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पिछले कुछ सालों में देशी-विदेशी मीडिया जायेंट्स की 
दिलचस्पी हिंदी भाषा का पूरा-पूरा लाभ उठाने, और भाषा के द्वारा देश में एक ऐसा 
वातावरण तैयार करने में है जो व्यापार के लिए सहायक हो। यानी ट्रेड-फ्रेंडली। बुश 
प्रशासन भी हिंदी-हिंदी बोलने लगा है। ठीक भी है व्यापारियों का प्रतिनिधि, उनका 
ख़ैरख्वाह जो हुआ। यानी जब से भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दरवाज़े खुले है, तो 
इन सब को हिंदी भारत की जनता तक पहुँचाने के लिए आर्थिक दृष्टि से सबसे मीठी भाषा 
लगने लगी है। उन्हें किसी किस्म का मुगालता नहीं था कि भारत की कौन-सी भाषा 
राष्ट्रभाषा या राजभाषा कहलाने की हकदार है। उन्होंने हिंदी को गले लगाया। 
इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के निजीकरण के बाद किसी कंपनी से किसी ने आपत्ति नहीं की कि 
हिंदी क्यों? गिने-चुने दो-तीन चैनलों को छोड़ बाकी सभी हिंदी की ओर झुके। 
अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़े उनके एंकर रोमन में लिख कर हिंगलिश बोलने लगे। यह दावे 
किए जाने लगे हिंदी आम जनता को समझ नहीं आती, हिंगलिश का 
प्रयोग करो। धीरे-धीरे प्रसारकों को यह बात समझ में आ गई कि हिंगलिश भी जनता को समझ 
नहीं आ रही, अगर मीडिया में बने रहना है तो हिंदी में ही बोलना पड़ेगा। 
 लेकिन अगर हिंदी के लिए कुछ अच्छा हुआ है तो बहुत 
कुछ ऐसा भी हो रहा जिसको बहुत अभिनंदनीय नहीं कहा जा सकता। मैं यहाँ जब मीडिया को...खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक 
मीडिया को देखता हूँ तो मेरा ध्यान इस बात पर इतना नहीं जाता कि प्रोग्राम किस भाषा 
में हो रहा है। ध्यान इस ओर अधिक जाता है कि मीडिया किस ओर बढ़ रहा है? भाषा भले ही 
हिंदी है, लेकिन लगता है जैसे कोई अमेरिकी प्रोग्राम देख रहा हूँ। कई बार तो ऐसा 
जान पड़ता है कि भारतीय मीडिया, मीडिया की मर्यादा को ताक पर रख अमेरिकी मीडिया से 
भी आगे बढ़ गया है। कुछ एक को छोड़कर अधिकतर पत्र-पत्रिकाओं का पेज-थ्री, 
मैट्रो-मिक्स जैसे सैक्शन्स के बिना गुज़ारा नहीं है। टीवी चैनल फ़िल्मी सितारों 
पर, हँसोड़ों पर अधिक निर्भर नज़र आते हैं। समाचार कार्यक्रम एक तरह का मनोरंजन 
कार्यक्रम बन गये हैं। अधिकतर कार्यक्रम विषय की गहराई में नहीं जाते। किसी बच्चे 
का किसी गड्ढे मे गिर जाना, उसे निकाला जाना, किसी शूटिंग की वारदात, खेल समाचार... 
