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रचना प्रसंग


नवगीत- परिप्रेक्ष्य और प्रासंगिकता
डॉ. अनिल कुमार


प्राथमिक अवस्था में गीत मुख्यतया गेय था। उसके भाव-प्रसार के लिए काव्यत्व का आग्रह नहीं था। मिलन-विरह, हर्ष-शोक, आनन्द-विषाद का चित्र भावुकता द्वारा नहीं, बल्कि संगीत की भावाकुलता, भावना की अनुरूपता तथा गेयता का आधार लेकर उपस्थित हुआ और अतीत में इसी तरह अनुभूति बोधक गीतों का विकास होता रहा।

जिस प्रकार लोकगाथाओं का साहित्यिक रूप महाकाव्य, खण्डकाव्य आदि प्रबन्ध- काव्यों में प्रकट हुआ, उसी प्रकार व्यक्तिगत हर्ष-शोक से परिपूर्ण गीतों का साहित्यिक रूप गीतिकाव्य या प्रगीत मुक्तकों में स्थान पाया। वस्तुतः लोकगीत ही इन साहित्यिक गीतों का आधार है। वाल्मीकीय रामायण गेय है और लव-कुश ने, जैसा कहा जाता है, राम के सामने उसका सस्वर गान किया था। अतएव यह कहना अनुचित नहीं होगा कि गीत भारतीय कविता का मूल स्रोत है। यदि इसके इतिहास में झाँके तो दृष्टि वेदों, उपनिषदों तक पहुँच जाती है। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद की ऋचाएँ, गायत्री और अनुष्टुप आदि छंद रूप में ही रचा साहित्य है। इसलिए गीत को सृष्टि की आरम्भिक सर्जना समझना चाहिए।

बदलते काल परिप्रेक्ष्य में गीत विधा में अत्यधिक बदलाव आया। युगानुकूल परिवेश एवं परिस्थितियों के प्रभाव के कारण गीत का अंदाज ही नहीं मिजाज भी बदला है। किन्तु इतने बदलावों के बावजूद भी अनुभूति की लयवत्ता की सहज अभिव्यक्ति आज भी गीत में बनी हुई है। यह बात अलग है कि पारम्परिक गीतों में ठहराव और आत्ममुग्धता की स्थिति उत्पन्न हो जाने के कारण छान्दस काव्य को रचनात्मक गति देने की प्रयोजनीयता को ध्यान में रखकर साठोत्तरी गीत काव्य की समष्टिवादी प्रवृत्तियों के अनुकूल विकसित करने की विवशता गीतकारों के सामने आ खडी हुई थी और वह विवशता इसलिए हुई कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सामाजिक परिप्रेक्ष्य से उत्पन्न विसंगतियों को गीत के पारम्परिक रूप में अभिव्यक्त करना संभव नहीं था।

नवगीत के पुरोधाओं को इस बात से परहेज नहीं होगा कि नवगीत रचना का कारण हिन्दी कविताओं के नगर के यांत्रीकरण एवं महानगरीय जीवन की दुर्दान्त निर्ममता के विरोध में हुआ। जीवनगत विसंगतियों, मूल्य-क्षरण बाजारवाद, वैश्वीकरण के दुष्परिणाम, रिश्तों में पनपती स्वार्थपरता आदि गीत के छंद में बंद बनने लगे। वास्तव में हिन्दी कविता की अत्याधुनिकता की परिस्थिति में गीत अपने नयेपन के साथ अनेक आयामों में और अनेक कालखण्डों में विकसित हुआ है। भारतेन्दु काल के नाट्यगीतों में, द्विवेदीकाल के राष्ट्रीय गीतों में, छायावादी काल के प्रकृतिवादी गीतों में और प्रगतिवादी काल के वर्ग संघर्ष गीतों में नवगीत की ध्वनि सुनी जा सकती है।

सन् १९५० से ५५ के बीच गीतों में शिल्प की नवीनता, लोकतत्त्व, प्रकृति-साहचर्य और सामाजिक मनःस्थिति का विशेष रूप से सूत्रपात हुआ। फलस्वरूप १९५८ में जब ’गीतांगिनी‘ की सम्पादन राजेन्द्र प्रसाद सिंह के द्वारा हुआ तब उन्होंने उसकी भूमिका में नवगीत के लिए जीवन-दर्शन, आत्मनिष्ठ, व्यक्तिबोध, प्रीतितत्त्व और परिसंचय जैसे पाँच तत्वों की प्रतिष्ठापना की तथा गीतों की कालातीत संभावनाओं का ध्यान कर नवगीत को नवगीत ही रहने दिया।

