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कुब्जा-सुन्दरी
- कुबेरनाथ राय
हमारे दरवाज़े
की बगल में त्रिभंग-मुद्रा में एक टेढ़ी नीम खड़ी है,
जिसे राह चलते एक वैष्णव बाबा जी ने नाम दे दिया था,
'कुब्जा-सुंदरी'। बाबा
जी ने तो मौज में आकर इसे एक नाम दे दिया था,
रात भर हमारे अतिथि रहे, फिर 'रमता योगी बहता पानी'!
बाद में कभी भेंट नहीं हुई। परन्तु तभी से यह
नीम मेरे लिये श्रीमद्भागवत् का एक पन्ना बन गई। इसके
वक्र यष्टि-छंद में मुझे तभी से एक सौंदर्य बोध मिलने
लगा। वैसे भी यह है बड़े फायदे की चीज़। अपने आप उगी, बिना किसी
परिचर्या के बढ़ती गई, पौधे से पेड़ बन गई और अब मुफ्त
में शीतल छाँह देती है, हवा
को शुद्ध और नीरोग रखती है, हजार
किस्म के रोगों के लिये उपचार-द्रव्य के रूप में छाल
पत्ती फूल फल और तेल देती है, पशु और मनुष्य के रोगों
से जूझती है, सबसे बढ़कर सुबह-सुबह राम-राम के पहर
दातून के रूप में मुँह साफ़
करती है, बाद में मैं अपना मुँह
गन्दा करूँ या अश्लील करूँ
तो यह बेचारी क्या करे? नाम भले ही वृन्दावनी हो पर
इसकी भूमिका वैष्णवता के उस साफ सुथरे संस्करण की है
जिसे सन्त कबीर ने अपनाया था। वैसे तो संत और भक्त में
मैं कोई खास प्रभेद नहीं
मानता। संत 'हंस' है तो भक्त 'मराल'। नाम का ही फ़र्क
है। बात एक ही है। संत और भक्त की मूल प्रकृति एक ही
होती है। दोनों ही वैष्णव हैं।
अब राजनीति उन्हें
वाद-प्रतिवाद के रूप में रखे तो रखे 'दाख छुहारा
छांड़ि अमृत फल विष-कीरा विष खात!' अपना-अपना स्वाद
हैं! परन्तु हिन्दुस्तान का किसान- मन उन्हें एक ही
मानता है। वैसे तो फागुन-चैत में यह नीम भी वृन्दावनी
साज-शृंगार ले लेती है। पर महज़
एक ऋतु के लिये। फागुन में इसके पत्ते झड़ने लगते हैं।
वैराग्य की उदासी का अपूर्व पीतवर्णी शान्त रस इस पर
उतरता है। फिर चैत्र चढ़ते ही नरम टूसे और पत्तियाँ
जीवन और यौवन की कविता की तरह फूटने लगती हैं।
देखते-देखते ही वृक्ष शोभायमय हो उठता है और इसके नाम
से जुड़ा 'सुन्दरी' शब्द तभी सार्थक लगता है। फिर रात
में नन्हें नन्हें सुगन्धित पीतगर्भी श्वेत फूलों की
मंजरियाँ लग जाती हैं। पतझर की
पीली अपर्णा उदासी से लेकर निर्मल चाँदनी
में स्नान करती हुई वासन्ती रातों की सुगन्ध तक यह नीम
कविता-ही-कविता है। प्रति संध्या को प्रत्येक डाल
चहचहाट से भर उठती है। पेंपा, गौरया, सुग्गे और एकाध
कौए भी इस पर रैन बसेरा लेते हैं। तब गंध और गान से
इसका विश्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है। चाँदनी
रातों में तो यह 'देवी-यान' बन जाती है। लोग कहते हैं
कि सबकी नज़रों से अदृश्य
पार्वती की सातों बहनों का रथ आकाश से उतरता है और नीम
की डाल से पार्वती की सातों बहनें एकान्त में झूला
झूलती हैं।
मनुष्य-चक्षुओं से
अदृश्य वसन्तकालीन रातों में। भोजपुरी लोकगीतों में यह
विश्वास बार-बार व्यक्त होता है भयमिश्रित श्रद्धा के
