहेगा। पागल को
भी तो कुछ-न-कुछ लगता रहता है। मगर दुनिया को देखता
हूँ तो हैरत में पड़ जाता हूँ। कवि को जो कुछ लगता है
उसकी वाह-वाह करके उसे सिर उठा लेती है। कुछ समझ में
नहीं आता। 'हाँ ही बौरी बिरह बस के बौरौ सब गाँव'।
बिहारी अच्छे खासे कवि माने जाते हैं। उन्हीं की बात
याद आ गई थी। बात इतनी ही सी थी कि कोई विरह की मारी
स्त्री कह रही है कि मैं ही पागल हो गयी हूँ या सारा
गाँव ही पागल हो गया है? क्या समझ कर ये लोग चाँद को
ठंडी किरनवाला कहते हैं - 'कहाँ जाने ये कहत है ससिहिं
सीत-कर नाँव' विरह की मारी महिला का दिमाग बिगड़ गया
है, जो सबको ठंडा लग रहा है, उसे वह दाहक मान रही है।
पागलपन ही तो है। मगर जब बिहारी ने उसे दोहा छंद में
बाँध दिया हो बात बिल्कुल बदल गयी। हाय-हाय, कैसी
विरह-वेदना है कि उस सुकुमार बालिका को चाँद भी गरम
मालूम पड़ता है। हृदय के भीतर जलनेवाली विरहाग्नि ने
उसे किसी काम का नहीं छोड़ा। हे भगवान्, तुम ऐसा कुछ
नहीं कर सकते कि सारे गाँव के समान इस बालिका को भी
चंद्रमा उतना ही शीतल लगे जितना औरों को लगता है!
अर्थात् विरहिणी की दारुण-व्यथा अब सब के चित्त की
सामान्य अनुभूति के साथ ताल मिलाकर चलने लगी। पागल का
'लगना' एक का लगना होता है, कवि का लगना सबको लगने
लगता है। बात उलट कर कही जाय तो इस प्रकार होगी -
जिसका लगना सबको लगे वह कवि है, जिसका लगना सिर्फ उसे
ही लगे, औरों को नहीं, वह पागल। लगने-लगने में भी भेद
है। जो सबको लगे, वह अर्थ है, जो एक को ही लगे, वह
अनर्थ है। अर्थ सामाजिक होता है।
मगर देवदारु नाम केवल नाम ही नहीं है। मैंने अपने गाँव
के एक महान भूत-भगावन ओझा को देवदारु की लकड़ी से भूत
भगाते देखा है। आजकल के शिक्षित लोग भूत में विश्वास
नहीं करते। वे भूत को मन का वहम मानते हैं। पर गाँव
में भूत लगते मैंने देखा है। भूत भागते भी देखा है।
भूत भी लगता है। सब लगालगी वहम ही होती होगी। आँखों को
भी। बिहारी जानते थे। कह गये हैं - 'लगालगी लोचन करें,
नाहक मन बँध जाय।' नाहक अर्थात् बेमतलब, निरर्थक।
हमारे गाँव में एक पंडितजी थे। अपने को महाविद्वान्
मानते थे। विद्या उनके मुँह से फचाफच निकला करती थी।
शास्त्रार्थ में वे बड़े-बड़े दिग्गजों को हरा देते
थे। विद्या के जोर से नहीं, फचफचाहट के आघात से।
प्रतिपक्षी मुँह पोंछता हुआ भागता था। अगर कुछ कैड़े
का हुआ तो दैहिक-बल से जय-पराजय का निश्चय होता था।
मेरे सामने ही एक बार खासी गुत्थमगुत्थी हो गई।
गाँव-जवार के लोगों को पंडितजी की विद्या पर भरोसा