वास्तव में नवगीत एक ऐसा संबोधन है, जिसकी नवीनता कभी समाप्त नहीं हो सकती। क्योंकि इसके मूल में तनाव रहित मन है। इसके संयोग से साहित्य और संगीत का एकीकरण हो जाता है तथा रचनारत होकर गीत और नवगीत एक महत्त्वपूर्ण अर्थ में परिवर्तित हो जाते हैं। इसलिए किसी भी गीतकार के मनोगायन का यह विशिष्ट कारण भी बन जाता है। इसकी चेतना इसके नये बिम्बों, प्रतीकों, नये संकेतों, भाषा के नये प्रयोगों, मिथकीय बिन्दुओं के नये आयामों आदि के प्रयोगों में एक ऐसा आकर्षण प्रस्तुत करती है, जो अनायास ही मन को चिन्तन की लयात्मकता में बाँध लेता है। इन गुणों के अतिरिक्त इसमें वस्तुनिष्ठ और आत्मनिष्ठता का संयोग इस विशिष्टता के साथ समाहित होता है कि इसके नयेपन के धूमिल होने की संभावना भी संभावना बनकर रह जाती है।

नवगीत वर्तमान काल का सबसे विशिष्ट जनाग्रही अनुभूतियों का व्याख्याता है। यह विधा आज इतना विविधर्मी है कि जीवन से संबंधित तमाम अनुभूतियाँ इसकी परिधि पर निरन्तर व्याख्यायित होती रहती है। दरअसल, ग्राम्य जीवन एवं नगरीय वातावरण के तादात्म्य से समाज में विषमता, विद्रूपता, विसंगति, शोषण-उत्पीडन, दुःख-दर्द, मूल्यहीनता, सांस्कृतिक पतन, मर्यादाओं का अंत, मंदी की मार, विवश बुढापा, बाजारवाद, वैश्विक अवधारणा, भूमंडलीकरण का दुष्प्रभाव, भाषा-प्रान्त-सम्प्रदाय आदि की जो भ्रांतिमूलक अवधारणाएँ उत्पन्न होती हैं, उन्हीं से आहत होकर नवगीतकारों की सर्जनाएँ गति प्राप्त करती हैं। मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है कि नवगीत समकालीन जीवन की सही परख है। अपनी विशिष्ट भाषा, नवीन शिल्प और नूतन प्रतीक, बिम्बों से समयानुकूल कथ्य सम्प्रेषण की अद्भुत कला के कारण यह समकालीन सत्यता को अभिव्यंजित करने का उपयुक्त सोपान है।

’नवगीत और उसका युगबोध‘ में डॉ. नामवर सिंह तथा अन्य कई प्रगतिशील और जनवादी आलोचकों ने गीत को भी कविता मानने का उपक्रम किया है। किन्तु गीत की अस्मिता स्तरीय कविताओं के भीतर समाहित होती है। कविता में गीतात्मकता गुण है और गीतात्मक आन्तरिकता की रूपात्मक अभिव्यक्ति गीत है। गीत का रूपाकार, रचना-प्रविधि, रचना-प्रक्रिया, रचनात्मक उद्देश्य और प्रभावान्विति कविता से एकदम पृथक है। यहाँ इतना और जोडूँ कि गीत कविता के अन्दर एक विधा है। कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह ने कविता और गीत के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा है, ’’गीत का कविता से एक अलग ढाँचा होता है, जो ध्वनि से अपनी तथ्यपरक व्यंजनात्मकता के सहारे एक विशिष्ट आवर्त्त से मुखरित होकर भावप्रकाश करने में समर्थ होता है।‘‘ नथाली सरात के अनुसार ’’एक विधा दूसरी विधा को समय-समय पर प्रभावित करती रहती है, किन्तु इस प्रभावात्मकता के कारण इन विधाओं की बुनियादी अनिवार्यताएँ समाप्त नहीं हो जातीं। अर्थात् गीत और कविता एक नहीं है, बल्कि पूरक है।‘‘ इस संदर्भ में अरुण कमल की यह उक्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि ’’गीत कविता का एक रूप है। श्रेष्ठ कविता जब संगीत के निकट आती है तब गीत की रचना होती है और वह कवित्वमय गीत होता है।‘‘

