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पेड़ से
पीले पत्ते झर रहे हैं
- संतोष आनंद
फरवरी में अपने यहाँ बसन्त पंचमी आती है और होली
फरवरी-मार्च में कभी भी आ जाती है। गुलाल उड़ने के पहले
अपने यहाँ धूल उड़ती है और हवा चलती है जो पेड़ों पर से
पीले पत्तों को झकझोरकर उड़ा ले जाती है। हवा से पत्तों
के गिरने और उड़कर जाने के साथ मुझे हमेशा ही कबीर का
पद याद आता रहा है-जैसे पात गिरे तरुवर से मिलना बहुत
दहेला, ना जाने कब कहाँ मिलेगा लग्या पवन का रेला, उड़
जाएगा हंस अकेला। पेड़ से पीले पत्ते झर रहे हैं और
झरकर पत्तों के ढेर में मिल गए हैं।
उनके पीछे पवन का रेला लग गया है और पत्ते उसमें उड़कर
जाने कहाँ-कहाँ जाने लगे हैं। उनमें से एक जो पत्ता
आपने देख रखा था जो आपका मित्र, साथी, संगी या आप खुद
हों-वह भी ढेर में मिल गया है। अब उसे पाना या उससे
मिलना असम्भव है। पवन उसे जाने कहाँ उड़ा कर ले गई है।
और आपको वह मिल भी जाए तो उसे आप पहचान तो नहीं सकते
हैं।
बसन्त अपने यहाँ पत्तों के झरने, हवा में धूल और पीले
पत्तों के उड़ने और फिर नई कोंपलों के फूटने की ऋतु है।
झरते पीले पत्तों को देखकर कविता करने वाला, कोई भी
उदास हो जाता है। झरते पीले पत्ते आपको जाने-अनजाने
अपने उन दिनों की याद दिलाते हैं जो एक ऋतुचक्र में
पड़कर पीले पड़े और झर गए। वे दिन अब कभी लौटकर नहीं आने
हैं। नई कोपलें फूटेंगी और आप वृक्ष की तरह फिर
हरे-भरे होकर छा जाएँगे। जीवन की इस अनिवार्यता को आप
चाहे जितनी अच्छी तरह समझते हों फिर भी पीले पत्तों को
झरते देखकर उदास तो होंगे ही। भले ही कोई छायावादी
कविता न लिखे, भले ही कोई रोमांटिक कविता आपको याद न
आए लेकिन पीले पत्तों के झरने और आपके एक और साल बीत
जाने में एक ऐसी जैविक साम्यता है जो पेड़ से आपका
तादात्म्य कर देती है।
आप पेड़ हो जाते हैं और झरते हुए पत्ते आपके बीते हुए
दिन। यह अहसास कि पीला पड़कर झरा हुआ पत्ता फिर से टहनी
पर नहीं लगाया जा सकता आपके मन को बताता हो कि हवा
चलती है, धूल उड़ती है, पीले पत्ते उड़ते हैं और उदासी
एक गंध की तरह, एक धीमे स्वर की तरह आप पर मँडराती
रहती है। तभी होली आने को होती है। विंध्य के जंगलों
में ढाक के पत्ते उड़ गए हैं और जब उन पर कोई पत्ता
नहीं बचता तब उन पर गुच्छे के गुच्छे गुँथे हुए से फूल
खिल आते हैं-टेसू के फूल। इन्हीं फूलों का रंग बनता है
जिनसे पहले होली खेली जाती थी। अब तो विंध्य में भी
टेसू के पेड़ उतने नहीं रह गए हैं। शहरों में तो वे
कहीं दिखते ही नहीं।
होली के आते-आते गेहूँ की फसल भी पक जाती है। अपने
देसी गेहूँ और देसी खेती में-गेहूँ की फसल होली तक आ
जाती है। गेहूँ के खेत पीले पड़ने लगते हैं- दूर-दूर तक
लहराता हुआ सुनहरी रंग। फसल का पकना, पत्तों के झरने
जैसा उदास भले ही न करता हो फिर भी उसका पीलापन कहीं न
कहीं जताता तो है कि कुछ पक गया है। यानी अब उसके काटे
जाने या तोड़े जाने का समय आ गया है। यह पकना और काटे
या तोड़े जाना एक तरह से उमर पूरी होने और उसके बाद की
स्थिति में अपने जाने का स्मरण कराता है।
हमारे यहाँ गेहूँ के पूरे के पूरे पौधे उखाड़ लाते हैं
और होली की आँच में उनकी बालियाँ सेकी जाती हैं। मालवी
में उन्हें उम्बी कहते हैं। होली की आँच में नई फसल की
उंबियाँ सेंकना-नई फसल के आने की सूचना देना है। जो पक
गया है उसे सिंकना है। पतझर और पकने का यह वातावरण अगर
आपको उदास करता है तो इसलिए नहीं कि आप में विरक्ति और
संन्यास का भाव आ गया है। यह उदासी आदिम और शाश्वत है।
यह दुख के किसी स्थूल कारण से नहीं है। यह अभाव की जिस
अनुभूति के कारण आती है वह शाश्वत और सार्वकालिक है।
जीवन के चक्र के चलने के कारण आती है। पत्ते झरते हैं
तभी तो टहनियों में नई कोंपलें उगती हैं। पीले पत्तों
