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विजय रथ
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ऋषभदेव शर्मा
हमारी
संस्कृति उत्सवधर्मी संस्कृति है, इसलिए हर पर्व को
हमने उत्सव का रूप दिया है। विजयादशमी को हमने
विजयोल्लास का पर्व माना है महिषासुर पर महादेवी की
विजयोल्लास का पर्व! रावण पर राम की विजय का पर्व!
महिषासुर हो या रावण, व्यक्ति के साथ ही प्रतीक हैं
आसुरी प्रवृत्ति के। आसुरी प्रवृत्ति का आधार
है-अहंकार, जो असहनशीलता से लेकर तानाशाही तक अनेक
रूपों मे हमारे जीवन को घेरे रहता है।
महादेवी हों या राम, व्यक्ति के साथ ही प्रतीक हैं
उदात्त मानवीय मूल्यों के। उदात्तता में सदा सबके लिए
जगह होती है, कोई पराया नहीं होता, सब आत्मीय होते
हैं। सभी स्वजन-कोई शत्रु नहीं। इसीलिए पारस्परिक
सहिष्णुता से लेकर लोकतांत्रिक जीवन-शैली तक की तमाम
संभावनाएँ राम के रूप में पूंजीभूत दिखाई देती हैं।
राम और रावण का युद्ध दो व्यक्तियों या दो फौजों या दो
राजाओं का युद्ध भर नहीं है। यह युद्ध उदात्त मानवीय
मूल्यों और आसुरी प्रवृत्ति का युद्ध है। यह युद्ध है
भौतिक शक्तियों का और नैतिक शक्तियों का और विजयादमी
पर हम भौतिक शक्तियों पर नैतिक शक्तियों की विजय मनाते
हैं। राम के लिए इस युद्ध का उद्देश्य साम्राज्य-
विस्तार नहीं, आत्मप्रसार है। जब तक हम इसे नहीं समझ
लेते तब तक पर्व का अर्थ नहीं खुल सकता।
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के लंकाकांड में इस
युद्ध को जीतने के लिए आवश्यक उपकरणों का अत्यंत नाटकीय ढँग से उल्लेख किया है।
रावण और राम आमने-सामने हैं। रावण रथ पर है-पूर्णतः
सुरक्षित। राम पैदल हैं-एकदम अरक्षित। यह भी कोई युद्ध
है! युद्ध तो बराबरवालों में होता है। यह तो ऐसा ही
हुआ जैसे रावण आखेट पर निकला हो और राम उसके सहज शिकार
बनने को प्रस्तुत हों। विभीषण ने रथी रावण और विरथ राम
की इस टक्कर के परिणाम का अपने ढंग से अनुमान लगाया
होगा और उन्हें लगा होगा कि राम की यह कार्यवाही केवल
आत्मघाती ही सिद्ध हो सकती है।
अधीर हो उठे विभीषण। पूछा जा सकता है कि विभीषण ही
क्यों अधीर
हुए-अन्य कोई क्यों नहीं ? एक उत्तर हो सकता है कि
विभीषण के लिए यह युद्ध लंका की राजसत्ता तक पहुँचने
का माध्यम था और राम का इसमें पराजित होना विभीषण के
लिए सबसे अधिक खतरनाक साबित होता। लेकिन नहीं, ऐसा
सोचना विभीषण के लिए अन्याय होगा। विभीषण ऐसी
क्षुद्रताओं से बहुत ऊपर हैं-अन्यथा उन्हें रावण को
नाराज करने की जरूरत ही क्या थी! विभीषण की अधीरता का
कारण है प्रेम। प्रेम हमारा श्रेष्ठतम भाव है। वह हमें
दिव्य बनाता है, हमें अहं से मुक्त करता है लेकिन
