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ललित निबंध

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जा मरने से जग डरे
- सीताराम गुप्त



अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है जब मैंने दूसरी मंजिल पर स्थित अपने फ्लैट के कमरे की बाहर सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की से बाहर झाँककर देखा था। कितना घिनौना लग रहा था पास में खड़ा करंज का पेड़ जिसकी शाखाएँ खिड़की को छूने का प्रयास कर रही थीं । बदरंग-बदरंग-सी निर्जीव पत्तियाँ जैसे पेड़ की टहनियों पर न लगी होकर उसकी शाखाओं में अटकी हुई हों। धूल-धूसरित बेजान पत्तियाँ। मृत मनुजदेह सी अकड़ी पत्तियाँ, शाखाएँ और तना। एक वितृष्णा-सी ही हुई थी पूरे पेड़ को देखकर।

और आज चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि को अर्थात् नये विक्रम संवत्सर के पहले ही दिन मैं हैरान रह गया उसी पेड़ को निहार कर। कहाँ गई वे सब सूखी-सूखी-सी मुर्झाई पत्तियाँ और वो उलझी-पुलझी-सी टहनियाँ? पेड़ पर एक भी पुरानी बासी पत्ती का नामो-निशान नहीं। और वो रूखी-सूखी-सी टहनियाँ तो देखो किस शान से इतरा रहीं हैं! इनका इतराना सही-सही दीख भी नहीं रहा है क्योंकि सभी टहनियाँ नई-नई कोपलों और पत्तियों से लद गई हैं, उनसे ढँक गई हैं। मानो नग्नता को परिधान मिल गया हो और वो भी बेशकीमती। कुछ दिन पहले मैं जिस वृक्ष को देखने का साहस नहीं कर पा रहा था आज उस पर से नजरें नहीं उठा पा रहा हूँ। एक सद्ययौवना अपूर्व सुंदरी को देखने जैसा अहसास और साथ ही इस बात की किंचित लज्जा भी कि कोई देखेगा तो क्या सोचेगा मेरे बारे में?

क्योंकर हुआ ये कमाल? कैसे हुआ ये परिवर्तन? क्या नये वर्ष का करिश्मा है ये अथवा इस करिश्मे के कारण ही सार्थकता है नववर्ष की? जो भी हो बहुत चित्ताकर्षक है ये परिवर्तन लेकिन ये मामूली परिवर्तन कहाँ? ये कोई मात्र बाह्य परिवर्तन थोड़े ही है ये तो रूपांतरण है समग्र रूपांतरण। टोटल ट्रांसफॉर्मेशन। ये बदलाव बाहर से नहीं हुआ अपितु कहीं बहुत गहरे अंदर से हुआ है। यह रूपांतरण इंटीरियर डेकोरेटन की तरह खिड़कियों के पर्दे और फर्नीचर बदलने जैसा बदलाव नहीं है। ये तो पुनर्जन्म है, पुनरूत्थान है। भौतिक नहीं आध्यात्मिक बदलाव है।

पेड़ ने तो अपनी काया का लिबास बदल डाला है। सभी पर्णपाती पेड़ साल में एक बार अपनी काया का लिबास बदल डालते हैं। जो साल में एक बार नहीं बदलते वो हर पल बदलते रहते हैं। एक पत्ता जरा-सा मलिन, जरा-सा रुक्ष हुआ नहीं उसे तुरंत टपका दिया और उसकी जगह लहलहाने लगे कई-कई कोमल पात और हर पत्ता इस अंदाज में के पेड़ के हर आयाम में निरंतर वृद्धि हो, प्रगति हो। तभी तो सदाबहार कहलाने के अधिकारी हैं। सारे साल हरे-भरे, प्राण और चेतना से ओतप्रोत।