नहीं था पर उनकी फचाफच वाणी और - भीमकाया पर विश्वास
अवश्य था। शास्त्रार्थ में पंडितजी कभी हारे नहीं। कम
लोग जानते हैं कि शास्त्रार्थ में कोई हारता नहीं,
हराया जाता है! पंडितजी के यजमान जमके उनके पीछे लाठी
लेकर खड़े हो जाते थे तो उनकी विजय निश्चित हो जाती
थी। पंडितजी केवल बड़े दिग्गज विद्वानों को ही नहीं,
आसपास के भूतों को भी पराजित करने में अपना
प्रतिद्वंद्वी नहीं मानते थे। गायत्री का मंत्र जो
उनके मुँह से आल्हा जैसा सुनाई देता था और देवदारु की
लकड़ी उनके अस्त्र थे। एक बार वे बगीचे से गुजर रहे
थे, घोर अंधकार, भयंकर सुनसान! क्या देखते हैं कि आगे
दनादन ढेले गिर रहे हैं। पंडितजी का अनुभवी मन तुरंत
ताड़ गया कि कुछ दाल में काला है। मनुष्य इतनी तेजी से
ढेले नहीं फेंक सकता। पंडितजी डरनेवाले नहीं थे, पीछे
मुड़कर ललकारा - अरे केवन है। केवन अर्थात् कौन। पीछे
मुड़कट्टा, घोड़े पर चढ़ा चला आ रहा था,
टप्प-टप्प-टप्प! (यहाँ पाठकों की जानकारी के लिए बता
दूँ कि एक बार मैंने अपने गाँव में भूतों के जाति-भेद
की जाँच की थी। कुल तेईस किस्म के हैं। मुड़कट्टा एक
भूत ही है। मूँड़ नहीं है। छाती पर दो आँखें मशाल की
तरह जलती रहती हैं। घोड़े पर चढ़कर चलता है) सो,
पंडितजी से उलझने की हिमाकत की इस मुड़कट्टे ने।
डरनेवाला कोई और होता है। पंडितजी ने जूता उतार दिया,
वह गायत्री मंत्र के पाठ में बाधक था। झमाझम गायत्री
पढ़ने लगे। देवदारु की लकड़ी मुट्ठी में थी। दे रद्दे
पर रद्दा। विचारा मुड़कट्टा त्राहि-त्राहि कर उठा।
अबकी बार छोड़ दो पंडितजी, पहचान नहीं सका था। अब फिर
यह गलती नहीं होगी। आज मैं तुम्हारा गुलाम हुआ।
पंडितजी का ब्राह्मण मन पसीज गया। नहीं तो यह सारे
गाँव-जवार का कंटक समाप्त हो गया होता। मैंने यह कहानी
स्वयं पंडितजी के मुँह से सुनी थी। अविश्वास करने का
कोई उपाय नहीं था - फर्स्टहैंड इन्फर्मेशन था। उस दिन
मेरे बालचित्त पर देवदारु की धाक जम गयी थी! अब भी
क्या दूर हुई है।
आज देवदारु के जंगल में बैठा हूँ। लाख-लाख मुड़कट्टों
को गुलाम बना सकता हूँ। भूतों में जैसे मुड़कट्टे होते
हैं, आदमियों में भी कुछ होते हैं। मस्तक नाम की चीज
उनके पास होती नहीं, मस्तक ही नहीं तो मस्तिष्क कहाँ,
लता ही कट गई तो फूल की संभावना ही कहाँ रही - 'लतायां
पूर्वलूनायां प्रसूनस्योद्भव: कृत:।' क्या इन
मुड़कट्टों को देवदारु की लकड़ी से पराभूत किया सकता
है? करने का प्रयत्न ही कर रहा हूँ। पंडितजी के पास तो
फचफची गायत्री थी, वह कहाँ पाऊँ?
