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सूरज
डूब गया
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अष्टभुजा शुक्ल
सूरज डूब गया ! तो
मान्यवर, यह कोई नया शिगूफा है ? कौन सी ऐसी अनहोनी
जगत् में पहली मर्तबा घटित हुई है कि डंका पीट रहे
हैं। कोई आसमान तो नहीं टूटा है। यह तो संसार का चक्र
है। रोज ही तो सूरज उगता और डूबता है। आज डूबा है तो
कल फिर उगेगा । निकट भविष्य भले अंधकारमय हो, लेकिन कल
का बिहान तो पक्का है। अगर अंधकार कोयले की खान ही हो
तब भी उसे धधकाकर कहीं न कहीं से सूरज प्रकट हो जाएगा
और धरती के मुँह की कालिख पोंछकर उसमें रक्त-चंदन लगा
देगा। सूरज ऐसा ही माई का लाल है। नित्य जन्म और मरण
का साक्षी सूरज जीवट और महान् है। ऐसा सूरज डूबा है तो
कोई फिक्र की बात नहीं, लेकिन जिनकी डोंगी नदी में डूब
जाती है, जिनका टाइटेनिक सागर में डूब जाता है, जिनकी
खेती बाड़ी, पशु परानी, घर-द्वार सैलाब में डूब जाते
हैं, जिनके सपने अपनी ही आँखों में डूब जाते हैं वे
तो महाजाल डालने पर भी नहीं उपराते। वे पृथ्वी के नीचे
सड़-गलकर जीवन-चक्र के जीवाश्म बन जाने को अभिशप्त
हैं। फिर पेट्रोलियम बनकर इंजनों में धधकते हुए कभी
श्वेत तो कभी अश्वेत धूम्रवलयों में उड़ते हुए
वायुमंडल के अनुपात को बनाते-बिगाड़ते रहते हैं।
रहते हैं तो रहें, लेकिन
मेरा मन कहता है कि सूरज का डूबना सिर्फ़ काल-विभाजन का
मामला नहीं है, दिन की अर्धायु समाप्त हो जाने का
मामला भर नहीं है, इस ब्रह्माण्ड के सौर-तेज के अस्त
हो जाने का मामला भर का मामला नहीं है, बल्कि यह
चिड़ियों के नीड़ में वापस आने का भी मामला है, ढोरों
के गोष्ठ में लौटने का भी मामला है, फुटपाथों से दुकान
समेटने और तालाबों से बंसी बटोरने का भी मामला है,
रोशनी के विकल्प खोजने का मामला है और मामला है -
“घरी राति बितलीं, पहर राति बितलीं से धधके करेजवा में
आगि रे बिदेसिया” टेरकर कठकरेजी प्रियतम को उपालंभ
देने का भी! आज की यह रात भी अमावस की रात है।
पूर्णिमा की होती या दूज की ही सही, कम से कम मन तो
आश्वस्त रहता कि चलो सूरज डूब गया तो चन्दा के सहारे
रात कट जाएगी। लेकिन आज सूरज क्या डूबा कि हमें ही
निष्प्रभ कर गया। कल क्या होगा, कौन जाने? जानकारों के
अनुसार सूरज आग का एक बड़ा-सा गोला है। यदि यह गोला
डूब गया तो हम इतना पछता रहे हैं किंतु यदि यही गोला
धरती पर उतर आए तो? नहीं, नहीं अरुणदेव ! करबद्ध
निवेदन है कि जहाँ हो और धरती से जितनी दूरी पर हो,
