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हरसिंगार
-विद्यानिवास मिश्र
सखि
स विजितो वीणावाद्यै: कयाप्यपरस्त्रिया
पणितमभवत्तयाभ्यां तत्र क्षपाललितं ध्रुवम।
कथमितरथा शेफालीषु स्खलत्कुसमास्वपि
प्रसरति नभोमध्ये§ s पींदौ प्रियेण विलंब्यते।
किसी प्रेयसी ने प्रिय की स्वागत की तैयारी की है,
समय बीत गया है, उत्कंठा जगती जा रही है, आधी रात गिर
रही है, सावन-भादों की बदली कटी हरी-हरी-सी चाँदनी
छिटक रही है, मन में दुश्चिंताएँ होती हैं कि कहीं ऐसा
तो नही हुआ, अंत में सखी से अपना अंतिम अनुमान कह
सुनाती है- सखि, प्रिय रुकते नहीं, पर बात ऐसी आ पड़ी
है कि वे मेरी चिंता में वीणा में एकाग्रता ना ला सके
होंगे, इसलिए बीन की होड़ में उस नागरी से हार गए
होंगे और शायद हारने पर शर्त रही होगी रात भर वहीं
संगीत जमाने की, इसी से वह विलम गए। नहीं तो सोचो भला,
चाँद बीच आकाश में आ गया, और हरसिंगार के फूल ढुरने
लगे, इतनी देर वे कभी लगाते?
सो हरसिंगार के फूल की ढुरन ही धैर्य की अंतिम सीमा
है, मान की पहली उकसान है और प्रणय-वेदना की सबसे
भीतरी पर्त। हरसिंगार बरसात के उत्तरार्द्ध का फूल
है, जब बादलों को अपना बचा-खुचा सर्वस्व लुटा देने की
चिंता हो जाती है, जब मघा और पूर्वा में झड़ी लगाने की
होड़ लग जाती है और जब धनिया का रंग इस झड़ी से धुल
जाने के लिए व्यग्र-सा हो जाता है। हरसिंगार के फूलों
की झड़ी भी निशीथ के गजर के साथ ही शुरू होती है और
शुरू होकर तभी थमती है जब पेड़ में एक भी वृंत नहीं रह
जाता। सबेरा होते-होते हरसिंगार शांत और स्थिर हो जाता
है, उसके नीचे की जमीन फूलों से फूलकर बहुत ही झीनी
गंध से उच्छ्वसित हो उठती है। हाँ, बदली की झड़ी के
साथ मुरज के वाद्य और चपला के नृत्य भी चलते रहते
हैं, पर हरसिंगार चुपचाप बिना किसी साज-बाज के अपना
पुष्पदान किया करता है, किसी चातक की पुकार की वह
प्रतीक्षा नहीं करता, किसी झिल्ली की झंकार की वह
याचना नहीं करता और किसी चपला के परिरंभ की चाहना नहीं
करता। वह देता चला जाता है, जब तक कि उसके एक भी वृंत
में एक भी फूल बचा रहता है।
हाँ,
वह कली नहीं देता, उसके दान में अधकचरापन या अधूरापन
नहीं होता। वह सर्वस्वदान करता है, पर समूचा समूचा।
वह धनिया (धन्या, प्रिया) की रो-रोकर सूखती आँखो को
नीर चाहे न देता हो, पर उसके हृदय की वीरन हरियाली को
शुभ्र अनुराग अवश्य प्रदान करता है। हरसिंगार के फूल
की पंखुड़ियाँ सफेदी देती हैं, पर उनका अंत स्तल ऐसा
गहरा कुसुम्भी रंग देता है कि उसमें सफेदी डूब-सी
जाती है। सात्विक प्रेम की असली पहचान है हरसिंगार,
ऊपर से बहुत ही सामान्य और मटमैला, पर भीतर गहरा
मजीठी, जहाँ छू जाए वहाँ भी अपना रंग चढ़ा दे, इतना
भीतर-भीतर चटकीला। इसीलिए हरसिंगार की ढुरन पा कर
उत्कंठा और तीव्र हो जाती है, मान और बलवान हो जाता
है और दर्द और नशीला।
बरसात आ गई है। बादल दगा दे गए हैं, पर इतना मालूम है
कि दरवाजे पर बरसों से खड़ा हरसिंगार दगा न देगा। बादल
आते हैं तो भी आसमान रोता है और बादल नहीं आते हैं तो
भी रोता है। उसका रोना तो लगा ही रहता है। सूनेपन का
जिसका पुराना रोग होगा, वह विहँस ही कब सकेगाᣛ? बादलों
की भीड़ जुटती हैं, नक्षत्रों की सभा होती है और
पखेरुओं की परिक्रमा होती है, पर क्या आकाश का सूनापन
एक तिल भी घट पाया है? सुनी दुनिया को कोई आज तक बसा
सका है कि अब बसाएगा? पर मैं आसमान नहीं हूँ, बन भी
नहीं पाऊँगा, उतना धुँधला, उतना अछोर, उतना सूना और
उतना महान बनने की कल्पना भी मेरे लिए दुस्सह है,
मैं धरती की पिछली संतान हूँ, मेरा दाय इस धरती की
