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हरसिंगार
- शोभाकांत झा
आँगन
का नाम अधर पर आते ही मन ग्राम्यगंधी हो उठता। उसमें
भी आँगन के कोने में उगा हरसिंगार और तर करके रख देता
है। उसके ऊपर नीचे झरे-बिछे जोगिया रंगीन डंठलों वाले
खेत पुष्पों की सुगंध से शरदभोर पूरी तर विभोर हो उठती
है। इसी भोर की तरह सराबोर मैं उसकी कलियों को चुनने
लगता हूँ और मन स्मृति को।
बचपन के रचे वे पन्ने खुल जाते हैं, जिन पर धीरे-धीरे
गोरी होती भोर का उतरना रचा होता। सोनहा बिहान, शबनम
की मुसकान और प्रभाती गान के छंद रचे होते। बाबूजी पौ
फटने से घंटाभर पहले ही प्रभु को प्रभाती सुनाने लगते
थे और हम डलिया लेकर हरसिंगार की कलियाँ चुनने पहुँच
जाते थे-
रामचन्द्र रघुनाय तुमरों हौं बिनती केहि भाँति करौं।
अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम मनुमानि डरौं।।
पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहि हृदय धरौं।
देख आनकी बिपति परम सुख, सुनिसंपति बिना आगि जरौं।।
नाना वेष बनाय दिवस-निसि, पर बित जेही तेहि जुगति
हरौं।
एकौ पल न कपहुँ अलोल चित, हित है पद-सरोज सुमिरौं।।
उन दिनों सोचहीन वय के कारण बाबूजी के इस प्रभाती गान
का अर्थ नहीं लगा पाता था और इन दिनों दिवस-निशि अर्थ
दौड़ में दौड़ते रहने के कारणपर-दुख देखकर सुखी और
पर-सुख देख दुखी होने वाले आज के अर्थलोलुप मन में ऐसे
भजन भाव समा भी कैसे सकते हैं ? इस बहुरूपिए युग को वह
रुचि कहाँ कि वह रामरुप मे रम सके। हरसिंगार आगंन में
नही होता तो बाबू जी के गाये इस प्रभाती की स्मृति भी
शायद ही आती। महादेवी के यह पद भी क्यों याद आते-
पुलक-पुलक उर सिहर-सिहर तन
आज नयन क्यों आते भर-भर
शिथिल मधु पवन गिन-गिन मधुकण
हरसिंगार क्यों झरते-झर-झर।
पुलक का स्वाद पवन की सिहरन, स्मृति की मिठास और
हरसिंगार के झरने का अहसास बचपन की उम्र को क्या
मालूम। बचपन तो संग-साथ सबको सहजता से भीतर समोना
जानता है, ऊभू-चूभ होना जानता है। स्वाद तो बाद की
उम्र लेती है। संग-संग रीझने-खीझने, नाचने-गाने,
छिपने-छिपाने, उलाहना देने और अभाव में अकुलाने से
उपजी प्रीती का आस्वाद गोपियों को तब लगा जब श्याम
गोकुल छोर गया। और श्याम को भी व्रज छूट जाने पर व्रज
लीला की बेशुमार सधियो का स्वाद मेरा भी गोकुल बहुत
दूर छूट गया है। दूर होने पर स्मृति और गाढ़ी हो जाती
है- प्रीति की तरह, अहसास की तरह। शहर लाख सिर पटक ले
जब तक भीतर का आदमी मरा नही है, तब तक उसकी पर्याय
स्मृति मर नही सकती। सिंगार का सुगंध सिरा नही सकती,
कोयलिया की बोली भुला नही सकती।
रही बात हरसिंगार क्यों झरता है, तो जो खिलता है क्या
झरना उसकी नियति है। फूल अपनी सुगंध फैलाकर और अच्छे
