1
अपनी
बारिश के बीच
-कुमार अंबुज
कभी-कभी वह अपनी बारिश के बीच कहती है : तुम्हें भीगना
आता है, बारिश में भीगना आता है। तुम बारिश में भीगते
हुये इस कदर दुःसाहस करते हो कि हँसी आती है। तुम्हारी
हँसी अच्छी है लेकिन बारिश भी तो एक हँसी है। तुम
बारिश में खुद को बीमार कर लोगे। तुम इतने सालों से
किस बारिश में भीग रहे थे? लगता है वह मज़ाक़ बना रही
है, खिल्ली उड़ा रही है, अफ़सोस ज़ाहिर कर रही है, अपनी
किसी स्वीकृति पर, किसी मौन पर और किसी हँसी पर पछता
रही है। लेकिन वह बारिश में मेरे भीगने की लालसा समझती
है। उस तक आँच पहुँचती है। वह वाष्पित हुये जल से बनी
है। उस पर मैंने एक कविता भी लिखी है। थोड़ा-सा हिस्सा
सुनाऊँ !
बारिश मेरे चेहरे पर गिरती है बारिश गिरती है मेरे
अगोचर में बारिश छूती है मेरी इंद्रियों को बारिश छूती
है मेरी अतींद्रियों को धरती में जितने लवण और खनिज
हैं और धातुएँ और अयस्क जितने वे जो मेरे रक्त की बूँद
में आकर सांद्र हैं उन रक्त-समुद्रों में होती है
बारिश नसों-शिराओं के अक्षांशों-देशांतरों में झूमती
मेरी अपनी ही बारिश की तरह !
जानता हूँ कि बारिश को ठीक-ठीक, पूरा-पूरा किसी कविता
में भी नहीं लिखा जा सकता। कहानी में तो कतई नहीं। वह
गद्य के स्पर्श से विस्तृत और स्थूल हो जायेगी। या हो
सकता है वह विवरण के किसी रेगिस्तान में ही विलीन हो
जाये। जबकि उसके हर अंग से बारिश होती है। उन अंगों से
भी जो मृत कोशिकाओं से बने हैं। उसके नाखूनों से। उसके
रोंओं से। और पलकों से। सबसे ज्यादा उसके केशों से।
जहाँ घने बादल रहते हैं, जहाँ से घटाएँ उठती हैं और जल
धूलकणों से लिपट जाता है। और वहाँ से जहाँ शहद भरे
छत्ते हैं, लताएँ हैं, पत्ते हैं और जहाँ फुलवारी है,
फल पल्लवित हैं और जहाँ से बौछारें आती हैं। और वे
जगहें जहाँ लगातार रिमझिम होती रहती हैं और उसके भीतर
के वे बरामदे, जो हैं ही इसलिए कि वहाँ बैठकर भीगा जा
सके और वे दिशाएँ जहाँ से हहराकर पानी उठता है। और
वहाँ से जहाँ लालिमा फैल गयी है। ऐसी तमाम जगहें जो
किसी वर्णन में मुमकिन ही नहीं। उसके भीतर अंतर्धाराएँ
हैं। ऐसे स्रोत, जो कभी सूखते नहीं। अनगिनत अमर झरने
हैं जो ज़रा से स्पर्श से ही प्रकट हो जाते हैं। उसके
गोपनीय जलप्रपात भी कितने पारदर्शी हैं, कितने उजागर !
वह बारिश है। अनंत बारिश।
इस हद तक कि वह हर चीज़ को बारिश बना देती है। यह उसका
जादू नहीं है। वह तो बारिश है, इसलिए सभी को भिगो देती
है। अपने में शामिल कर लेती है और फिर वह हर शै जो
उसके क़रीब से भी गुज़रती है, बारिश हो जाती है। वह मुझे
देखती है और मैं भीग जाता हूँ। मैं उसे छूता हूँ तो
लगता है मैं बारिश के बीचों-बीच हूँ। मैं उसका नाम
लेता हूँ...... ‘बारिश !ङ्क और देखता हूँ कि खिड़की के
बाहर वह हो रही है, पल्लड़ों के काँच पर से बूँदें बह
रही हैं और सब कुछ एक नमी में, मिट्टी से उठती गंध
में, अर्धपारदर्शिता में डूब गया है। अब आपको बाहर कुछ
दिख रहा है, कुछ नहीं दिख पा रहा है। हर चीज़ में से
ऊष्णता, तीक्ष्णता, कठोरता ग़ायब हो गयी है। आप लोहे की
कुर्सी का हत्था पकड़ते हैं, गिलास उठाते हैं, किताब
छूते हैं तो देखते हैं कि सब पर मुलायमियत है, सबमें
बारिश शामिल हो गई है। लकड़ी से बुरादे की गंध उठने
लगी है। कपड़ों का कपास फूल गया है। काग़ज़ में हरी
टहनियों की लचक है। हर कोई अपने मूल अवयवों के साथ,
अणुओं के साथ आपके सामने है। उसके अपने होने में तरबतर
!