साथ! वैद्यों-डॉक्टरों की वात्सल्यमयी माँ
यह वसन्त ऋतु नन्हें-नन्हें बच्चों के लिये चेचक का
उपहार लेकर आती है (असम बंगाल में तो 'वसंत' का एक
अर्थ 'चेचक' भी होता है) और चेचकग्रस्त शिशु के
सिरहाने नीम की पतली कंछिया रख दी जाती है। अत: उत्तर
भारत में यह कटु तिक्त नीम भी 'देवी-तरू' मानी जाती
है। 'नीप' या 'कदम्ब' की तरह। 'नीम' और 'नीप' में एक
अक्षर का ही अंतर है तो भी दोनों का व्यक्तित्व भिन्न
हैं। 'नीप' अर्थात कदम्ब त्रिपुर सुन्दरी का वृक्ष है
तो 'नीम' शीतला का। आधी रात को 'नीप' के कुंजों
में गंधर्वों की बाँसुरी बजती
है, तो आधी रात को 'नीम' की डाल पर देवी की सातों
बहनों की चूड़ियाँ खनकती हैं।
इस नीम का एक कुहकी रूप है 'महानिम्ब' या 'बकायन'
जिसके पत्ते भी नीम की तरह सीकों पर लगते हैं और ये
पत्तियाँ कटुतिक्त नहीं होतीं
तथा अपने द्रव्य-गुण के कारण दक्षिण भारत में तेजपात
की तरह इनका प्रयोग होता है। वहाँ
इसे 'गौरी नीम' भी कहते हैं। पर उत्तर भारत में
'बकायन' का उल्लेख शबर मंत्रों में 'अकाइन बकाइन लोना
चमाइन' के रूप में होता है। अत: यह वृक्ष लोक की
भयमिश्रित श्रद्धा का पात्र है और बाग बगीचे के एकान्त
कोने में ही लगाया जाता है। बस्ती के भीतर इसका प्रवेश
नहीं। परन्तु कटु नीम तो रास्ते-चौरस्ते और आँगन
की शोभा है नीरोग छाँह, शुद्ध
पवन और मनसायन कलरव! एक ग्राम-कथिका है 'निबिया रे
करूआइन तबो शीतल छाँह, भइया रे
बिराना, तबो दाहिन बाँह!' यानी
नीम कटु होने पर भी शीतल छाया देती है और दूर के
रिश्ते का भाई भी अपनी बाँह
होता है।
उत्तर भारत में नीम
भले ही लोक विश्वास में 'देव तरु' माना जाता हो,
शास्त्र में इसे मात्र भैषज्य-तरु की ही महत्ता है।
परन्तु उड़ीसा में नीम को 'ब्रह्म दास' की संज्ञा मिली
है, वह शायद इसलिये है कि उत्कल के महादेवता जगन्नाथ जी
का कलेवर यानी मूर्ति नीम-काष्ठ से ही बनती है और
प्रति द्वादश वर्ष के बाद उसका 'नव यौवन' अर्थात
'नवीनीकरण' किया जाता है। इस नव कलेवर-उत्सव को 'नव
यौवन-उत्साह' कहते हैं। मैंने पहले पहल इस बात को आज
से पैंतीस वर्ष पूर्व कलकत्ते में अपने मित्र वनमाली
गोस्वामी से सुना था। उन्होंने जब कहा, इस बार
जून-जुलाई में पुरी जा रहा हूँ
नव-यौवन दर्शन करने! सुनकर मैं तो चमत्कृत हो गया और
अपनी तत्कालीन भंगिमा और भाषा में मैंने पूछा था,
यार, इस कलकत्ते में नवयौवन का अकाल पड़ा है क्या, कि
उत्कल देश को आपकी आँखें
पवित्र करने को तुली हैं उन्होंने मेरे अज्ञान का
तत्काल निवारण करते हुए असल अर्थ बताया और आगे भी
बताया कि उड़ीसा के लोग इस नीम को अत्यंत पवित्र मानते
हैं और इसकी संज्ञा 'दारू ब्रह्म' है। यदि वेद व्यास
उड़िया होते तो वे गीता में अवश्य कहला देते, वृक्षाणां
निम्बोऽस्मि । वस्तुत:
हिन्दुस्तानी मन जीवन को प्रकृति और ईश्वर से जोड़कर
देखता है। उसके मन में जो कुछ उपयोगी और रसमय है वह सब
अपने आप ईश्वर से जुड़ जाता है।
वनमाली थे उड़िया
