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ललित निबंध

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मेरा सच कभी पटरी पर नहीं आ पाता
-श्याम सुंदर दुबे
 


मैं जो लिखता हूँ और जो मैं दूसरों का लिखा बाँचता हूँ, सुनता हूँ, और जो विभिन्न कला माध्यमों से मेरे पास तक आता है; इस संपूर्ण में मेरी उपस्थिति लेखक, पाठक, श्रोता तथा दर्शक के रूप में ही रहती है। इस सबसे मुझे अपने परिवेशगत दबावों का अनुमान और अनुभूति तो होती ही है, यह स्व आयातित दबाव क्या मैं जो अपने जीवन में यथार्थतः अनुभव कर रहा हूँ, उन दबावों से भिन्न है? या उनका कुछ तालमेल और उनका स्वरूप-संधान मेरे जीवनगत दबावों के अनुरूप ही है? इन प्रश्नों पर विचार करते हुए यह स्पष्ट होता है कि बहुत कुछ जो मेरे आस-पास घटित हो रहा है, वही मेरे समकालीन सृजन में भी सक्रिय है। झूठ और सच का जो द्वंद्व बहुत पहले से चला आ रहा है, अब वह और तल्ख हुआ है। लेखक के सामने यह द्वंद्व प्रखरतापूर्ण चुनौती है। जब सच और झूठ में फर्क करना संभव ही नहीं रहा हो, झूठ ही सच का पर्याय हो रहा हो, तब सच पर अडिग लेखक के सामने सृजन-कर्म कठिनतर होता ही जाएगा।

जीवन में भी सच के इस्तेमाल में अनेक अड़चनें आ गई हैं। मेरे गाँव में रहनेवाले एक सीमांत किसान के लड़के ने बहुत अच्छे अंकों से परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। एक नौकरी के सिलसिले में उस लड़के ने इंटरव्यू दिया। इंटरव्यू कार्ड पाने तक उस किसान और उस लड़के के भीतर उच्च अंकों का दृढ़ विश्वास हिलोरें ले रहा था और वे पूर्णतः आश्वस्त थे कि योग्यता की कोई काट नहीं है! किंतु इंटरव्यू के दिन वह किसान मेरे पास अपनी समस्या लेकर आया। उसने बताया कि लड़के की नौकरी लगने का दारोमदार पचास हजार रूपए पर अटक गया है। अब वह मुझसे सलाह लेने आया था। बता रहा था कि योग्यता-संपन्न लड़के को तो नौकरी खुद-ब-खुद लगनी चाहिए थी, लेकिन अब मुझसे पचास हजार रूपये माँगे जा रहे हैं। वह मुझसे पूछने लगा कि क्या उसे पचास हजार रूपए दे देना चाहिए? इस बेताली प्रश्न पर मैं मौन हो गया। मेरा सच मेरे भीतर बहुत देर तक तना रहा। मैं लेखक हूँ, मुझे सत्य का ही सहारा लेना चाहिए था। मैंने कहा, ’नहीं, तुम्हें रूपए देने की जरूरत नहीं है।‘ उसने मेरी बात मान ली और आज तक उसका लड़का उसकी छाती पर मूँग दल रहा है। उसे नौकरी नहीं मिली। जब भी वह किसान मुझसे मिलता है, तो उसका पहला वाक्य होता है, ’भैया, तुम्हारी वजह से मेरे लड़के की नौकरी नहीं लगी। अगर मैंने पचास हजार रूपए दे दिए होते तो आज मेरा लड़का नौकरी में होता। पिंड छूटता।‘

