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ललित निबंध

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उदास चाँदनी
-सुरेश कुमार पण्डा
 


बिजली चली गई है। घर के भीतर बहुत तपन है। मैं कुर्सी लेकर बाहर आ गया हूँ। और लोग भी बाहर निकल आये हैं। गर्मी की चर्चा का माहौल एकदम से आँधी से उड़े पत्तों की तरह सब तरफ बिखर गया है। ए. सी. और कूलर के नहीं चलने से लोग बीमार होने जैसी हाय हाय कर रहे हैं। रोड लाईट के बुझे होने से बाहर भी अँधेरा है। हमेशा ही भौंकते रहनेवाले गली के कुत्तों की फौज न जाने कहाँ दुबक गई है। शायद अँधेरा उन्हें भी नहीं सुहा रहा है। दूर कहीं से अपने लक्ष्य से भटकी गोली की तरह सीटी बजने की आवाज आ जाती है। यह कालोनी के गार्डों की उपस्थिति का संकेत है। लगता है कालोनी के सभी गार्ड एक जगह इकट्ठा होकर गप्पें मार रहे हैं। उन्हें पता चल गया है कि कालोनी में जाग हो गई है। अभी उनकी आवश्यकता नहीं है। ये उनके लिये फुरसत के क्षण हैं।

मैं देखता हूँ आकाश का नीला रंग भी बदल गया है । वह काला दिखाई दे रहा है। फुलझड़ी तो नहीं दिख रहा परन्तु उससे छिटकते स्फूलिंगों जैसे सितारे आकाश की छाती पर बिखरे पड़े हैं। शूद्ध काँसे की वर्तुलाकार थाली जैसा चाँद धीमी गति से उपर उठ रहा है। जैसे जैसे चंद्रमा आकाश में ऊँचाई को प्राप्त हो रहा है, धरती पर जल की हल्की फुहार सी बरसती चाँदनी और भी अधिक छिटकती जा रही है। मेरे आसपास भी चाँदनी अट्टालिकाओं, छतनार पेड़ों के अक्स बनाकर बिखर रही है। चाँदनी में धूप की भाँति उष्मा नहीं है। चटकपन भी नहीं है। किरणें एक सीध में गति कर रही हैं। वक्राकार होतीं तो घरों के भीतर भी प्रवेश करतीं। प्रकाश अधिक फैलता। उजलापन तो है पर अँधकार से लड़ने की शक्ति धूप के बनिस्बत कम है। बिजली के लट्टुओं का प्रकाश भी चाँदनी को आँखों से ओझल कर देता है। शहर के उपर आकाश में चन्द्रमा अपनी कलाओं के अनुसार बिराजमान रहता तो है परन्तु निस्तेज। आभाहीन।

कई बार मैं सोचता हूँ, क्या गाँव और शहर में अलग अलग चन्द्रमा उगते हैं? वह बड़ी सी चाँदी की थालीनुमा प्रकाशवान चाँद जो गाँव के परले सिरे से ऊपर उठता दीखता है वह शहर में आते आते आधा और वह भी असफल प्रणयी जैसा तेजस तत्वहीन कैसे रह जाता है? क्या चन्द्रमा की चाँदनी में भी फर्क है? गाँव के लिये अलग और शहर के लिये अलग। किससे पूछूँ? शिशु चँद्र बड़ा और युवा चँद्र छोटा क्योंकर होता है। चाँदनी में यह भेद कैसा? एक ओर पथिकों के पथ प्रदर्शन में निरत चंद्र की दिक् दिगन्त तक आलोकित करती निर्मल चाँदनी वहीं शहर के प्रकाश लट्टूओं से पराभव का दुख झेलती प्रभवहीना उदास चाँदनी। कुछ समझ में नहीं आता प्रकृति का यह अजब खेल।

एक बार ऐसा हुआ कि खेल खेल में कुछ मित्रों ने चाँदनी रात में नौका विहार आयोजित कर लिया। नौका विहार वह भी रात में मेरे लिये करेला नीम चढ़ा जैसा था। इसके अतिरिक्त महानदी की विराटता भी एक बड़ा कारण था मेरे अनिच्छुक होने का। मैंने कितने ही जतन कर डाले पर मित्रों को टाल न सका, हामी भरनी पड़ी। शरद पूर्णिमा की रात के नौ बजे के लगभग महानदी तट पर बसे एक छोटे से गाँव के घाट पर हम सब नाव पर बैठे। शहर में तेज बिजली की रोशनी की अभ्यस्त मेरी आँखें गाँव के बाहर आते तक झपकना भूल गई थीं। अनजान जगह में अंधकार का भय मेरे हृदय को बल्लियों उछाल रहा था। ऊपर से सामान्य पर अन्दर से अत्यधिक भयभीत मैं उस क्षण को कोस रहा था जब इस यात्रा के लिये सहमत हुआ था।