उतनी ही दूरी बनाए रखो। इससे अधिक कृपा की जरूरत नहीं
! किसी-किसी की कृपा जितनी उपकारक होती है, उसका
सामीप्य उतना ही अनिष्टकर। जब तक सूरज हमसे इतनी दूर
है तब तक तो वह हमारी ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है,
किन्तु वह तनिक भी हमारी ओर खिसका तो हमें झौंस देगा ।
फिर हम न अंतरिक्ष में उड़कर बच पाएँगे, न रसातल में
धँसकर। चाहे सौर ऊर्जा का स्रोत हो या आणविक अथवा मानव
ऊर्जा का-जब तक हम स्रोतों की ओर जाते रहेंगे तब तक
कुछ न कुछ पाते रहेंगे, परन्तु यदि स्रोत ही हमारी ओर
बढ़ने लगेंगे तो गिनती उलटी शुरू हो जाएगी। निन्यानबे
के फेर में पड़ना खतरे से खाली नहीं।
आखिर, किन्तु-परंतु के पचड़े से कौन बच सका है ? दर्शन
कि साहित्य कि विज्ञान? विज्ञानियों का अनुमान है कि
कोई पाँच अरब वर्षों बाद सूरज का व्यास सौ गुना बढ़
जाएगा। तब वह कमल को खिलाने वाला, चकवा-चकवी को मिलाने
वाला, पूरब-पच्छिम का बोध कराने वाला, संसार को
हरा-भरा रखने का बीमा लेने वाला, सबको आदमक़द धूप देने
वाला सूरज नहीं बल्कि भयंकर रक्तदानव के रूप में धरती
की ओर लपकेगा। समुद्र सूख जाएँगे। वनस्पतियाँ भस्म हो
जाएँगी। धरा श्मशान हो जाएगी। चिता ही चिता दिखाई देगी
और मुखाग्नि देने वाला होगा सूरज। किन्तु कर्मकाण्ड के
लिए न गरुड़ पुराण बचेगा, न फातिहा। न पंडिज्जी, न
फादर, न मौलवी साहब। लेकिन साहब दसों नह जोड़कर
गुजारिश है कि पाँच अरब वर्षों बाद आने वाले अनागत से
तो हम पूरी तरह महफूज़ हैं, बल्कि हमारी आँखों के आगे
दिखाई देने वाली नाती-पोतों की तीन पीढ़ियों पर तो कोई
आँच आने वाली नहीं। फिर भी जिसे उस सर्वदग्ध चीत्कार
का सामना करना पड़ेगा, वे तो हमारे बड़ों के बड़ों के
बड़ों के बड़े ही होंगे। ओह! नहीं, नहीं, अरबों वर्ष
के भविष्य या अतीत के बारे में सोचना और विचार करना तो
हमारा कर्तव्य है, किन्तु वर्तमान में उसे देखने की
कल्पना भी किसी आपदा से कम नहीं।
जो लोग वर्तमान को अतीत
का जीरॉक्स समझते हैं वे संसार को पत्थरों और अस्थियों
का संग्रहालय बनाना चाहते हैं और प्रेतबाधा से ग्रस्त
मानसिकता के होते हैं तथा जो वर्तमान को भविष्यफल के
आधार पर चलाना चाहते हैं, वे जीवन से अधिक बेजान
नक्षत्रों के अंधविश्वासी होते हैं। सचाई यह है कि जो
अपने वर्तमान में नहीं होता वह न तो अपने अतीत से आया
हुआ लगता है और न भविष्य में उसकी कोई राह बनती है।
सुदूर भविष्य से नातिदूर वर्तमान कहीं भला है। पाँच