वस्तुतः गीत में आवश्यक विस्तार तथा लयात्मक छन्द योजना होती है। इसके साथ ही गीत की प्रतिबद्धता एक ही विचार, भाव, अनुभूति, संवेदना और मनःस्थिति में निहित होती है। काव्यशास्त्र के आचार्यों का मत है, छन्द कविता के चरण हैं, भाषिक अनुशासन उसकी लय है तथा बिम्ब और प्रतीक उसके रूप हैं और इन्हीं तीनों के संयोग से जिस नाद की उत्पत्ति होती है, उसी में गीत अंकुरित होता है। अर्थात् लय-ध्वनि, संगीत और ताल के कुशल उपयोग से श्रेष्ठ गीत की उत्पत्ति होती है।

नवगीत में शिल्प एक महत्त्वपूर्ण अवयव है। अपनी इसी विशिष्ट शिल्पकला के कारण गीत नवगीत बना। विचारों की संश्लिष्टता, ताजगी, प्रयोगधर्मिता नई भाषा और बिम्बों के विशिष्ट समायोजन से इस विधा का गठन हुआ। इसमें कथ्य के अनुरूप ही भाषा, शिल्प, छंद विधान और प्रतीक आदि बिम्बात्मक उपकरण उत्पन्न होते हैं। भाषा के कुशल प्रयोग से ही कथ्य में धार पैदा होती है। भाषागत सरलता में जब लोक जीवन के मुहावरे छंद में ढलते हैं, तब नवगीत का वैशिष्ट्य बोध अपने आप परिलक्षित होता है।
उपर्युक्त विवेचना के आधार पर नवगीत में समसामयिक परिवेश और परिस्थितियों का समुच्चय बोधक तत्त्व अवश्य होना चाहिए। इसमें सर्जनात्मकता की ताजगी, विचार और संवेदना की गहराई, समय की टंकार-सी धुन, अत्याधुनिक जीवन की विसंगतियों एवं क्रूर-अमानवीयताओं के विरुद्ध प्रभावकारी स्वर अभिव्यंजित होना भी आवश्यक है। समकालीनता से ओत-प्रोत ताजा-तरीन अभिव्यक्ति के साथ जनवादी प्रवृत्तियों तथा यथार्थ जीवन संघर्षों की व्याख्या इसके नाम की सार्थकता को अद्वितीय बनाने में सफल भूमिका का निर्वाह करेगी।

आज वह जीवन स्वरूप जिसे भारतीय जनमानस स्वीकारता है, नवगीत उसे अपनी धारदार कहन से अनवरत उपादेय और उपयुक्त बनाता है तथा अमानवीय क्रियाकलापों को बेनकाब कर जिन जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठापना का प्रयास करता है, वही उसकी विशिष्ट उपलब्धि है। अत्याधुनिक यथार्थपरक कहन (अभिव्यक्ति) जिसमें नवजीवन की अनेकानेक चिन्ताओं के चिंतन का सहन (अनुभूति) प्रतिपादित होता है तथा समय सापेक्ष, समाज सापेक्ष एवं लोकमन की भावनाओं का जो व्याख्यान प्रस्तुत किया जाता है, उसी में इसकी दीर्घकालीन नवता का उन्मेष परिलक्षित है। कदाचित यही कारण है कि थियोडोर अडर्नो ने कहा है, ’’गीत की पुकार का मर्म वही समझ सकता है जो उसकी आत्मपरकता में अन्तर्निहित मानवीयता की आवाज सुन पाता है। व्यक्ति की अनुभूति की संरचनाएँ जिसमें भाव, विचार, संवेदनाएँ, भाषा और शिल्प समाहित हो, अभिव्यक्त होने पर गीत होता है। गीत का यही संस्कार, आंतरिक गुण और अस्मिता है और इसी में उसकी समग्रता का बोध भी निहित है।‘‘