गाँव के बाहर आते ही जैसे दुनिया ही बदल गई। चन्द्रमा उदय होकर आकाश में पैंतालीस डिग्री ऊपर चढ़ चुके थे। चाँदनी तो फिर पूछिये ही मत पूरे यौवन पर थी। दृष्टि जिधर भी जाती मीलों तक का नजारा साफ दिखलाई पड़ता था। महानदी का तो रंग ही निराला था। बहते जल के कारण यहाँ वहाँ बन रहे जल उर्मियों के कोण चाँदनी का संसर्ग पाकर रूपहली आभा से दमक उठते। पहले पहल तो हम लोग इसे अठखेलियाँ करती मछलियों के पीठ पर चाँदनी के हस्ताक्षर समझ रहे थे। हो सकता है ऐसा भी हो रहा हो। नदी के भीतर प्राकृतिक रूप से बन गये रेत के द्वीपों पर पक्षियों की हलचल अस्पष्ट दिख रही थी।

हम भी ऐसे ही एक द्वीप पर उतर गये। चारों ओर रिमझिम रिमझिम पियुषगर्भा चाँदनी बरस रही थी। महानदी के कूल, बालुकामय द्वीप, निःशब्द बहता हुआ निर्मल पारदर्शी जल, देशी एवं प्रवासी पक्षी और हम सब चाँदनी की उस अजस्र धारा में नहा रहे थे। प्रकृति का यह रूप चराचर जगत के उत्स तक सहज ही पहुँच बना आत्म अनुसंधान की सँभावनाओं का सुगम पथ आलोकित करता जान पड़ता था। वह अज्ञात जिसे अनेक नामरूपों से अभिहित कर विभिन्न अर्चना प्रकारों से अपनी इच्छा पूर्ति के लिये प्रसन्न करने की चेष्टा की जाती है, प्रकृति के उस आदिम रूप के साथ सर्व बनकर तदाकार हो रहा था। चाहिये थे तो उसे देखने वाले दिव्य नयन और सँजोकर रखने के लिये निर्मल हृदय। चाँदनी ने जिस अलौकिक दृश्यावली की रचना उस समय की थी फिर कभी उसका साक्षी होना सुलभ नहीं हुआ। भाग्य अपना अपना।

चिर बिरहिणियों के महाकवि बिहारी की नायिकाओं को चन्द्रमा पर टहलकदमी करते अँतरिक्ष यात्री पता नहीं सुहाते कि नहीं। आज की नायिकाओं ने तो चन्द्रमा और उसकी चाँदनी को तो एकदम ही भुला दिया लगता है। ठीक भी है उँचे ऊँचे टावरों पर लगी नियान लाइटों की सावन के फुहारों की तरह बरसती रश्मियाँ चाँदनी के प्रयोजन को पूर्णकर उसे भुला देने का पर्याप्त कारण प्रस्तुत करती प्रतीत होती हैं। चन्द्र रश्मियाँ बिहारी की नायिकाओं को विरह के क्षणों में दाहक प्रतीत होती थीं। यह प्रतीति मात्र थी याकि कोमल किसलय गात सुलभ गुण था कहा नहीं जा सकता। आज की नायिकाओं को देखकर बिहारी क्या कहते, कैसा कहते मेरे लिये कल्पना करना भी दुष्कर कार्य प्रतीत हो रहा है।

नायिका और सौंदर्य में एक अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। सौँदर्य जहाँ एक ओर नायिका की देह पर खिलकर अपना वर्चस्व स्थापित करता है वहीं दूसरी ओर नायिका अपना सौंदर्य बहुगुणित कर आकर्षण की भूमिका का नित नूतन निर्माण करने में सँलग्न रहती है। इन दोनों को अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिये किसी तीसरे की उपस्थिति की आवश्यकता होती है। यह तीसरा ही प्रिय या प्रियतम है, जिसकी आँखों में, हृदय में सौंदर्य के प्रतिमान पलते, बढ़ते और रसिकता की अवधारणा को संगठित करते रहते हैं। भारतवर्ष में जलवायु के प्रभाव से सामान्यतः नायिकाओं का रंग युरोपियन नायिकाओं के बनिस्बत कुछ फीका होता है। उन्हें रूप गर्विता की स्थिति पाने के लिये आदर्श के रूप में पूर्णचन्द्र सहज ही उपलब्ध है। मैं नहीं जानता नायिकाओं में इस हीनभाव को जगाने में उनके प्रियतम उत्तरदायी रहे हैं या कि यह रससिद्ध कवियों की कारस्तानी है। जो हो अब कुछ नहीं किया जा सकता। सौंदर्य के प्रतिमान स्थापित हो चुके हैं तो हो चुके हैं। चन्द्रमुख को मात्र उपमा न मानकर यथार्थ के धरातल पर उतार लेने के प्रयास में जो कुछ भी संभव, असंभव होता है सब करगुजरने का जज्बा नायिकाओं को कितना सफल बनाता है कुछ कहा नहीं जा सकता।

मैं नहीं जानता कि पूर्ण चन्द्र की अमृतमयी रश्मियाँ मानव मन को उज्वलता प्रदान करती हैं कि शरीर सौष्ठव में भी कुछ योगदान रहता है। इतना जरूर है कि शरद ॠतु की पूर्णिमा की अर्धरात्रि में चन्द्र की चाँदनी उज्वलता के साथ साथ शीतलता की जो वृष्टि करती है उससे मन प्राण आप्लावित होकर स्वर्गोपम आनन्द की अजस्र धारा में अवगाहन करने लगते हैं।

६ अक्तूबर २०१४

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