ब्राह्मण, परन्तु गौड़ीय वैष्णव मत को मानते थे। उनसे
मैंने वैष्णवों की अनोखी शब्दावली का थोड़ा बहुत ज्ञान
भी अर्जित किया था। उदाहरण के लिये वैष्णव लोग खाना तो
खाते ही नहीं, भोजन भी नहीं करते, बल्कि 'प्रसाद'
ग्रहण करते हैं, 'भात' को 'अन्न' कहते हैं, दाल को
'रसम्' 'तरकारी' शब्द का उच्चारण किया कि सीधे नरक में
चले गए! अत: इसे 'शाक' कहते हैं। उनमें खीर के लिये
'परमान्न' और पुलाव के लिये 'पुष्पान्न' चलता है।
भोजपुरी लोगों की दालपूरी के लिये 'राधा वल्लभी' और
गाजीपुरी सत्तू-बाटी के लिये 'मुकुन्दी'। मुझे सबसे
अद्भुत लगा उनके रसशास्त्र का 'अभियोग' शब्द। हम तो
जानते थे कि 'अभियोग' माने होता है मुकदमा और
'अभियुक्त' माने अपराधी परन्तु उनके शास्त्र में
प्रेमी या प्रेमिका द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करने
के तरीके को 'अभियोग' कहते हैं। जैसे कि नायिका
बाग-बगीचे में जा रही है जो अक्सर वैष्णव कविता में
जाती है, वहीं नायक दिखाई पड़ गया तो उसे दिखाकर एक
नरम कच्चे किसलय अथवा पल्लव को दाँत
से काटना, या नायक द्वारा अपने साथी को, नायिका को
दिखाकर, किसी फल को देना जैसी इशारेबाजियाँ
'अभियोग' है।
आप कहेंगे कि कड़वी
नीम के सन्दर्भ में भारत की मधुरतम रस-परम्परा की यह
चर्चा करना अनर्गल है। ये चर्चाएँ
तो कदम्ब-तमाल के सन्दर्भ में होनी चाहिए। परन्तु 'वय:
कैशोरकं ध्येयम' यानी 'वयस में किशोर-वय ही आराध्य है'
की घोषणा करने वाले माधवेन्द्र पुरी के प्राशिष्य थे
महाप्रभु चैतन्य जिन्होंने अपनी साधना का केन्द्र
'राधा' को ही बनाया। साथ ही यह भी स्मरणीय है कि इस
राधा-उपासना के आदि प्रवर्तक अपने कलिकाल में
निम्बकाचार्य ही माने जाते हैं। तो यह कटु नीम इस
रस-परम्परा के आदि गुरु के नाम
से जुड़ी है और राधा-माधव के परम प्रिय 'करील' से तो
लाख दर्जे सुन्दर और आकर्षक है। करील, कदम्ब और तमाल
को जिन्होंने कभी नज़दीक से
देखा न हो उन्हें कोई धोखा दे, उनके बाह्य रूप रंग में
'नाम बड़े पर दर्शन थोड़े' वाली बात ही है। नीम
फागुन-चैत-वैसाख तीन महीने पूर्वराग-राग-महाराग के
प्रतीक किसी भी महीरुह से शोभा और शृंगार
में मुकाबला कर सकती है। करील में तो काँटे
ही काँटे हैं। उससे खूबसूरत तो
अपने खेत-खलिहान की बबूल है। ग्रीष्म आते ही यह चटक
पीले फूलों से ढँक जाती है तो
उन काँटों के बावजूद उसे मानना
पड़ता है।
कदम्ब का पेड़ शीशम की तरह ही लम्बा छरहरा होता है। पर
बड़े-बड़े पत्ते होते हैं पलाश की तरह। फूल कन्दुक
यानी गेंद की तरह बड़े-बड़े। इनमें दल नहीं होते। जीरे
या पराग-सूत्रों से गठित सघन पुष्प-कन्दुक। हल्का हरित
पीत वर्ण, कोई सौंदर्य नहीं। परन्तु इनकी सुगन्ध बड़ी
मादक और मीठी होती है। कदम्ब की असल खूबी है इसकी मीठी
मादक गंध और इसकी शाखाओं या कोटरों से चूती हुई 'नीरा'
है जिसे 'कदम्ब मधु' कहते हैं। हिमालय के निचले भागों
में जहाँ किरातों की गंधर्वशाखा रहती थी ये पेड़