प्रेम की अतिशयता हमें कहीं-न-कहीं कमजोर भी बनाती है।
अतिशय प्रेम पल भर में मोह बन जाता है। क्या-क्या
अनर्थ नहीं कराता यह मोह! मोह हमें धृतराष्ट्र भी बना
सकता है और अर्जुन भी। लेकिन धृतराष्ट्र का मोह
अहंमूलक है और अर्जुन का मोह प्रेममूलक। यदि वे सभी
मारे गए जिन्हें मैं चाहता हूँ तो राज्य पाकर क्या
करूँगा-यह प्रश्न अर्जुन के मन में उठता है, रावण के
मन में नहीं। यही अंतर है प्रेम और अहंकार में, उनसे
उपजे मोह में-
विभीषण की अधीरता भी प्रीतिजन्य है। प्रेम बड़ी ताकत
है, पर बड़ीं कमजोरी भी। बड़े संकटों में डाल देता है।
विभीषण को संदेह है कि इस गैर-बराबरी के युद्ध में राम
भला कैसे जीत सकते हैं। एक तरफ सारे साधन संसाधन हैं
और दूसरी तरफ केवल साधनहीनता। विभीषण का संदेह सहज
मानवीय संदेह है-
’’अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।
नाथ न रथ नहिं तन-पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर
बलवाना।।‘‘
कुंभकर्ण और मेघनाद मारे जा चुके हैं। राम की शक्ति पर
अब संदेह क्यों ? क्योंकि निर्णायक युद्ध तो अब सामने
है न। तुलसीदास ने विभीषण का चरित्र गढ़ने में कोई
कोताही नहीं की है। विभीषण तो भक्तों के आदर्श हैं। पर
मन डोल जाता है अधिक प्रीति के कारण। और वे प्रश्न
करते हैं राम से-चरण वंदना करते हुए, स्नेह सहित।
चरण-वंदना इसलिए कि राम प्रभु हैं, अशरण शरण हैं।
लेकिन अधिक महत्वपूर्ण है स्नेह सहित प्रश्न करना।
स्नेह इसलिए कि राम सखा हैं। केवल प्रभु हों तो संदेह
कैसा ? संदेह उपजा है सखा होने के कारण। ’कवच तो दूर
की बात है राम, तुम्हारे पास तो जूते तक नहीं; भला
त्रिलोकजयी रावण को कैसे हरा सकोगे ?‘
राम कोई डींग नहीं हाँकते। विभीषण की अधीरता को
पहचानतें हैं और कृपापूर्वक उन्हें ’सखा‘ कहकर संबोधित
करते हैं। इस संबोधित में ही एक आश्वसन का भाव है
आत्मीयता और निकटता-’क्यों चिंता करते हो, मैं हूँ न!‘
कृष्ण ने भी अर्जुन को बस इतना ही आश्वासन दिया
था-’मैं हूँ न, चिंता मत को- शुचः।‘ राम ने कहा, ’रावण
को रथारूढ़ देखकर क्यों विचलित हो रहे हो, मित्र ? अरे
भाई, युद्ध ऐसे रथों से थोड़े ही जीता जाता है।‘
कहते हैं, एक दिन अकबर ने दरबारियों से पूछा था कि
सर्वश्रेष्ठ हथियार कौन सा है ? सबके अपने-जवाब थे,
लेकिन बीरबल का जवाब एकदम अलग था-औसान पड़े का हथियार
सर्वश्रेष्ठ है। औसान क्या बला है भला ? विवेक बना
रहे, होशोहवास ठीक रहें; हाथ-पाँव न फूल जाएँ आपके।
क्रोध नहीं, उत्साह है वीर रस का स्थायी भाव। आपका
विवेक, आपका उत्साह, आपका धैर्य आपका सर्वश्रेष्ठ
हथियार है।
मध्यकाल में जब भारत माता के शीश पर गुलामी का नग्न
