अमलतास से मेरा परिचय
--धर्म प्रकाश जैन
अमलतास से मेरा
परिचय बचपन से है। जैन तीर्थ 'पारस
नाथ पर्वत' की 18 मील
की यात्रा के दौरान मैंने सैकड़ों अमलतास के पेड़
देखे थे। अमलतास और बुरूँस के पेड़ों में फूल
बहुतायत से आते हैं। बसंत ऋतु में अमलतास सुनहरे
पीले फूलों से ढका रहता है और बुरूँस लाल रंग के
फूलों से।
दिल्ली में मैं
एक किराये के मकान में रहता था। मेरे घर के सामने
एक अमलतास का पेड़ था। मैंने जब रहना शुरू किया था
पेड़ छोटा था। माघ फाल्गुन में उस पर पतझड़ होना
प्रारम्भ होता और देखते ही देखते कुछ कोपलों के
अलावा ठूँठ होकर रह जाता, इसके बाद पेड़ पर पत्ते
तेजी से बढ़ते। हर दिन पत्तों का आयतन २०-२५
प्रतिशत बढ़ जाता।
पेड़ दिन पर दिन
लम्बा और चौड़ा होता गया। धीरे धीरे इस पर पीले
रंग के फूल छा गये। ऐसा मालूम होता था कि पेड़ पर
पत्ते कम हैं और फूल ज्यादा हैं। इसके बाद फल आने
आरम्भ हुए। सिर्फ़ यह पेड़ ही नहीं, अमलतास की
प्रकृति ही ऐसी हैं।
शुरू शुरू में
इसका फल तरोई के आकार का हल्के हरे रंग का होता
है। क्रमश: फल की लंबाई बढ़ती जाती है और रंग
बदलता जाता है। इसका नीचे का सिरा गोल व नुकीला
होता है। फल का रंग हरे से कत्थई और पूरी तरह पकने
व सूखने पर कालापन लिये हुये भूरे रंग का हो जाता
है।
अमलतास के फल का प्रयोग दवाओं के लिये और तने का
उपयोग चर्मशोधन शाला में होता है।
अमलतास शोभाकारी
वृक्ष माना जाता है छाया-वृक्ष की तरह प्रयोग
अपेक्षाकृत कम हुआ है। मैं इसके आतंकवादी रूप से
भी परिचित
हूँ जब इसने ग्रीष्म ऋतु की आँधी में एक दिन अपने
ऊपर से जाने वाले सजीव बिजली के तारों को
मिलाने
की कोशिश की थी और दृश्य चिनगारियों की चकाचौंध
में भयावह हो उठा था।
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सूर्य देव का सारा
प्रचण्ड ताप मानों लाल और पीले रंग में धरती पर
उतर आया हो। ऐसी चमक ऐसा सौंदर्य कि एक बार देखो
तो देखते ही रहो। एक टक निहारता रहा प्रकृति की इस
अनुपम रूप -छवि को और पता नहीं कब उम्र का अश्व
बचपन की कुंजों में पहुँच गया।
हमारे घर का दरवाजा
जहाँ खुलता था वहीं से बाग की सीमा शुरू हो जाती।
तमाम तरह के आमों के पेड़ और चारों और बड़ी खाई पर
लगे शीशम, आँवला, नीम, बकेना, नीबू आदि के पेड़।
गर्मी के दिनों में बाग में पानी भर दिया जाता था
जिससे बाग में गर्मी का नामों निशान नहीं रहता और
उस पर सुओं (तोतों) के कुतरे हुए आम खाकर तो मन
तृप्त हो जाता।
बाग के बीचों बीच
अमलतास का बड़ा पेड़ था। पूरी साल भर तो हरे पत्ते
सरसराते रहते परन्तु गर्मी के दिनों में जैसे ही
पहला गुच्छा अमलतास की टहनियाँ अपने कानों में
लटकाती कि मेरे लिए खुशी का पार ना रहता। जाने
किसे-किसे ले-जा-जाकर उसे दिखा रहता और धीरे-धीरे
पूरा पेड़ पीले झुमकों से लद जाता और पत्ते गायब हो