यानी वे विषय जिनको देखते-सुनते हुए किसी गहराई में जानने की आवश्यकता नहीं होती, 
मुख्य समाचार बन गए हैं। श्रोताओं को, दर्शकों को किसी बैंक की डकैती की वारदात को 
समझाना ज़्यादा आसान है बनिस्पत इसके कि बैंक आम आदमी को किस तरह लूटता है, शेयर 
बाज़ार क्या है, इत्यादि। विचारक, विद्वान, समाजशास्त्री, वैज्ञानिक सब हाशिये पर 
कर दिए गए हैं। तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्में जिनमें देश भी रहता है और विदेश भी 
काफी बन रही हैं। इनकी भाषा हिंगलिश रहती है।  तब मुझे अमेरिका के वे दिन याद आ जाते हैं जब मैं 
सन 77 में वहाँ पहुँचा था। वहाँ जा कर मैंने पाया था कि मुख्य चैनल तीन या चार हैं 
(उन दिनों केबल नहीं था) जिनमें शाम को आधा घंटे समाचार प्रसारित किए जाते हैं, 
अधिकतर खबरें अमरीकी महाद्वीप की रहती हैं, नाम दिया जाता है विश्व समाचार। बाकी 
सारा दिन सिट-कॉम, सोप आपरा, फ़िल्में या अन्य हल्के-फुल्के कार्यक्रम। इसके अलावा 
स्थानीय समाचार। सुबह 'गुड मॉर्निंग अमेरिका' और इसी तरह के प्रोग्राम। प्रोग्राम 
नहीं शो। वहाँ प्रोग्रामों को शो कहा जाता है, न्यूज़ शो, टॉक शो। शहर में एक या दो 
समाचार पत्र। तब तो मेरी हैरानी पूछिए मत, जब मैंने देखा कि 
वहाँ के अधिकतर समाचार पत्र चुनावों में निष्पक्ष रहने की बजाये एक न एक उम्मीदवार 
का समर्थन करते हैं। इतना ही नहीं, मैंने पाया रेडियो टेलीविज़न पर किसी भी विषय पर 
राजनीतिक दृष्टिकोण रिपब्लिकन नज़रिये से शुरू होता है और डैमोक्रेटिक पार्टी के 
नज़रिये पर ख़त्म। मतलब कुल एप्रोच दक्षिणपंथी ही रहती है।  उन दिनों भारत के समाचार पत्र पढ़ने का मन करता 
था, जिनमें समाज के हर वर्ग का नज़रिया जानने का मौका मिलता था, और लगता था कि भारत 
की प्रेस कहीं ज़्यादा स्वतंत्र है उसका रेंज व्यापक है, उसमें दक्षिणपंथ से लेकर 
वामपंथ तक हर तरह की विचारधारा प्रतिबिंबित हो रही है। बाद में अमेरिकी विद्वान नोम 
चोमस्की की पुस्तक 'मैन्युफैक्चरिंग दी कांसेंट' में पढ़ कर मैंने जाना कि सरकार का 
असली उद्देश्य तो होता है जनता को अपने किसी कदम के लिए रज़ामंद कराना, और जब अनेक 
समाचार पत्र और चैनल एक ही बात बोलने लगते हैं तो जनता को उस बात पर ज़्यादा यकीन 
होने लगता है।  आज सवाल यह है कि दुनिया में वैश्वीकरण के 
परिणामस्वरूप क्या मीडिया का यह रूप होने जा रहा है? क्या मीडिया इस तरफ़ भाग रहा 
है? इसी मीडिया की कृपा है कि अमरीकियों के बारे में कहा जाता है कि दुनिया में वे 
सबसे अधिक मनोरंजन करने वाले और सबसे कम जानकारी रखने वाले लोग हैं। क्या वैश्वीकरण 
के परिणामस्वरूप भारत का मीडिया भी ऐसा हो जाएगा? मुद्दों पर बहस एक या दो नज़रियों 
तक सिमट कर रह जाएगी? मैंने अभी ध्यान दिलाया था कि विदेशी मीडिया पर 
दबाव बढ़ रहा है कि वह अपने प्रोग्रामों का १५-२० प्रतिशत 
भारत में ही तैयार करें। लेकिन विश्व व्यापार संगठन दबाव डाल रहा है कि स्थानीय 
संस्कृति को महत्व दी जानेवाली इस तरह की नीतियाँ खत्म की जाएँ। कनाडा की नीति थी 
कि उन पत्रिकाओं में स्थानीय सामग्री अधिक हो जिनमें कनैडियाई विज्ञापन होते हैं। 