बहुतायत से मिलते थे। वारुणी और मादक सुगंध के कारण
तथा पावस ऋतु में पुष्पित होने के कारण यह पेड़
गन्धर्व-संस्कृति से और कामदेव से जुड़ गया। फिर बाद
में यमुना तट पर आरण्यक रूप में उपस्थित होने के कारण
'साक्षात् मन्मथ-मन्मथ:' श्रीकृष्ण की महाराग-लीला का
अनिवार्य अंग बन गया। यह त्रिपुर सुंदरी का भी परम
प्रिय वृक्ष बना इसी वारुणी गंध और गंधर्व संस्कृति के
कारण। वैसे भी मैं मानता हूँ
कि नीम मूलत: उपयोगी भैषज्य-तरु
ही है। परन्तु रूप-गंध-सुषमा-सौन्दर्य से यह एकदम
रिक्त भी नहीं हैं अत: इसके संदर्भ में रस-चर्चा की
बात बिल्कुल अनर्गल हो, ऐसी बात नहीं।
राधा की चर्चा तो सभी
करते हैं, पर कुब्जा की चर्चा प्राय: नहीं होती। किसी
ने की भी तो गोपियों के मुँह
से खरी-खोटी का लक्ष्य बनाकर ही। परन्तु कुब्जा की ओर
से शायद ही कोई जवाब देने जाता है। वैसे 'ग्वालकवि' ने
मथुरा निवासी होने के कारण ही शायद 'कुब्जाष्टक' लिखकर
पड़ोसी का कर्तव्य पालन अवश्य किया है और गोपियों की
कटूक्तियों का 'सौ सुनार की न एक लोहार की' शैली में
कुब्जा सुन्दरी का प्रत्युत्तर व्यक्त किया है। कुब्जा
कहती है कि वे बेहया गोपियाँ
मुझे क्या कहेंगी? कहीं चलनी भी सूप पर हँस
सकती है? 'बनन में, बागन में, यमुना किनारन में, खेत
में, खरान में, खराब होती डोली वै।' मैं तो उनसे लाख
दर्जे अच्छी हूँ। इस शताब्दी
के प्रारम्भ में एक बार द्विवेदी युग के प्रसिद्ध
ब्रजभाषा कवि पण्डित नवनीतलाल चतुर्वेदी का आगमन बनारस
में हुआ और तत्कालीन काशिराज ईश्वरी प्रसाद नारायण
सिंह ने जो स्वयं भी कवि थे, उनसे आग्रह किया,
चौबे जी, हमें लगत हौ कि कुब्जा के साथे ब्रजभाषा के
कविन द्वारा न्याय नाही हुआ है। अब आपै कुछ कृपा
करीं। महाराज ने तो मौज में आकर बात कह दी थी। परन्तु
चतुर्वेदी जी ने दूसरे ही दिन 'कुब्जा-पचीसी' लिखकर
महाराज के सामने प्रस्तुत कर दी। कुब्जा की ओर से दिये गए
एक से एक धाँसू जवाब। बानगी
देखें, कुब्जा उद्धव द्वारा लाए गए कटु-तिक्त संदेश के
उत्तर में कहती है:
गोबर की डलिया सिर
लै
कब गायन में हम जाति हैं रूँधन।
त्यों 'नवनीत' दुहावन के मिस
द्वार किवार दिये कब मूँदन।
कौन दिना बन बीच कही
हरि कामरि लाई बचाइयो बूँदन
उद्धव और कहा कहिए,
कब खोलि दिये फरियान के फूँदन।
इसमें 'फरिया' शब्द
से पूरब वाले शायद परिचित न हों। पहले ज़माने
में अन्तर्वास के रूप में मर्द जांघिया पहनते थे और
नारियाँ फरिया जो घाघरे के
नीचे रहती थी। राजपूत चित्रकला में यह लक्ष्य किया जा
सकता है। जांघिया जांघों तक ही रहता है पर फरिया पूरी
टांग को ढंकती है। शेष तो बड़ा ही स्पष्ट है। परन्तु
एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जिस समय नवनीत जी ने
इस रचना के छन्दों को लिखा था वे पूर्णत: नैष्ठिक
ब्रह्मचारी थे। बहुत बाद में ४६ वर्ष की अवस्था में
अपने गुरु के बहुत आग्रह करने
पर उन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। वैष्णव धर्म