अरब वर्षों बाद के मिथकीय भयावने सूरज की तुलना में आज
का डूबता हुआ सूरज कम अवसादकारी है । सूरज के उस
दीर्घकालिक और दुष्ट पाठ को पढ़ने से हम इनकार करते
हैं, इस अतिभौतिकी और अतिमिथकीय कक्षा का बहिष्कार
करते हैं। हमारा आज का पाठ डूबता हुआ सूरज है और वह
खुद ही चिता पर है। सच तो यह है कि संसार की ऊर्जा का
सबसे बड़ा स्रोत अहर्निश जलता ही रहता है, लेकिन आज तक
जलते हुए सूरज की कहीं चुटकी भर राख नहीं मिली। इसको
कहते हैं जलना ! उस ग्रह का अपना अकेला श्मशान है जहाँ
से वह हमारे ग्रह को जीवनदान प्रदान कर रहा है। जलते
हुए सूरज की बदौलत ही हम हरे-भरे संसार के दिन देखने
को पा रहे हैं।
हम इस सूरज के कृतज्ञ हैं। आभारी हैं। सम्प्रति, यह
तेजोमय सूरज डूब रहा है और अनित्याभास करा रहा है।
सुभाषितों का कथन है कि सूरज उगता हो या डूबतादोनों
ही दशाओं में लाल रहता है। आशय यह कि सुख हो या
दुख-महान् लोग प्रत्येक दशा में एक समान और अविचलित
होते हैं। फर्क नहीं पड़ता। नहीं फर्क पड़ता होगा
महान् लोगों को ! बनी रहती होगी उनकी लाली, लेकिन
छोटों पर तो फर्क पड़ता है। सूरजमुखी और कमल पर फर्क
पड़ता है। उल्लुओं, जुगनुओं और सितारों पर फर्क पड़ता
है। मशालों, मोमबत्तियों, ढिबरियों, लालटेनों और
टार्चों पर फर्क पड़ता है। एक के बुझ जाने से बहुतों
को जलना पड़ता है। दिन में जिनकी कोई भूमिका नहीं मानी
जाती, उन्हें रात में अभिनय करना पड़ता है, लेकिन
मित्र, मित्र डूब रहा है। डूबते हुए मित्र को प्रणाम
करने वाले भी कुछ लोग होते ही हैं। आँवले की
सहमतीं-सिकुड़तीं पत्तियाँ, वृक्षों पर खामोश बैठा
कपिवर्ग, ग्राहकों को खोजतीं भुनी हुई मूंगफलियाँ,
रतौंधियाँ सब के सब अस्तगामी सूरज को श्रद्धांजलि
देते नज़र आ रहे हैं। वैसे तो सबके अपने-अपने सूरज,
चाँद, सितारे हैं। ये किसी के घोषणापत्र हैं तो किसी
के चुनाव-चिह्न, किसी के चारोधाम तो किसी के
मोनोग्राम।
स्वदेशी स्वयंसेवकों का
अपना महान् सूरज है तो वैश्वीकरण के बाबुओं का अपना।
किसी ने उसे कपड़े पर उतार लिया है तो किसी ने कागज
पर; किसी ने आँखों में बसा लिया है तो किसी ने जबान
में; किसी ने कविता में ढाल लिया है तो किसी ने कहानी
में। इस अपना-अपनी में कोई नहीं देखता कि सूरज तो जलते
हुए ही जीवन जी रहा है। कोई नहीं देखता कि किसी के
साम्राज्य में भण्डारण सड़ रहा है तो किसी की क्यारी
में बोने भर को बीज नहीं। जिनके पास अपने खड़े होने भर
को भूमि नहीं उनके लिए लेटने और सोने की जगह कहाँ ?