मेरा सच मुझे निरंतर छेदता रहता है। जो चारों ओर घटित हो रहा है, क्या उसे मैं अपने सत्य के सहारे बदल सकता हूँ? क्या मेरे लेखन का सच इस झूठ और फरेब से भरी दुनिया में जगह बना सकता है, या फिर मेरा सच उसी तरह अरण्यरोदन करता रहेगा जिस तरह व्यास का सच तमाम विचलित नीतिज्ञों के बीच मारा-मारा भटकता रहा, और व्यास को दोनों बाहुओं को उठाकर कहना पड़ा कि मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ, वह सब अरण्यरोदन है। मेरी कोई नहीं सुनता। तब से लेकर आज तक न सुनने वालों की संख्या बढ़ी है। जो सुनने वाले बचे हैं, वे गुनीजन चतुर किस्म के हैं, जिन्होंने सत्य के मुख पर स्वार्थ और सोने का ढक्कन रख दिया है। ’हिरण्यमयेनपात्रेन सत्यास्यापहितं मुखम्‘। तो उनका सच न मेरा सच है और न मेरा सच उनका सच है; जबकि सच सचमुच एक ही है। लेकिन सभी अपने-अपने सच के साथ संभ्रम लिए भटक रहे हैं। विचारधाराओं के सच को विभिन्न हिकमतों से आजमाते-आजमाते इन सब हिकमतीजनों ने विचार का अंत ही कर डाला, ‘न रहेगा बाँस और न बजेगी।‘ न विचार रहेगा और न इनका सच इस खेमे से उस खेमे तक हाँफता-काँखता पलटी मारता रहेगा।

अब कहने वाले तो कह रहे हैं कि उत्तर आधुनिकता काल के ब्राह्म मुहूर्त में विचारधारा का विलोपन विराट् सत्य के सूर्य की उषा-लालिमा का दिग्दर्शन है; किंतु कुछ ऐसा लग नहीं रहा है। मेरा सच तो लहूलुहान होकर वैसे ही अँधेरे में भटक रहा है। लेखक का सत्य निखालिस सत्य बनते-बनते क्यों रह जाता है? क्यों नहीं वह लेखक और संसार के बीच निर्भ्रांत हो पाता। तुलसीदास ने अपने सत्य से दुनियावी सच को भिड़ाया तो वे भी असमंजस में पड़ गए- ’कोउ कह सत्य झूठ कोउ जुगल प्रबल कोउ माने। तुलसीदास परिहरै तीन भ्रम तब आपहिं पहचाने।‘ अपने को पहचानने वाला लेखक ही सत्य का प्रबल उद्घाटक होता है। अब तुलसीदास जिस द्वंद्वातीत अवस्था की बात कर रहे हैं वह दुनियावी लेखक कैसे कर सकता है? दुनियावी लेखक का सत्य तो झूठ के चिकने फर्श पर फिसलता-गिरता रहता है। वह अपने द्वंद्व को ही अपनी रचनात्मकता का उत्स मानता है। अपने को सच के सहारे पाया जा सकता है और दुनिया में झूठ के सहारे ही रहा जा सकता है। रहीम इस द्वंद्व से ताजिंदगी नहीं उबर पाए-’रहिमन अब मुश्किल भई गाढ़े दोउन काम। साँचे में जग ना रहे झूठे मिले न राम।‘ दुनिया झूठ की ऑक्सीजन पर जीवित है। सिलेंडर सत्य का बना हो सकता है, लेकिन सिलेंडर से क्या लेना-देना! काम तो ऑक्सीजन ही आएगी! ’झूठइ लेना झूठइ देना झूठइ भोजन झूठ चबेना।‘ इस झूठ के बियावान में लेखक के सच का डेरा कौन से कोने में डाला जाए।

मेरा एक मित्र गाँव के विद्यालय में शिक्षक है। शहर से रोज आना-जाना करता है। एक दिन शाम को वह सौदा-सुलुफ करने अपनी मोटर साइकिल से बाजार जा रहा था। जिस गाँव मे वह शिक्षक है उसी गाँव का एक आदमी उसे सड़क पर खड़ा मिला। उसके सिर से खून बह रहा था और उसके कपड़े खून-आलूदा थे। उसने मेरे मित्र को रोका और अस्पताल ले चलने को कहा। मेरे मित्र ने जान-पहचान होने के कारण उस घायल व्यक्ति को अस्पताल पहुँचा दिया। पुलिस में रिपोर्ट हुई। प्रकरण मार-पीट का बना। मेरे मित्र का नाम भी गवाही में गया। जिसका सिर फूटा था वह कह रहा था कि मेरे मित्र के सामने ही उसे रॉड मारी गई है। जिसने मारा था, वह कह रहा था कि यदि मेरे मित्र ने गवाही में उसका उल्लेख किया तो वह मित्र की खोपड़ी खोल देगा। मित्र ने मुझसे सलाह ली कि अब उसे क्या करना चाहिए? मैंने उससे कहा, ’गवाही दो। जो सच है, उसे कह देना।‘ उसने बात मान ली और कह दिया कि उसने कुछ नहीं देखा है। वह केवल घायल व्यक्ति को अस्पताल ले गया था। अब मारने वाला कह रहा है कि मेरे मित्र ने ही उस आदमी को मारा है और जिसको मारा गया वह भी कह रहा है कि इसी शिक्षक ने उसे मारा है। मेरा मित्र कोस रहा है। वह कह रहा है कि मेरी सलाह के कारण न वह इधर का रहा और न उधर का। उसे एक पार्टी तो पकड़ ही लेनी थी। मेरा सच उसे साँसत में डालने वाला बन गया है।