में विशेषत: पुष्टिमार्ग में गृहस्थाश्रम को ही
सर्वोच्च महत्व दिया गया है। यदि कोई आधुनिक आलोचक
अपने फ्रायड-युंग के ज्ञान का
इस पर आरोपण करे और उनके जीवन के बारे में कोई
कुकल्पना करे तो अपनी शोध की कलम को ही गन्दी करेगा।
वैष्णव-संस्कृति में प्रशिक्षित मन इस बात को भली-भाँति
समझता है कि ये सब 'राधा-गोविन्द-सुमिरन' के बहाने
हैं। इनका क्रियात्मक अर्थ शैली और भंगिमा तक ही सीमित
है। ये सब मध्यकालीन वैष्णव काव्य रूढ़ियों का अनुगमन
मात्र है। ठीक वैसे ही जैसे आज की आधुनिक जनवादी कविता
के अद्भुत अद्भुत जुझारू तेवर हैं। सूर के हों पतितन
को टीको या तुलसी के मो सम कौन कुटिल खलकामी के
आधार पर उनके जीवन की व्याख्या करना घोर मूर्खता है और
वैष्णव साहित्य परम्पराओं से
घोर अपरिचय का द्योतक है। केलि-वर्णन और दैन्य-निवेदन
के पदों को उनके सांस्कृतिक एवं शास्त्रीय संदर्भ में
देखना ही सही ढंग से देखना है।
एक बार मैंने एक
भागवत मर्मज्ञ पण्डित से इस कुब्जा-तत्व की चर्चा की
थी तो उन्होंने बताया था कि कुब्जा वस्तुत: धरती का
प्रतीक है और उसका कृष्ण-प्रेम पार्थिव स्तर तक ही
सीमित था। दैहिक प्रेम से ऊपर उठ कर महाभाव में प्रवेश
करने की वह अधिकारिणी नहीं थी। इसीसे प्रेम की
अपार्थिव ईश्वरीय लीला की वह सहचारिणी नहीं हो सकी।
श्रीमद्भागवत् एक 'रहस्य-काव्य' है और सारे
रहस्य-काव्य प्रतीकों की भाषा में ही मुखरित होते हैं।
गहन गंभीर बोध को वैखरी के स्तर पर उतारने के लिये अन्य
कोई साधन ही नहीं। निर्गुण लीला में तो यह बात स्पष्ट
है ही, सगुण-लीला में भी यही बात है, क्योंकि 'चरित'
जब दिव्य लीला के रूप में उतरता है तो 'रहस्य' व्यक्त
करता है और 'रहस्य' की भाषा ही है प्रतीक भाषा।
रास
लीला की बात लें। आर्य समाजियों से लेकर आज के नव
शिक्षित तक सभी के तेवर इस पर अग्नि वर्षा करते हैं।
परन्तु रास क्या कोई 'स्थूल' घटना है? वृन्दावन की
लोक-संस्कृति में रास-नृत्य की प्रथा सदैव से है। इसको
श्रीमद्भागवत् ने एक सृष्टि के निरन्तर चालू
भवति-प्रवाह के वृत्ताकार रूप का प्रतीक बना दिया है।
केन्द्र में एक श्रीकृष्ण और परिधि के प्रत्येक जोड़े
को परस्पर बाँधे हुए असंख्य
कृष्ण। इस सृष्टि नाम की माल्यरचना में ईश्वर सूत्र की
तरह उपस्थित है और एक इकाई को दूसरे से जोड़ता है।
मनुष्य और मनुष्य, मनुष्य और प्रकृति, सर्वत्र ही
ईश्वर महान संयोजक या ग्रंथि के रूप में वर्तमान हैं।
यह गाँठ टूट जाय तो माला बिखर
जाएगी। वही सब कुछ को एक दूसरे से बाँधे
हुए हैं। तथा केन्द्र में भी वही 'कर्माध्यक्ष' के रूप
में हैं। गीता में उन्होंने कहा है 'समासों में मैं
द्वन्द्व समास' हूँ। द्वन्द्व
समास तब घटित होता है जब दो संज्ञाएँ
परस्पर जुड़ती हैं। पुत्र पिता से, पति पत्नी से,
मित्र मित्र से, पड़ोसी पड़ोसी से, नागरिक नागरिक से
जुड़ता है तो संसार बनता है और गतिशील होता है। यही है
शाश्वत रासलीला जिसे श्रीमद्भागवत् अपनी प्रतीक भाषा