का झरना और नई चमकीली कोंपलों का उगना जीवन की
अनिवार्य प्रक्रिया है। धूल उड़ती है उसके बाद हम गुलाल
उड़ाते हैं।
मैंने कहा, होली में जब से मुझे याद है-यह उदासी मुझे
घेर लेती है। और मैंने कहा कि यह विरक्ति नहीं है, यह
संन्यास नहीं है। जब जवान हो रहा था और बौराए आम के
पेड़ के नीचे कविताएँ पढ़ता था तब समझ नहीं आता था कि यह
उदासी क्या है और क्यों है। थोड़ा बड़ा होने पर लगगे लगा
कि यह शायद स्वभाव की रूमानियत है जो मुझे उमंग और
उल्लास के रंगभरे वातावरण में उदास कर देती है। यह
शायद अन्दर की ऐसी कोई कमी है जो बाहर के हर्षोल्लास
में मुझे विलीन नहीं हो जाने देती। अपनी अक्षमता का यह
अहसास मुझे होली में परेशान भी करता था और कभी मैं
अपने को बख्तरबन्द में चुप करके ऐसे जुनून के साथ होली
खेलने लगता जैसे अपने से भाग रहा हूँ या बदला ले रहा
हूँ।
लेकिन जब थोड़ी और समझ बढ़ी तो मुझे लगा कि झरते हुए
पत्तों को देखकर उदास होना और नई कोंपलों को हिरसकर
देखना और इस कारण होली में उदास हो जाना कोई निजी कमी
या अपने कारणों से नहीं है। क्योंकि ऐसा दुख, अभाव या
कुंठा नहीं है जिसे मैं होली पर उदासी से जोड़ सकूँ।
बल्कि अपनी उदासी मन में रखकर होली के हुड़दंग और रंग
खेलने में शामिल होता ही हूँ। फिर यह उदासी क्यों है?
शायद इसलिए कि पेड़ के पत्तों को पीले होते और झरते हुए
देखकर अपने बीतने, अपने व्यतीत होने की अनुभूति होती
है। पेड़ नई कोंपलों में फिर जवान हो सकता है। मैं नहीं
हो सकता। मेरे अन्दर जो बूढ़ा होकर झर गया उसे छोड़कर
मैं फिर कायाकल्प नहीं कर सकता। मैं फिर जवान नहीं हो
सकता। मैं प्रकृति का अंग हूँ लेकिन पेड़ जितना प्रकृति
के पास है उतना मैं नहीं हूँ इसलिए पतझर के बाद वह
बसन्त में फिर हरा-भरा हो सकता है। मेरे जो दिन झर गए
सो झर गए।
प्रकृति के चक्र को चलते देखकर अपने फिर से और पूरी
तरह नए न हो पाने का अहसास कमोवेश हम सबको होता है। हम
सभी कभी न कभी एक ठंडी साँस खींचकर उदासी में छोड़ देते
हैं। बड़े और बूढ़े होने की प्रक्रिया को हम कहीं रोक
नहीं सकते। हम ऐसा नहीं कर सकते कि एक दिन निश्चय करें
और जिस तरह साँप अपनी कैंचुल छोड़कर फिर नया हो जाता है
वैसा ही अपना कायाकल्प कर लें। मनुष्य स्मृतियों से
मुक्त नहीं हो सकता। मनुष्य अपने अतीत से आजाद नहीं हो
सकता। हमारा अतीत हमें घेरकर, पकड़कर रखता है। वह हमारे
चोले को हमारे कन्धों पर भारी कर देता है। पेड़ की खाल
की तरह हम इस चोले को नहीं बदल सकते। पीले पत्तों की
तरह हमारी स्मृतियाँ झर नहीं सकतीं। नई कोंपलों की तरह
हम नई सुबहें अपनी उम्र की डाल पर उगा नहीं सकते। यह
मनुष्य होने की अक्षमता है। यह मनुष्य का जीवन जीने की
उदासी है यह जीवन की चिर नवयौवना के साथ खुलकर होली न
खेल पाने का अहसास है। हम सब अनन्त में रहना और नवयौवन
चाहते हैं लेकिन जीवन हमें हमेशा जवान नहीं रहने देता।
इस अपरिहार्यता से कोई छुटकारा नहीं है।
होली में जिस तीव्रता के साथ इस अपरिहार्यता का अहसास
होता है, उतना और किसी त्योहार पर नहीं होता। लेकिन इस
अहसास के साथ होली खेलना हुड़दंग नहीं रहने देता।
महानगरों में तो नहीं निकलती लेकिन पहले छोटे शहरों,
कस्बों और गाँवों में गेर निकला करती थी। लोग इकट्ठे
होकर घर-घर जाते थे। जिनके घर ब्याह-शादी हुई हो या
कोई खुशी का अवसर रहा हो वहाँ गेर में शामिल लोग खुशी
मनाते थे। लेकिन जहाँ गमी हुई हो, कोई नहीं रहा हो
वहाँ भी लोग जाते और उन लोगों को गुलाल लगाते जो दुख
में हैं, उन्हें गेर में साथ कर लिया जाता ताकि वे
अकेले घर में छूट ना जाएँ। सुख-दुख सबमें हम साथ। और
होली में उन सभी को आना है जिनके यहाँ दुख हो या सुख।
जीवन भी आपको जीना है दुख हो या सुख। तो फिर उदासी के
साथ भी गुलाल उड़ाकर और रंग डालकर ही क्यों न जिया जाए।
२ मार्च २०१५ |