लाखों वर्ष पहले हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए एक दिशा चुनी थी। उसी
ने निर्धारित किया कि उनकी संतति का जीवन कैसा होगा, आने वाली दुनिया की, हमारी
दुनिया की शक्ल कैसी होगी। अपने पूर्वजों से मिली इस विरासत में हम पर भी यह
दायित्व है कि हम अपनी संतति के बारे में, अगली पीढ़ियों के बारे में यह चिन्ता करें
कि जो धरोहर इतिहास से हमें मिली है, आने वाली सदियों में कहीं उनसे छिन न जाए। मैं
उस युग में साँस ले रहा हूं जब मुझे बताया जा रहा है कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की,
‘विश्व-बन्धुत्व’ की, हमारे मनीषियों की कल्पना साकार हो रही है। सारी धरती सिमटकर
एक कुनबा बन चली है। वैज्ञानिक क्रांति ने हर महाद्वीप को, हर देश-प्रदेश को ही
नहीं, घर-घर को एक दूसरे से जोड़ दिया है। हमें एक-दूसरे के बारे में जानने की,
समझने की असीम सुविधा सुलभ है।
हममें और शेष पशु-जगत में जो सबसे बड़ा अंतर है वह है विचार करने की शक्ति का, अपने
को व्यक्त कर सकने की क्षमता का। अलग-अलग विचार करने की और उन विचारों को व्यक्त
करने की यह विलक्षण देन जन्म देती है एक ओर आइन्सटाइन को तो दूसरी ओर इदी अमीन को।
एक ओर रावण को तो दूसरी ओर तुलसीदास को और कालिदास को। और आज के संचार-साधनों ने यह
संभव कर दिया है कि हर युग की, हर जगह की, हर बात हर एक तक तत्क्षण पहुंच सके। इस
मुक्ताकाश उड़ान में एक खतरा मुझे रह-रह कर चौंकाता है। बहेलिए के जाल में बिछे
रंग-बिरंगे दानों का खतरा। देश को स्वतंत्र हुए इतने वर्ष हो जाने के बाद भी अक्सर
यह दुख दुहराया जाता है कि हमारी दास मानसिकता नहीं गई पर मेरा भय एक नई दासता के
बारे में है। पिछले साम्राज्यवादी कंगूरे ढह गए पर हम बेसुधी में एक नए
साम्राज्यवाद के आगे घुटने टेके जा रहे हैं।
दिल्ली में आकाशवाणी के प्रवेश-द्वार पर महात्मा गाँधी की एक उक्ति अंकित है, फ्मैं
चाहूंगा कि मेरे घर की सभी खिड़कियाँ खुली हों ताकि हर दिशा से वहाँ हवा का झोंका आ
सके पर मैं यह नहीं चाहूंगा कि कभी ऐसा हो जब अपनी जमीन पर से मेरे पैर उखड़ जाएँ।य्
मुझे रह-रह कर यह भय सताता है कि केवल भारत में ही नहीं, केवल विकासशील देशों में
ही नहीं, हमारे जैसे कितने ही लोगों को यह महसूस हो रहा है कि जैसे धरती उनके पैरों
के नीचे से खिसकी जा रही हो। कुछ ऐसा लगने लगा है जैसे भूकंप के झटके हमारे पैर
उखाड़ रहे हों और हम जिस जमीन पर खड़े हैं वो नीचे, कहीं गहरे धसकती जा रही हो।
देखते-देखते पश्चिमीकरण का ऐसा झंझावात आँखों में धूल झोंक रहा है कि अलग-अलग
समाजों की जीवन-प्रणाली की नीवें डांवाडोल हो रही हैं। भूगोल की किताबों में
अनेकानेक इलाकों का नक्शा इस तेजी से बदल रहा है कि कुछ समय बाद उन्हें पहचानना
मुश्किल हो जाएगा।
यह उलझन बिल्कुल नई है, अभी अभी उपजी है। जानकारों को इस महामारी को समझने में अभी
समय लगेगा, इसका ईलाज ढूंढना तो दूर की बात है। इससे पहले ऐसा कोई प्रकोप सभ्यताओं
पर टूटा हो, ऐसे किसी ताऊन ने मानव-विविधता को अपनी जकड़ में कसा हो, इसकी कोई मिसाल