गौरतलब बात यह है कि जब गीतकार मानवीय मन की पीडा, करुणा, सुख-दुख, आक्रोश-विद्रोह आदि को अपनी अनुभूति के स्तर पर गहराई से अनुभव करता है और उन्हें अपने गीतों में पूरी निष्ठा के साथ समेट कर अभिव्यक्त करता है, तब ग्रहणकर्त्ता के मर्म को स्पर्श करने में वह समर्थ होता है। जन-जीवन में जो कुछ वह देखता है और अपने संवेदन तंत्र पर उसकी जो झंकार सुनता है तथा अपनी चेतना पर सामाजिकता के लिए जो दबाव झेलता है, उसे ही नवगीत में ढालकर जन-मन के लिए परोसता है। वास्तविकता यह है कि समकालीन जन्दगी की असली संवेगात्मक अनुभूतियों को अभिव्यंजित करने में नवगीत एक कुशल विधा है। यथा -
दो पहर में
जेठ बरसाता कहर जब,
गर्म होकर
आग बन जाता पहर तब,
कहीं रिक्शा
कहीं ठेला ठेलते हैं।
लाल आँखें
भाल पर लादे पसीना,
शुष्क पथ पर
पाँव नंगे, तान सीना,
लू लपट में
मौत से हम खेलते हैं।

डॉ. राजेन्द्र गौतम के अनुसार, ’’वस्तुतः यांत्रिकता एवं नगर-बोध ने ही नवगीतकार को उन अनुभवों के साथ जुडने को प्रेरित किया है, जनकी संजीवनी शक्ति अक्षय है। नवगीत में उस समाज निरपेक्ष ललित-सौंदर्य का चित्रण नहीं है, जिसकी सीमा कवि की आत्ममुग्धता तक जाकर समाप्त हो जाती है, वरन् नवगीतकार उस सौंदर्य का स्रष्टा है, जिसका साक्षात्कार उसने स्वयं जीवन की उन्मुक्तता में किया और उसका वह अनुभव सामाजिक प्रासंगिकता में जीवन्त सुरुचिपूर्ण एवं संवेदनात्मक है।‘‘ डॉ. गौतम का यह कथन नवगीत अथवा नवगीतकारों के लिए सूक्ति नहीं है, बल्कि अनुभूति की विशद्ता में डूबी हुई भावना की समझ है। गहरे अध्ययन के चरमोत्कर्ष पर ठहरी हुई सामाजिकता के चिन्तन की शोधपरक व्याख्या है। सामाजिक जीवन की दीर्घकालिक अँधेरे और कुहासे को समझने की कशमकश में जिस आत्मसंघर्ष की पीडा गीतकार को झेलनी पडती है, उसका रसोद्रेक है। मैंने भी अपने गीतों में इस अनुभव को रूपायित किया है -
वंशीवट की माया उजडी
सूखे सभी कदंब,
गई जवानी हर करौंद की
रोते जामुन अंब,
तूँत, बेल को कौन पूछता
इमली पेड भले ।
अब खजूर के दिन आये हैं
गया नीम मुँह फाड
मलय घिरा सर्पों से रोता
खडा विहँसता ताड
अमलतास अब नजर न आता
पीपल गये तले ।

उपन्यास विधा में जीवन के सुख-दुख को विस्तार से समेटने का अधिक अवसर मिलता है। भाव की स्वछन्दता में स्मृति की सिहरनों को सम्पूर्णता से बाँटने-बिखेरने में सहुलियत होती है। आगत-अनागत को चित्रित करने के लिए अनेक सुविधाएँ प्राप्त होती हैं, किन्तु गीत में इतना विस्तार दोष माना जाता है और नवगीत में तो इसकी गुंजाइश ही नहीं है। क्योंकि नवगीत में आत्मकथा कहने की प्रवृत्ति नहीं है। यह सच है कि गीत में स्वानुभव का प्राथमिक महत्त्व है, किन्तु विस्तृत संदर्भों में सामाजिक यथार्थ का ही अवलंबन श्रेयस्कर है। वस्तुतः नये प्रतीक, नये बिम्ब के सहारे कथ्य को सामयिक यथार्थ से जोडकर सामाजिक जीवन को चित्रित करना नवगीत का उद्देश्य है और यह मुझे इतना प्रिय प्रतीत हुआ कि मैं नवगीत का हिमायती बन गया -
जन्दगी नित
लौह, पत्थर
हो रही है,
हर कदम पर
आदमीयत
खो रही है,
वृद्ध थाली
प्लेट बचपन
धो रहा है।