अमेरिका ज़ोर दे रहा है कि सांस्कृतिक अपवाद की यह नीति खत्म की जाए। यह तब है जव 
कि मीडिया का विषय विश्व व्यापार संगठन (डब्लू टी ओ) के विचार-क्षेत्र में भी नहीं 
आता। अगर डब्लू टी ओ अमेरिका के दबाव में यह नीति अपना लेता है तो उस नीति का पालन 
न करने पर सैंक्शंस लगाए जाने का खतरा अलग। उस स्थिति में हमारी राष्ट्रीय सभ्यता 
और संस्कृति का क्या होगा? हमारे क्षेत्रीय समाचार पत्रों का क्या होगा? क्या वे भी 
अमरीकी दैनिकों के जैसे हो जाएँगे, सिंडिकेटिड लेखों पर निर्भर। नाम फ़र्क समाचार 
लगभग वही। जैसे बाल्टीमोर सन, फ़िलेडेल्फिया इंक्वायरर, वाशिंग्टन पोस्ट, न्यू 
यॉर्क टाइम्स, एल ऐ टाइम्स इत्यादि। मैं सामुदायिक, किसी संस्था, किसी स्कूल-कॉलेज 
आदि द्वारा छापे जा रही पत्र-पत्रिकाओं की बात नहीं कर रहा, वे अमेरिका जैसे 
उपभोक्तावादी समाज में शायद दुनिया में सबसे अधिक हैं। मेरा इशारा दैनिकों की ओर 
है। टेलीविजन प्रोग्राम बनाना दिन ब दिन महँगा होता जा 
रहा है, अलग-अलग देशों की कार्यक्रम-निर्माता-कम्पनियों के बीच को-प्रोडक्शंस का 
सिलसिला शुरू हो चुका है। बताया जाता है युरोप में इसके प्रतिकूल असर हुए हैं। 
टेलीविजन कार्यक्रमों की को-प्रोडक्शंस में अमेरिका सबसे आगे हैं। उसकी नज़र भारत 
की सस्ती श्रम शक्ति पर है। अगर वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप सारे मीडिया पर चंद एक 
विदेशी बड़े निगमों की नियंत्रण हो गया तो क्या हिंदी मीडिया अपने सीमित साधनों के 
बलबूते पर खड़ा रह पाएगा?  तो जहाँ वैश्वीकरण ने हिंदी मीडिया के लिए नए अवसर 
पैदा किए हैं, नई राहें खोली हैं, उसके लिए नई चुनौतियाँ भी पैदा कर दी हैं। इन 
चुनौतियाँ का सामना करते हुए कौन-कब-कहाँ मैदान छोड़ दे कहा नहीं जा सकता। हिंदी 
भारत की स्वाधीनता की भाषा रही है, उसकी संस्कृति की वाहक रही है। हिंदी मीडिया को 
उसकी इसी परम्परा से अलग किया जा रहा है। हिंदी फ़िल्में जिन्हें अक्सर हिंदी को 
लोकप्रिय बनाए रखने का श्रेय दिया जाता है यह काम काफी कर रही हैं, वे उससे उसकी 
शब्दावली छीन रही हैं। यह स्थिति हिंदी के लिए ही नहीं हिंदी पत्रकारिता के लिए 
सबसे बड़ी चुनौती नज़र आती है।  इस संदर्भ में मैं आपको अमेरिका के प्रेस के 
इतिहास की एक बात और बताना चाहता हूँ, उन्नीसवीं सदी में एक समाचार पत्र जो एकाएक 
प्रेस में छा गया था उसका नाम था-- सन। वह ऐसा दौर था जब निचली जमाते नई-नई साक्षर 
हो रही थीं। सरकार ने शिक्षा के प्रसार के नए-नए कार्यक्रम शुरू किए थे। नए तरह के 
मीडिया का बाज़ार खुल गया था। जिसमें कोई राजनीतिक या आर्थिक संदेश नहीं होता था। 
अखबार में वे ही समाचार दिए जाते थे जो साधारण जनता को समझ आ सकें। इस मीडिया के 
पत्रकारों ने पुलिस अदालतों की, सार्वजनिक संस्थाओं की हल्की-फुल्की चटपटी कहानियों 
के साथ अखबार भरने शुरू कर दिए थे। कोई भी अजीबो-गरीब घटना समाचार बना दी जाती थी। 
यह खबरें भले ही मज़ेदार होती थीं, लेकिन राजनीतिक-दृष्टि से इनका कोई महत्व या 
मूल्य नहीं था। अमरीकी पत्रकारिता का यह 'डार्क पीरियड' कहलाता है। मैं इस संदर्भ 