नहीं। सिर्पफ एक मिसाल पर गौर करें, मनोरंजन से मिलने वाली जानकारी पर। फिल्मों ने
अभी कुछ वर्ष पहले अपने निर्माण की शताब्दी पूरी की थी, रेडियो का प्रसारण आरंभ हुए
अभी सौ साल भी नहीं हुए, टी.वी. और भी हाल में शुरू हुआ, और डिजिटल टीवी, उपग्रहों
से आती टेलीविजन की तस्वीरों को सरहदें पार करते अभी जुम्मे-जुम्मे कुछ साल भी नहीं
हुए। विशेषज्ञ अभी इन प्रतिमानों की बहस का सूत्र भी नहीं ढूंढ पाए हैं कि इन
तस्वीरों का लोगों के सोचने के ढर्रे पर क्या असर होगा, कोई असर पड़ भी सकता है या
नहीं।
शायद हममें से अभी कोई भी नहीं आँक सकता पर हाँ, विज्ञापन बनाने और बनवाने वालों को
इसकी पहुंच का रहस्य पक्का पता है। इसीलिए वे इन माध्यमों पर लाखों-करोड़ों का दांव
लगाने को तत्पर रहते हैं। टेलीविजन के पर्दे पर ये जो घूमते चित्र हैं, इनका जादू
सर चढ़कर बोलता है। अपने यहाँ के आंचलिक क्षेत्रें में आदिवासी गायकों और नर्तकों की
टोलियाँ अपनी लोकधुनों को, अपनी लोककथाओं को, जो उन्हें परंपरा में जन्म से मिली
थीं, तिलांजलि देकर अब उन प्रसंगों की, उस वेशभूषा की नकल करने में अपने को
गौरवान्वित मानती हैं जो उन्होंने किन्हीं बंबइया फिल्मों में देखी हों और उन मसाला
फिल्मों के दृश्य प्राय: विदेशी फिल्मों की भोंडी नकल होते हैं। ऱंस जैसे विशिष्ट
सांस्कृतिक देश में भी यह चिन्ता व्याप्त है कि उनकी अपनी फिल्मों को धूमिल करके,
वहाँ भी बेवाच का नशा सर चढ़कर बोलने लगा है।
ऐसा लगता है, हम सब आज एक गहरी घाटी के मुहाने पर खड़े हैं। चारों ओर का आकाश जैसे
आच्छादित है उन इकतरफा संदेशों से, छवियों से, विचारों से, जो झिलमिलाते हैं,
ललचाते हैं, फुसलाते हैं और जिन्हें हम सोते-जागते, डूबते-उतराते होशो-हवास में, या
अर्धचेतना में, घूंट-घूंट नशे की तरह आँखों से, कानों से, अपने गले के नीचे उतारते
रहते हैं। भविष्य में जब तक यह खोज शुरू होगी, जब तक शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर
गोष्ठी करेंगे कि बाजार में धड़ल्ले से धकेले जा रहे इन सौदों का असर अफीम की गोली
की तरह जानलेवा हो रहा है, कि ‘ग्राम बनी हमारी वसुधा’, विचारों का एक ठूँठ बन कर
रह गई है, तब तक अलग-अलग देशों-प्रदेशों, गाँवों-शहरों, कस्बों-बस्तियों में रहने
वाले, जन्म लेने वाले करोड़ों लोगों में कहीं कोई चिराग लेकर भी ढूंढे ही मिलेगा जो
एक ही तरह की जीन्स और टी-शर्ट न पहनता हो, एक ही तरह के पाप सांग पर न झूमता हो,
एक ही भाषा न बोलता हो, और एक ही तरह के ‘फास्ट फूड’ का भूखा न हो।
खुद से पूछकर देखिए, ऐसे भयावह दु:स्वप्न से सहमा कोई चैन की नींद सो सकता है या
सच्चाई का सामना करने के लिए हम अपनी आँखें नहीं खोलना चाहते। मुझे अपना ‘ग्लोबल
विलेज’ बहुत प्रिय है पर इसकी कीमत क्या यह देनी होगी कि मैं अपनी इकाई मिटा लूं?
मेरे अस्तित्व की अलग पहचान लुप्त हो जाए? वसुन्धरा को बाँटने वाली दरारों को पाटने
की दुआएँ हमने, हम सबने मांगी थी पर उसका वरदान हमें क्या यह मिलेगा कि संसार की
सारी विविधता पिघलाकर एक साँचे में ढाल दी जाए। और वो साँचा किसका बनाया हुआ होगा?