जाते यह जादुई आकर्षण मुझे इतना प्रभावित कर लेता
कि खाट से उठते ही बाग की ओर भाग खड़ा होता। दिन
भर वहीं जमा रहता। पीले-पीले गुच्छे तोड़-तोड़
कानों में लटका लेता । कोयल जब अमराई में आकर
कूकती तो मन में लहरें उठने लगतीं। मन बँध जाता,
लगता कि यहीं, यहीं और यहीं बैठे रहें। और ऐसा लगे
भी क्यों नहीं देखने के लिए अनुपम सौंदर्य युक्त
पीत पुष्पगुच्छ खाने के लिए मीठे आम, सूँघने के
लिए अमराई की मधुर, मदिर और सोंधी गंध कानों के
लिए अमृत घोलती कोकिल की कूक, मन को शीतलता प्रदान
करता हवा की शीतल झोंका। सब कुछ तो है प्रकृति के
पास और जो कुछ है उसके पास वह सबका है क्यों कि सब
उसके हैं। प्रकृति कभी भेद-भाव नहीं करती। वह
मुक्त हस्त अपनी सम्पदा लुटाती है। वन-बालाएँ
अमलतास के गुच्छे कानों में पहनकर शरमाती, लजाती,
इठलाती और बलखाती जब पगडण्डियों से गुजरती हैं तो
महाकवि कलिदास भी उनका वर्णन किए बिना नहीं रह
पाते।
अब गाँव जाने का
मन नहीं होता क्यों कि अब वहाँ अमलतास नहीं रहा, अब
वहाँ आमों का बाग नहीं रहा। अब कुछ है तो
बड़े—बड़े मकान और गलियों मे पसरा सन्नाटा। मात्र
दो-चार आम के बूढ़े पेड़ खड़े हैं जिन पर कभी-कभार
कोयल आकर बैठती है ओर कूक कर रश्म अदायगी कर जाती
है। अमलतास का ठूँठ मात्र है अभी जो बहुत कुछ अपने
अन्दर छिपाए वृद्धावस्था का अभिशप्त जीवन जिए जा
रहा है।
मैं न जाने
क्या-क्या सोचते हुए कहाँ पहुँच गया और न जाने
निराशा के कितने दरवाजों के पीछे पहुँच जाता कि
मेरे मन को शायद अमलतास ने पढ़ लिया और हवा का
झोंका आया और अमलतास ने अपने पीले जादुई गुच्छों
से एक अंजुरी भर पंखुड़ियाँ मेरे सिर पर बिखरे
दीं। मैं अतीत से वर्तमान में लौट आया।
प्रकृति के ये
अबोले सहचर मानव जीवन के लिए बहुत उपयोगी हैं।
जल्दी बड़े होकर पीले फूलों से जादुई सौंदर्य
बिखेरने वाला अमलतास वातावरण में नाइट्रोजन को
संतुलित रखने मे गजब की क्षमता रखता है। इसीलिए
अमलतास की प्रकृति संत की है लेकिन प्रकृति की
छरहरी बालाएँ वल्लरी और लताएँ अमलतास को अपना
प्रिय कंत मान कर उस पर सर्वस्व न्योछावर करने के
लिए होड़ लगाए रहती हैं—
संत अमलतास या
महंत अमलतास वल्लरी लताओं के कंत अमलतास !
पीत
वसन पहन आप बाग में पधारे, पुष्प पांखुरी हों
मानों स्वर्ण के सितारे
नख से शिख तक वसंत का लिबास, वल्लरी लताओं के कंत
अमलतास!
झोंके पवन के जब झूम झूम आते, लहरों में लहर लहर
गुच्छ गुनगुनाते
वयःसन्धि लतिका का हो चला विकास, वल्लरी लताओं के
कंत अमलतास!
अल्हड़ नवेली वनबेली यूँ बोली, सरेराह संत जी करो
न यूँ ठिठोली
छेड़ेंगी सखियाँ कर करके उपहास, वल्लरी लताओं के
कंत अमलतास!
भोली सुकुमार देह रूप के सलोने, छू छू के हवा मारे
दिस दिस में टोने
अब कहाँ लताओं के होशो–हवा, वल्लरी लताओं के कंत
अमलतास!
16 जून
2007 |