वह बारिश है तो उसके साथ बिजली है, कौंध भी है। मेघों
का नाद भी है। इन सबसे उसमें आवाज़ और रोशनी पैदा होती
है। वह मेरी स्मृतियों के घरों की टीन की छतों पर हो
रही है और खुले मैदानों में, खेतों में हो रही है। वह
चाँदनी में धूसर है और धूप में चमकती है।
रात में वह रहस्य भर देती है और मरती हुई दूब तक को
जीवन देती है। वह हर चीज़ को भिगो देती है। राह में जा
रहे साइकिल सवार को, एक तरफ़ खड़े हुए ताँगे को, नीम के
पेड़ को, उधर उस पत्थर को। जो कुछ भी इस दृश्य में मैं
देख पा रहा हूँ, हर उस चीज़ को। जैसे वह साइकिल पर सवार
होकर कहीं जाना चाहती है। पत्थर को उसके पूर्वजों की
याद दिलाना चाहती है। पेड़ पर कुछ देर ठहरना चाहती है।
पत्तियों के प्रति, जड़ों के प्रति अपना आभार प्रकट
करना चाहती है। यह उसका सरोकार है, यह उसका असीम प्रेम
है और यह उसका प्रतिदान है जिसने मुझे उसका बना दिया
है। जब वह बरसती है तो उसे कुछ होश नहीं रहता। उसमें
ग़ाफ़िल होने का माद्दा है। वह बरसते हुए ख़ुद भीग जाती
है। उसने बाहुपाश में भर लिया है और इस समय मैं भीगने
के सुख में हूँ। वह जहाँ गिर रही है, सिर पर, मेरी
त्वचा पर और मेरी आँखों पर, हर जगह उसकी नोकें हैं जो
मुझे कोमलता से बींध रही हैं।
जब-जब वह बरसती है, उसमें से एक नयी आवाज़ उठती है। उस
आवाज़ से पहले वैसी आवाज़ दुनिया में कभी नहीं थी, कहीं
नहीं थी। हर बार वह अपने आप में पहली और मौलिक आवाज़ की
तरह सुनाई देती है। पत्तों पर बारिश का गिरना सुनो,
अपनी देह पर, सूखी फटी हुई धरती में उसका गिरना सुनो।
उसकी आवाज़ में हमेशा एक भीगा हुआ कंठ होता है। जैसे
उसकी आवाज़ समुद्रों की लहरों से पैदा हुई है और अनंत
में अपने घर को छोड़कर आ रही है। जैसे वह समुद्र की और
आकाश की स्मृति में बरस रही है। जैसे वह अपने आकाश में
और अपनी ही किसी नदी में बरस रही है। घबराहट और
बेलौसपन में बरस रही है। बारिश की आवाज़ मेरे भीतर
थरथराहट भरती है। उस आवाज़ में करुणा, रौद्र, उत्कटता
और उद्दीपन जैसे एक साथ उपस्थित हैं। बारिश की आवाज़
संसार की शेष दूसरी आवाज़ों की दुनिया के ठीक बीचों-बीच
बरस रही है, अपने सौंदर्य, पुकार और अपने आदिम होने की
ख़ुमारी में डूबी हुई। एक अलसायी हुई लेकिन सबसे मादक
आवाज़।
पिछली बार मेरे रहने की जगह बारिश में बह गयी। मैं
जहाँ सिर छिपा सकता था, मैं जहाँ अपने होने को रख सकता
था, वह जगह बह गयी। मेरा कितना कुछ प्रवाह में बह गया।
लेकिन यह तो होता है। हर बार होता है। मैं धीरे-धीरे
वापस सब कुछ इकट्ठा करता हूँ। फिर एक शरण बनाता हूँ।
फिर एक छप्पर तानता हूँ। और फिर बारिश का इंतज़ार करता
हूँ। यही मेरा जीवन है। बारिश में सब कुछ बह जाने
देना, फिर इकट्ठा करना, नया कुछ बनाना, बारिश का
इंतज़ार करना और फिर उस बारिश में बह जाने देना जो मेरे
लिए आती है। मेरे लिए बरसती है। मेरा सब कुछ बहा ले
जाती है। यह उसका काम है। उसकी प्रकृति है। इसी से वह