कोई भी रजिस्टर्ड श्मशान उन्हें अपने भीतर दाखिल होने
की अनुमति नहीं देता। मर कर भी खड़े रह सकते हो? बराबर
है। दिन भर झुके रह सकते हो? बराबर है। बिना दाना-पानी
के समुद्र उलीच सकते हो? बराबर है। कैसा बराबर और कैसी
बराबरी? बर्बरता की बराबरी कौन कर सकता है? कुछ लोग
सपना पाले हुए जीवन भर जुते रहते हैं कि किसी दिन हम
भी उठकर, उनके बराबर हो जाएँगे जबकि ऊपर के लोग उठ रहे
लोगों को नीचे ढकेलने के उबटन में लगे रहते हैं। उठकर
बराबर होने की कोशिश और उस कोशिश को ऊपर से धराशायी
करने का कुचक्र ही तो जगत् की द्वन्द्वात्मकता का
श्वेतपत्र है! किन्तु ऐसी द्वन्द्वात्मकता में ज़मीन और
आसमान का फर्क होता है। जबकि बराबरी की
द्वन्द्वात्मकता ही दुनिया का सबसे खूबसूरत बिम्ब है।
सूरज निद्र्वन्द्व है और
अकेला है। यही उसकी आंतरिक पीड़ा है। इसी बेचैनी से वह
लगता है आत्मदाह करके अंतरिक्ष के महासागर में कूद
पड़ा है। किन्तु किसी गुब्बारे की तरह हल्का सूरज
महासागर की सतह पर, औंधे अंतरिक्ष में कुशल नट की तरह
करतब दिखाता हुआ, तैर रहा है। और अब धीरे-धीरे महासागर
के उत्प्लावन बल से सूरज का भार अधिक हो रहा है। जैसे
गुब्बारे में पारे की तरह सूरज का दुख पल-पल घनीभूत हो
रहा है और वह डूब रहा है। गतोऽस्तमर्क। देखने में यह
एक सामान्य-सा कथन या वाच्य है.जिसका वाच्यार्थ एक
मामूली-सी क्रिया है । यह मामूली-सी लगने वाली क्रिया
अपने व्यंग्यार्थ और पाठोपपाठ से बखेड़ा बन जाती है।
तब हम प्रकृत सूरज से
निरपेक्ष होकर अपनी दुनिया में लौट आते हैं। प्रश्न यह
है कि कौन किससे कह रहा है कि सूरज डूब रहा है? गोपाल,
ग्वाले से कह रहा है या महाजन नौकर से ? सास बहू से कह
रही है या बेटी से ? प्रेमी, प्रेमिका से कह रहा है या
दूती से ? मजदूर अपने साथी से कह रहा है या ठेकेदार से
? कोई सैलानी चित्रकार से कह रहा है या तस्कर, अपने
यार से ? मौसेरे भाई, सूरज डूब रहा है। सखि, सूरज डूब
रहा है। बंधु, सूरज डूब रहा है।
बेटी, सूरज डूब रहा है। हुज़ूर, सूरज डूब रहा है। ऐसी
ही हजारों घटनाओं और दुर्घटनाओं के बीच सूरज डूब रहा
है। सूरज के डूबने के सबके अपने-अपने पाठ और
अर्थ-सन्दर्भ हैं। अत. किसी को उसकी समग्रता में जानने
या समझने के लिए सन्दर्भ का देखना जरूरी है। सन्दर्भ
से अलग रखकर या सन्दर्भ से काटकर देखे गए अर्थ का
अनर्थ होना तय है.; बल्कि सन्दर्भ ही सबसे प्रामाणिक
पाठ है। हमारा आज का सन्दर्भ, कोई शिगूफा नहीं बल्कि
डूबता हुआ सूरज है। शिगूफे तो वे छोड़ते हैं जो
प्रचारित करते हैं कि उनके साम्राज्य का सूरज कभी
डूबता ही नहीं। इसमें मुझे सन्देह है इसलिए कि जो सूरज
को अपनी मुट्ठी या जेब में रखे रहने का भ्रम पाले रहते
हैं, यदि वही उनकी गगनचुंबी छत पर भी पहुँच जाए तो
कहीं अता-पता नहीं लगेगा। आखिर, उनके राज का सूरज
डूबते हुए हमने अपनी ही आँखों से देखा। हाqकग्स की
अवधारणा है कि एक ही समय में कोई भी घटना घटित हो भी
सकती है और नहीं भी । इस प्रकार संभव है, जिन्हें यह
गुमान रहा हो कि उनके साम्राज्य में सूरज कभी डूबता ही
नहीं, ठीक उसी व़़़क्त उनका सूरज डूब रहा हो, आभा
निस्तेज हो रही हो, तापमान उतर रहा हो और अगला कदम ही
पतन के पाले में हो!