में व्यक्त करता है। इस 'विश्व नृत्य' को स्थूल भाषा
के माध्यम से समझना ही भूल है।
इसी भाँति
कुब्जा को देखें। कुब्जा और कोई नहीं कंस द्वारा शासित
पृथ्वी ही है जो कुब्ज भोगने के लिये विवश है। अपने सहज
रूप में यह उदार, क्षमामयी और सुंदर
अपनी धरती ही कुब्जा है जिसे कंसों, केशियों और
चाणूरों का अंग-शृंगार करना
पड़ता था। उसका चोवा चंदन, उसका रूप, रस, गंध और गान
इन पाप-विग्रहों की सेवा में अर्पित हो रहा था। इसी से
वह ग्लानि से सिकुड़कर विकलांग हो गई थी। परंतु जब
'वरण'
का क्षण आया तो इसी विवश धरती ने साहस किया और एक बार
द्विधाहीन मन से भगवत अंग श्री का चंदन-शृंगार
कर दिया। इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं। जब कोई मुक्ति
मार्ग नहीं रह जाता तो विश्व मंगल की परम शक्ति का
अवतरण और हस्तक्षेप होता है। उस समय ईश्वर भी अपेक्षा
करता है कि वरण करने का कोई साहस दिखाकर आगे आए। कोई
एक लोटा गंगाजल और बेलपत्र लेकर खड़ा हो जाए। तब वह एक
लोटा गंगाजल ही युगों की संचित पाप-राशि का प्रक्षालन
कर देता है। एक तिनपतिया बेलपत्र ही रूद्र की तीसरी आँख
बन जाता है। कोई नन्हा-सा
साढ़े तीन हाथ का आदमी साहस तो करे! श्रीमद्भागवत् के
अनेक प्रसंग बड़े ही संकेतधर्मी हैं, जैसे यमलार्जुन
उद्धार, दावानल पान, कालिया-मर्दन या कुब्जा प्रेम
आदि। श्रीमद्भागवत के मर्म को समझकर उसे पढ़ा जाए तो
आज भी वह अप्रासंगिक नहीं। आज भी मारक अंधकार में अनेक
हत्या-कक्ष चालू हैं जिनमें से किसी एक में कहीं न
कहीं कृष्ण-जन्म होगा ही। उस जन्म की आकृति, भाषा और
मुहावरा चाहे जो हो। मनुष्य जन्म पाकर भी हम
निराशावादी क्यों बनें? हमारी सारी वाङमयी परंपरा इस
निराशा के नरक से उद्धार के सूत्रों से भरी पड़ी है।
'पिङ् पिङ्, बिङ्
पिङ् पिङ् बिङ्!' रात्रि में आकाश मंडल में 'नारद की
वीणा बज रही है। चंद्र विगलित रात। 'कुब्जा सुंदरी'
की दो शाखाओं के बीच चाँद
झूल रहा है और रात पिघल कर सगुण-साकार चाँदनी
बन गई हैं। विगलित चाँदनी की
धारा! गोया रात ही पिघलकर नदी बनती जा रही हो। एक
ध्यान तरंगायित विरजा नदी, जिसके इस तट पर नारद की
वीणा बजती है और उस तट पर तार्क्ष्य अपने पंख पसारे
विचरण करता है। तार्क्ष्य की पीठ पर एक तारा है,
'श्रवण नक्षत्र!' यह विष्णु के परम पद का प्रतीक है।
इस पार नारद की वीणा बज रही है। आकाश से धरती तक सुरों
का विस्तार है। आसपास के घर-मकान, गलियाँ, सारे जीव
जगत के साथ निद्रालीन हैं। जाग रही है मेरी हिरण्यगर्भ
आत्मा और जाग रहा है वैश्विक हिरण्यगर्भ के रूप में
ईश्वर। मेरे दोनों चक्षु हृदय में लीन हो गए हैं, हृदय
हिरण्यगर्भ आत्मा में, और आत्मा हिरण्यगर्भ ईश्वर से
जुड़ कर एक अद्भुत कल्पलोक में प्रवेश पा चुकी है।
वह
अपना वर्तमान नाम-रूप खो चुकी है। नाम-रूप तो इस देह
और पंचप्राण के ही परिचायक हैं जो इस समय बेसुध,
निद्रालीन हैं। मैं द्वापर युग का स्वप्न देख रहा हूँ।