में जब भारत के बारे में सोचता हूँ तो पाता हूँ कि जहाँ तक नए-नए अंग्रेज़ी पढ़ने 
वालों की बात है, अंग्रेज़ी का थोड़ा-बहुत ज्ञान हो जाने पर उनकी दिलचस्पी चटपटे 
समाचारों में होती है और अंग्रेज़ी वाले जो नया-नया हिंदी पढ़ना सीखते हैं वे भी 
हिंदी के चटपटे समाचारों के आधार पर अपना हिंदी ज्ञान बढ़ाते हैं। वह फिल्में देख 
कर हिंदी पढ़ते हैं। मतलब दोनों ही तरफ़ से तथाकथित साक्षरों की ऐसी जमात या कह 
लीजिए पीढ़ी तैयार हो रही है जो न तो हिंदी की प्रगतिशील परम्परा से परिचित है और न 
ही अंग्रेज़ी के विरसे से। दोनों ही एक दूसरे के सस्ते मनोरंजन और उत्पादों के 
उपभोक्ता बन कर रह जाते हैं, जो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का इस समय मुख्य लक्ष्य है। कौन-सी घटना मीडिया - इवेंट बने यह व्यापारिक 
घराने तय करते हैं। मार्किटिंग तय करती है। आज के समाचार पत्र में कौन-सी खबर 
सुर्खियों में छपे यह बीते कल की शाम का इलैक्ट्रौनिक मीडिया तय करता है। मतलब 
दोनों ही तरफ़ बेड़ा गर्क होने के आसार।  एक बात और। जवाबदेही, उत्तरदायित्व की जो माँगें 
सरकार या उसके दूसरे संगठनों से की जाती हैं उनसे मीडिया वस्तुत: स्वतंत्र है। 
अपमान-लेख छापने या बोलने की स्थिति में उस पर मुकदमा बेशक चलाया जा सकता है, इसके 
अलावा वह कुछ भी छापने-बोलने के लिए पूर्णत: मुक्त है। लोकतंत्र का यह एक बड़ा 
वरदान है। मुश्किल यह है कि मीडिया से जवाबदेही के इस अभाव में, अगर ध्यान न दिया 
गया, तो जो बातें मैंने ऊपर कही हैं, उनके कारण हमारा दौर मीडिया के लिए अंधा युग 
भी बन सकता है। अमेरिका में एक छोटी-सी पत्रिका है- फेयर, फेयरनेस एंड एक्यूरेसी इन 
रिपोर्टिंग। वह यह काम कर रही है कि मीडिया में कौन-से समाचार पत्र या चैनल कौन-सी 
खबर को कितना स्थान या समय दे रहे हैं, किन विशेषज्ञों को आमंत्रित कर रहे हैं या 
छाप रहे हैं आदि। इस तरह की एक पत्रिका की भारत में भी बेहद ज़रूरत है।  हिंदी मीडिया के संबंध में एक दो चिंताएँ व्यक्त 
करना चाहता हूँ, कुछ वर्ष हुए एक पुस्तक छपी थी... वैनिशिंग वॉयसिस। उसमें 
भविष्यवाणी की गई थी कि अगर देशज भाषाओं ने अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष न किया तो, 
वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप अगले सौ वर्षों में दुनिया की ९० प्रतिशत भाषाएँ खत्म हो 
जाएँगी। 'सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट' की कहावत भाषाओं पर भी लागू होगी। विद्वानों का 
मत है कि अंग्रेज़ी वैश्वीकरण की भाषा बन रही है। दुनिया अंग्रेज़ी की तरफ़ भाग रही 
है। इसकी वजह से जन भाषाओं के लिए खतरा पैदा हो गया है। आज उन्हें बचाने की ज़रूरत 
है। वैनिशिंग वॉयसिस की भविष्यवाणी को सही भी मान लिया 
जाए तो हालाँकि ९० प्रतिशत भाषाओं का विलुप्त हो जाना कोई बहुत खुशी की बात नहीं 
है। कहा जा सकता है कि जो १० प्रतिशत भाषाएँ रह जाएँगी, उनमें हिंदी होगी ही। लेकिन 
जब सभी भाषाएँ अपने-अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही होंगी, तो सवाल उठता है कि 