नृत्य हो रहा था, जनता युद्ध और आतंक से ग्रस्त थी,
किसान की खेती नष्ट हो चुकी थी, वणिक का व्यवसाय चौपट
था, दरिद्रता का दशानन सोने की चिड़िया को नोच- नोचकर
खा रहा था-ऐसे में साधनहीन प्रतीत होनेवाली संस्कृति
आत्मरक्षा के संकट का सामना कर रही थी। उसके संबल बनकर
तुलसीदास राम के रूप में एक आश्वासन लेकर आते हैं।
तोप-तलवारों से, हथियारों से जमीनें जीती जा सकती हैं,
संस्कृति नहीं। वह संस्कृति तो कभी नहीं, जिसके पास
नैतिकता का बल हो उदात्त जीवन मूल्यों में आस्था की
शक्ति हो, सत्य की अंतिम विजय के प्रति दृढ़ विश्वास
हो। पूछा जा सकता है कि तब यह देश गुलाम क्यों हो गया
? कभी भलमनसाहत भी दगा कर जाती है-कुछ वैसा ही हुआ। और
इतिहास यह बताता है कि खुद हमारी पुरूषार्थहीनता ने ही
हमें कहीं का नहीं छोड़ा। नैतिकता में निष्ठा का अर्थ
पुरूषार्थहीनता नहीं होना चाहिए। तुलसी ने राम के रूप
में पुरूषार्थ का संदेश दिया। रथारूढ़ रावण को नंगे
पैरों चुनौती देनेवाले वनवासी राम चरम पुरूषार्थ के
पुंज हैं-पुरूषोत्तम, लेकिन मर्यादा में बँधे हुए।
इसलिए वे आत्मविश्वासपूर्वक कहते हैं-’जेहि जय होय सो
स्यदंन आना‘-रावण जिस रथ पर सवार है, विजय उससे नहीं
मिलती। विजय दिलानेवाला रथ तो दूसरा ही है।
हे सखा! मैं उसी धर्ममय रथ पर आरूढ़ हूँ, जिसके होने से
कहीं कोई शत्रु जीतने को नहीं रह जाता।
विजय-पर्व की सार्थकता इसी में है कि हम अपने
जीवन-संग्राम को जीतने के लिए इसी धर्ममय रथ पर
उत्साहपूर्वक आरूढ़ रहें।
तुलसी भारतीय जीवन-मूल्यों के बहुत समर्थ। व्याख्याता
हैं। अपनी ओर से कुछ कहे बिना वे ऐसा नाटकीय मोड़
रामकथा में बार-बार खोज लेते हैं, जहाँ कुछ देर ठहरकर
जीवन मूल्यों की व्यावहारिक प्रस्तुति की जा सके।
राम-रावण युद्ध की यह प्रस्तावना भी ऐसा ही नाटकीय मोड़
है। आशंकित विभीषण जब राम की रथहीनता पर अफसोस जाहिर
करते हैं तो उन्हें आश्वस्त करने के लिए राम अपने
विजय-रथ की संकल्पना को उनके सामने रखते हैं। राम का
रथ वस्तुतः जीवन-मूल्यों की योजना ही तो है।
रावण के पास रथ है, जिस पर चढ़कर वह सुरक्षित युद्ध कर
सकता हैं; लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि रथहीन
होने भर से राम असुरक्षित हैं। लोग प्रायः यही गलती
करते हैं। युद्ध के उपकरणों से सज्जित रथ में सवार
होते ही अतिशय सुरक्षा भाव से इतने भर जाते हैं कि
जमीन पर खड़े आदमी को आदमी नहीं समझते। तरह-तरह के रथ
हैं आज के योद्धाओं के पास। कोई संप्रदाय के रथ पर
सवार है तो कोई जातिवादी के रथ पर शोभायमान। किसी को
विचारधारा के रथ ने धारण किया हुआ है तो किसी का रथ
दलगत राजनीति का है। रथ भाषाओं के भी हैं और प्रांतों
