'जनरल अस्पताल के नवें वार्ड का बरामदा, बरामदे में आड़े-तिरछे पड़े दो कंकाल-
जीवित कंकाल... उनमें से एक ...
तन पर एक सूत तक नहीं... फटी आँखें... ऊपर उठे
हाथ... कूल्हों के पास बिखरा मल मूत्र, भिनकती मक्खियाँ...
उधड़ी खाल वाले
मुर्गे की तरह ऊपर की ओर उठी टाँगे- और पास में पड़ी अस्पताल की रुई- दूसरा कंकाल -
कुछ बेहतर, यानी कि कपड़ा नहीं किंतु मल मूत्र भी नहीं, नग्न शरीर से बेख़बर, टाँग
पर टाँग चढाए, आँखें बंद करे...न जाने कुछ सोच रहा है, या फिर सो रहा है।'
केरल के सबसे ज़्यादा बिकने वाले अख़बार मलयालम मनोरमा के
मुख्य पृष्ठ पर छपा एक रंगीन चित्र... अख़बार पढ़ते हुए चाय पीने वालों में से कुछ की चाय ज़रूर छलक गई
होगी... संभव है कुछ का दिल भी छलका हो। राजनीतिक समुदायों में भी खलबली मच गई...
पात्तुम्मा ने उस दिन बेटी की शादी के लिए कपड़े ख़रीदने का विचार बनाया था। तुरंत
विचार बदला और मलयालम मनोरमा के दफ़्तर में फ़ोन घुमाया।
शाम के चार बजे तक मनोरमा के दफ़्तर में क़रीब तीस-चालीस हज़ार रुपए दिए जाने का
भरोसा (?) जमा हो चुका था। शाम के पाँच बजे से पहले ही मंत्री महोदय, कंबल, डबलरोटी
और चटाई का वितरण करके वापस लौट चुके थे। पत्रकारों की दूसरी खेप को नग्नता के
स्थान पर कंबल दिखाई दिए, भूख के स्थान पर रोटी दिखाई दी...
निराशा तो होनी ही
थी।
दूसरे दिन के अख़बार प्रतिक्रियाओं से भरे हुए थे, कहीं
क्रोध तो कहीं आक्रोश,
सबने अपनी-अपनी भागीदारी निभाई। एक सप्ताह बाद अस्पताल के दसवें वार्ड में न तो
बूढ़े थे और न ही डाक्टर... सप्ताह भर में क्या हुआ कौन जाने!
एक सप्ताह बाद फिर एक ख़बर सुर्खियों में... बूढ़े का चित्र खींचने वाले
फ़ोटोग्राफ़र को आठ हज़ार रुपए का पुरस्कार मिला है। लोगों के दिल से फिर एक हाय
निकली, कमबख़्त क्या किस्मत है... एक फ़ोटो के लिए आठ हज़ार झाड़ लिए। यानी उस फ़ोटो
में छिपा दर्द, उन बूढ़ों की आँखों में तैरते सवाल, उनकी नग्नता में उधड़ती
पारिवारिक व्यथा... सामाजिक चरमराहट, सब के सब आठ हज़ार के सागर में डुबकी लगा कर
अंतर्ध्यान हो गए। फिर तो वह चित्र पुरस्कार प्राप्त करने की कुंजी बन गया...
कवियों ने कविताएँ रच डाली। कभी न छपने वाले लोगों ने
'लेटर टू एडीटर' में छप कर
भड़ास निकाल ली। ओणम के अवसर पर 'अत्तप्पू' (फूलों की रंगोली) बनाने के
कंपीटीशन में भी नगर में पहला पुरस्कार उसे ही मिला जिसने समाज की इस वीभत्स
नग्नता को पुष्प-रंगोली में उतारा।
शायद फूल भी शर्मा गए होंगे इस नंगी सच्चाई को देखकर। लेकिन
साहब क्या कमाल की है हमारी कला... हर नग्नता को भुना लेते हैं, हर ज़हर को मधु बना लेते हैं...
हर बदबू
को खुशबू बना लेते हैं। मैं सोच रही थी कि उस सच्चाई की बदबू के भभके को दर्शाने के
लिए किस फूल का इस्तेमाल किया होगा... सोचने से क्या होता है? सोचना तो कुछ और था
और सोचने कुछ और लगे। जिन सवालों को उठना था, वे कुछ ऐसे हो सकते थे।
सरकारी अस्पताल के नवें वार्ड में ये बूढ़े कहाँ से आए? (कहा जाता है कि नवाँ वार्ड
वृद्ध रोगियों के लिए रिज़र्व है)
क्या उनके साथ उनके रिश्ते-नातेदार कोई नहीं थे?
यदि थे तो वे कहाँ चले गए?
चले गए तो क्यों चले गए?
क्या उनका रोग सिर्फ़ बुढ़ापा था या ग़रीबी भी?
क्या अभी तक उन पर किसी की भी निगाह नहीं पड़ीं?
भीड़-भड़क्के वाले अस्पताल में इन बूढ़ों पर किसी की भी निगाह नहीं पड़ी?
यदि निगाह पड़ी भी तो लोगों के दिल क्यों नहीं पसीजे? क्या लोगों ने अपने दिल का
आपरेशन करवा कर पत्थर लगवा लिया है?
सामाजिक संस्थाओं, ग़ैर सरकारी संस्थाओं ने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया?
इस सामाजिक कोढ़ का घाव क्या अभी फूटा?
आदि आदि...
लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि ये स्थिति आई क्यों? अभी-अभी तो
अमृत्य सेन केरल की इतनी तारीफ़ करके गए हैं... केरलीय शिक्षा की चर्चा दुनिया में
हो रही है। केरलीय नर्से दुनिया में मशहूर हैं... यहाँ की मातृसत्तात्मक प्रणाली
अपनी चरमराहट के बावजूद परिवार सहयोगी है।
फिर ऐसा क्यों हुआ? हुआ ही नहीं हो रहा है...