मैं क्या, सच्चाई तो यह है कि मेरी हिरण्यगर्भ आत्मा
देख रही है, मैं तो निद्रालीन हूँ।
मुझे लगता है कि मैं ही कामुक मणिग्रीव यक्ष हूँ,
मैं ही अहंकार विमत्त नलकूबर हूँ। मैं ही युगल महीरूह
बनकर ऋषि शाप को भोग रहा हूँ। मैं ही प्रतीक्षारत हूँ
किसी देव शिशु के अवतरण की। उस देवशिशु की कटिमेखला
में रस्सी बँधी है। या यों
कहिए कि मायारज्जु से उसने अपने को बँधवा
लिया है अन्यथा वह तो सब कुछ से दश-अंगुल परे ही रहता
है। यह तो स्नेह भी रज्जू है जिससे अवश होकर वह भी माँ
माँ , बाबा बाबा , मैया
मैया कहने को, रोने-छटपटाने को बाध्य हो जाता है। यदि
उस देवशिशु का आगमन मेरे जीवन में भी हो जाए, वह ऊधम
मचाते हुए आकर एक धक्का मुझे दे जाए, और इस प्रकार
मुझे समूल उत्पाटित कर डाले तो इस जड़िमा से, इस
स्थावर नरक से, मेरा भी उद्धार हो जाए! मैं अपने
स्वरूप को पुन: प्राप्त कर लूँ।
इसी के लिये मैं प्रतीक्षारत हूँ।
स्वप्न बदलता है। नया
पन्ना खुलता है। एक इषिका वन है। इषिका अर्थात सींक या
सरकंडों का अगम-दुर्भेद्य वन। तीक्ष्ण खरधार पतलों का
जंगल। भीतर सरसराते हुए सांप-भुजंग चल रहे हैं। हिंसक
मांस-लोलुप भेड़िए-चीते भी दुबके होंगे। इस भयानक
इषीका वन में पतली-सी राह पर मैं सरकंडे पतलों के
झेपों को फाड़ते हुए चल रहा हूँ। उनकी तीक्ष्णधार से
उँगलियाँ और चेहरे पर खरोंचें लग जाती हैं। नीचे पैर में काँटे
चुभ रहे हैं। तो भी चल रहा हूँ। जीवन यात्रा जो है।
पूरी करनी ही है। यही निर्दिष्ट पथ है। उपाय नहीं। इस
भयंकर इषीका वन में एक तरह से डूबा डूबा चल रहा हूँ।
अचानक चटचटाती ध्वनि करती हुई अग्नि शिखा आसपास उठती
है। फिर भयंकर लपलपाती ज्वालाओं
में बदल जाती है। फिर भी चल रहा हूँ। यही निर्वाचित पथ
है। इसी पथ के नाम मेरा जीवन बंधक में है। अत: चल रहा
हूँ। आगे-पीछे अगल-बगल ज्वालाएँ
ही ज्वालाएँ हैं। तरह-तरह के
जीवों का आर्तनाद सुनाई पड़ता है। जंगली शूकरों के
झुण्ड, हिरणों के खुरों की तेज, विकल, पगध्वनि। दूर पर
चिंघाड़ते हाथियों की भगदड़। कई विकल अजगर तो सरकते
हुए आसपास बगल से ही गुज़र
जाते हैं। तो यह दावानल है।
इस दावाग्नि में मारे भय
के मेरी धड़कन बन्द होने को आ गई है। प्रार्थना के
शब्द कण्ठ से निकल नहीं पा रहे हैं। भयानक आर्त। भयानक
ज्वालाएँ। दिशाएँ
जल रही हैं, सारा परिवेश जल रहा है, आँखें
जल रही हैं। मैं, मैं एक बीसवीं शती के अन्तिम दशक का
मनुष्य विकल-विह्वल किसी देव-शिशु के अवतरण की अशब्द
प्रार्थना कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि वह अवश्य आएगा
और मुझे पीछे ठेलकर सामने स्वयं खड़ा हो जाएगा और सारी
ज्वालाओं को गटागट पी जाएगा।
पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण सर्वत्र की ज्वालाओं
को वह साँस भर-भर कर खींच कर
पी जाएगा। समस्त सृष्टि के भय, काम और दुख के दावानल
को पीकर पचा जाने की क्षमता वाला देव-शिशु निश्चय ही