वह अपने बारे में अधिक सोचेंगी या हिंदी के बारे में। यह विचारधारा ज़ोर पकड़ रही 
है कि भारत बहुभाषाई देश है एक राष्ट्र एक भाषा वाला सिद्धांत भारत पर लागू नहीं 
होता। कई राज्यों में अंग्रेज़ी को पहली कक्षा से ही पढ़ाया जाने का प्रस्ताव है। 
देखने में आ रहा है अंग्रेज़ी के अलावा अगर वह किसी दूसरी भाषा को वह अहमियत दे रहे 
हैं तो वह है उनकी मातृभाषा, जो ठीक भी है। लेकिन यह स्थिति निश्चय ही हिंदी का 
जनाधार कम कर सकती है। यह स्थिति मैं अमेरिका में उभरते देख रहा हूँ। 
अमेरिका में दुनिया भर से गए लोग बसे हुए हैं। वहाँ के कई नगरों में रेडियो और 
टेलीविजन चैनल हैं जिनमें विभिन्न देशों से आए लोग अपने-अपने कार्यक्रम पेश करते 
हैं। यह विज्ञापनों पर निर्भर हैं। कोरियाइयों का अपना पूरा एफएम रेड़ियो है, अरबों 
का अपना, स्पेनी-भाषियों का अपना। कई केंद्रों से सोमाली, इत्थियोपियाई आदि लोग 
अपने एक-एक, दो-दो घंटों के साप्ताहिक प्रोग्राम भी पेश करते हैं। ईरानी अपने 
प्रोग्राम फारसी में, अफ़गानी दरी में पेश करते है। पाकिस्तानी उर्दू में प्रसारण 
करते हैं। उर्दू के नियमित साप्ताहिक भी छापते हैं। भारतीय अगर किसी एफ.एम. रेडियो 
पर प्रसारण करते हैं तो गाने हिंदी के होते हैं, प्रस्तुतीकरण अंग्रेज़ी में। 
भारतीयों के साप्ताहिक समाचार पत्र मुख्यत: अंग्रेज़ी में निकलते हैं। हिंदी की 
दो-तीन अनियमित पत्रिकाएँ ज़रूर छपती हैं, अब कुछ एक त्रैमासिक भी पहुँचने लगे हैं, 
लेकिन कोई साप्ताहिक नहीं है।  टीवी एशिया - जिसकी स्थापना अमिताभ बच्चन ने की 
थी, सूचना और मनोरंजन चैनल है - उसमें हिंदी और अंग्रेज़ी के साथ-साथ अन्य भारतीय 
भाषाओं में भी कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। इसमें अगर हिंदी अधिक है, तो इसका 
एक ही कारण जान पड़ता है, और वह यह कि हिंदी-सिटकॉम, फ़िल्मों 
और फ़िल्मी गानों के बगैर इसका गुज़र नहीं है। अंग्रेज़ी में कार्यक्रम प्रसारण 
करने के पीछे यह ही भावना हो सकती है कि वह अंग्रेज़ी को भारतीय के बीच संपर्क-भाषा 
मानता है। मैंने वाशिंग्टन महानगर क्षेत्र में इसी तरह के एक चैनल पर तीन मिनट का 
हिंदी का एक सैग्मेंट पेश करना शुरू किया, वह हिंदी का एक मात्र प्रोग्राम है।
 अंत में इतना कहना चाहूँगा कि वैश्वीकरण के इस दौर 
में हिंदी और हिंदी मीडिया को, अपने को औपनिवेशिक सोच और औपनिवेशिक भाषा से मुक्त 
रखने का बड़ा काम करना है। यह भारत के स्वाधीनता-संग्राम की भाषा रही है, इसका 
इतिहास बहुत बुलंद है। यह भारत की आज़ादी की भाषा है। प्रतिकूल हवाओं में भी खड़ी 
रही है। यह ही है जो भारतीयों को मानसिक रूप से गुलाम होने से बचा सकती है। मीडिया 
यह तभी कर सकता है अगर वह जनता से जुड़ा रहे, उसकी परेशानियों-चिंताओं को 
पत्रकारिता का विषय बनाए, उनकी भाषा से संप्रेषण का मुहावरा गढ़े, पत्रकारिता के 
ऊँचे से ऊँचे प्रतिमान स्थापित करे, पूरे भारत की पहचान बने, इस तरह अन्य समाचार 
पत्रों के लिए उदाहरण बने। कुछ भी हो जाए जनता में उसकी साख न ख़त्म हो पाए। यह वह 
बृहद कार्य है जो आज के हिंदी पत्रकार को करना है।  २१ अप्रैल २००८ |