अपनी अच्छाई को आचरण देकर दूसरो को खिलने का अवसर देते
है। समय रहते ही हट जाते है- जमे नही रहते नेताओ की
तरह। धक्का खाकर बाहर होने की आदत अच्छी नही होती।
हरसिंगार देवाधि देव महादेव का शृंगार है, वह उनका
शृंगार बनने, उनके संग पाकर कृतार्थ होने, औरों को
कृतार्थ करने की मंशा से झर जाता है। रूपगुण के फीका
पड़ने से पहले ही वृन्त से हट जाता है- सगे-सनेहियों
को कृतार्थ होने का, अपने होने को प्रमाणित करने का
मौका देकर सूखने पर तो सभी झर जाते है दयनीय दया का
पात्र बनने से पहले ही विकसित हो जाना बेहतर है।
रुप-राध इतराने की वस्तु नही, रमने-रमाणे की चीज है,
यह कहते हुए हरसिंगार यह भी झरकर कहना चाहता है कि
नश्वरता संसार की नियति है, इसलिए अच्छे के लिए अपने
को अर्पित कर देना अच्छा है। बहुत सारे आशय झरने मे
समोया हुआ है। समझ-सोच के अनुपात से आशय खुलता जाता
है।
हरसिंगार के मनुहार का मौसम प्रकृति के निखार की भी
रुत होती है। अवदात अकाश, शरदचन्द्र का आहलादमय हास
दिपदिपाते तारे- दिपावली के दीप जैसै। वनश्री सधस्नाता
सी लटों से शबनम की बूंदे बच्चो के मन जैसे निर्मल जल,
मनुहार के लिए गुहार लगाती रातरानी। शारदीय शक्ति पूजा
के लिए आहवान करती नवरात्रा। वर्षा भींगे अलसाये और
कृषि कर्म से थके लोक मन को शक्ति आराधना के लिए
उत्साहित करता शरद दुर्गोत्सव। दुर्गति से बचाने वाला
और दुर्गम विकास-विजय यात्रा को सुगम बनानेवाली दुर्गा
की आराधना के लिये भर-भर डलिया हरसिंगार चुन लेने हेतु
किशोर-किशोरियों में होर सी लग जाती थी, तब के दिनों
में। रामू, श्यामू, बाले-बिन्दे, रमेश, महेश, गमकला,
उर्मिला, गोदा, भूल्ली पीसी और जागेकाका- गाँव भर के
किशोर वय शक्ति भक्ति की औकात के मुताबिक पौ फटने से
पूर्व ही- देखें कौन कितना फूल चुनता है, फूल चुनती
थी। कमल मुख मुसकाते तालाब मे सात-सात डुबकी लगाकर
तैरकर कमलों को काढ़ते और बालसखा छिन्नमस्ता देवी की
आराधना के लिए दुर्गास्थान (उच्चैठ) चल परते।
डुमरा से कोसो भर की दूरी पर उच्चैठ मे दुर्गा देवी
राजती है, लोरिका धनौजा दोनो गाँव को पारकर जाना परता
था। सब बाल सखाओ के हाथों मे फूलो की डलियाँ होती और
जेब में ताम्बें के दो-चार पैसे। उन दिनों दो-चार पैसे
दो-चार रूपये के बराबर होते। साथ मे चूऱा-गुर की पोटली
भी। मंदिर परिसर मे पहुँचते ही भीर का ठेमल-ठेल और
मेले का रेलम-पेल। मंदिर मे प्रवेश पाने के लिए छोटे
रेल डब्बे कीसी धक्का-मुक्की देवी के चरण छू लेने की
होर-सी लग जाती। देवी के उपर चढे फूल जब बाह के अर्पित
होते फूलो के हल्के झटके से, या भार से, या अन्य कारणो
से या देवी की कृपा से भक्तो की अँजुरी मे और भक्तिनो
के आंचल में गिरते तो वे विभोर होकर भगवती की
