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ललित निबंध

रोको! यह वसंत जाने न पाए!
— श्यामसुंदर दुबे

हिम और आतप के बीच ही कलिका विकसित होती है और उसके विस्तार में पराग–कोष इसी विपरीत के मध्य 'रस' बनता है। मैं प्रसाद जी के उस प्रभात में अक्सर वसंत का अनुभव करता हूं, जिसमें वह कहते हैं कि हिमालय की अमल धवल पुष्प कलिका जैसी विस्फारित लघु शैलमालाओं पर जब सुबह की सुनहरी सूर्य–किरणें संपातित होती हैं, तब लगता है, जैसे किसी सद्यः विकसित शुभ्र कुसुम पर पीले–पीले पराग–कण क्रीड़ालीन हों।

हिमालय की दीर्घ–गंभीर ठिठुरन के भीतर जो रसादर्रता निरंतर जाग रही है, वही अमृत त्रिपुटी है। यही हिम प्रवाहिनी अंतर्धारा वनस्पतियों की मूलगामिनी होकर औषधि बनती हैं। ऐसी औषधि जो शैलमालाओं के कंगूरों को प्रदीप्त करती है।

कालिदास के कुमार संभव का हिमालय इसी औषधि की ज्योतित प्राण–शक्ति से प्रदीप्त होता रहता है। हिम–पुत्री पार्वती हिमालय की इसी परम शीतल आग की अमृता शक्ति है। बर्फ़ से उत्पन्न ऊर्जा ही वसंत बनती है। तप का अनुताप सहकर पार्वती धूर्जटी विषपायी शिव का वरण करती हैं।

हिमालय की हिमानी मुझे माघ की कड़कड़ाती कुहरीली शिशिराई सुबह की याद दिला जाती है। इसी की गोद में वसंत की किलक जागती है। पार्वती की गौरिक रक्तिम झलमलाहट की आहट उज्ज्वल आकाशीय प्रभा के बीच मकरंद–सी मर्मरित होने लगती है। यह पार्वती आतप की आराधना से ही वसंत का वरण कर पाती है। एक पांव पर खड़ी रहकर वारि–वतासा का आहार करके फिर केवल वायु आहारा होकर ही वह स्मरहर का वरण करती है।

निराला ने उपत्यका की ऊर्ध्व कगार पर जिस रूखी डाल को देखा था, वह स्नेह की साधन–सिद्धि थी, जो अपनी एकांतिक तपस्या में पत्रविहीन हो गई थी। ऊपर से रूखी और अंदर से अमृता! मृत्युंजय की अनुकंपा के प्रसार की आकुलता पालने वाली रूखी री यह डाल वसन वासंती लेगी।

निश्चित ही इस डाल पर चढ़ते आतप के बिंबों की जगमगाहटपूर्ण आरक्त श्रेणी कोपल बनकर फूट पड़ेगी। वसंत का उल्लास इसके आर–पार लहराने लगेगा। स्मरहर की स्मृति वसंत की विभूति बनकर बिखर जाएगी।

वसंत को पाना और उसे सम्हालकर रखना कठिन है। दो सीमांतों के बीच वसंत का समरस रसाख्यान प्रकृति की कविता के महाकाव्य का अंगीरस है। वसंत आता है; तो उसका स्वागत करते–करते ही, वंदनवार बांधते–बांधते ही, ढोल–मंजीरों पर फाग की स्वागत गीतिका छेड़ते–छेड़ते ही, उजली धूप की कर्पूर वर्तिका से आरती उतारते–उतारते ही उसकी मिलन–वेला समाप्त हो जाती है। वह इन सबके लिए अवसर ही कहां देता है! जब तक हम उसके शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के पाश में बंधने की व्याकुलता उसे सौंपने ही वाले होते हैं, कि वह अपना उतरीय सम्हालता दखिनैया के रथ पर आरूढ़ होकर न जाने कहां खो जाता है!

मादक क्षणों को समेटने की सामर्थ्य भला किसके भीतर है? अपने को जब भुला दिया जाता है– अपने से झरकर तब काल का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। काल की नाप–जोख वाली सारी इकाइयां भरभराकर धराशायी हो जाती हैं।

वे दिन मेरे लिए केवल भ्रमण के दिन थे। प्रकृति के सान्निध्य में अपने को समर्पित कर देने के। शिमला की उस हरी–भरी घाटी में मुझे लगा कि कविता रचने के लिए इससे अच्छी जगह नहीं हो सकती। यहां कविता बाहर लबालब भरी रहती है और भीतर–भीतर उमड़ती–घुमड़ती रहती है। कविता तो कविता होती है; कहीं भी बिना कहे, बिना बुलाए आ जाती है। पर्वत–पहाड़ नदी–निर्झर, खेत–खलिहान, गांव–जवार, अमीरी–ग़रीबी कहीं से भी कविता फूट सकती है।

