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ललित निबंध

दीपावली का दार्शनिक पक्ष
—महेश चंद्र कटरपंच
 


दीपावली दीपों का उत्सव हैं - जलते और जगमगाते दीपों का। इसीलिए इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। दीप जलता हैं-- अंधकार को दूर भगाने तथा अपनी ज्योति का आलोक बिखेरने। दीपावलियाँ अपने प्रकाश से तिमिर का संहार करती हैं। प्रकाश के समक्ष अंधकार ठहर सकता है भला। ज्ञान व सतोगुण के प्रसार की प्रतियोगिता में तमोगुण और अज्ञानता नहीं रह सकते। अँधेरे में ही जघन्यतम पाप किए जाते हैं। पाप अज्ञानता के पर्दे के कारण ही होते हैं। प्रकाश में स्वयं के अस्तित्व का बोध हो जाता है, अपने कर्मों का प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। ज्ञान हमें सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। अंधकार में तो कोई भी भटक सकता है न?

दीपक प्रकाश का पुंज हैं। उसकी लौ सदैव ऊपर की ओर रहती है। ऊँचाई की ओर जाने का लक्ष्य ही प्रगति का आधार है। ऊपर जाती हुई दीपक की लौ धुआँ निकालती हैं - कालिमा का परित्याग करती है। प्रगति की ओर अभिमुख होने पर अज्ञानता और मलिनता स्वयं भागने लगती है। ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास ही अज्ञानता को उसी प्रकार भगा देता हैं, जिस प्रकार कोई हृष्ट-पुष्ट बिल्ली किसी डरपोक चूहे को। ज्ञान अपरिमित होता हैं। दीपक का प्रकाश भी सही जगह फैलता हैं। अत: आलोकित होने वाली दीपावलियाँ हमें निरंतर ज्ञान का संदेश देती हैं। ज्ञान प्रगति का द्वार हैं। प्रगति एकाग्रता व तन्मयता की सहेली हैं। इसी संगठन में तो अद्भुत शक्ति का पाठ पढ़ाया जाता है।

आलोक और ज्ञान के विद्वान देव दीपक। तुम्हारी महानता के समक्ष सभी को नतमस्तक होना पड़ता है। हमारे पास तुम्हारी महानता के गीत गाने के अतिरिक्त और है ही क्या? यही है हमारा सर्वस्व - तुम्हारी उदारता के प्रति हमारी कृतज्ञता। हे शक्ति के देव, हमें शक्ति दो कि हम अपने अंतरमन की कालिमा का परित्याग कर अपने अंतरमन की कालिमा का परित्याग कर अपने को निर्मल बनाएँ तथा अज्ञानता के पर्दे को हटाकर ज्ञान का संबल प्राप्त करें।

दीपक का आधार होती हैं, बाती-बाती को सहयोग मिलता है तेल का-तेल को आश्रय प्राप्त होता है, मिट्टी के उस छोटे पात्र में जिसे दिया या दीपक कहते हैं। बाती रूई की बनती हैं। रूई का रंग सफ़ेद होता है, जो सतोगुण का प्रतीक हैं और सदाचार का संकेतक। सफ़ेद रंग निर्मल और स्वच्छ होता है। निर्मलता और स्वच्छता सभी को अच्छी लगती हैं। सात्विकता का अपना ही महत्व होता है। बाती केवल रूई ही नहीं हैं, उसको बल देकर तथा गूँथकर विशेष आकार दिया जाता है। कामना और वासना पर नियंत्रण रखने से ही सदाचार पनपता हैं। सदाचार का प्रकाश दूर-दूर तक फैलता हैं। सदाचार पर ही ज्ञान आधारित है।

बाती बिना प्रकाश की कल्पना नहीं की जा सकती। बाती का अपना अस्तित्व होते हुए भी वह तेल को अपना अग्रज मानती हैं। तेल ही तो हैं जो बाती के प्रकाश को स्थायी बनाता हैं - उसे निरंतर प्रज्वलित रखता हैं। तेल तरल होता है - इतना तरल कि वह स्वयं को किसी भी पात्र में उस पात्र के आकार के अनुरूप संयोजित कर लेता हैं। तेल को अपने आकार और अस्तित्व के लिए कही कोई संघर्ष नहीं करना पड़ता। वातावरण के अनुकूल बनकर रहना ही अपने अस्तित्व की कुंजी होती हैं। संघर्ष करने वालों को कौन गले लगाता है भला? सामंजस्यता मानव के जीवन में सफलता की कुंजी मानी जाती है। तेल स्नेह का परिचायक है। स्नेह में ही वह अद्भुत शक्ति होती हैं, जिसके सहारे शत्रु भी मित्र बन सकता है। स्नेह हमारे जीवन का आधार स्तंभ है। जिसके सहारे हमारे परस्पर संबंध निर्भर करते हैं। तेल स्वत: बाती में खूब मिल जाता हैं। स्नेह और सदाचार का मिलन ही तो ज्ञान उत्पन्न करता हैं - वैमनस्यता से परे रहकर।

मिट्टी का पात्र तेल को प्रश्रय देता है। मिट्टी बड़ी कोमल होती हैं - उसे कुंभकार किसी भी आकार में मोड़ सकता हैं। बचपन की अवस्था को कच्ची मिट्टी से तुलना की जाती हैं। कच्ची मिट्टी को कोई भी आकार आसानी से दिया जा सकता है। बचपन में जो संस्कार दिए जाते हैं, वही जीवन में स्थायी बन जाते हैं। कोमलता बड़े महत्व का गुण हैं। मिट्टी अत्यंत लाभदायक होती हैं। जीवन में कोमलता में ही स्नेह को स्थान मिल सकता हैं। दुष्ट और अड़ियल लोगों से कोई स्नेह नहीं करता। कोमलता और स्नेह सदाचार को शक्ति देते हैं। मिट्टी का पात्र, तेल तथा बाती का संगम ही दीपक को सदैव आलोकित कर सकता हैं। कोमलता, स्नेह तथा सदाचार की त्रिवेणी में ही ज्ञान के सरोज विकसित हो सकते हैं। कोमल हृदय, स्नेहशील और सदाचारी व्यक्ति ही ज्ञान का आलोक प्रसारित कर सकता है।

तो, स्नेह और सदाचार की पावन प्रतिमा। तुम हमें प्रेरणा दो कि हम सहयोग का सबक सीखकर तुम्हारी पृष्ठ भूमि में छिपे हुए दर्शन को व्यवहारिक रूप दे और संसार में उसे प्रकाशित करें। ओ, ज्ञानालोक के महानदेव! तुम्हारी परोपकार और स्वार्थहीन विशाल वृत्ति के समक्ष श्रद्धा कर लेने मात्र से हम स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। हे कुशल कलाकार! तुम हमें वह मंत्र क्यों न बता देते जिससे तुमने स्वयं जलने और दूसरों को राह दिखाने की कला सीखी हैं। तिल-तिल जलकर भी तुम अपने पथपर अटल और अडिग प्रहरी की भाँति खड़े हुर रहते हो। हे आराध्य! उस अमूल्य कलानिधि में से चयन कर कुछ निधि हमारे लिए भी तो निकाल कर दो, ताकि हम भी अपना जीवन किसी लक्ष्य के लिए समर्पित कर सकें।     

 
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