प्रसन्नता को सम्हालकर रख लेते, माथे से निकलते।
गिरिजा पूजन के समय सीता के आँचल मे भी देवी के उपर
चढी माला प्रसन्नता का प्रतीक बनकर गिरी थी और देवी
गिरीजा मुस्कुरा उठी थी- खसी माल मूरति मुस्कानी।
निर्मल का अंजुरी मे गिरना या आँचल में आ जाना संभवतः
उन्हीं स्मृतियो और ज्ञाताज्ञात संस्कारो की स्मृति
है।
अष्ठमी के दिन का तो रंग ही दूसरा होता था। भौइद्दी मे
बसे पचास गाँवो की श्रद्धा उमर परती थी- अर्पित होने
के लिए, माँ की ममता दया पाने के लिए, सांसारिक सुख और
पारलौकिक कृपा पाने के लिए। ‘दुर्गा माता की जय’,
‘दुर्गा महारानी की जय’ की जयकार कोसों दूर से सुनाई
परती। श्रद्धा मेले का शोर आसपास के दसो गाँव में
सुनाई पड़ता। मंदिर के भीतर-बाहर ‘दुर्गा सप्तशती’
पाठियों के पाठ से आयतन पावन होता। आश्विन शुक्ल
प्रतिपदा से दशमी तक चलने वाला यह दशमी मेला आज भी
स्मृति मे जुड़ आता है- हरसिंगार की कलियों को चुनते
हुए। कालिदास का वह गढ़ (टीला) आखों के सामने झूल जाता
है, जहाँ वे पढे थे। यहीं कालिदास पत्नी की वाक-बाण से
बिंध होकर विद्या पाने आये, को कालि की कृपा से मिल गई
और वे कालिया से कालिदास बन गये थे। भले ही विद्वानो
का बहुमत उज्जैयिनी में कालिदास का होना प्रमाणित करता
हो, पर इस किवदंती को एकदम से नकारा भी नही जा सकता,
क्योंकि मिथिला विद्वानों से मंडित रही है और वैसे भी
विद्वान, संत-महात्मा एक देश-काल के होकर नही रहते।
‘हरसिंगार’ या मैथिली ‘सिंगरहार’ हरशृंगार का तद-भव
रुप है। तत्सम से तदभव जरा ज्यादा मीठा होता है।
लोकभाषा की प्रकृति मे ढला हुआ, काक से ‘कागा’ और पिक
से ‘कोईलिया’ की तरह मीठा। यह भले ही उगा हो हर-गौरी
के शृंगार के लिए, पर इसे अन्य देव-देवियों के लिए, पर
इसे अन्य परहेज नहीं। पवन-गगन सब इससे तर होते हैं। आप
भी तर हो सकते हैं। यह हर की तरह सबके लिए औढर है और
औषधि भी। इसकी कोमल पत्तियों को पीसकर सुबह शाम खाली
पेट पी लीजिए, पुराना बुखार उतर जायेगा। भूख जग
जायेगी। विश्वास बढ़ाने के लिए मेरी नातिन स्वाति से
पूछ लीजिए, जो इसकी पत्ती पीकर अच्छे स्वास्थ्य की
मालकिन है। तईभ से वैद्यनारायण की तरह मेरे आँगन में
विराजमान है। श्रीखंड जंदन के साथ इसके दो-चार गोरोचन
रंगी डंठलों को घिस दिजीए सुगंध में छवि और छवि में
सुगंध समा जायेगी और यह गोविन्द के भाल के गोरोचन तिलक
बन जायेगा। जब भी हरसिंगार को चुनता रहता हूँ तो दिनकर
की ये काव्य पंक्तियाँ स्मृति द्वार से अधर पर उतर आती
हैं और भूले-बिसरे दिन और लोग याद आ जाते हैं –
पहन शुक्र का कर्णफूल दिशा अभी भी मतवाली।
रहते रात रमणियाँ आई ले-ले फूलों की डाली।
हरसिंगार की कलियाँ बनकर वधुओं पर झर जाऊँगी।
१८ जून १९१२ |