जो भी हो, हो हो हो हो
हमेशा वही करते हैं जिन्हें व़़क्त के तकाज़े का पता
नहीं होता, देशकाल से कुछ लेना-देना नहीं रहता, न
वस्तु की जानकारी से मतलब, न विषय की गंभीरता से !
यहाँ गतोऽस्तमर्क. कोई काव्य-बिम्ब भर नहीं बल्कि
मम्मट का काव्यशास्त्रीय उदाहरण है। वाच्यार्थ और
व्यंग्यार्थ को और खोलने के लिए, दुनियादारी के
कथनोपकथन के निहितार्थ को और समझने के लिए, अपने-अपने
पाठ की मंशा को ठीक ढंग से उजागर करने के लिए
काव्यप्रकाशकार ने डूबते सूरज के सन्दर्भ में महाभारत
से एक और उदाहरण पेश किया है गृध्रगोमायु संवाद। यह
एक हिला देने वाली त्रासदी है। कुछ परिजन अपने मृत
बड़े को लेकर श्मशान पहुँचते हैं। सूरज के डूबने में
कुछ ही देर बाकी है। गिद्ध और सियार दोनों ही बड़े की
लोथ नोचने की ताक में हैं। अत. दोनों ही सूरज के डूबने
की व्याख्या अपने-अपने ढंग से करते हैं। परिजनों को
कन्विंस करना चाहते हैं। ऐसी सोद्देश्यता और उपदेश
केवल साम्प्रदायिक शैतानों में ही देखी जा सकती है।
अँधेरा होने पर गिद्ध मांसभक्षण में असमर्थ हो जाएगा।
अतएव वह चाहता है कि दिन रहते ही तुरंत परिजन लाश
छोड़कर चले जाते तो हमारा कलेवा हो जाता। उसकी दलील
देखिए
अलं स्थित्वा श्मशानेऽस्मिन् गृध्रगोमायु संकुले
कंकालबहले घोरे सर्वप्राणि भयंकरे।
न चेह जीवित. कश्चित् कालधर्ममुपागत.
प्रियो वा यदि वा द्वेष्य. प्राणिनाम् गतिरीदृशी ।।
गिद्धों, सियारों और हड्डियों से पटे हुए इस भयानक
श्मशान में देर तक रुकना ठीक नहीं। इस संसार में काल
के मुँह में गया व्यक्ति, चाहे वह प्रिय हो या दुश्मन,
दुबारा जीवित नहीं हो सकता । वही बात कि यह तो संसार
का चक्र है। मोह-माया छोड़ो। पचड़े में मत पड़ो।
विरक्ति सीखो विरक्ति! दूसरी ओर सियार रात में ही
मांसभक्षण कर पाएगा। अतएव वह चाहता है कि परिजन
सूर्यास्त तक यहीं डटे रहते तो उसकी गोटी बैठ जाती। वह
दूसरी ही कूटनीति अपनाता है। आसक्ितवादी। उसका अपना
तर्कशास्त्र विकसित होता है और श्रोताओं को रिझाने का
प्रयास करता है। पहले मत का खण्डन करके
अमुं कनकवर्णाभं बालमप्राप्तयौवनम्
गृध्रवाक्यात्कथं मू.ढा . त्यजध्वमविशंकिता।
आदित्योऽयं स्थितो मू...ढा. स्नेहं कुरु साम्प्रतम्
बहुविघ्नो मुहूर्तोऽयं जीवेदपि कदाचन् ।।