आएगा। तब यह क्षुरधार इषिका वन जल कर भस्मीभूत हो
जाएगा। वातावरण शान्त हो जाएगा। वह और हम, इस बन्धु
भाव से शेष पथ पर साथ-साथ चलते जाएँगे।
उस अवतरण की शक्ल सूरत क्या होगी, यह मैं नहीं जानता।
फिर दूसरा पन्ना
खुलता है। दूसरा स्वप्न उदित होता है।
इसी तरह एक नहीं अनेक
पन्ने इस कुटिल बंकिम तरु की
शाखाओं के नीचे आँखें
मूँदे हुए मैंने कितनी बार
पढ़े हैं और कितनी बार निराशा के तमस से उज्ज्वल
उद्धार पाया है, इसे कहाँ तक
बताऊँ गुरु
निम्बकाचार्य के नामकरण का रहस्य यह बताया जाता है कि
वे प्रतिदिन एक ऊँचे नीम के
पेड़ पर चढ़कर बालार्क सूर्य को प्रात: नमस्कार करते
थे। शायद वे घनघोर अरण्य में रहते थे। ऊँचे-ऊँचे
पेड़ों के कारण प्रात: सूर्य-दर्शन नहीं हो पाता था।
अत: उन्हें प्रतिदिन शाखमृग की तरह पेड़ पर चढ़ना
पड़ता था। परन्तु मुझे तो इस 'कुब्जा सुन्दरी' की दो
शाखाओं के बीच पूर्णचन्द्र का
दर्शन अपनी चारपाई पर लेटे-लेटे ही हो जाता है और
रात-बिरात इसकी शाखाओं के नीचे
मैं श्रीमद्भागवत् के रहस्य स्वप्न-चक्षुओं
से देखता हूँ। अवश्य ही मेरी अर्थात् इस शताब्दी की
श्रीमद्भगवत् द्वापर की राग-पूर्वराग-महाराग की भागवत
से भिन्न भय और हताशा की भागवत है। और आश्चर्य, कि यह
भय ही हमें ईश्वर से जोड़ रहा है। मूल भागवत भी तो भय
और हताशा के परिवेश में ही सुनी गई थी। शेषनाग के फणों
की छाया में बैठकर नारद ने इसे ब्रह्मा से सुना था।
फिर कुरुक्षेत्र की
सर्वनाश-चिंता की विकल स्मृतियों को लेकर वेदव्यास ने
नारद से सुना और व्यास से शुक, शुक से परीक्षित और शेष
मानव समुदाय ने। यही इसकी व्यास परम्परा है।
इस टेढ़ी
नीम 'कुब्जा सुन्दरी' के नीचे चन्द्र-विधौत रात्रियों
में मैं कभी-कभी अपनी खाट पर लेटे-लेटे आँखें
मूँद कर इसका एकाध पन्ना पढ़
लेता हूँ। आँखें खोलकर तो
यथार्थ ही पढ़ा जाता है। परन्तु आँखें
मूँदकर सत्य भी पढ़ा जा सकता
है। आधुनिक साहित्यकार की ट्रेजडी यह है कि वह पेट के
बल यथार्थ से बुरी तरह चिपका हुआ रेंगता चल रहा है और
परा यथार्थ सत्य से उसकी भेंट नहीं हो पाती। उसके पास
आँखें मूँदकर
आराम से देखने-सुनने की फुरसत कहाँ!
फलत: वह विश्वास ही नहीं कर पाता है कि यथार्थ और सत्य
दो तरह की बातें हैं और यथार्थ से भी बड़ी सच्चाई है
सत्य। 'प्रति सत्य' और 'असत्य' भी यथार्थ का चेहरा लगा
कर लीला करता है और खुली आँखें
प्राय: धोखे में आ जाती हैं। दो खुली आँखों
से देखने की एक सीमा है। वे एक ही कोण से, एक ही दिशा
में देख सकती हैं। समग्र रूप में और रूप के नीचे उतर
कर अरूप में देखने की क्षमता खुली आँखों
में नहीं। इन्हें यदि देखना हो तो आँखें
मूँद कर ही देखना पड़ता है। यह
एक विचित्र रहस्य है जिसको मैंने इस कुब्जा सुन्दरी की
छाँह में, चाँदनी
की शान्त समाहित धारा में स्नान करती हुई रात्रियों
में समझा है। अत: यह टेढ़ी विकलांग नीम मेरे लिये वही
महत्व रखती है जो निम्बकाचार्य के लिये उनके अपने
निम्बतरू का था। |