शिमला की वह सुबह कवितानुमा ही थी। मैं एकदम निबिड़ एकाकी प्रकृति और आत्म के एकात्म में रमा दूर तक फैली घाटी के एकांत में अपने को तब्दील होता अनुभव कर रहा था। तभी स्तबकों से झदबदाए उस गुल्म के भीतर कुछ खरखराहट–सी हुई और मैं घाटी का एकांत बनते–बनते रह गया।

स्तबकों के अंतराल में से दो गुलाब प्रसून से झांक रहे थे। आरक्त कपोल पर धरे कपोल और वहां महमहाती प्रणय–गंध ने मेरी भीतरी कविता को झटकार कर बाहर ला दिया। अब कविता मेरे सामने थी। लिपटती–लरजती बाहुओं की कौंपली उजास में कली–कली के विस्तार में चटकती–सी। आस्फालित ध्वनियों का समागम मेरे आसपास को वसंतमय बना रहा था। उस गुल्म–अंतराल के ऊपर से सूर्य का रथ उठान पर चढ़ता–चढ़ता नीचे उतर आया था और कंपाती–सी शीत लहरी का एक संझई झोंका वहां का चक्कर लगाकर चला गया था। लेकिन जहां सूर्य और चंद्र टूटकर तारक भस्म में विलीन हो चुके हों, जहां हवाओं की परिक्रमा का क्रम ही निःश्वासों के निलय में विलय हो चुका हों, जहां धरती की चक्रमणशीलता और ऋतुओं की आत्मीयता आत्माओं के नीरंध्र आश्लेषण में निःशेष हो गई हो– वहां कुछ भी कहां था? एक अनुभव था सबको अपने भीतर समेटता/फेंटता–सा! मन में मन, प्राणों में प्राण विलीन हो गए थे। और चराचर चूर होकर बिखर गया था। प्रेम के इस राग–अनुभव में मेरे सामने अशोक वाजपेयी की कविता खुल रही थी : उसने अपने प्रेम के लिए जगह बनाई/बुहारकर अलग कर दिया तारों को/ सूर्य–चंद्रमा को रख दिया एक तरफ़ वन–लताओं को हटाया। उसने पृथ्वी को हटाया/उसने पृथ्वी को झाड़ा–पोंछा/और आकाश की तहें ठीक कीं/उसने अपने प्रेम के लिए जगह बनाई।

शिमला की उस गदबदाई घाटी में शाम की उस सुरमई निस्तब्धता में उस उत्फुल्ल गुल्म–राजि में से एक नील लोहित–सी किरण फूटी और आसन्न रात्रि का वह शांत–सा प्रहर नहा गया अनेक अनारदानों की विस्फूर्ति दीप्ति में! मैंने देखा, विदा वेला का वह दृश्य जो शाम को सुबह में बदल रहा था। दिन–भर कहीं भी रहें, परिवारजनों के लिए तो वे विद्या आलय में ही हैं। वसंत भला किसी आलय में समाता है! शाम उनके लिए प्रभात थी। मुश्किल से जाने को– बिछुड़ने को तैयार हो रहे थे। वे दोनों एक–दूसरे के हृदय से चिपटते हैं, गले से लगते हैं– फिर श्लथ होकर गिर जाते हैं। बिहारी ने भी कभी यह दृश्य देखा होगा। मैंने बिहारी की आंखों में आंखें डालीं तो शिमला की यह शाम और बिहारी की आमेर की सुबह एक हो गई थी :

नीठि नीठि उठ बैठहू प्यौ प्यारी परभात।
दोऊ दौर हिये लगें, गरे लागि गिर जात।।

वसंत बीत गया था। उन दोनों की आंखों में आतुरता थी। फिर मिलने की व्याकुलता थी– यह आकुलता–व्याकुलता धीरे–धीरे उनकी आंखों में पिघल उठी थी। झलमलाती बूंद–सी! वह गुल्म, वह घाटी, शिमला की वह शाम इस झलमलाती बूंद में तरल हो गए थे सब! सब विलीन हो गए थे और वहां फैल गई थी उतप्त आदर्रता!

वसंत केवल यादें छोड़ गया। वसंत होता ही कितना है! एक लहर जितना, जो कब आई– कब गई! पता ही नहीं चलता। वसंत बड़ा निर्दय है। सब कुछ छीनकर ले जाता है– डबडबाई आंखों के सिवाय! इन दुखिया अंखियान को सुख सिरजोई नांय। सुख तो सिरज़ा गया है, किंतु ठहरता कितना है! वसंत रूकता–विलमता ही कहां है! कली खिली! फूल बनी! झड़ गया फूल–फूल में सन गया सब कुछ!

वृंदावन में कृष्ण ने क्या नहीं गया? चोरी–चकारी, नाचना–गाना, रीझना–रिझाना, रूठना–मनाना, भीगना–भिगोना! कृष्ण ब्रज के लिए पूरा वसंत थे। सबको भुलाए रहे अपनी अनुराग लीला में! आबाल–वृद्ध–वनिता सब खोए रहे कृष्ण की वासंतक छवियों में, वासंतक चेष्टाओं में, वासंतक अनुभवों में!