बारिश है। वह मुझे बहाये ले जाती है। वह तब तक बरसती
है जब तक मेरी दीवारों को ढहा नहीं देती। जैसे मेरे ढह
जाने में ही उसका होना है।
वह इसलिए भी बारिश है कि उसमें संगीत है। आलाप ने,
रिमझिम ने, पुकार ने और टूटकर बरसने ने, द्रुत ने उसे
बारिश बना दिया। मैं किसी को बारिश कैसे कह देता यदि
उसमें आरोह-अवरोह नहीं होता, यदि उसमें उठान और तान
नहीं होती, संगति नहीं होती, यदि उसमें मंद्र स्वर
नहीं होते और उपस्थित होते हुए भी कहीं अपने ही नाद
में गुम हो जाने की बेख़्याली नहीं होती। यह स्वर उधर
से उठ रहे हैं जिधर बारिश है। वह एक लय है और सब तरफ़
संगीत भर देती है। जैसे यह पूरा लैण्डस्केप एक सभागार
है, मैं कोने में बैठा हूँ और वह मेरी बारिश, अपना
संगीत रच रही है। वह संगीत जो बारिश से ही पैदा हो
सकता है। जिसे बारिश के संग-साथ होकर ही सुना जा सकता
है। मैं उसे छूता हूँ, उसमें भीगता हूँ और संगीत में
सराबोर हूँ।
उसमें वही शरारत है जो सिर्फ़ बारिश में हो सकती है। जब
उसके आने की कल्पना भी नहीं की जा सकती, वह आएगी और
बचने का सोचेंगे तब तक तो भिगोकर चली जाएगी। भीड़ भरे
बाज़ार में सिर्फ़ मुझ पर ही बूँदें गिरेंगी, और शेष सब
सूखे बने रहेंगे। सब मेरी तरफ़ विस्मय से देखेंगे कि
मैं कैसे भीग गया ! मन होगा तो वह अपने होने के बीच से
ही धूप को जगह दे देगी। उसके स्थापत्य में से धूप इस
तरह निखरकर, निथरकर आएगी कि धूप का नया संस्करण बन
जाएगा। वह अपने में से होकर गुज़रनेवाली हर चीज़ को फिर
से परिभाषित कर देती है। यह उसका स्वभाव है। वह जो है,
जैसा है, उसको नया कर देती है। फिर वह अपने होने को
हज़ार तरह से याद दिलाती है। जैसे अब आजीवन बारिश के
बीच ही रहना है। मच्छरदानी में सोते हुए लगता है कि
मैं रिमझिम बारिश में सो रहा हूँ। देर रात में दूर
कहीं से किसी गीत की आवाज़ आती है, जैसे बारिश में से
होकर आ रही है। यह इन्द्रधनुष है और इधर किसी पक्षी की
प्रसन्न पुकार। यह बारिश का होना है। वह यहीं कहीं है।
कभी वह अनंत तक बरसने के लिए आती है। तीव्रता से, मंथर
होकर, कभी न रुकने की ज़िद के साथ बरसती है। जैसे सब
कुछ को अपने में समाहित कर लेना चाहती है। जैसे उसकी
राह में पड़ने वाली किसी चीज़ की उसे परवाह नहीं। वह
बा‹ढ से, उफान भरी है। उसने ख़ुद के बंधन तोड़ दिये
हैं। तट बह गये हैं और सिर्फ़ सैलाब है। जैसे वह अपने
भीतर का सारा एकत्र जल खाली कर रही है। अब वह एक दूसरे
विशाल पात्र में रीत रही है। महसूस कर सकता हूँ कि वह
मेरे मस्तक पर है। मेरे कंधों पर, हथेलियों पर और मेरी
छाती पर। वह धीरे-धीरे रिसती है। बूँद-बूँद। मेह की
तरह तो वह बरस ही चुकी है। सोचता हूँ उसे कहीं छिपा
लूँ। यह कितना नामुमकिन और हास्यास्पद है कि मैं बारिश
को छिपा लेने का विचार करता हूँ। संसार की हर चीज़ को
आप छिपा सकते हैं। वह आग, बर्फ़, रेत, तारा, फूल या