मन की सारी भ्रांति को दूर करनेवाले देवदारु तुम्हें
देखकर मन श्रद्धा से जो भर जाता है, वह अकारण नहीं है।
तुम भूत भगवान हो, तुम वहम-मिटावन हो, तुम भ्रांति
नसावन हो। तुम्हें दीर्घकाल से जानता था पर पहचानता
नहीं था, अब पहचान भी रहा हूँ। तुम देवता के दुलारे हो
महादेव के प्यारे हो, तुम धन्य हो।
जानता हूँ कि बुद्धिमान लोग कहेंगे कि यह महज गप्प है।
यह भी जानता हूँ कि कदाचित् अंतिम विश्लेषण पर पंडितजी
की कहानी 'पत्ता खड़का, बंदा भड़का' से अधिक वजनदार न
साबित हो। संभावना तो यही तक है कि पत्ता भी न खड़का
हो और पंडितजी ने आद्योपांत पूरी कहानी बना ली हो। मगर
बलिहारी है इस सर्जन शक्ति की। क्या शानदार कहानी रची
है पंडितजी ने! आदिकाल से मनुष्य गप्प रचता आ रहा है,
अब भी रचे जा रहा है। आजकल हमलोग ऐतिहासिक युग में
जीने का दावा करते हैं। पुराना मनुष्य 'मिथकीय युग में
रहता था, जहाँ वह भाषा के माध्यम को अपूर्ण समझता था,
वहाँ मिथकीय तत्वों से काम लेता था। मिथक गप्पें -
भाषा की अपूर्णता को भरने का प्रयास है। आज भी क्या हम
मिथकीय तत्वों से प्रभावित नहीं हैं? भाषा बुरी तरह
अर्थ से बँधी हुई है। उसमें स्वच्छंद संचार की शक्ति
क्षीण से क्षीणतर होती जा रही है। मिथक स्वच्छंद विचरण
करता है। आश्चर्य होता है भाषा का मिथक अभिव्यक्त करता
है भाषातीत को। मिथकीय आवरणों को हटाकर उसे
तथ्यानुयायी अर्थ देने वाले लोग मनोवैज्ञानिक कहलाते
हैं, आवरणों की सार्वभौम रचनात्मकता को पहचानने वाले
कला समीक्षक कहलाते हैं। दोनों को भाषा का सहारा लेना
पड़ता है, दोनों धोखा खाते हैं। भूत तो सरसों में है।
जो सत्य है, वह सर्जनाशक्ति के हिरण्य-पात्र में मुँह
बंद किए ढँका ही रह जाता है। एक पर एक गप्पों की परतें
जमती जा रही हैं। सारी चमक सीपी को चमक में चाँदनी
देखने की तरह मन का अभ्यासमात्र है। गप्प कहाँ नहीं
हैं, क्या नहीं है? मगर छोड़िए भी।
देवदारु भी सब एक से नहीं होते। मेरे बिलकुल पास में
जो है, वह जरठ भी है, खूसट भी। जरा उसके नीचे की ओर जो
है, वह सनकी-सा लगता है। एक मोटे राम खड्ड के एक
प्रांत पर उगे हैं, आधे जमीन में, आधे अधर में, आधा
हिस्सा ठूँठ, आधा जगर-मगर, सारे कुनबे के पाधा जान
पड़ते हैं। एक अल्हड़ किशोर है, सदा हँसता-सा, कवि
जैसा लगता है। जी करता है इसे प्यार किया जाए। सदा से
ऐसा होता आया है। हर देवदारु का अपना व्यक्तित्व होता
है। एक इतना कमनीय था कि बैल की ध्वजा वाले महादेव ने
उसे अपना बेटा बना लिया था। पार्वती माता की छाती से
दूध ढरक पड़ा था। कालिदास खुद कह गये हैं। मगर कुछ लोग
ऐसे होते हैं कि उन्हें 'सबै धान बाईस पसेरी' दिखते
हैं। वे लोग सबको एक ही जैसा देखते हैं। उनके लिए वह
खूसट, वह पाधा, वह सूम, वह सनकी, वह झबरैला, वह
चपरगेंगा, वह गदरौना, वह खिटखिटा, वह झक्की, वह
झुमरैला, वह धोकरा, वह नटखटा, वह चुनमुन, वह बाँकुरा,
वह चौरंगी सब समान हैं। महादेवजी के प्यारे बेटे के