के भी। इधर मीडिया का उत्तर-आधुनिक रथ बड़ा चमत्कारी
प्रतीत होने लगा है। आप यदि किसी चैनल पर सवार हों तो
क्या कहने! वैसे मुद्रित माध्यम का रथ भी योद्धाओं कम
मदांध नहीं बनाता। यह माध्यम-रथ मिला तो योद्धा चारों
दिशाओं में बाण-वर्षा करने लगता है। जिनके पास यह रथ
नहीं, उन्हें वह रगेद-रगेदकर मारने में आनंदित होता
है। ऐसे परपीड़ारतिरत महारथी प्रायः चुनौती दिया करते
हैं-दम हो तो हमारे जैसा रथ लाकर दिखाओ। और चढ़ा देते
हैं अपना रथ विरथों को अकेले घेरकर। मंदोदरी ने जब
छाती पीट-पीटकर विलाप किया और कहा कि अपने झूठे अहंकार
के लिए लंका का सर्वनाश कराने वाले रावण को नगर भर में
लोग नीच की उपाधि से अलंकृत कर रहे हैं-’नगर लोग सब
ब्याकुल सोचा। सकल कहहि दसकंधर पोचा।।‘ तो रावण ने
पहले तो फिलाँसफी झाड़ी कि ’नाश ही जगत का स्वभाव है‘
और फिर युद्ध के लिए रथारूढ़ हो गया। दूसरों को
ज्ञान-वैराग्य का उपदेश देनेवाला भी अपने आप में कितना
मोहाविष्ट हो सकता है, इसका उदाहरण है रावण। वह वास्तव
में आज के अनेक माध्यम-रथियों जैसा ही है जो उपदेश तो
सदाचार का देते हैं और स्वयं डूबे रहते हैं भ्रष्टाचार
में। स्वयं अपने दुश्चरित्र के कारण उन्हें दूसरों का
चरित्र-हनन सर्वाधिक प्रिय होता है। लेकिन रावण को राम
के चरित्र-बल का अहसास नहीं था। वह चरित्र-बल जो
जीवन-मूल्यों के रथ पर आरूढ़ होने से प्राप्त होता है।
इस नाटकीय प्रसंग का लाभ उठाते हुए तुलसी राम के मुँह
से विजय-रथ की व्याख्या कराते हैं। इस व्याख्या में
आचरण का बल है। रावण उपदेश भर देता है, आचरण नहीं
करता। राम का आचरण ही उपदेश है। राम जिस रथ पर आरूढ़
हैं-शौर्य और धैर्य उसके पहिए हैं। जीवन-संग्राम में न
अकेली धीरता चलती है, न अकेली शूरवीरता। शौर्य चाहिए,
पर उतावलापन नहीं। धैर्य चाहिए, पर उदासीनता नहीं। अगर
इतिहास में कभी किसी देश की पराजय अंकित होती है तो
उसका एक बड़ा कारण विजय-रथ के इन दो पहियों का तालमेल
बिगड़ जाना ही होता है। शौर्य और धैर्य के दोनों पहिए
सलामत रहें तो कोई भी युद्ध जीता जा सकता है ऐसे रथ पर
आरूढ़ होकर। इस विजय-रथ पर सत्य और शील की दृढ़
ध्वजा-पताकाएँ फहारा रही हैं।
हम सब एक युद्ध में हैं, जो मनुष्य होने के नाते हमारे
जिम्मे आया है। वही शाश्वत युद्ध सत् और असत् का है।
असत्् महारथियों के पास अपने-अपने रथ हैं। पर सत् के
पास भी अपना रथ है-शौर्य और धैर्य के पहियोंवाला रथ,
सत्य और शील की ध्वजा-पताकाओंवाला रथ पर हर कोई इस रथ
पर चढ़ नहीं पाता। वही चढ़ेगा इस रथ पर जिसकी
जीवन-मूल्यों में आस्था होगी, जिसके पास चरित्र-बल
होगा। राम कहते हैं-’महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो
बीर। जाके अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।‘
युद्ध तो मनुष्य को पग-पग पर लड़ने पड़ते हैं। लेकिन
लड़ाई में भी मर्यादा बनाये रखना बड़ी बात है। जीतने के
लिए हर तरह के दावँ-पेंच वाजिब माननेवालों ने कहावत ही
गढ़ ली है कि प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज है। इसका
परिणाम है-न प्रेम मर्यादित रह गया है, न युद्ध। किसी
भी कीमत पर सब कुछ को हस्तगत कर लेने की दुर्धर्ष
आकांक्षा प्रेमी और योद्धा दोनों को ही स्वेच्छाचारी
बना देती है। दूसरी ओर मर्यादाशीलता इन दोनों को ही
स्व से ऊपर उठने की प्रेरणा देती है-व्यक्ति से मनुष्य
बनने की प्रेरणा देती है। मर्यादा व्यक्ति को मनुष्य
और मनुष्य को लोक बनाती है। आत्मा का विस्तार प्रेम
में भी जरूरी है और युद्ध में भी।
राम आत्मा के विस्तार के कारण ही परमात्मा हैं।
मर्यादा ही उनकी भगवत्ता का आधार है। उनके विजय-रथ में
चार घोड़े जुते हैं-बल, विवेक, इंद्रियनिग्रह और
परोपकार। युद्ध में तो बल की जरूरत होती है, फिर चारों
घोड़े बल के ही क्यों न जोत दिए ? चौगुना बल हो जाता।
पर नहीं, बल के साथ जोट बाँधने के लिए विवेक चाहिए।
युद्ध में पल-पल ग्रहण और त्याग का द्वंद्व उत्पन्न
होता होगा, तब विवेक बल को दिशा देगा। विवेकहीन बल
आंतकवादी को जन्म देता है, योद्धा को नहीं। जानते
कितने आंतकवादी अविवेकपूर्वक तलवार भाँजते इस धरती पर
नग्न नृत्य कर रहे हैं। किसी व्यवस्था में इतना नैतिक
साहस नहीं कि बढ़कर उनकी कलाई थाम ले। कलाई तो उसकी
थामें जो उचित अनुचित का अंतर जानता हो। यहाँ तो
औचित्य की सारी सीमाएँ तोड़कर अव्यवस्था की कालिका गले
में मुंडमाल पहने विकराल रक्तपायी जीभ लपलपाती सब कुछ
को नष्ट करने पर आमादा है। बल है, विवेक नहीं। ऐसे
युद्धों का परिणाम लोक-संग्राम नहीं हो सकता। लेकिन
राम जिस युद्ध में है वहाँ लोकहित सर्वोपरि है। इसलिए
उनके रथ में तीसरा घोड़ा इंद्रिय-निग्रह का है तो चौथा
परोपकार का। दुनिया में दो बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ पिछली
शताब्दियों में हुईं-लेकिन व्यर्थ चली गई, क्योंकि
उन्हें सँभालने के लिए जिस इंद्रिय-निग्रह और
लोक-चेतना की जरूरत थी, जीतनेवाली जातियाँ उसकी
विद्यमानता प्रमाणित नहीं कर सकीं। युद्ध की मर्यादा
का एक पहलू यही है कि उसके रथ को खींचने के लिए बल तो
केवल चौथाई भर चाहिए-तीन-चौथाई में विवेक,
इंद्रिय-निग्रह और परहित हैं।
आप युद्ध में हो और क्षमाशील हों, कृपालुता की बातें
करें-तो हो सकता हैं कि युद्ध विद्या के कई पंडित आपको
युद्ध के अयोग्य घोषित करके शिविर में पूर्ण विश्राम