अक्षमताओं और सीमाओं से बँधा हुआ है।
मेरी
सब से बड़ी क्षमता है क्षमा, बल्कि ठीक कहूँ तो
तितिक्षा। क्षमा तो दैवी वरदान है, पर मनुष्य केवल
सहन करने की इच्छा रख सकता है, सो मेरी सब से बड़ी
शक्ति यही इच्छा है। इस तितिक्षा को नए-नए बादलों से
क्या लेना-देना? इसका लेन-देन केवल धरती की छाती पर
उगे हरसिंगार से हो सकता है। सब कुछ लुटा कर हरसिंगार
चुप रहता है, वह धरती को उसके स्नेह का प्रतिदान
देकर, फिर कुछ कामना नहीं रखता। अपने दान में तनिक भी
तो उतावली नहीं दिखाता, जब तक रात उतरने को नहीं होती,
जब तक चाँद उतरने को नहीं होता, जब तक पपीहा सोने को
नहीं होता, तब तक वह धीरज नहीं खोता। बादल अधीर हो
जाते हैं, बादलों में लूका-छिपी खेलने वाला चाँद अधीर
हो जाता है, सूने आकाश में खोने वाले चातक और चकोर
अधीर हो जाते हैं पर हरसिंगार अधीर नहीं होता।
जीवन के नीरव निशीथ में, विरह के अनंत अंधकार में और
निराशा की विराट् निश्शब्दता में धीरज के ललौंहें
फूल बरसाना उसका काम है। घनघोर श्यामल रंग के फैलाव
में ललछँही बूँदी छिटकाना उसका काम है। श्याम रंग है
श्रृंगार का भी, मृत्यु का भी। पर श्रृंगार के आधार
रति का अनुराग इसी केसरिया रंग से है। सावन की हरियारी
में और भादों की अँधियारी में वसंत की सुधि दिलाने के
लिए ही हरसिंगार अपनी वसंती बूँदी की बरसात करता है।
पर हरसिंगार का संबंध मृत्यु से भी है। वह
श्मशानवासी हर का श्रृंगार है। श्रृंगार और मृत्यु
में भी कुछ सादृश्य अवश्य है, तभी तो श्रृंगार के
उपक्रम में भी बारात चलती है और मृत्यु के अनुक्रम
में भी बारात चलती है, दोनों बारातों में गाजे-बाजे
रहते हैं। प्रेम स्वयं क्या मृत्यृ नहीं है? काम की
दश दशाओं में सबसे चरम है, मृति। इस मृति में ही प्रेम
की पूर्णता है।
दृंड़्मन:संगसंकल्पो जागर: कृशता रति:।
प्रलयश्च मृतिश्चैव हीत्यनंगदशा दश।।
और क्या सावन-भादों के तथाकथित जीवनदाता 'परजन्य'
विष बरसाने नहीं आते,
भ्रमिमरतिमलसहृदयतां प्रलयं मूर्च्छां तम शरीरसादम्।
मरणं च जलदभुजगजं प्रसह्य कुरुते विषं यियोगिनीनाम्।।
जलदभुजंगों का विष वियोगिनी के ऊपर क्या-क्या आपदा
नहीं ढाता, चक्कर, अरुचि, आलस, निश्चेष्टा, मूर्छा,
आँखों के आगे अँधेरा, शरीर में अवसन्नता और अंत में
मौत भी सभी कुछ तो कर दिखाता है। उस विष का उपचार करने
के लिए ही हरसिंगार की ढुरन मानों महावररञ्जित शशिकला
का सुधास्राव है। हरसिंगार है शिव के भालेंदु का
जावकमय श्रृंगार, उसमें ऊपरी सिताभा है चंद्रमा की, पर
उसके भीतर की ललाई है भवानी की एड़ियों के महावर की।
इस महावर को पाकर ही महामृत्यु और विध्वंस के दैवत
हर शंकर हो सके हैं और मृत्यु भी मनोरम और काम्य हो
सकी है। हरसिंगार, प्रेम की मरण दशा में अनुराग की
सुधाविंदु छिड़का करके अपना नाम सार्थक कर देता है।
प्रेम जगत में सबसे बड़ा अमंगल बना रहे, यदि उसे
हरसिंगार का मंगलदान न मिले। प्रेम के दैवत अनंग को
प्रेत-योनि से मुक्ति न मिले, यदि उसे रति की तपस्या
का वरदान न मिले। जगत में प्यार करना इसीलिए अभिशाप
हो जाता है, यदि उस प्यार को कहीं पहचान नहीं मिलती
है। हरसिंगार अनपहचाने प्यार की इस दारुण अभिशाप्त
यंत्रणा को परम आमोद प्रदान करता है, अकेलेपन की असीम
बेकली को प्रीति की उदारता देता है और 'पछतानि' के
शत-शत बिच्छुओं के दंश को सांत्वना की मीठी नींद देता
है।
प्रेम जब खो जाता है तब हरसिंगार की छाँह में ही आकर
वह अपनी राह पा जाता है, एक से निराश होकर वह बहु का
आशाप्रद हो जाता है। एकोन्मुख प्रेम की मृत्यु को