कमनीय व्यक्तित्व को भी सब नहीं पहचान सकते थे। एक
मदमत्त गजराज आये और अपने गंडस्थल की खाज मिटाने के
लिए उसी पर पिल पड़े। जड़ें हिल गईं, पत्ते झड़ गये,
खाल छूट गयी ओर आप खाज मिटाते रहे। महादेव जी को बड़ा
क्रोध आया। आना ही था। उन्होंने उसकी रक्षा के लिए एक
सिंह तैनात कर दिया। पर मेरे सामने जो अल्हड़ कवि है,
इसका क्या होगा? वह तो कहिए कि इधर हाथी आते ही नहीं।
फिर भी डर तो लगता ही है। हाथी न सही गधों और खच्चरों
से तो शहर भरा पड़ा है। लेकिन मैं जिधर हूँ उधर वे भी
कम ही आते हैं। गाहे-बगाहे आ भी जाते हैं पर उन्हें
देवदारु की तरफ देखने की फुरसत नहीं होती। उन्हें
देखने को और बहुत-सी चीजें मिल जाती हैं। बहरहाल कोई
खास चिंता की बात नहीं। इस देश के लोग पीढ़ियों से
सिर्फ जाति देखते आ रहे हैं, व्यक्तित्व देखने की
उन्हें न आदत है न परवाह है। संत लोग चिल्लाकर थक गये
कि 'मोल करो तलवार को, पड़ा रहन दो म्यान' के मोल भाव
से बाजार गर्म। व्यक्तित्व को यहाँ पूछता ही कौन है।
अर्थमात्र जाति है, छंदमात्र व्यक्ति है। अर्थ आसानी
से पहचाना जा सकता है क्योंकि वह धरती पर चलता है, छंद
आसानी से पकड़ में नहीं आता, वह आसमान में उड़ा करता
है।
बात यह है कि जब में कहता हूँ कि देवदारु सुंदर है तो
सुननेवाले सुंदर का एक सामान्य अर्थ ही लेते हैं। हजार
तरह के सुंदर पदार्थों में रहने वाला एक सामान्य
सौंदर्य-धर्म। सौंदर्य का कौन-सा विशिष्ट रूप मेरे
हृदय में उल्लास तरंगित कर रहा है यह बात बस, मैं ही
जानता हूँ। अगर मुझमें इस बात को कहने की शक्ति नहीं
हुई तो यह गूँगे का गुड़ बनी रह जाएगी। जिसमें शक्ति
होती है, वह कवि कहलाता है। अनेक प्रकार के कौशल से वह
इस बात को कहने का प्रयत्न करता है फिर भी शब्दों का
सहारा तो उसे लेना ही पड़ता है, शब्द सदा सामान्य अर्थ
को प्रकट करते हैं। कवि विशिष्ट अर्थ देना चाहता है।
वह छंदों के सहारे, उपमान योजना के बल पर, ध्वनि-साम्य
के द्वारा विशिष्ट अर्थ को समझ पाते हैं? बिल्कुल
नहीं। कोई बड़भागी होता है जिसके दिल की धड़कन कवि के
दिल की धड़कन के साथ ताल मिला पाती है। कवि के हृदय के
साथ मिल जाय उसे 'सहृदय' कहा जाता है। देवदारु की
ऊर्ध्वा शिखा-शोभा मेरे हृदय में एक विशेष उल्लास पैदा
करती है। मेरे पास कवि कौशल नाम की चीज नहीं है। मैं
अपने विशिष्ट अनुभवों का साधारणीकरण नहीं कर पा रहा
हूँ। कवि होता तो कर लेता। उपमानों की छटा खड़ी कर
देता, सहृदय के चित्त को अपने चित्त के ताल पर नृत्य
कराने योग्य छंद ढूँढ़ लेता, ध्वनियों की नियतसंचारी
समता का ऐसा समाँ बाँधता कि सुननेवाले का मन-मयूर की
भाँति नाच उठता, पर मेरे भाग्य में यह कुछ भी नहीं।
केवल आँख फाड़कर देखता हूँ, पाषाण की कठोर छाती भेदकर
देवदारु न जाने किस पाताल से अपना रस खींच रहा है और
कम ह्रस्व छाया का वितान तानता हुआ उर्ध्वलोक की ओर
किसी अज्ञात निर्देशक के तर्जनी-संकेत की भाँति कुछ