समकालीन गीतकारों में दो श्रेणियाँ आज स्पष्ट देखने को मिलती हैं, एक वे हैं, जो छंदों को महत्त्व देकर उसकी मर्यादा में रहकर गीत लिखते हैं और दूसरे वे हैं, जो छन्द में नये प्रयोग करते हैं और लयाश्रित गीत लिखते हैं। अब एक तीसरी श्रेणी भी पनप रही है, जो छन्द और लय दोनों को नकारने की कोशिश कर रही है। नव अंकुरित गीतकारों की दलील है कि नवगीत को अधुनातन संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए छन्द और लय के कटघरे को तोडना आवश्यक हो गया है अन्यथा गीत की लिजलिजी भावुकता उसका पीछा नहीं छोडेगी। यह दलील एक लम्बे बहस का मुद्दा है। इसलिए यहाँ इतना कहना उपयुक्त होगा कि भारतीय संस्कृति की गंध में गंधाये गीतों की सर्जना को समाज के जीवन-मूल्य, संवेदना का सत्य, सामयिक यथार्थ स्वयं ही लिजलिजी भावुकता से मुक्त होकर नवता प्रदान करने में सहायक होते हैं। गीत मानवीय संवेदनाओं के समीप होने के कारण छन्द और लय से कटकर बेतुका और बेताला प्रतीत होता है। मिसाल के तौर पर गिरिजा कुमार माथुर के द्वारा ’वी शैल ओवर कम‘ का अनुवाद ’हम होंगे कामयाब‘ अपनी गीतात्मकता और लयात्मकता के कारण ही मानवीय समाज का हृदय छूने में कामयाब हुआ।

उपर्युक्त विवेचना को ध्यान में रखकर यह कहना मौजू महसूस होता है कि नयेपन के लिए छन्द तोडना आवश्यक नहीं, बल्कि उसकी सीमा में रहकर आत्मा और हृदय की मुक्तावस्था को शब्दों, प्रतीकों, बिम्बों तथा लोक सम्मत मुहावरों के द्वारा नयेपन के प्रति प्रतिबद्ध होना आवश्यक है। क्योंकि बिम्ब, प्रतीक एवं मिथक नवगीत के वे नियामक हैं, जिनके कारण अर्थवत्ता नई अनुभूति की महत्ता में स्नात होकर अन्तस् के सौंदर्य को प्रकट करती है। वस्तुतः छन्द और लय गीत में नाद तथा नृत्य उत्पन्न करने के सर्वश्रेष्ठ माध्यम हैं। मेलाये, रींबो, पाउन्ड, इलियट, रिचर्डस जैसे पाश्चात्य काव्य शिल्पियों ने भी इन्हीं तत्त्वों पर अधिक जोर दिया है। मैंने स्वयं भी अपने गीतों में इसका ध्यान रखा है -
जुगनुओं से
कालिमा चकमक हुई
हर मुंडेरे दीपिका
इतरा उठी
फुलझरी हर खेत में
छितरा उठी
चाँद-सा मुखडा खिला
हर द्वार पर
कमल-सा घर
झील का आँगन हुआ।

साहित्य में भाव और भाषा दो ऐसे तत्त्व हैं, जो किसी रचना को रचना बनाते हैं। अनुभूति की सच्ची अभिव्यक्तिउसे सार्थक बनाती है। शिल्प युक्त कथ्य के कारण वह शाश्वत सिद्धि अर्जित करती है तथा छन्द एवं लय रसिकों को आनन्द देने में समर्थ होते हैं -
तुम हँसे तो
दीप मंदिर के जले हैं ।
रोशनी से
पल उदासी के घटे हैं,
चेहरे से
दुखों के बादल छँटे हैं,
स्वप्न फूले
पेड मरुथल के फले हैं।
नवगीत अपने आगम परिवेश की परिस्थितियों में जन जीवन के साथ सार्थक संवाद और सम्फ कार्य करने की दिशा में पुरअसर साहित्यिक माध्यम होगा। क्योंकि नवगीत में विशुद्ध ग्लोबल चिन्तन से लेकर लोकरंजन तक की व्याप्ति है। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में भी नवगीत और सम्प्रेषणीयता के कारण अधिक प्रिय है। अस्तु, यह कहना ही पर्याप्त नहीं होगा कि नवगीत का भविष्य अत्यन्त उर्वर और उत्साहवर्द्धक है, अपितु अपने नवीन शिल्प और यथार्थपरक अभिव्यक्ति के कारण वह कविता के आधुनिक रूप का संवाहक है। अपनी गहरी अनुभूति के अछूते पहलुओं के चिन्तन का तथा आदमी के मनोभावों के विशद् भाव का वाहक है।

 

८ अगस्त २०११

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