1
रस
आए रस जाए
उमा शंकर
चतुर्वेदी
संसार
में जिधर देखिए, रस ही रस मिलेगा। रस में
तो रस है ही, अनरस और आनीरस में भी रस
होता है। पृथ्वी के तीन चौथाई भाग में रस
भरा हुआ है शेष चौथाई भाग में भी रस की
कमी नहीं है। सब तरफ़ रस की सरसता देखी जा
सकती है।जल
तो रस है ही काव्य के दस रसों के अलावा और
भी अनेक रस होते हैं। फलों के रस जैसे अंगूर
का रस, मौसंबी का रस, आम का रस, संतरे का
रस आदि होते हैं। इनके अलावा कई रस हैं जैसे
राम रस, राग रस, गन्ने का रस, यौवन रस,
केलि रस, रतिरस, मधुर रस, गो रस, अधर रस,
स्नेह रस, प्रेम रस, विरति रस, अमृत रस, रूप रस,
बतरस, नयन रस, चुंबन रस, स्पर्श रस, नृत्य
रस, जीवन रस, षड्रस, नया रस, पुराना रस,
जिह्वा रस, लालारस, आयुर्वेदिक रस भी होते
हैं यथा हेमगर्भ रस, अभृक रस,
महामृत्युंजय रस, अनंतभैरव रस आदि एक
ज़बर्दस्ती का रस और मनमिले का रस भी होता
है।
रस लिया
जाता है और रस दिया जाता है। हम सब लोग अच्छे
काम, अच्छी बात में रस लेते हैं। विद्यापति की नायिका
कहती है, "कतमुख मोरि, अधर रस लेल" अंगूठी ने ऊंगली
का रस ले लिया तो नायिका कहती है लै गई मोरे
राजा छिगुरी कौ रस जा मुंदरिया"। अधर रस एक देता है,
एक लेता है। रस पिया जाता है "करत अधर रसपान"।
भौंरा अपने जान की बाज़ी लगाकर भी रस पीता है।
रसपान की तीव्रता ऐसी होती ही है "रसमति मालती
पुनि पुनि देखि, पिबए वाह मधु जीव उपेरिव"। नायक
नायिका के मिलन रस में विद्यापति कल्पना कर लिखते हैं
कि नायक नायिका के संयोग श्रृंगार में "औंधा
चांद कमल का रसपान कर रहा है"।
रस आता
है, और रस जाता भी है। हम सभी अक्सर कहा करते हैं कि
फलां व्यक्ति को बड़ा रस आता है अथवा उसका रस चला
गया। रस लगता है और जब किसी बात का रस लग
जाता है तो बड़ा रस आता है। रस चूसा जाता है, तो
भी बड़ा रस आता है। रस के बीच विघ्न आने पर रिस
पैदा होता है और रस चला जाता है। आम रस तो चूसा
ही जाता है, अधर रस चूसते हैं, विद्यापति कहते हैं
"चूसि हों जो निचुरी सो परै रसु
ज्यों हटकावत औदिके ऊठा"।
अधर रस
के साथ नयन रस पिया भी जाता है। नयन तो रस से
भरे ही रहते हैं अतः सुधारे से नैन सुधा रस पीजै।
कुछ अनाड़ी लोग अधरों को नीरस कर देते हैं "निरस
धुसर कर अधर पंवार"। भौरे रस के बड़े लोभी होते
हैं और फूलों का रस चूसते हैं, रस पीते हैं, रस
चुराते हैं। रस बरसता भी है रस निकलता है और रस
निकाला जाता है। फलों का रस निकलता है और निकाला
जाता है। आदमी का भी रस निकल जाता है, किसी का रस
निचुड़ जाता है। रस बरसता भी है और रस टपकता भी
है और रस बगरता भी है। किसी की आंखों में रस
बरसता है, किसी की बातों में रस बरसता है, रस
टपकता है। सावन और फागुन में रस बरसता है।
कवियों ने इसीलिए कहा है रस बरसाता सावन आया,
रस रंगराता फागुन आया। रस रिसता है और झरता है।
युवतियों में रस झरता है "मदरस चुंवत लली कौ"।
बातों से और आंखों से रस झरता है। झरनों में
भी रस झरता है। रसमयी होने से युवती रसीली
होती है "राधिका रसीली रस भरी" और छैला रसीला
होता है। रस से भरे फल, रस से भरे यौवन, रसीले
अधर, रसीले नेत्र, रसीले बोल, रसीले नृत्य,
रसीली अदाएं, रसीली युवती, रसीले छैल अच्छे लगते
हैं। रस की फाग होती है तो आदमी विभोर हो जाता है
"रंग सों माचि रही रस फाग