अरे मूर्खों! गिद्ध की बातों में फँसकर इस सोने जैसे
किशोर को तुरंत छोड़कर चले जाने वाले तुम लोग कितने
निर्मम हो ? दिन डूबने तक तो इससे प्रेम रखो। अभी
दुर्घट है । हो सकता है कि अच्छा मुहूर्त आने पर ब.ा
पुनर्जीवित हो उठे! जो भी परेशान है, वही मूर्ख है।
बुद्धिमान हैं वे जो दूसरों की परेशानी का अनुचित लाभ
उठाने की फिराक में रहते हैं। ऐसे स्वार्थी तत्त्वों
के तर्क इतने प्रबल होते हैं कि आपको qककत्र्तव्य बना
देते हैं। जाएँ तो जाएँ कहाँ? इसी पचड़े को शायद
यलाशों की राजनीति करनाङ्क कहते हैं। जाने क्यों ऐसा
लगता है कि हमारे यहाँ का लोकतंत्र मृत बड़े के शव के
समान है। समता, धर्म निरपेक्षता, स्वतंत्रता,
सम्प्रभुता आदि की तीसरी कसम खाने वाला यह पक्ष या वह
पक्ष, गिद्ध अथवा सियार है, जिसकी निगाह में देश की
बोटी है। और परिजन हैं हत्बुद्धि सामान्य नागरिक जो
सिर्फ़ मतदान करने के लिए नागरिक हैं। जिन्हें हर हाल
में राष्ट्रगान गाना है। अशोक स्तम्भ को qसह मानकर
स्वयमेव मृगेन्द्रता को अनुभव करते जाना है। राष्ट्रीय
पक्षी को देखकर पंख फैलाए नाचना है। राष्ट्रीय पुष्प
को देखकर खिले-खिले रहना है और भाग्यविधाता की
सियरमटकउल सहना है। इस पर किसी को कुछ कहना है? स्वागत
है।
गाँधीनगर से नौ साल की
नफ़ीसा सिसक-सिसककर अपनी अम्मी और अब्बू की कब्र के लिए
जगह माँग रही है, मुम्बई से भागलपुर भागने के लिए
दीनानाथ पहली गा.डी का समय जानना चाहते हैं,
नन्दीग्राम के ढोंढाई पुलिस की गोली का वस्तुविज्ञान
जानना चाहते हैं, कालाहाँ.डी के कृष्णप्रसाद रोटी का
स्वाद पूछ रहे हैं, हैदराबाद की सानिया का सवाल है कि
किस देश का आदमी कपड़े पहनकर पैदा होता है? ये सभी
सवाल वास्तविक हैं,लेकिन सभी नाम काल्पनिक। हर कोई
सवाल के साथ अपना वास्तविक नाम छिपाना चाहता है.;
क्योंकि सवालों से जुड़े सही नामों पर अंदेशे ही
अंदेशे हैं। विपदाग्रस्त आदमी अपना असली नाम उजागर
करने में भी भयभीत है। भय, भूख और भ्रष्टाचार भगाने का
अनुप्रास छलावा है। सिर्फ वर्णच्छटा। अपना नाम बताने
की कीमत चुकाना इसके अलावा है। इसी सूर्यास्त के समय
सवालों के इतने फोन घनघना रहे हैं और सबमें छद्म नाम
पेश करने की गिड़गिड़ाहट है। क्या ये आवाजें और
चीत्कार किसी श्मशान से आ रही हैं अथवा आकाशवाणी है?