लेकिन मैं क्या करूँ? कैसे बदलूँ? कैसे अपना रूपांतरण करूँ? हाँ याद आया ! हमारे यहाँ तो न जाने कितनी ऐसी औषधियाँ और दूसरे उपाय हैं जो हमारा कायाकल्प करने में सक्षम हैं। इन उपचारों से त्वचा की हर पुरानी कोशिका का स्थान नई कोशिका ले लेती है। त्वचा नर्म-मुलायम और चमकदार होकर साँस लेती-सी प्रतीत होती है। और भी न जाने कितने उपाय हैं, कितनी विधियाँ हैं जिनसे शरीर आकर्षक बन जाता है। पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए उपचारों और सामग्री की कमी नहीं। विभिन्न लेपों, रागों अथवा चूर्णों और अन्य प्रसाधनों की क्या कोई कमी है? ऊपर से एक से बढ़कर एक वस्त्राभूषणादि लेकिन फिर भी नरम-नाजुम पत्रावली तथा कोमल-कोमल-सी कोंपालों का-सा आकर्षण कहाँ?

उम्र को छिपाने का भी प्रबंध लिया। चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी पर लाखों खर्च कर डाले। श्वेत शुभ्र अलकावली को कृष्ण वर्ण में रंग डाला तथा केशों की सज्जा भी बड़े मनोयोग से चेहरे के अनुरूप करवा ली लेकिन ये क्या कि अब भी कोई विशेष आकर्षण हममें दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है? कबीर कहते है, ‘केसौ। कहा बिगाड़िया जो मूंडै सौ बार, मन को काहे न मूंडिये जामै विषय बिकार।’

जी हाँ मित्रों ! हमने जो उपचार किया था वो बाह्य उपचार था आंतरिक नहीं। पात्र को केवल बाहर से चमका दिया। अंदर से नहीं धोया। धोया क्या उसके अंदर पड़ी गंदगी को भी नहीं निकाल बाहर फेंका तभी तो दुर्गन्ध आ रही है। जन्म से लेकर आज तक न ही कभी खाली किया और न ही धोया इस मन रूपी पात्र को। कम से कम साल में एक बार तो खाली करना और धोना चाहिए। साल में नहीं तो जीवन में एक बार ही सही मन रूपी पात्र को पूर्ण रूपेण खालीकर धो-माँज लेना चाहिए। क्या पता कब कोई उत्कृष्ट विचार रूपी उपयोगी द्रव्य हाथ लग जाए और उसे सहेजने की जरूरत आन पड़े। उपयुक्त पात्र ही नहीं होगा तो कैसे उपयोगी द्रव्य को संग्रह कर पाएँगे?

पर क्या इतना सरल है मन रूपी पात्र को धोना और उपयुक्त बनाना? इस पेड़ को ही देखो साल में एक बार ही सही लेकिन पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाता है ये। सचमुच अपने आप को समाप्त कर देता है पेड़। ठूँठ बन जाता है। निर्जीव-सा हो जाता है। लगता है बस गया। न कोई पत्ता, न कोई फूल, न कोई फल। भला ऐसा भी पेड़ होता है कहीं? कुछ भी नहीं छिपाता। नग्न हो जाता है दिगंबर साधु-सा। विषय-वासना सब तिरोहित हो जाते हैं। एकबारगी अपने को मिटा ही तो देता है, ईसा की तरह सूली पर चढ़ जाता है पेड़ और इसी मिटने के फलस्वरूप होता है पेड़ का पुनर्जन्म अथवा कायाकल्प या रूपांतरण ठीक ईसा के पुनरुत्थान की तरह।

परिवर्तन के कारण फिर से उपयोगी बन जाता है पेड़। पत्तियों से ही नहीं फूलों और फलों से लद जाता है पेड़। पंछी इसका आश्रय लेने को पुनः तत्पर हो उठते हैं। मैं भी तो निहारता हूँ पुनः-पुनः। जब भी नजर पड़ती है देखता ही रह जाता हूँ। इसके आकर्षण में बँध जाता हूँ। इसकी उपयोगिता के आगे नतशिर हो जाता हूँ। लेकिन जिसने मिटना नहीं सीखा वह नयापन कहाँ से लाएगा? वह आकर्षण कैसे उत्पन्न करेगा? उपयोगी कैसे बनेगा?