लगातार हो
रहा है। कहीं पर यह नग्नता उधड़ी पड़ी है तो कहीं पर छिपी। एक सूत्रात्मक समीकरण
बनाने की कोशिश की जाए तो कुछ ऐसा बन सकता है-
शिक्षा - श्रम से अरुचि - नौकरी की कमी - पलायन
पलायन - कल्पनाओं की टूटन - रिश्तों में बिखराव
या फिर
शिक्षा - धन की प्राप्ति - व्यवसायिक बुद्धि - स्वार्थ की वृद्धि
स्वार्थ - अतृप्त प्यास - संवेदना कोशिकाओं का क्षरण
संवेदनहीनता - पाशविक मनोवृत्ति - सामाजिक ह्रास
चलिए सूत्रात्मक शैली को छोड़ा जाए, देखें कि हो क्या रहा है। माता-पिता जागरुक
हो गए हैं, वे चाहते हैं कि बच्चों को पढ़ाया-लिखाया जाए। कुली का बच्चा भी अंग्रेज़ी
स्कूल में पढ़ना चाहता है, किंतु सामाजिक अंतराल, मानसिक दवाब और अंधप्रवृत्ति के
कारण अधिकतर बच्चे दसवीं से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं, जो कुछ और पढ़ लिख गए
वे भी नौकरी के अभाव में ड्राप-आउट-सा जीवन बिताने लगते हैं। अब ये अधपढ़े युवक
श्रम तो कर नहीं सकते क्यों कि पढ़ लिख गए हैं और नौकरी मिलती नहीं। किसी तरह सब
कुछ बेच-बाच कर खाड़ी के देशों में भागे भी तो त्रिशंकु की तरह लटकते रहे। न घर के
न घाट के... लिहाज़ा घर से टूटे...
परिवार से टूटे और समाज से टूटे।
अब इनके बूढ़े माँ बाप क्या करें? उनका तो सब कुछ बच्चों के लिए स्वाहा हो
गया। शिक्षा के कारण एक-दो बच्चों तक ही सीमित रहे, बेबस बुढ़ापा आया, कोई आस-पास का नाते रिश्तेदार अस्पताल में सर्दी-खाँसी के नाम पर भर्ती करवा गया और चुपचाप
गुल हो गया। सरकारी अस्पताल से रोगी को भगाया तो नहीं जा सकता, दिन में एक बार
आधी डबलरोटी मिलती है... चलो उसका तो सहारा है। डाक्टरों की यही मानवता क्या कम
है कि उन्होंने इन्हें भगाया नहीं, फिर कपड़े आदि का इंतज़ाम वे क्यों करें। दूसरी
स्थिति तो और भी भयानक है। लड़के-लड़कियों को नौकरी मिली...
आशाओं ने पंख
फैलाए... आमदनी से बढ़ कर इच्छाएँ...
लिहाज़ा व्यवसायिक पंजे की गिरफ्त में... एक
सामान ख़रीदा तो दूसरा हावी हो गया। दूसरा ख़रीदा तो तीसरा...
अंतत: कर्ज़ के फंदे
ने भावनाओं को सोख लिया। चलो छुट्टी पाओ इन बेकार के बूढ़े-बूढ़ियों से...
बेटा
खाँसी-जुखाम के नाम पर बूढ़े को अस्पताल लाया और भर्ती करवा कर चुपचाप खिसक गए।
कुछ दिनों तक तो इन बूढ़ों के पास कुछ पैसा लत्ता था, पर धीरे-धीरे वह भी ख़त्म
हो गया या फिर कोई उठाईगीर ले भागे। अंतत: केवल आधी डबलरोटी के सहारे ये नंगे-धड़ंगे पड़े रहे। डाक्टरों ने इन्हें भगाया नहीं। हाँ इतना ज़रूर किया कि बेड की
ज़रूरत पड़ी तो इन्हें बरामदे में पटक दिया गया। ये लोग इतने अशक्त कि उठ भी नहीं
सकते। सुबह जमादार वार्ड की सफ़ाई करने आता तो इन पर पानी का फौव्वारा छोड़ देता...
बस यही इनका स्नान।
अब यक्ष प्रन यह है कि क्या इस कटु सच्चाई का कारण शिक्षा है?...
सोचे क्या ऐसा हो
सकता है? क्या शिक्षा हमें इतना गिरा सकती है? शायद हर कोई यही कहेगा कि नहीं
शिक्षा इसकी उत्तरदायी नहीं है। और है भी नहीं... सही शिक्षा तो ऐसा सिखा नहीं
सकती। फिर कौन है इस पर्दे के भीतर?
शिक्षा का दुरुपयोग? धन की बढ़ती हुई लालसा? पारिवारिक संकुचन? सामाजिक
उत्तरदायित्व की कमी? मानवता का ह्रास?
शायद ये सभी।
एक प्रश्न और कला का काम मानवीय संवेदना को जगाना होता है किंतु यहाँ उसका
दूसरा रूप दिखाई दिया। कला व्यवसायिकता में इतनी फँस गई कि उपचार की जगह उत्तेजना
को लक्ष्य मानने लगी।
वार्ड में बचे हुए बूढ़ों का क्या हुआ पता नहीं... शायद खदेड़ दिए गए किंतु
समाज में सैंकड़ों बूढ़े इस तरह की ज़िंदगी जी रहे हैं। उनके बारे में सोचे तो
शायद समाजशास्त्र के अनेक सवाल हल हो जाए, कला में मानवता की छोंक लग जाए...
आदमी की आदमीयत बच जाए...
१ जुलाई २००५
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