निर्वासन
डॉ. शोभाकांत झा
निर्वासन और निर्वसन के
बीच मात्र एक मात्रा का अंतर है, परन्तु दोनों के भीतर
निहित अपमान-अवसाद की तादात में बेशुमार फर्क है। ठीक
है कि जिसके असन, वसन और वास का ठीक-ठिकानान नहीं
होता, उसके लिए पुण्य प्रकाशी काशी भी मगहर जैसी हो
जाती है और पुण्य सलिला शीतला गंगा भी अंगारवाहिनी
लगती है –
असनं वसनं वासो येषां चैवाविदानतः।
मगधेन समाकाशी गंगाप्यंगारवाहिनी।।
परन्तु आधा पेट खाकर, लंगोटी लकाकर, वृक्ष के नीचे
रहकर भी कमोबेश सुख काअनुभव किया जा सकता है, ‘अइहहिं
बहुरि बसन्त रितु’ की आशा में जीया जा सकता है। फुटपाथ
को वास स्थान बनाकर जिंदगी को घसीटकर लोग जी ही रहे
हैं। परन्तु निकाले जाने का दर्द बड़े-बड़े मर्दों से
नहीं सहा जाता। इसकी पीड़ा भोक्ता को तो हिला ही देती
है, द्रष्टा को तटस्थ नहीं रहने देती, द्रवित कर देती
है। पाषाण को पिघला देती है। प्रमाण चाहिए तो पंचवटी
से पूछिए, जोसीता के अकारण निर्वासन की कचोट से रो उठी
थी, बज्र का हृदय फट पड़ा था। आकाश चीत्कार कर उठा था।
वनदेवी थरथरा उठी थी और तभी सेराम राम नहीं, राजा राम
– आत्मनिर्वासित राम – रह गए थे।
निर्वासन यातना का अक्रूर रूप है। यह निर्वासित को
जल्दी से मारता नहीं, सालता है। चोट नहीं पहुँचाता,
कचोटता है। यदि अच्छे कार्यके लिए, देशहित के लिए
निर्वासन राजदंड के रूप में दिया जाता है तो वह ज्यादा
दुःकद नहीं होता। व्यक्ति अच्छे काम के नाम पर
कालापानी की सजा भी काट लेता है। तिलक ने तो कालापीन
की यातना सहते-सहते गीता का भाष्य ही लिख डाला था।
आज़ादी के दीवानों ने क्या-क्या नहीं सहाथा, परन्तु
धरणीसम धीरा सीता भी निर्वासन के दर्द को नहीं सह पाई
और धरती में समा गई, क्योंकि यह निर्वासन राजदंड से
प्रेरित नहीं था। अपनों के द्वारा अपने का निर्वासन
था। समूह मन का निकाला था। राजा समूह मन का मालिक
कहालाता है। प्रकृति का रंजन करने वाला राजा कहलाता
है। उसमें भी राम जैसे राजा ने निकाला दिया था। अनन्य
ने अन्यकी तरह व्यवहार किया था। कैसे सह पाती सीता ?
यक्ष अलकापुरी से निर्वासित हुआ था, प्रिया के मन से
नहीं। उसे अपनी अनवधानता का भी अहसास था,इसलिए वह आकुल
हुआ था, पर आत्मघातके लिए आतुर नहीं।
देश निकाला का दर्द सहा जा सकता है, पर मन के निकाले
का नहीं। थेथर लोगों की नेता किस्म के मानुष की बात और
है। सौ जूते खाकर भी थेथर लत नहीं छोड़ता और ज जूते की
माला पहनकर भी नेता कुर्सीनहीं छोड़ता। राम के बिना
अकाम मैथिली ने मिट्टी में समा जाना ज्यादा बेहतर
समझा। व्यर्थ चेतना का विलाप बनकरजीने से समा जाना
अच्छा समझा गया। तिल-तिल जीवित मृत्यु को जीने से एक
बार ही मरण को स्वीकार करना अच्छा समझा गया।
सीता के धरा में समा जाने के बाद क्या राम भी आराम से
रह सके ? क्या वे भी आत्मनिर्वासन की पीड़ा से छटपटाते
नहीं रहे ? वे ऊपर से भले ही शान्त दिखाई दे रहे थे,
किन्तु भीतर से पूरी तरह अशान्त, शीतल सागर के भीतर आग
चल रही थी। व्यथा कहें तो कैसे और किससे ? राजा तो ठीक
से न रो सकता है न हँस सकता है।
राम की बात राम जानें। मर्यादा की सीमा राम-रहीमा के
लिए सब कुछ सह्य है – संभव है (रामंतु सर्वं सहे)
किन्तु आत्म निर्वासन की यंत्रणा यह यंत्र युग का मानव
कैसे सहे ? इस यंत्र युग ने माल को भीतर भर दिया है और
मनुष्य को बेघर कर दिया है। पति को परदेस भेज दिया है।
बेटे को कारखाने का मजदूर बना दिया है। बाप-बेटे को
अलग कर दिया है। जैसे-तैसे बाप-बेटे से मिलने बंबई
नगरिया पहुँच भी जाता है तो बेटे को मन भर बतियाने के
लिए फुर्सत नहीं। संतान झूलेघर में और
भाग्यवान-भाग्यवती नौकरी पर। निर्वासन का सिलसिला एक
हो तो बताया जाए, यहाँ तो सारे रिश्ते रिस रहे हैं और
सरोकार सर्द हो रहै हैं। भीड़ बढ़ गई है। आदमी अकेला
हो गया है। आत्मनिर्वासित आदमी आत्मगात से लेकर
आतंकवाद तक कुछ भी अकर्म करने के लिए उतारू है। यह युग
सच पूछें तो निर्वसन रहने से ज्यादा निर्वासन का ही
दर्द भोग रहा है। अपनों से निर्वासित होकर जी रहा है।
बंजारे भी साथ-साथ रहने का सुख पाते हैं। पर अघोषित
बंजारे को तो वह भी प्राप्त नहीं है। भगवान बचाए इस
निर्वासन से।
२४ मई २०१० |