यह सच शल्य बनकर मुझे गाहे-बगाहे पीड़ा पहुँचाता रहता है। मेरा सच कभी पटरी पर नहीं आ पाता। कभी किसी को लाभकर हुआ हो, सो भी नहीं। फिर मैं ही क्यों सच का ढिंढोरची बना रहूँ। मुक्तिबोध ने कहा था, ’सत्य को उदात्त के साथ उद्धत भी होना चाहिए। सच उद्धत होगा तो झूठ से लड़ेगा, और लड़ाई के अपने खतरे होते हैं। झूठ की अक्षौहिणी सेना है। उसके पास बेशुमार अस्त्र-शस्त्र हैं। पैसा-धेला, मुंशी-सलाहकार, हाकिम-हुक्काम, वकील-बैरिस्टर, गुंडा-गैंगस्टर, नेता-अभिनेता सब झूठ की पैरोकरी में लगे सच का स्वाँग भर रहे हैं। असल में सत्य स्वाँगियों की चपेट में है। वह निहत्था तो नहीं है, लेकिन अकेला है। उसके पास एक कोरा कागज है; और टुटपुँजिया कलम उसकी दोस्त है। इनके सहारे उसे झूठ की अक्षौहिणी से लोहा लेना है-इस लड़ाई में उसे मर-मरकर ही जीना पड़ेगा। इसीलिए मुक्तिबोध ने फिर कहा था कि अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे। अभिव्यक्त करना खतरनाक हो सकता है; और यहाँ के सत्य को अभिव्यक्त करना मात्र ही सत्य की पक्षधरता नहीं है! सत्य को सत्य की तरह स्थापित करने के लिए जूझना भी जरूरी है। मेरा सत्य जब तक योग्य उम्मीदवार को नौकरी नहीं दिला पाता, जब तक शिक्षक को सत्य कहने की सुरक्षा नहीं दे पाता तब तक मेरी अभिव्यक्ति की क्या प्रतिभूति है? तो सत्य को शब्द से बाहर कर्म में ढालना ही पड़ेगा और इसके लिए दुनियावी दावँ-पेंचों का इस्तेमाल भी करना पड़ेगा।

मैं लेखक हूँ! सच को लिखना मेरा काम है। इतना कहने और इतना करने मात्र से मैं सत्य की प्रतिष्ठा नहीं कर सकता। तो फिर क्या सच की प्रतिष्ठा के लिए लेखक को ऐक्टीविस्ट होना आवश्यक है? कबीर या तुलसीदास जैसे संत-साधु क्या ऐक्टीविस्ट थे? इनमें से जब कोई ’संतन को कहा सीकरी सों काम।‘ या जब ’अब का तुलसी होइँगे नर के मनसबदार‘ कह रहा था तब वह सत्य की पक्षधरता में ऐक्टीविस्ट ही बन रहा था। सत्य के लिए वह खतरे झेलने के लिए तैयार था, और राज-सत्ताओं की मुखालफत करने का उसका हौसला था। निश्चित ही से साधु-संत अपने सच को प्रतिष्ठित करने के लिए अपने समय की केंद्रीय संचालिका शक्ति के प्रति उदासीन नहीं थे। धर्म-चेतना उनके समय की केंद्रीय शक्ति थी। मध्यकालीन समाज को समझने और समझाने में इसी चेतना का वर्चस्व था। अब लेखक की सहमति-असहमति इसी के इर्द-गिर्द होगी। इसी धर्म-चेतना पर बहस-मुबाहिसा ये साधु-संत करते हैं, इसे अपने व्यवहार में ढालते हैं। इन साधु-संतों ने अपनी जीवनगत क्रियाशीलता और अपनी कविता को एक साथ एक ही मुहिम पर लगाया था। राज-सत्ता उस समय शक्तिवान् थी, किंतु सर्वशक्तिमान् नहीं थीं। राज-सत्ता का प्रभाव जनसामान्य पर बहुत सी छन्नियों से छनकर आ पाता था; जबकि धर्मतंत्र सामान्य जन के जीवन में सीधे हस्तक्षेप कर रहा था। यही वजह है कि तत्कालीन संत कवि सीकरी से कुछ लेना-देना नहीं रखते थे और इसकी वे निर्भीकतापूर्वक उद्घोषणा भी करते थे। धर्म की ताकत राज-सत्ता से कमतर नहीं थी। बाद में राजनीति और धर्म के तालमेल की उपरंगी उछाल परवर्ती काल में आई। ऐसा इसलिए संभव हुआ, क्योंकि राजनीति से उसके सच का संदर्भ च्युत होता गया। राजनीतिगत धर्म छिन्न-भिन्न हुआ और राजनीति का छद्म इस समय तक आते-आते एक वर्चस्ववादी ताकत बन गया।