तीन सौ जिन्दा जलाए गए। दो सौ विस्फोट में हताहत।
सफेदपोश संलिप्त पाए गए। पुलिस ने कई चक्र गोलियाँ
चलार्इं। स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में। बंद
करो यह रेडियो। पुराना संचार है। अब सब कुछ इंटरनेट पर
उपलब्ध है। भिखमंगई हो या लु.ई। नंगई हो या दबंगई।
ज्ञान हो या परिधान। अध्यात्म हो या आत्महत्या।
जय, जय हो या अमर रहे। कोई निजी चैनल खोलो। जबान सँभाल
के बोलो। बोलने की सबकी अपनी भाषा और तेवर हैं।
अपने-अपने कोड और अपने-अपने पाठ हैं। जब सबकी सबसे
असहमति है तो पाठ की प्रवीणता से प्रवीणता का पाठ भी
खुल जाता है। भाष्यकारों के लिए जैसे मृत वैसे ही
अमृत। एक उपसर्ग ही तो अलग से जुड़ा है, प्रत्यय हो न
हो। यह तो सच है कि शब्द का कोई पेटेन्ट अर्थ नहीं हो
सकता, किन्तु सन्दर्भ से काटकर किया गया पाठ झूठ ही
नहीं फरेब भी होता है। इस ध्वनिदेश में अब चीखना ही
बोलना है। इसी कनफोड़ शोर से ऊबकर ही शायद मीर को कहना
पड़ा सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलो! लेकिन सुनता कौन
है ? अनुरोध की भाषा, सिसकी और विलाप की भाषा, साधु और
निकोप भाषा के व्यंजन तो व्यंजन स्वर भी डूब चुके हैं।
इन्हें सुनने वाले कान ही नहीं रहे। इन्हें अनुभव करने
वाले दिल ही ट्रान्सप्लान्ट हो चुके हैं। दुख,
दारिद्र्य, पीड़ा और यातना को देखने वाली आँखों का
रेटीना बदल चुका है। कर्मेन्द्रियों ने
ज्ञानेन्द्रियों पर कब्जा कर लिया है। अवैध कब्जों के
दिन हैं ये ! पहले जिन सियारों और गिद्धों की चर्चा
है, वे श्मशान में नहीं तो कहाँ रहेंगे ? मृतकों के
माँस न खाएँ तो कैसे जिएँगे ?
वर्तमान वैश्वीकरण के युग में भी कुछ ऐसी जनजातियाँ
बताई जाती हैं जो संकट काल में अपने ही मृत अथवा
मरणासन्न शिशुओं का मश्रर्ैस उन्हें खिला देती हैं जो
बच गए हैं या जीवित रहने वाले हैं, किन्तु मानव
विज्ञानq एशली मोंटेगू इसे यनरभक्षी प्रवृत्तिङ्क नहीं
मानते। जीने के लिए तो मरे हुए को खाया भी जा सकता है,
लेकिन जो अपनी सभ्यता के साम्राज्य विस्तार के लिए,
दूसरों की सभ्यताओं को नेस्तनाबूद करने के लिए बड़ों
और औरतों तक को स्वाहा कर देते हैं ऐसे यसभ्योंङ्क से
तो वे यअसभ्यङ्क ही सभ्य हैं जिनमें जीवन को बचा लेने
की चाह तो बची हुई है। सावधान ! मुँह में खून लगे हुए
कुछ यसभ्यावतारङ्क आ रहे हैं !
सूरज प्राच्यवादी है, लेकिन फिलव़़क्त वह पश्चिम के
फेर में उलझा हुआ है। डूबता हुआ सूरज लगता है कि
क्षितिज की कोख में अरुण-भ्र्रूण का एबॉर्शन हो गया
है। धरती कराह रही है। अत. आज का पाठ यडूबता हुआ
सूरजङ्क एक सवाल है। जिन सहपाठियों ने इसका सटीक उत्तर
खोज लिया है वे बैठ जाएँ, बाकी लोग खड़े रहें। आखिर,
एक अध्यापक और कौन सा यपुरस्कार और दण्डङ्क दे सकता
है? बहुत हुआ तो पाकिस्तानी शायर इस्लाम अ़़़ज्मी के
दो शेर सुना देगा
जहाँ पर चूमता है आसमां धरती की पेशानी
वहाँ बुझता हुआ सूरज सितारा रोज़ होता है
हमें ये रेत जैसी दलदलें रस्ता नहीं देतीं
चलो, आओ, उधर से तो इशारा रोज़ होता है।
२५ जुलाई २०११ |