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रुकोगी
नहीं भागीरथी
- नीरजा माधव
मुझसे छोटे बड़े तीन भाई बहन छुटपन में ही हल्की
फुल्की बीमारियों में चल बसे तो माँ ने घबड़ाकर छह
महीने के सबसे छोटे वाले भाई के लिए गंगा माँ से मनौती
मानी-- हे माई, यह सुख से रहे, आर पार की माला
चढ़ाऊँगी तुझे। भाई सुखपूर्वक बड़ा होता गया। माँ को
बारबार अपनी मनौती याद आती रही। मन में कौंधती रही आर
पार की माला। कब सौंहर लगे और मनौती पूरी करें। वह
सौंहर आया। आते आते छोटा भी छत्तीस वर्ष के आस पास।
खैर, कोई बात नहीं। माता कुमाता नहीं होती। माँ गंगा
उदार है। चाहे जब भी पहुँचो उसकी शरण में उसका स्नेहिल
आँचल अँकवार में भरने के लिए मचल उठता है। लहरों की
बाँहें फैलाए, ममता की बूँदों में भिंगो लेती है माँ
गंगा।
हम भी पहुँचे, आँचल की छाँह को हृदय में उतारा, ममता
की बूँदों को आँखों से लगा मन में भरा, कल्मष दूर किया
भीतर का अपने। सदियों से ऐसा ही होता आया है। माँ गंगा
हर आस्तिक भारतीय मन की माँ है। करोडों-करोड़ हिन्दुओं
की आस्था का केन्द्र है। देश में रहें या विदेश में,
माँ गंगा आत्मा की तरह उनके साथ होती है। भारत आने पर
गंगादर्शन केवल आस्तिक भारतीयों की ही चाहना नहीं होती
बल्कि हर विदेशी पर्यटक की भी चाहना होती है। वह भी एक
झलक गंगा माँ की पाकर तृप्त हो लेना चाहता है। घाटों
पर निरुद्देश्य बैठ अपलक माँ के सौन्दर्य को अपने हृदय
में उतार लेना चाहता है।
ओह- चर्चा शुरू कहाँ से हुई थी और गंगा के रेतीले
पाटों की तरह कितना फैल गई। अपने छोटे भाई के आर पार
की माला की बात कर रही थी। जुलाई-अगस्त का महीना। गंगा
बढी हुई थी। सहायक नदियों के जल से उनका वेग कुछ अधिक
ही बढ़ गया था। तेज हवा और ऊपर आकाश में बादलों के
कारण बड़ी-बड़ी लहरें उठते-गिरते डरा रही थीं।
एक हल्की गर्जना के साथ अनवरत रोर। गंगा माँ सामान्य
नहीं लग रही थीं वैसे ही जैसे कभी-कभी रोष में अपनी
माँ घर के सामानों को यों ही उठा-उठाकर पटक दे। क्रोध
कहीं का कहीं निकाले। बडी-सी मूँज की रस्सी में
जगह-जगह फूल खोंस कर बनाई गई आर-पार की माला लेकर जब
नाविक मेरे सामने आया तो विश्वास नहीं हुआ। इतने में
आर-पार कैसे? उसका जवाब भी चौंकाने वाला था। आज तक माँ
गंगा को कोई बाँध पाया बहिन जी? बीच-बीच में टूटती
जाएगी यह माला। बस माँ के निमित्त नाव से माला लटकाए
इस पार से उस पार जाते हैं लोग। दोनों किनारों पर पूजन
करते हैं और मनौती पूर्ण मान ली जाती है।
माँ- पिताजी भाई को लेकर नाव से आर-पार की माला चढ़ाने
निकल पड़े थे, और मैं अपने माधव के साथ `मैं बपुरा
बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ की तर्ज पर इसी किनारे पर
बैठी रह गई थी। माँ गंगा के सीने में उठ रही विशाल
लहरों पर माँ-पिताजी की नाव को उठते-गिरते और डगमगाते
देखती तो एक हूक से भर उठता मेरा कलेजा। मेरे देखते ही
देखते कोई अनहोनी घट जाए तो या मैं सहज रह पाऊँगी उम्र
