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					ओ चंपा 
					-प्रयाग शुक्ल  
                            देख 
							रहा हूँ कि चंपा की हर डाली फूलों से खिल उठी है। हाँ, 
							ये उसके खूब खिल उठने के दिन हैं। नोएडा के जिस 
							पार्श्वनाथ परिसर में हम रहते हैं, उसमें चंपा की कमी 
							नहीं है। और आसपास के फ्लैट परिसरों में भी चंपा-वृक्ष 
							कई हैं, सो ये सफेद फूल, पंखुड़ियों में कुछ पीलापन भी 
							धारे हुए, जगह-जगह से हमारी ओर ताक रहे होते हैं; हम 
							उनमें झाँके या नहीं। पर उनमें ताकने-झाँकने के सुख से 
							परिचित हूँ। उनकी मीठी-मंद महक से भी, तो ऐसी तुलना या 
							कहें उपमा भी सूझती है कि जिस तरह आसमान में तारों के 
							खिल उठने पर अच्छा लगता है, कुछ-कुछ वैसा ही सुख 
							चंपा-वृक्षों के खिल उठने पर भी होता है।  
							 
							वे जमीन या घास पर झरे हुए भी मिलते हैं और बारिश या 
							ओस बूँदों में भीग कर, बूँदों को अपनी पंखुड़ियों में 
							धारे हुए, डालियों पर भी। हमारे फ्लैट परिसर में और 
							आसपास ही क्यों, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में नोएडा, 
							गुड़गाँव, ग्रेटर नोएडा आप कहीं भी जाएँ, वे कहीं न 
							कहीं से झाँक उठेंगे। पार्कों और उद्यानों में भी 
							बहुतेरे। उनकी कलियाँ अगली सुबह या सुबहों की 
							प्रतीक्षा में आपके मन को भाएँगी। फूल एक, पंखुड़ियाँ 
							पाँच। और पाँचों पंखुड़ियाँ अगर समान आकार में, समान 
							भाव से खिली हुई हों तो चंपा फूल और भी शोभित हो उठता 
							है।  
							 
							रोज सुबह की सैर में आजकल वे साथ होते हैं, जहाँ भी 
							दिख जाएँ कुछ ठिठक जाता हूँ। लौटते हुए झरे हुए फूलों 
							से कुछ बीन कर साथ ले आता हूँ। डाली से तोड़ना चाहें तो 
							यह अपराधबोध नहीं होता कि डाल सूनी हो जाएगी, सो 
							दो-चार वहाँ से भी चुन लेता हूँ। और घर आकर उन्हें एक 
							काँच-कटोरी में ताजा पानी भर कर तैरा देता हूँ। बीते 
							कल के फूलों और पानी को सिरा देता हूँ। 
							 
							वह सुबह भी भूला नहीं हूँ जब चंपा वृक्षों से एक 
							आत्मीय परिचय हुआ था। कोई सत्रह-अठारह वर्ष हो गए, मैं 
							और मेरी पत्नी शांतिनिकेतन के पूर्वपल्ली गेस्ट हाउस 
							में ठहरे हुए थे। सुबह बाहर निकला तो परिसर में चंपा 
							और काठचंपा (हाँ, चंपा की प्रजातियाँ भी हैं) के बहुत 
							बड़े, पुराने वृक्षों से साक्षात्कार हुआ। मैं उन्हें 
							देख कर विमुग्ध-सा खड़ा हो गया। एक
							 ‘परिचित’ 
							वृक्ष के पुराने वृक्षों के समूह में मैंने अपने आपको 
							उनका सगा भी पाया और यह भी महसूस किया कि मैं उन्हें 
							अजनबी लग रहा होऊँगा और वे भी मेरे लिए कुछ अजनबी इस 
							अर्थ में हैं कि बरसों-बरस उनकी ओर देख कर भी मैंने 
							उनकी ओर ध्यान से देखा नहीं- उनके नाम-धाम का कभी 
							ठीक-ठीक पता नहीं किया। ऐसा होता है न!  
							 