के लिए भेज दें। कहते हैं न-क्षमा, कृपा और समता ने ही
तो भारत को हजार बरस की गुलामी की सौगात दी। पर नहीं,
यह बात इतनी सीधी नहीं हैं। मूल्यों के संदर्भ में
हमें अपने इतिहास का फिर से मूल्याकंन करना पड़ेगा और
पराजय तथा गुलामी के वास्तविक कारणों को समझना होगा।
राम जिस युद्ध का नेतृत्व कर रहे हैं, वह सत्ता
हथियाने का युद्ध नहीं है। वह मर्यादा का युद्ध है।
इसलिए उनके रथ के घोड़े क्षमा, कृपा, और समता की
रस्सियों से जुड़े हैं। ऐसा योद्धा क्रूर नहीं हो सकता।
जब-जब क्षमा, कृपा और समता की रस्सियाँ टूटी हैं तब-तब
योद्धा उन्मादग्रस्त तानाशाहों में परिवर्तित हुए हैं
और युद्ध सामूहिक नरसंहार में।
रथ तैयार है-घोड़ों औैर लगाम के साथ, पर इसे चलाएगा कौन
? राम विभीषण को बताते हैं-इस रथ को ईशभजन रूपी सुजान
सारथी चलाता है-’बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा
समता रजु जोरे।। ईस भजन सारथी सुनाना।‘‘ सारथि अगर
ईश्वर का भजन है तो यह युद्ध सारथी व्यक्ति की यात्रा
नहीं हो सकता। युद्ध का संचालन ईश-भजन के हाथों में हो
तो परिणाम कभी लोक-विरोधी नहीं हो सकता। यहाँ ठहर कर
यह पूछा जा सकता है कि आज दुनिया भर में ईश्वर के नाम
पर मार-काट मची है, क्या वह लोक विरोधी नहीं है ?
है-निश्चय ही लोक-विरोधी है। संप्रदाय, जाति, नस्ल और
राजनीति की रथ यात्राएँ ईश्वर के नाम पर संचालित की
जाती हैं; लेकिन उनका सारथी ईश-भजन नहीं है। ये सारी
यात्राएँ तो विस्तारवादी और साम्राज्यवाद की
स्वार्थ-यात्राएँ हैं, जो दुनिया को मुट्ठि में करने
की इच्छा से प्रेरित हैं-लोकहित की आकांक्षा से नहीं।
असल में इन रावण रथों के ही सामने तो आज राम को
विजय-रथ लेकर युद्ध में कूदने की जरूरत है। यह भी
ध्यान में रखना होगा कि आज के ये रावण कुछ अधिक ही
मायावी हैं। ये अपने-अपने रथों को राम का रथ कहकर
प्रचारित करेंगे। इस निशाचर माया को काटना भी बड़ा
जरूरी है।
हम सब अपने भीतर के राम को जगाएँ और मर्यादा के सहारे
इस अमर्यादित समर को जीतें, इस कामना के साथ हमें इस
युद्ध में अपने आप को डालना ही होगा।
युद्ध जीतना तो सब चाहते हैं, लेकिन जीतते सब नहीं
हैं। जीतता वही है जो धर्ममय रथ पर आरूढ़ होता है।
प्रकट में हमें यह लग सकता है कि अधर्म जीत रहा है और
धर्म असहाय तथा पराजित है। हमें समझना होगा कि अधर्म
के सहारे विजय प्राप्त करना सच में तो हार जाना ही है।
ऐसी जीत का कोई मूल्य नहीं। महत्व इसका नहीं कि युद्ध
में हार हुई अथवा जीत। महत्व इसका है कि युद्ध भूमि
में प्राण संकट में पड़ने पर भी किसने धर्म का दामन
नहीं छोड़ा-कौन कर्तव्य से विमुख नहीं हुआ। युद्ध में
हार जाना या मारे जाना उतनी बड़ी क्षति नहीं जितनी बड़ी