बहुन्मुख प्रसार का जीवन देना यही हरसिंगार का संदेश
है, श्मशान के चिताभस्म को विभूति में परिवर्तित कर
देना, यही उसका लक्ष्य है। बादल तो जहाँ सुख है, वहीं
और अधिक सुख देंगे, जहाँ कंठाश्लेष पहले से है वहीं
लिपटन की और चाह देंगे, जहाँ खेत पहले से जोता हुआ है,
वहीं सोंधी उसाँस देंगे, जहाँ कदंब है, वहीं कजली की
तान देंगे और जहाँ रस है, वहीं उमड़ाव देंगे। पर ऊसर
को हरा भरा करने वाले बादल कभी दिखे हैं, विरही को
जुड़ाने वाले बादल कहीं मिले हैं, और निष्प्राण को
जीने की प्रेरणा देने वाले बादल कहीं सुनने में आए
हैं?
आज मुझे भी हरसिंगार की ही जरूरत है। घोर दुर्दिन की
झड़ी में बसंती बहार की याद दिलाने वाले कोई नहीं है।
कोयल भी 'अतीत स्मृति से खिंचे हुए बीन तार' नहीं
छोड़ती। मूसलाधार वर्षा से पात-पात झहरा उठे, पपीहे को
बैठने के लिए ठौर मिले, तभी तो 'पी कहाँ पी कहा' वह
पुकारे। हाँ, मेंढकों की टर-टर है, कान फोड़ने वाली
झींगुरों की जमात है। मांडूक्योपनिषद् की ज्ञान-चर्चा
लेकर मैं क्या करूँगा? दूसरे कपड़े पर दलाल बनने वाले
झींगुरों की व्यवहार-कुशलता ले कर मैं क्या करूँगा?
मैं खोया और हारा हुआ प्रेम-पथिक, मुझे दूसरी राह दिखा
कर के कोई भटकाए क्यों? आज मेरा सब कुछ
भस्मसात्प्राय है। हाँ राख गरम है, ऊपर से आँसुओं
भरी बरसात पड़ती रही है, पर तब भी राख गरम है। इस राख
को जुड़वाने जाऊँ तो कहाँ जाऊँ? सिवाय इस पुराने
हरसिंगार के। मेरी कामनाओं की राख पाकर इसमें और मनों
फूल आए, यही बस एक कामना है, या सच कहूँ तो कामना की
राख की गरमी बच रही है। स्वयं शायद हरसिंगार की
दानशीलता इस जनम में न पा सकूँ, शायद प्रीतिपात्र के
बारे में हरसिंगार की निरपेक्षता भी मुझमें न आ सके और
शायद इस जनम क्या सौ-सौ जनम में भी उसका सात्विक
अनुराग न आ सके। पर यह ललक मन में जरूर है कि
प्रीतिदग्ध प्राणों को तब तक हरसिंगार के फूलों की
सिहान मिलती रहे, जब तक कोई सविता आ कर प्रकाश से उसे
जगाती नहीं।
विलायती कल्पना में, गहन अंध गर्त्त में काया सोई
रहती है और इजराईल कयामत के दिन आकर उसे जगाता है, पर
स्वदेशी मान्यता में मन क्लांत हो कर सो जाता है और
सुषुप्ति के बीच तुरीयावस्था जगाती है। सो मैं भी
काया के सोने-जगने की चिंता नहीं करता, इतना जानता हूँ
कि मन जब तक सो नहीं जाता, तब तक यह बँधा ही रहता है।
जब तक यह बंधन तोड़ने के लिए विकट से विकटतर प्रयत्न
करता है, तब तक एक कड़ी टूटती है तो उससे भी अधिक
जकड़दार कड़ी जुड़ जाती है और साँस लेने के लिए भी
आराम नहीं मिलता, जगत के इस विशाल पिंजड़े में जब हार
मान कर यह बैठ जाए, जब इसे अपनी बद्धता का बोध हो जाए
और जब यह बिल्कुल निरूपाय हो जाए, तभी पिंजड़े का
द्वार भी खुलता है, बेड़ियाँ भी कटती हैं और पंख भी
सीधे हो जाते हैं। प्रेम इस मन का बंधन और मोक्ष दोनों
है, प्रेम के बंधन से मन जितना ही दूर भागना चाहता है,
उतना ही नगीच खिंचता है और इस बंधन में जितना ही वह
पड़ता है, उतना ही इससे खिंचने की भी कोशिश करता है,
अंत में वह प्रेम के बंधन की अनंतता में ही मोक्ष पा
जाता है। यही सीधा प्रेम योग है, एक के संग के लोभ से
मन एक की ओर ही खिंच जाता है, पर उस एक के विछोह में
'त्रिभुवन के साथ तन्मय' हो जाता है। उसकी यह
तन्मयता मोक्ष की पहली सीढ़ी है। उस तन्मयता की भी
पहली सीढ़ी है अशेष उदारता, जिसकी सीख देता है
हरसिंगार। आज मुझे सब से अधिक इस सीख की जरूरत है।
हरसिंगार अपने आप कुसुम गिराता है, उसकी डाल झहरानी
नहीं पड़ती है, जो झहराने का गँवारपना करता है, उसके
लिए 'गाहा सत्तंसई' की चेतावनी है...