पुरी गलियां त्यों गुलाल उलीच में"।
रस से
अनेक शब्द बनते हैं जो बड़े सरस होते हैं। रस से
रसवंती शब्द बना है, जो नदी के लिए प्रयुक्त होता है।
रस से परिपूर्ण होने से नारियों को भी रसवंती
कहते हैं। रस से रसीला और रसीली शब्द बने हैं।
छैला रसीला होता है जो रसीली नार को अच्छा लगता
है "बिंदुलिया तो लै दई रसीले छैल ने" उधर देखिए
"सेज़ पर सोवे रसीली नार"। रस से रस निधि शब्द
बना है जो समुद्र के लिए उपयोग किया जाता है "रसनिधि
तरंगीन विराजति उगचि"। रस से "रस फैली" शब्द बना
है जो काम क्रीड़ा के अर्थ में प्रयुक्त होता है
सोबत अकेली है, नवेली केलि मंदिर
जगाय कै सहेली, रस फैली लखै टरि के
रस रंग
भी एक शब्द होता है। रस रंग में बड़ा आनंद आता है।
खाद्य सामग्री को रसद कहते हैं। "रसभरा" एक पौधा होता
है जो ईख के खेत में होता है। "बीच मंगल अवसरों
पर रस से भरे कलश सजाए जाते हैं। रसीली
युवतियों के भी रस कलश होते हैं। स्नेह भी एक रस
है। दीपक की ज्योति में भी रस होता है। कभी किसी काम
में रस आता है कभी रस फीका होता है। रस राख बिदा
अच्छी मानी जाती है। अनुराग को भी रस कहते हैं।
युवतियों के नेत्रों में श्रृंगार रस या प्रेमरस
भरा होता है रस सिंगार मज्जन किए, कंजन भंजन
दैन अंजन रंजन हूं बिना, खंजन गंजन नैन। रस
से अनेक चीज़ें बनती हैं जिनका रसिक जन आनंद उठाते
हैं। आम से आम रस बनता है। गन्ने के रस से रसखीर
बनती है। फलों के रस से अनेक द्रव्य बनते हैं।
अंगूर के रस से द्राक्षासव बनता है। फूलों के रस से
इत्र बनता है। फूलों का रस और रंग, रंगाई के काम
आता है। होली पर फूलों के रस से चुनरी रंगकर
बालाएं पहनती हैं
फुलवा बिन बिन मैं रस गरायौ, हौदा भरा रस
होय गोरिया
बड़ी रसेकर चुनरी रंगाली, चुनरी भई रंगदार हो
गोरिया
जिसमें
रस हो उसे सरस और बिना रस की चीज़ को नीरस
कहते हैं "माधव सी सरस, माधुरी सी मधुर फिर कैसे
विरस"। समीर रस से वृक्ष आनंदित होते हैं "पी पीकर
समीर रस तट पर एक वृक्ष है झूल रहा।" रस की बातें
होती हैं और रसभेद भी होता है
"रस भेद न जान नयी अबला"।
रस का लालच होता है "रस लालच लाल चितै मई
भोरी।" विद्यापति की नायिका को उसकी सखी ने
समझाया था "सखी यह नया रस है नयी रस रीति है।
दोनों की उम्र उस अभिनव रस रीति के लायक है अतः
छककर रस लेना चाहिए।" रसीली चीज़ से रस मिलता है।
विद्यापति कहते हैं कि बाद में रस नहीं मिलेगा, "ऐसन
रस नहिं हा ओव आरा।" बतरस से मन नहीं भरता, रूप
रस से आंखें नहीं भरती। रतिरस का कितना ही उपभोग
कीजिए, मन ही नहीं भरता है, "कत विदग्ध जन रस
अनुमोदय, अनुभव काहु न पेख।" रस सरसता भी है
और रस में भी रस सरसता है
"हंसी करत में रस रए, रस में रस सरसाथ"।
जो रस नहीं जानता उसे क्या मालूम कि रस कैसा
होता है।
तो है रस आगर नागर ठीठ
हमें न बूझिय रस तीत कि मीठ।
जीवन
में जब तक रस है तभी तक जीने लायक होता है।
रसीले बोल बोलिए, रसीली चितवन से बचिए,
रसीली मुस्कान बिखेरिए, रसीली प्रिया से रस रंग
करते हुए जीवन की रस धारा में डूबते उतराते रहिए।
जहां प्रेम रस होता है, खटपट भी वहीं होती हैं
जबहिं प्रेमरस ततहिं दुरंत। जिसके भाग्य में रस
लेना लिखा है, उसे रस मिलता ही है
"हीरे मोती सीप के कौन तपस्या कीन
कंचन के संग बैठकर, अधर न चलै सलीन"
16 दिसंबर 2006
|