मनुष्य जाति की जन्मजात कुशाग्र विविधता को एक साँचे में गलाने की प्रक्रिया
अंग्रेजी के एक शब्द में कही जा सकती है, धातु, कबाड़ और सारे आभूषणों को गलाकर एक
टिकड़े में ठोंकने की प्रक्रिया। उसे ढालने वाला साँचा किसका होगा? उसका नया रूप-गुण
कौन तय करेगा? उसे कोई भी लालच दिया जाए, उसके पीछे छिपी नीयत से एक ही खनक निकलती
है – ‘मानसिक दासता’ की जंजीरों की। सारी मानव-जाति की चिरंतन प्रवाहित विचारधारा
को एक कुएँ में ढकेलकर उससे लाभ खींचने की नीयत। एक ऐसा लोक जहाँ सब एक तरह से
सोचेंगे, एक ही भाषा बोलेंगे, एक ही धुन के गीत गाएँगे, एक सा खाना पकाएँगे और अपने
बच्चों को एक सी लोरियाँ सुनाएँगे।
आज के संचार-साधनों में इतनी ताकत है कि वे सड़क कूटने वाले इंजन की तरह हर मौलिकता
को, हर चिन्तन को, हर दृष्टिकोण को कूट पीस कर, तारकोल की तरह उबालकर, अपने बनाए
रास्ते पर बिछा सकते हैं। हमारी धरती की दो-तिहाई आबादी जो अकिंचन है, वंचित है,
अभागी है, इस मायाजाल में फँसती जा रही है। उनके फैलाए मायाजाल में, जिनके पास
असीमित साधन हैं, आधुनिक तकनीक है और जो हमारा ध्यान ही नहीं लुभा रहे, हमारे
मन-मस्तिष्क को अपनी मुट्ठी में कसते जा रहे हैं। इससे भी दिल दहलाने वाली आशंका यह
है कि इन साधनों के सूत्र मुट्ठी भर लोगों के हाथों में हैं जो संसार भर को कठपुतली
की तरह अपने इशारों पर नचाने का मंसूबा बाँध रहे हैं। कल क्या प्रलयकाल के जलप्लावन
की तरह सब कुछ डूब जाएगा? सर छुपाने को केवल उन्हीं की नौकाओं में जगह मिलेगी जो
अपनी नौका हमसे चलवाएँगे।
इसलिए वर्तमान के जिस बिन्दु पर हम खड़े हैं, वहाँ हमें उस दिशा की पहचान करनी है
जहाँ भविष्य हमें धकेल रहा है। अपनी अगली पीढ़ियों के बारे में, उनके कल के बारे में
हमें प्रश्न उठाने होंगे। क्या देश-देश की विशाल आबादियाँ दूसरों के पेंफके विचारों
के टुकड़ों पर अपना पेट पालेंगी? क्या हमारी आने वाली पीढ़ियाँ दूसरों से उधार मिले
साहित्य और संगीत पर झूमेंगी, गाएँगी, इतराएँगी?
मुझे भय सताता है कि क्या हम और हमारे जैसे करोड़ों लोगों की आगे आने वाली पीढ़ियाँ
वह सब कुछ खो देंगी जो संसार के हर कोने में मानवीय प्रतिभा ने हजारों वर्षों के
प्रयत्नों से संजोया है। क्या वह विविधता जो हमारी धरती को सजाए है, सपाट हो जाएगी?
क्या ज्वालामुखी की अग्निवर्षा में सारे रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियाँ, राख के
मलबे में दब जाएँगी? क्या हम भी शेष पशु जगत की तरह एक ही नस्ल की शक्ल में बदलकर
एक सा जीवन जिएँगे? क्या हमारी धरती पर अलग-अलग तरह के लोग नहीं बसे होंगे? क्या एक
दिन ऐसा आएगा कि हम सब केवल चुइंगम चबाएँगे, बर्गर किंग या मैकडानल्ड खाएँगे, कोका
कोला पिएँगे और एल्विस प्रेस्ली के गीत गाएँगे?
अपने बच्चों के लिए क्या हम ऐसा संसार छोड़ेंगे, जहाँ सब एक ही बोली बोलें, एक से
धारावाहिक देखें, एक ही भाषा का साहित्य पढ़ें और एक ही तरह से सोचें? क्या यह
चिन्ता केवल निर्धन और निर्बल देशों को करनी है या यह विकराल संभावना सारे मानव
समाज के सामने मुँह बाए खड़ी है? मेरी मान्यता है कि हम जहाँ कहीं भी हों, जो कोई भी
हों, धनी-निर्धन, समृद्ध-कंगाल, विकसित- अर्धविकसित, अविकसित, सभी की सामूहिक
जिम्मेदारी है कि हम सब सोचें कि हमारी धरती का आने वाला कल कैसा होगा। रंग-बिरंगे
फूलों का नंदन कानन, या एक ऐसा चौरस खेत जिसमें केवल एक ही फसल उगा करेगी, ऐसी विधि
से उपजाए भुट्टों की फसल जिनका हर दाना एक नाप का, एक रंग का और एक ही स्वाद का
होगा।
१५ अगस्त २०११ |