उच्चिणसु पडिअ कुसुमं ध्रुण सेहालिअं हलिअसुण्हे।
अह दे बिसमविरावो ससुरेण सुओ वलअसद्दो।।
'गँवार हलवाहिनि, गिरे हुए फूलों की ही चुनो, हरसिंगार
की डाल मत झहराओ, झहराने से वह फूल न देगा, वह उलटे
देखो डाल झहराते समय जो तुम्हारी चूड़ियाँ खनकेंगी,
उसकी भनक तुम्हारे ससुर के कान में पड़ जाएगी'।
यौवन की अँधेरी रात में प्रेम से अभिसार करने वाली
प्रवृतियों के लिए भी यह मधुर चेतावनी है। जो अभिसार
करते हुए भी शिव के शृंगार को बटोरता है, उसे धेर्य
धारन करना चाहिए। इकटे शिव को शृंगारमाला बटोरने का
उत्साह सारे किये-कराये पर पानी फेर देता है। 'शिव'
और 'सुन्दर' के संयोग के लिए 'सत्य' की अर्थात
एकनिष्ठा की नितान्त आवश्यकता है। कोई वस्तु होती
है, तभी वह प्रतीत भी होती है और प्रतीत होने पर ही
प्रिय भी होती है। बिना 'अस्ति' के 'भाति' नहीं और
बिना 'भाति' के' प्रियम्' नहीं। 'सत्यं शिवं
सुन्दरम्' इस 'अस्ति भाति प्रियम' का ही अधविलायती
रूपान्तर है। हमारे यहाँ 'अस्ति भाति प्रियम' का
दूसरा पक्ष है 'रूप-नाम' जो विलायत में मान्य क्या
सह्य भी नहीं है। 'रूप-नाम में' ही 'अस्ति भाति
प्रियम्' अपनी अभिव्यक्ति जोहते हैं। हमारा हरसिंगार
जिसका सिंगार है, वह रूप-नाम वाला है, मूर्त्त है,
अरूप, अनाम और अमूर्त नहीं। गंधाधर और चंद्रकला अनदेखी
चीजें नहीं हैं।
इस
गंगा की डाह ने चंद्रकला को महाशक्ति के चरणपात द्वारा
हरसिंगार की लाली प्रदान की है। शक्ति डाह न करे तो
लाली नहीं ही आती। अमृत में भी जड़ता आ जाए, यदि प्रेम
की ईर्ष्या उसमें उद्वेलन न पैदा करे। ईर्ष्या के
बिना प्रेम निर्जीव हो जाता है, मुर्दा हो जाता है। जो
अपने प्रेम-पात्र से जितना ही अधिक पाना चाहता है,
उतना ही अधिक अपना प्रेम भी दे पाता है। यह दूसरी बात
है, ऐसी चाहना पूरी नहीं होती और पूरी न होने पर
प्रेमी का हृदय दूसरों के लिए मनोरंजन की सामग्री चाहे
बने, अपने लिए गरगलन बन जाता है। हरसिंगार के फूल भी
रँगने के काम में आते हैं, प्रेमी के हृदय की ही
भाँति, पर रँगना उनका अंतिम उपयोग नहीं। उन फूलों की
शोभा तो शिव के मस्तक पर है, प्रेमी के हृदय की भी
शोभा जन-शिव के शीश पर है, यों तो उन्हें मसल कर रंग
निकालने वाली रंगरेजिनें तो डगर-मगर मिलेंगी।
१० नवंबर २०१४ |