तितली होती तो मैं उसे छिपा लेता, अपने किसी
कोने-किनारे में रख लेता। ज़़ज्ब कर लेता। लेकिन बारिश
को कैसे छिपाया जा सकता है। उससे बचने की कोशिश भी
बेकार है। और उस बारिश का क्या करें जो दूर से ही आपको
गिऱ़फ्त में ले लेती है। बारिश को दूरी से देखना भी
तो उसमें भीगना ही है। यह बात वह समझती है और हँसती
है। इस तरह भी वह वृष्टि करती है।
हो सकता है वह मुझ पर उस तरह गिरती हो जिस तरह उजाड़
हो गए खंडहर पर बारिश होती है। जिस तरह किसी उदास
वृक्ष पर बारिश गिरती है। जैसे ख़ुद के होने की आवाज़
सुनने के लिये वह किसी पाताल में गिरती है। वह मुझे
कृतज्ञ बनाती है और कभी गौरव से भर देती है। कभी लगता
हैे जैसे वह दयाद्र्र होकर बरसती है। लेकिन मैं जानता
हूँ कि उसमें से भाप उठती है। वह धुआँ उठता है, जो
आवेग और उत्ताप से ही मुमकिन होता है। इसीसे मैं उसे
अपनी बारिश कहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि वह अपने सारे
नाम, सारे संबोधन भूल जाए और याद रखे कि वह बारिश है,
उमड़कर गिरती हुई बारिश। ताप से भरी खुरदरी ज़मीन पर
गिरती बारिश, जो उसकी बूँदों को अपनी गहराइयों तक ले
जाए। और समो ले।
हो सकता है एक दिन वह कहे कि मैं बारिश ही नहीं हूँ।
आख़िर उसका एक दुलार भरा नाम है जिससे उसकी माँ उसे
पुकारती रही, जिससे पिता ने उसे आवाज़ दी। उसका एक
संबोधन है जिससे उसके बच्चे उसे पुकारते हैं। और एक
नाम और है जिसे उसने अपने दाम्पत्य को दे दिया है। वह
कई जगह बारिश नहीं हो पाती। बारिश भी हर जगह बारिश
नहीं हो सकती। एक दिन वह कहेगी कि आख़िर मैं बारिश कैसे
हो सकती हूँ। मैं तो एक डरी हुई, जकड़ी हुई महज घरेलू
स्त्री हूँ, ख़ुद में ही भीगी हुई चि‹िडया, एक गिलहरी
हूँ। बारिश में भीगती तेज़ हवा के झोंकों से इधर-उधर
होती हुई एक पत्ती हूँ। एक दिन वह कहेगी कि मैं बारिश
नहीं हूँ और यदि थोड़ी-बहुत हूँ भी तो तुम्हारी बारिश
नहीं हूँ। तुम्हारी हूँ तो सिर्फ़ एक ॠतु हूँ। अपना ही
एक अंतराल हूँ। एक अवकाश। भीगती हुई पृथ्वी हूँ और
आद्र्रा हूँ। कोई नक्षत्र हूँ। अपने ही जल का भार
उठाने में असमर्थ बदली हूँ या महज़ धूल-धुएँ से भरा एक
नम हृदय। जहाँ थोड़ा-बहुत पानी तो हमेशा होगा ही। और
महज़ इसी वजह से तो कोई बारिश नहीं हो जाता। लेकिन मैं
जानता हूँ कि वह मेरी बारिश है। यदि मैं उसे पुकार भर
लूँ तो वह इस तरह बरसना शुरू करती है, जितना किसी का
होकर ही बरसा जा सकता है। बारिश के अलावा किसी के लिये
मुमकिन नहीं कि इस तरह बरस सके। फिर मैं भीगता हूँ और
वह बरसती है जैसे किसी निर्जन पठार पर, चट्टान पर, ताल
पर या जंगल पर टूटकर बारिश गिरती है। अब वह मेरे रेशों
में है। मेरी मज्जा में, मेरी जड़ों में और मेरे नाभिक
में।
अब उसने दूसरी सारी आवाज़ों को आगोश में ले लिया है।
दशों दिशाओं से बारिश की आवाज़ आती है। उसने हर दृश्य
को ढाँप लिया है। अब सब तरफ़ सिर्फ़ बारिश है। मेरी
बारिश।
२१ जुलाई २०१४ |