बाइबल में कहा गया है कि जब तक मनुष्य दोबारा जन्म नहीं लेगा तब तक वह ईश्वर का साम्राज्य नहीं देख पाएगा। अर्थात् पुनर्जनम ही स्वर्ग का द्वार है। स्वर्ग के लिए अनिवार्य है मृत्यु। लेकिन किसकी मृत्यु? इस भौतिक शरीर की मृत्यु अथवा अंदर के विकारों की मृत्यु? जी हाँ, मृत्यु से तात्पर्य है नकारात्मक विचारों की मृत्यु द्वारा विकारों की समाप्ति। यही वास्तविक मृत्यु है जिसका हम साक्षात्कार कर सकते हैं। लेकिन मरना स्वयं पड़ता है। जीते जी अपना श्राद्ध स्वयं होना होता है। यही मोक्ष है और यही पुनर्जन्म है अथवा नवोन्मेष है। कहा गया है न- मिटा दे अपनी हस्ती को अगर कुछ मर्तबा चाहे, कि दाना खाक में मिलकर गुलो-गुलजार होता है।

लेकिन मिटना? मरना सचमुच बहुत कठिन होता है। ठीक उस आदमी के प्रयास की तरह जो आत्महत्या के इरादे से झील के किनारे तो खड़ा था लेकिन झील में कूद नहीं रहा था। जब किसी व्यक्ति ने उससे पूछा कि मरना है तो पानी में कूदते क्यों नहीं तो आत्महत्या का इरादा रखने वाले व्यक्ति ने कहा कि पानी बहुत ठंडा है सर्दी लग जाएगी। वस्तुतः जिस समय ठंडे पानी रूपी मौत का भय समाप्त हो जाएगा उसी समय शाश्वत जीवन की नई शुरुआत संभव होगी।

परिवर्तन सृष्टि का नियम है। नयापन अनिवार्य तत्व है। परिवर्तन के बिना नयापन संभव नहीं। आदमी को भी नयापन चाहिये। उसे भी उपयोगी बनना है, सार्थक बनना है तो उसे भी पेड़ बनना होगा। रोज-रोज नहीं, साल में एक बार भी नहीं तो कम से कम जीवन में एक बार ही सही उसे अपने समस्त विकार रूपी पत्तों को अलविदा कहना होगा, उनसे मुक्त होना होगा। राग-द्वेष रूपी केंचुली को उतार फेंकना होगा चाहे इसके लिए उसे कितनी ही पीड़ा क्यों न सहन करनी पड़े। मन रूपी पात्र को रिक्त कर अंदर से भी माँज-धोकर चमकाना होगा तभी उसके अंदर संस्कार रूपी नये बीज अंकुरित होकर भली-भाँति पल्लवित-पुष्पित हो सकेंगे।

लोग जिस पुनर्जन्म की बात करते हैं उस पर संदेह किया जा सकता है क्योंकि जब तक स्वयं का पुनर्जन्म नहीं होता कैसे प्रतीति हो कि ऐसा होता है। तो दोस्तों! जीते जी स्वयं क्यों नहीं पुनर्जन्म का अनुभव कर लेते? बीज की तरह क्यों नहीं मिट जाते? पेड़ की तरह जीते जी क्यों नहीं मर जाते? कबीर की तरह मरण का आनंद क्यों नहीं मनाते और निर्द्वद्व होकर गाते- जा मरने से जग डरे मेरे मन आनंद, कब मरहुँ कब पावहुँ पूरन परमानंद।

एक बात और। जीवन में केवल एक बार पुनर्जन्म अथवा रूपांतरण का अवसर मिलता है तो फिर क्यों न आज ही, अभी इसी क्षण इस पुनर्जन्म अथवा रूपांतरण का आनंदोत्सव मनाया जाए?

२० अप्रैल २०१५

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