क्षति योद्धा के कर्तव्य से विमुख हो जाने पर होती है।
युद्ध यद्यपि विजय-कामना से ही लड़ा जाता है, लेकिन
पराजय सामने देखकर विजय की खातिर मूल्यों का सौदा कर
लेना योद्धा का धर्म नहीं है।
राजनीति के आधुनिक योद्धाओं के लिए सत्ता की प्राप्ति
के निमित्त मूल्यों का सौदा करना आम बात है। मूल्य
आधारित राजनीति पर उपदेश झाड़नेवाले हमारे नेतागण
समझौतावाद के बैगन सरीखे हैं। मनुष्य के भीतर यह
बैगन-चरित्र उसकी स्वार्थ-बुद्धि के कारण उपजता है।
राम जिस विजय रथ पर आरूढ़ हैं। उसमें इस मानवीय कमजोरी
की भी काट विद्यमान है। इस रथ पर आरूढ़ योद्धा
वैराग्य-भावना की ढाल हाथ में लेकर लड़ता है।
वैराग्य-भावना होगी तो स्वार्थ नहीं पनपेगा।
लोकरक्षण राम के युद्ध का मूल उद्देश्य है, इसलिए वे
विरति की ढाल के साथ संतोष की कृपाण धारण करते हैं।
आश्चर्य होना चाहिए-यह योद्धा है या संन्यासी! संन्यास
क्या बिना युद्ध के सिद्ध होता है ? नहीं! लेकिन यदि
योद्धा असंतोष की तलवाद उठा ले तो उसका यह स्वार्थ-समर
ऐसे विश्वयुद्ध में बदल सकता है जिसकी आग संपूर्ण
ध्वंस के बाद भी सुलगती रहेगी। पर संतोष की तलवार रक्त
की प्यास में पागल नहीं होती।
इतना ही नहीं; राम ने दान को फरसा, बुद्धि को प्रचंड
शक्ति तथा श्रेष्ठ विज्ञान को सुदृढ़ धनुष बनाने की बात
कहीं है। वे मन की स्वच्छता और अडिगता को तरकस का रूप
देते हैं, जिसमे शांति, आत्मानुशासन और नियम जैसे
असंख्य तीर भरे हुए हैं। समाज में जो आयु और ज्ञान की
दृष्टि से पूजनीय जन हैंं, उनके शुभ संदेश और आशीर्वाद
इस रथ पर आरूढ़ योद्धा के वास्तविक रक्षा-कवच हैं। यह
सारी व्यवस्था विजय को सुनिश्चित करनेवाली
मूल्य-व्यवस्था है। इस रथ पर आरूढ़ होने पर योद्धा
स्व-पर के अंतर से मुक्त होकर आत्मा की विशदता से भर
जाता है तथा युद्ध उसके लिए जीवन-मूल्यों की स्थापना
का उद्योग भर रह जाता है। हजार बार दुहराए गए झूठ के
भरोसे विश्वयुद्ध भले जीता जा सकता हो, मानव बने रहने
का युद्ध मर्यादा के सहारे ही जीता जाता है। झूठ के
सहारे जीते गए युद्धों ने मनुष्य को हिंसक पशु बनाया
है और धरती को नरक।
यदि मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना है और धरती को बेहतर
भविष्य देना है तो हमें अपना युद्ध सत् के पक्ष में
लड़ना होगा। सत् के पक्ष में लड़ने का कलेजा जिसमें
होगा, वह धर्म अर्थात कर्तव्य के रथ पर आरूढ़ होगा। इस
रथ पर आरूढ़ हुए तो मित्र, न तो ऐसा शत्रु बचेगा जिसे
जीतना शेष हो, न ऐसा ही जो जीत सके। इस रथ पर चढ़कर
चलने का अर्थ ही है कि
सब शत्रु खेत रहे-’सखा धर्ममय अस रथ जाकें।
जीत न कहँ न कतहँ रिपु ताकें।।‘
२२
अक्तूबर १९१२ |