दिखा रहा है। यह इतनी उँगलियाँ क्या यों ही उठी हुई
हैं? कुछ बात है, अवश्य कुछ रहस्य है। भीतर ही भीतर
अनुभव कर रहा हूँ पर बता सकूँ ऐसी भाषा कहाँ है। हाय,
मैं असमर्थ हूँ, मूक हूँ! मीमांसकों का एक संप्रदाय
मानता था कि शब्द का अर्थ वहाँ तक जाता है जहाँ तक
वक्ता ले जाता है वक्ता की इच्छा को विवक्षा कहते हैं।
ये लोग कहते हैं कि जब जैमिनि मुनि ने कहा था कि
'यत्परः शब्दः स शब्दार्थः' तो उनका यही मतलब था। मेरा
रोम-रोम अनुभव कर रहा है कि मुनि की बात का ऐसा अर्थ
नहीं होना चाहिए। कहाँ विवक्षा इतनी दूर तक ले जाती
है? 'सुंदर शब्द का प्रयोग करके मैं जो कहना चाहता हूँ
वह कहाँ प्रकट हो पा रहा है। कहना तो बहुत चाहता हूँ,
कोई समझे भी तो सही, शब्द उतना ही बता पाता है जितना
लोग समझते हैं। वक्ता जो कहना चाहता है उतना कहाँ बता
पाता है वह? दुनिया में कवियों की जो कदर है वह इसीलिए
है कि वे जो अनुभव करते हैं उसे श्रोता के चित्त में
प्रविष्ट भी करा सकते हैं। प्रेषणधर्मिता उनके कहे का
एक प्रधान गुण है। मैं नहीं पहुँचा पाता हूँ उस अर्थ
को जिसे मेरा मन अनुभव कर रहा है। क्योंकि मैं शब्दों
और छंदों का ऐसा अस्त्र नहीं बना पाता हूँ, जो मेरी
अनुभूतियों को लेकर तीर की तरह श्रोता के हृदय में चुभ
जाये। अर्थ निश्चय ही वक्ता की इच्छा के अधीन नहीं है।
वह सामाजिक स्वीकृति चाहता है। उसमें लय नहीं, संगीत
नहीं, गति नहीं, वह स्थिर है। शब्दों के गतिशील आवेग
से वह हिलता है, भरभराता है, नये-नये परिवेश में सजता
है और तब कहीं नया पैदा करता है। अर्थ में लय नहीं
होती, वह लय के सहारे नया अर्थ देता है।
लेकिन देवदारु है शानदार वृक्ष। हवा के झोंकों से जब
हिलता है तो इसका अभिजात्य झूम उठता है कालिदास ने इसी
हिमालय के उस भाग की, जहाँ से भागीरथी के निर्झर झरते
रहते हैं, शीतल-मंद-सुगंध पवन की चर्चा की थी,
उन्होंने शीतलता को भागीरथी के निर्झर सीकरों की देन
कहा, सुगंधि को आसपास के वृक्षों के पुष्पों के संपर्क
की बदौलत घोषित किया, लेकिन मंदी के लिए 'मुहुःकंपित
देवदारु' को उत्तरदायी ठहराया। देवदारु के बारंबार
कंपित होते रहने में एक प्रकार की मस्ती अवश्य है।
युग-युगांतर की संचित अनुभूति ने ही मानो यही मस्ती
प्रदान की है। जमाना बदलता रहा है, अनेक वृक्षों और
लताओं ने वातावरण से समझौता किया है, कितने ही मैदान
में जा बसे हैं और खासी प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है,
लेकिन देवदारु है कि नीचे नहीं उतरा, समझौते के रास्ते
नहीं गया और उसने अपनी खानदानी चाल नहीं छोड़ी। झूमता
है तो ऐसा मुस्कुराता हुआ मानो कह रहा हो मैं सब जानता
हूँ, सब समझता हूँ। तुम्हारे करिश्में मुझे मालूम हैं,
मुझसे तुम क्या छिपा सकते हो - 'मों ते दुरैहौ कहा
सजनी निहुरे-निहुरे कहुँ ऊँट की चोरी!' हजारों वर्ष के
उतार-चढ़ाव का ऐसा निर्मम साथी दुर्लभ है।
१५ मई २०१६ |