							किसी फूल-पौधे, वनस्पति, वृक्ष, पाखी आदि को हम 
							कुछ-कुछ पहचानते ही रहते हैं, पर एक दिन जब उसके 
							आत्मीय बंधन में बँधते हैं तो चौंक उठते हैं कि अरे, 
							यह ‘बंधन’ कहाँ ओझल था, पहले मिला क्यों नहीं था। पर 
							जैसा कि कहते भी हैं, हर चीज का अपना समय होता है। एक 
							बार पहले भी चंपा-वृक्षों से उस सघन परिचय पर लिख चुका 
							हूँ। बंगाल में चंपा बहुत हैं। आज यह टिप्पणी लिखते 
							हुए शांतिनिकेतन के घरों, गलियों, परिसरों की याद आ गई 
							है- और मैं मन ही मन वहाँ खिले हुए शत-शत फूलों की 
							कल्पना करने लगा हूँ। 
							 
							रवींद्रनाथ ठाकुर के उस गीत ‘ओ चंपा, ओ करबी’ से परिचय 
							भी बहुत बाद में हुआ, और उसका बाँग्ला से हिंदी अनुवाद 
							तो इसी वर्ष किया है। बाँग्ला में इसकी शुरुआती पंक्ति 
							है- ‘सहसा डालपाला तोर उतला ये ओ चांपा, ओ करबी।’ 
							रवींद्रनाथ ने अपने वृहद गीत संग्रह ‘गीत वितान’ में 
							इसे ‘प्रकृति’ के अंतर्गत रखा है। गीत परमसत्ता को 
							संबोधित है, और इसमें इशारा यही है कि चंपा ने क्या 
							उसे ही देख लिया है, जो वह सहसा उन्मत्त-सी हो उठी है: 
							हिंदी अनुवाद में कुछ पंक्तियाँ इस तरह उतरी हैं:  
							‘ओ करबी, ओ चंपा, 
							चंचल हो उठीं तेरी डालें  
							किसको है देख लिया तुमने आकाश में जानूँ ना जानूँ ना।
							 
							करती हो रह-रह कर ध्यान भला किसका। 
							किसके रंग हुई बेहाल, फूल फूल उठती हर डाल। 
							किसने है आज किया अद्भुत ये साज जानूँ ना जानूँ ना।’ 
							 
							मैं भी मानो चंपा के ही साज (शृंगार) पर मुग्ध हो उठता 
							हूँ। अपनी तोक्यो यात्रा में देखा-सुना था कि वहाँ 
							किसी उद्यान में कोई वृक्ष फूलों से भर उठे तो उसकी 
							तस्वीरें छपती हैं। लोग उन्हें देखने पहुँचते हैं। 
							...हमारे मीडिया में वह सब नहीं है। और इलेक्ट्रॉनिक 
							मीडिया को तो फूल मानो शूल की तरह चुभते हैं! 
							
							
							  
							यह वर्ष रवींद्रनाथ की जयंती का डेढ़ सौवाँ वर्ष है। 
							रवींद्रनाथ के गीत चाहे ‘पूजा’ वाले हों, या ‘प्रेम’ 
							और ‘प्रकृति’ वाले- एक चमत्कार की तरह उनमें प्रेम की, 
							प्रेमी-प्रेमिका की छवियाँ आकार लेने लगती हैं, आभासित 
							हो उठती हैं। चंपा के लंबे चिकने गाढ़े हरे पत्ते भी 
							बड़े लुभावने होते हैं, उन्हीं में आकर सचमुच 
							सलमा-सितारों की तरह टँक जाते हैं, दुग्ध धवल फूल- 
							बीसियों की संख्या में, नहीं सैकड़ों की संख्या में! 
							इसके किशोर पौधों में भी फूल आते हैं, युवा पौधों में 
							भी और प्रौढ़ वृक्षों में भी! ओ चंपा! इसी तरह 
							दिखो-खिलो! 
							
							  
					
                            १ जुलाई 
							२०१३  |