भर? माँ गंगा से बुदबुदा उठी-- `माँ, मेरे माता-पिता
और भाई को सुरक्षित इस किनारे तक ले आना। माँ ले आई थी
उन्हें सुरक्षित।
मैं सोच रही थी कि कैसी है यह माँ गंगा, जो जन्म से
लेकर मृत्यु तक की हमारी कामना है, भय से लेकर उछाह तक
की हमारी आश्वस्ति है। लघुता ऐसी कि बच्चा भी अपनी
हथेली में भरकर सम्पूर्ण गंगा जल के आचमन का भाव भर
लेता है अपने भीतर और विराटता ऐसी कि देव, ऋषि, मुनि,
मानव सभी इसे बाँध पाने में अक्षम। भगवान विष्णु ने
इसे बाँधने का प्रयास किया। पाँव लगाकर रोकने का
उपक्रम ही तो किया था हरि ने, लेकिन गंगा का उद्दाम
वेग वहाँ भी नहीं रुक सका। सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा ने
आज के वैज्ञानिकों की तरह नए तरह से बाँधने का प्रयास
किया गंगा को। कमण्डल में भर लिया ताकि कुछ अंश कमण्डल
में रहे और कुछ बाहर जाए परन्तु वहाँ भी गंगा का वेग
थम न सका।
भगवान् शिव ने नया उपाय सोचा; अपनी जटाओं में गंगा को
बाँध लेने का। सिर पर स्थान देने का। गंगा सिरमौर बनी
शिव की। उनकी जटाओं में गोल-गोल घूमती रही और फिर
उमड़कर जटाओं से फूट पडी। तीन धाराएँ फूटीं। एक
ऊर्ध्वगामी आकाशगंगा तो दूसरी नीचे की ओर पाताल गंगा।
मध्य वाली धारा भूलोक की गंगा, हम सबकी माँ गंगा। यानी
त्रिदेवों द्वारा अपने-अपने ढंग से बाँधे जाने पर भी
गंगा बँध न सकीं। कथा मिलती है कि सगर के साठ हजार
पुत्रों को तारने के लिए जब भगीरथ की तपस्या के
फलस्वरूप गंगा पृथ्वी पर आ रही थीं तो ऋषि जह्नु ने भी
गंगा को अपने चुल्लू में भर कर उदरस्थ किया परन्तु
उनके कानों के रास्ते गंगा के निकल पड़ने के कारण वह
जाह्नवी कहलाई और एक बार फिर प्रमाणित किया कि गंगा का
वेग बँधने के लिए नहीं बल्कि अपने पुत्रों के भरण-पोषण
के लिए है। केवल अस्थि-विसर्जन के द्वारा मोक्ष
प्राप्ति के लिए ही गंगा नहीं है बल्कि स्वस्थ जीवन
हेतु अस्थियों के सम्पोषण के लिए भी उसका अपना महत्त्व
है।
जीवन के प्रारम्भ से लेकर मृत्यु के द्वार तक हम जिस
ममतामयी बूँद के आकांक्षी रहते हैं उसी गंगा को कुछ
वर्षो पूर्व यानी इकीसवीं सदी के विकसित युग में जब
टिहरी बाँध में रोका गया तो भारतीय जनमानस में एक
हाहाकार सा उठा। अपने - अपने रोटी-नमक की चिन्ता में
हैरान-परेशान जनता को सरकारी योजनाओं का पता कब चल
पाता है, इसके बारे में सभी सुविज्ञ हैं। टिहरी में
गंगा को रोक लिया गया तब बात फैलते-फैलते फैली।
वैज्ञानिकों की खतरे की चेतावनी को दृष्टि ओझल करते
हुए बाँध को अन्तिम रूप दे दिया गया। भूवैज्ञानिक
टी.शिवाजी राव ने तो इस बाँध को टाइम बम जितना घातक
बताया। भूकम्प क्षेत्र में स्थित होने के कारण बाँध के
टूटने पर हरिद्वार, बुलन्द शहर, मेरठ जैसे नगरों के
विनष्ट हो जाने की चेतावनी दी। लेकिन कहीं कोई उत्कोच
ऐसा था जिसे न निगला जा सकता था और न उगला।
गंगा बाँध दी गई इस आश्वासन के साथ कि कुछ दिनों में
आवश्यक जल मुक्त कर दिया जाएगा। साधु सन्तों ने कुम्भ