वसंत है तो सगुण सता, किंतु यह सगुण किसका होकर रहा?
गोपियां निर्गुण उपासक उद्धव से बूझती हैं कि क्या तुम्हारे ब्रह्म के ओष्ठ हैं, जिनका आसव पान करके हम छक सकें! क्या तुम्हारे ब्रह्म के हाथ हैं, जिनमें हम समर्पित होकर अपनेपन से रहित हो जाएं! क्या तुम्हारा ब्रह्म मीठी तान सुना सकता है, जो हमें सुर में विलीन कर सके! यह रूप, रस, स्पर्श, गंध, ध्वनि का अनुभव वसंत ही देता है। उद्धव, तुम हमारे ब्रज के वसंत कृष्ण को लाकर हमें दिखाओ, तभी हम तुम्हें मानेंगे!

राधा और व्रज वनिताएं कृष्ण की स्मृतियों के सहारे ही जी रही हैं। यह सुख का पलटवार है। सुख बहुत निर्दय होता है। वह सब कुछ देते–देते तुम्हें इतना रीता कर देता है कि तुम्हारा अहंकार इस रीतेपन को भरने के लिए चढ़ बैठता है। सुख में साईं भूल जाता है। हमारे भीतर मैं पसर जाता है। इसलिए सुख में हमारी मादक विस्मृति प्रबल हो उठती है। अपने से विलग तो हम दुख में ही हो पाते हैं। क्योंकि दुख सबको मांजता है; और हमारी आंख में कुछ इस तरह से अंजन आंज जाता है कि हमारी आंख हमारी अपनी नहीं रहती।

दुख तुम्हें क्या तोड़ेगा, तुम दुख को तोड़ दो!
बस इतना करो कि अपनी आंख को दूसरे की आंख से जोड़ दो!

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना इस दुख को बड़ा सुख मानते हैं। जिसने इस सुख से परिचय बढ़ा लिया, उसकी मुठ्ठी में तो सदैव वसंत है। वसंत उसका है, लेकिन ऐसा कम ही होता है। कम लोगों के साथ ही होता है। यदि सबके साथ होने लगे तो धरती में फिर दुख ढूंढें न मिले!

निर्मल वसंत बिना बताए ही जीवन की पौर से निष्क्रमण कर जाता है। हम अंजुरी के खालीपन में खोजने लगते हैं– व्यतीत हुए वसंत को!

सखि वसंत गया/हर्ष हरण निर्दय क्या?

जो हर्ष देता है, वही तो हर्ष का हरणकर्ता है। उसका यह हरण करना ही उसका अपनाना है। सब कुछ छीनकर ही वसंत का राग–रंग जागता है।

कृष्ण हंसकर कुंती से बोले थे– अपनी विदा–वेला में कि आपने अपने लिए यह क्या मांग लिया मुझसे! आप यह क्या चाहती हैं कि आपको सदैव दुख मिलता रहे। कृष्ण जानते थे कि कुंती ने दुख क्यों मांगा है। किंतु वह कुंती से ही पूछना चाहते थे। कुंती ने कहा कि यदि मुझे दुख मिलेगा तो तुम याद रहोगे। कृष्ण की मुस्कुराहट की उजास और फैल गई थी। कुंती की यह सादी–सी चतुराई बड़ी मूल्यवान थी।

वसंत तो जाएगा ही– ग्रीष्म की तपन आएगी ही! लेकिन यह तपन तुम्हारे भीतर के लाल रंग को बहुत देर तक खिलाएगी रहेगी। पलास–कुसुम झड़ जाएंगे। सेमल–पुष्प भुरभुराकर उड़ जाएंगे। वसंत विदा हो जाएगा। फिर भी तुम्हारे भीतर का वसंत बार–बार खिलेगा– हंसेगा– दहकेगा।

यह भीतर का वसंत कहीं भी, किसी भी क्षण में झांक सकता है। मेरी बूढ़ी मां गाया करती थीं– मथुरा को पथरा बनइयो हरी! मुझे बड़ा अटपटा लगता था– उनका यह लोकगीत! एक दिन जब मैंने उनसे पूछा कि वह मथुरा का पत्थर क्यों बनना चाहती हैं, तो उन्होंने कहा कि न जाने कितनों को मैं धोऊंगी–पछोरूंगी, और स्वयं साफ़ होती जाऊंगी। कृष्ण की नगरी है रे मथुरा! जब वहां का ठूंठा धोबी कृष्ण का हो गया तो उसके पहले वह पत्थर कृष्णमय ज़रूर हो गया था, जिस पर वह कपड़े धोता–पछोरता था।

यह मांके हृदय का वह भाव–कुसुम था, जो कभी मुरझाता नहीं है। वसंती पवन पागल होकर बहक न जाए, उसे रोको! यदि उसको रोक लिया तो जीवन मधुबन बन जाएगा।

1 मार्च 2005

(आजकल से साभार)

  
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