राजनीति अपने अलग-अलग सचों के माध्यम से अपने वर्चस्वी तरीके तलाश रही है। इन सचों में से कौन सा सच लेखक का सच हो सकता है? इस तरह के दबावों के बीच लेखक को अपने सच को तलाशने में दिक्कत पेश आ सकती है। क्या लेखक को राजनीतिगत व्यावहारिकता में पारंगत होना चाहिए? क्या इस स्तर पर उसे ऐक्टीविस्ट होना पड़ेगा? लेखक की भी कुछ राजनीति हो! इन सबका उत्तर केवल एक है कि लेखक का सच सबसे कमजोर मनुष्य की हिफाजत करने वाला होना चाहिए? यह सच लेखक की आत्ममुक्ति से ही संभव होता है। अनेक सचों को ओढ़ते-बिछाते ही लेखक अपने इस सच की तलाश कर पाता है। यही सच उसकी मुक्ति का द्वार खोलता है; और सच की रक्षा में लेखक की प्रभावी भूमिका की निर्मिति करता है। मैं पोलैंड के एक कवि की कविता पढ़ रहा था। कविता कह रही थी कि कवि को राजनीति के साथ चलना चाहिए; न केवल चलना चाहिए बल्कि राजनीति भी करनी चाहिए, तभी उसकी कविता का सच हमारे समय का सच बन सकता है। लेखक को अपने सच को चुनने की स्वतंत्रता है। लेकिन लेखक का दायित्व इसलिए बढ़ जाता है कि वह अपने सच को समाज का सच बनाए। समाज के सच को पाने के लिए लेखक को गहरे आंतरिक द्वंद्वों से गुजरना पड़ता है। वह शब्द और अर्थ की एक-दूसरे से तनी हुई मुद्राओं से जूझता है। भाषा के सच और जीवन के सच को एक करने में लेखक मटियामेट होता रहता है। वह दोनों को मिलाकर अपने सच को द्वंद्व-रहित बनाना चाहता है; लेकिन हर बार अपने इस उद्यम में वह असफल हो जाता है।

अज्ञेय की कविता ’शब्द और अर्थ‘ में लेखक की तमाम हिकमतें शब्द और अर्थ को एक करने में कामयाब नहीं हो पातीं। हर रचना के बाद लेखक सच के करीब पहुँचकर भी सच को प्राप्त नहीं कर पाता। इसलिए फिर वह लिखना शुरू करता है। मुक्तिबोध ने इसी सच को परम अभिव्यक्ति कहा है। ’अँधेरे में‘ कविता में वे कहते हैं, ’अब तक न पाई गई मेरी अभिव्यक्ति वह!‘ यदि यह परम अभिव्यक्ति लेखक को मिल जाए तो फिर लेखक होने का उसका संघर्ष ही समाप्त हो जाएगा। इसलिए लेखक ताजिंदगी सच की तलाश में अकुलाया रहता है। सच के प्रति उसकी यह अकुलाहट सच की शिनाख्त को सुरक्षित रखने में सहायक होती है। मैं चूँकि सच की शिनाख्त के लिए भाषा में घुसता हूँ, इसलिए मुझे उन तमाम दबावों को भी झेलना ही पड़ेगा जो मेरी रचनात्मकता पर पड़ रहे हैं। दुनिया निरंतर सच पर हमले कर रही है; और ये हमले निरंतर लेखक पर ही हो रहे हैं।

१९ अगस्त २०१३

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