मेले में आक्रोश व्यक्त किया, अन्तर्राष्ट्नीय
गोष्ठियाँ हुईं, लेकिन जो होना था, हुआ। मात्र कुछ
वर्षो पूर्व तक उद्दाम लहरों वाली गंगा का अस्तित्व
सूखता जा रहा है। ग्रीष्म ऋतु में बीच-बीच में उभरे
रेत के टीले गंगा माँ के शान्त आक्रोश की कथा कहते
हैं। कभी-कभी बरसात में सहायक नदियों का जल आकर माँ
गंगा को पुनः अपने रूप में आ जाने का मनुहार करता है,
लेकिन माँ गंगा हैं कि टस से मस नहीं हो रही हैं। उसका
क्रोध शान्त नहीं हो रहा है। काशी में भी वह अपने
घाटों को छोड़कर दूर जा बैठती हैं।
हम सब हैरान हैं। क्या होगा उन तीर्थ नगरों का, जो
गंगा के तट पर बसे हैं? क्या होगा उस विराट
आर्यावर्त्त संस्कृति का जिसे गंगा अपने कूलों पर
विकसित करती आई है? क्या होगा उन पर्वो और परम्पराओं
का जिसमें गंगा पुजइया है, दीपदान है, आर-पार की माला
है या सोहर औेर बधावा है, सूर्यषष्ठी, कुम्भ,
संक्रान्ति, नहान, दान, श्राद्ध, विसर्जन की अनवरत
प्रक्रिया है? इधर बीच तमाम गंगा सेवी संस्थाएँ
सरकारी-गैर सरकारी पत्र-पुष्प हाथ और चोर-जेब में रखे
आगे आईं हैं। सबकी चिन्ता में गंगा शामिल हैं, गंगा
में हो रहा प्रदूषण शामिल है। गंगा-ज्ञान कुन्तल भर है
तो कर्म छँटाकभर। छॅंटाक छँटाकभर प्रदूषण दूर हो रहा
है। कोई पालिथीन बीन रहा है, तो कोई कुण्डों की मिट्टी
साफ करवा रहा है। फोटो खिंच रही है, छप रही है। उसे
देख दिखा अनुदान-राशि बढ़ रही है और गंगा दिनोंदिन
सिकुड़ रही है। गंगा के सिकुड़ते अस्तित्व पर
गोष्ठियों और सेमिनारों के बडे-बड़ेआयोजन हो रहे हैं।
एक सेमिनार में एक पर्यावरणविद को गंगा में प्रदूषण के
बिन्दुवार कारणों का छपा छपाया डाटा प्रस्तुत करते
सुना। माला-फूल फेंकने से, मूर्तियाँ विसर्जित करने
से, काशी में महाश्मशान पर शवदाह की प्रक्रिया आदि से
प्रदूषण बढ रहा है और गंगा का अस्तित्व संकट में है।
मुझे हँसी आई उनकी इस बचकानी सोच पर। हम अपनी समस्त
भूलों और दुष्कर्मो को धर्म की आड़ में छिपाना चाहते
हैं। हम हिंसा जैसी बर्बर प्रवृत्ति के लिए भी धर्म को
कवच की तरह ओढ़ लेते हैं और अपनी पाशविकता को
धर्मयुद्ध की संज्ञा देने लगते हैं। गंगा में फैटरियों
के कचरे, शहर के नालों और सीवर का गंदा जल डाल-डाल कर
प्रदूषित करने का व्यापार करते रहे, कैनाल और नहरों के
द्वारा उसका रूप बिगाड़ते रहे और टिहरी जैसे बाँध
बना-बना कर गंगा को बाँधने की भयंकर मानवीय भूल करते
रहे और ठीकरा धर्म के नाम पर फोड़ते रहे।`धार्मिक
कृत्यों, आस्था और मान्यताओं के चलते गंगा प्रदूषित हो
रही है’ की माला फेरते रहे। यदि इन धार्मिक कृत्यों से
ही गंगा का अस्तित्व संकट में पड़ना होता तो अब से
हजारों वर्ष पहले ही उसका अस्तित्व समाप्त हो गया
होता, योंकि ये आस्थाएँ और मान्यताएँ दो-चार सौ वर्ष
पुरानी तो नहीं ही हैं।
गंगा के अस्तित्व के साथ ही धार्मिक आस्था के जुड़ने
का इतिहास भी हम पढ़ते हैं। भगीरथ की तपस्या से
प्रसन्न होकर माँ गंगा धरती पर अवतरित होती हैं।
धार्मिक कर्मकाण्ड का इतिहास भी कम से कम ईस्वी सन् के
उद्भव से बहुत पहले का है। काशी में महाश्मशान अथवा
मोक्ष की अवधारणा जितनी प्राचीन है उतनी ही प्राचीन
कथाएँ अन्य सप्तपुरियों के साथ भी डोलती हैं। प्रयाग
में कुमारिल भट्ट द्वारा देह - त्याग की कथा
प्रायश्चित से अधिक मोक्ष-प्राप्ति की कामना की कथा
है। यानी सरसरी दृष्टि से भी देखें तो गंगा के
अस्तित्व को संकट में डालने वाले ये धार्मिक क्रिया
कलाप तो पूर्णरूपेण उत्तरदायी नहीं ही हैं। पुराणों
में गंगा को निर्मल बनाए रखने और उसकी शुचिता की रक्षा
के लिए भी कुछ नियम बनाए गए थे। ब्रह्म वैवर्त पुराण
के अनुसार गंगा में चौदह कर्म वर्जित हैं--
शौचमाचमनं केशनिर्माल्यमघर्षणम्।
गात्रसंवाहनं क्रीड़ा प्रतिग्रहमथो रतिं।।
अन्यतीर्थरतिं चैबे अन्यतीर्थप्रशंसनम्।
वस्त्रत्यागमथाघातसंतारं च विशेषत:।। (ब्रपु१/५३५)
अर्थात् गंगा के समीप शौच, कुल्ला, बाल झाड़ना, फूल
माला डालना, कूड़ा डालना, मैल छुड़ाना, हँसी मजाक
करना, दान लेना, रतिक्रीड़ा, दूसरे तीर्थ की प्रशंसा,
वस्त्र त्याग, जल पीटना आदि कर्म निषिद्ध हैं। इसकी
अनदेखी करते हुए निसंदेह सभी कार्य हो रहे हैं जिससे
गंगा प्रदूषित हो रही है, लेकिन दूरदर्शिता के अभाव
में सरकारी और गैर-सरकारी प्रयास असफल हो रहे हैं। इसे
प्रदूषण मुत करने में। एक तरफ नहरें निकलीं तो दूसरी
तरफ बड़े-बड़े गन्दे नालों का मुँह गंगा की ओर मोड़
दिया गया। तीसरी भयंकर भूल उसके वेग को बाँध कर किया
गया। शास्त्र बताते हैं-- `नदी वेगेन शुद्धयति अर्थात्
नदी अपने वेग से ही शुद्ध होती रहती है। सुनने में आया
है कि टिहरी जैसे ही अन्य बाँध भी बनाए जाने पर
कार्रवाई चल रही है। उधर ब्रह्मपुत्र पर भी बाँध-बम
बनाए जाने की खबर ने सबको चौंकाने के लिए विवश किया
है। यह दूसरा टाइम-बम होगा भारत के लिए।
चिन्ता और चिन्तन का दौर चल रहा है। लोगों की तरह हम
भी चिन्तित हैं। क्या होगा जब गंगा नहीं रहेगी? अपनी
चिन्ता एक विद्वान से बाँटने की कोशिश की तो तपाक से
उत्तर मिला-- भविष्य पुराण में तो स्पष्ट उल्लेख है कि
कलियुग के पाँच हजार वर्षो बाद गंगा धरती से लुप्त हो
जाएगी। गंगा को जाना है, जाएगी ही। किसी के बाँधे कब
रुकी है भागीरथी? मेरी चिन्ता दूसरी है। माँ गंगा अपने
पुत्रों की इस भूल से क्षुब्ध है। पुत्रों द्वारा अपनी
देह के व्यवसायीकरण से दुखी है माँ।
जाना ही है तो चली जाना माँ, लेकिन इस तरह कुपित होकर
तो न जाओ। अपने पुत्रों के माथे पर कलंक छोड़कर तो न
जाओ माँ। कहाँ धोने जाएँगे उस कलंक को? तुम्हारा आँचल
है तो माथे का बड़ा से बड़ा कलंक भी दिठौना बन जाता है
और तुम उसे अपने आँचल में छिपा लेती हो। तुम्हीं न
होगी तो वह दिठौना हमारे पूरे अस्तित्व पर कालिमा पोत
देगा। आज हम अपनी भूलों की आर पार की माला लिए
तुम्हारे सामने याचक की तरह खड़े हैं। रुकोगी नहीं
भागीरथी?
९ अप्रैल १९१२ |