'वह जिसे हम आम संस्कृति कहते हैं वास्तव में प्रभुत्वशील वर्ग के मूल्यों का
चयनात्मक प्रेषण है।' अब सवाल यह है कि यह प्रभुत्वशील वर्ग कौन है? निसंदेह अपने
को उच्च और सभ्य मानने वाला वर्ग यही नहीं मध्यम वर्ग भी अपने को इसी वर्ग का
पिठ्ठू बनाने में नहीं हिचकता। इस समाज ने सभ्यता के जो कायदे कानून बनाए हैं उन
सबकी खाल में बस एक चीज़ है और वह है झूठ बस झूठ। झूठी मुस्कान झूठी शान झूठा
दिखावा झूठा रहन-सहन झूठे तौर-तरीके छोड़िए कहाँ तक गिनती करेंगे। पहले
बड़ी-बड़ी सोसाइटियों में सिखाया जाता था कि कैसे चला जाए कैसे खाया-पीया जाए पर
अब तो यह बीमारी बड़ी आम होती जा रही है। यानि कि पूरा चाल-चलन ही थोथा होता जा रहा
है। अब ये तो व्यवहार की बातें हैं चलिए संस्कृति के आवरण में छिपे इतिहास की ओर
दृष्टिपात किया जाए।
हमारी पौराणिक कथाओं को ही लीजिए हालाँकि पुराणों को इतिहास माना जाता है पर मैं
कभी-कभी सोचती हूँ कि यह स्वार्थ को ध्यान में रख कर, स्वार्थ को सिद्ध करने के
लिए, स्वार्थ का इतिहास है सुर असुर के वाद-विवाद को छोड़ दीजिए दान और दमन को भी
छोड़िए कहीं भी कभी भी नारी को उसके स्वाभिमान के साथ दिखाया गया है? विष्णु
क्षीरसागर में शयन कर रहें हैं और लक्ष्मी उनके चरण चाप रही हैं, शिव गंगा के साथ
मस्त हैं और पार्वती सुहाग बाँट रही हैं उसमें भी भेद-भाव व्रत उपासना के दिन
औरतें सुहाग दान की जो कथा कहती हैं उसमें भी प्रभुत्व वर्ग का स्पष्ट संकेत है कि
शिवा ने नीच जात की औरतों को टोकरे-टोकरे सुहाग बाँटा पर बड़े घर की बहुओं को
चुटकी भर यानि कि यदि तुम्हें अपने को सभ्य मानना है तो चुटकी भर सुहाग को लेकर
आँचल से बचाती रहो नहीं तो तुम्हारी गिनती हो जाएगी नीच घराने की औरतों में। सभी
पौराणिक गाथाएँ उसी प्रभुत्वशाली वर्ग की लेखनी से लिखी लगती हैं जो समाज को सभ्य
बनाने का ठेका लेते हैं। अब देखिए न मेरे बगल में ही कन्याकुमारी का मंदिर है।
कहते हैं कि कन्याकुमारी ने शिव को पाने के लिए तपस्या की, शिव प्रसन्न भी हो गए और
वर रूप में पधारे।
पर न जाने क्या समस्या थी कि प्रभुत्व वर्ग के इंद्र महोदय को कि उन्हें अपना आसन
ही डोलता नज़र आया। बस फिर क्या हर बार दुहराए जाने वाला छल-कपट इंद्र मुर्गे का
रूप धर जा पहुँचे और समय से पहले ही बाँग मार दी। शिव को लगा कि अनर्थ हो गया
मुहुर्त तो बीत गया तो वे लौट गए अपनी बारात लेकर औ़र कन्या कुमारी? वे तो आज
प्रतीक्षारत हैं आज भी खड़ी हैं उन्हें माँ का दर्जा दिया जाता है पर सुहागिन
बनने से पहले ही कहते हैं कि उनकी नाक पर जो चमकता है वह हीरा है मुझे लगता है
वह अटका हुआ आँसू हैं। शिव को क्या परेशानी? कितनी-कितनी देवियाँ रहीं हैं उनकी
राह पर पलके बिछाए सति, देवी, शिवा, गंगा और न जाने कितनी। पर कन्याकुमारी की
तपस्या का क्या फल मिला? अंरहीन प्रतीक्षा। नारी की संस्कृति यही है कि
प्रतीक्षा करती रहे, नर की हर ग़लती को नज़रअंदाज़ करती रहे तो उसे माँ का दर्जा दे
कर नारी से देवी की पदवी देकर उठाया जा सकता है। आप सारी पौराणिक कथाओं को खखार
कर देख लीजिए सबके पीछे बस एक ही इतिहास है शोषण का दासत्व का हर बार शिकार एक
ही कमज़ोर वर्ग या फिर नारी वर्ग।
पैरेंटी का कथन - 'पुरुष प्रधान संस्कृतियाँ पवित्र
रीति-रिवाज़ों से परिपूर्ण भले
ही हों किंतु उनके अध्ययन से ज्ञात होता है वे निकृष्ट कोटि के लिंग शोषण व विभेद
का समर्थन करती हैं 'इतिहास के हर दौर में अनुभूत किया गया है। बचपन से यही तो
घुट्टी मिली है हमारी संस्कृति कहती है कि सति सावित्री बन कर पुरुष वर्ग को
मनमानी करने दो किसी भी तरह की। यह घुट्टी इतनी ज़बरदस्त होती है कि कालांकर में
स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा ज़्यादा कट्टर बन जाती हैं। पुरुष वर्ग ने तो बस
घुट्टी दी और अलग हो गए। अब उनके वचनों की रक्षा के लिए तैनात हैं स्वयं स्त्रियाँ
समुद्री केकड़ों जैसे एक दूसरे की टाँग पकड़ शोषण का शिकार बनतीं रहतीं हैं।
कभी-कभी तो मुझे लगता है कि संस्कृति में नारी को केवल 'माँ' के रूप को जो सम्मान
दिया जाता है उसमें भी एक चाल है इसी उपमा के द्वारा तो नर नारी को अपने शोषण
कार्यक्रम में शामिल कर लेता है। देख लीजिए समाज में नारी सास के रूप में कितने
जुल्म ढ़ाती है शायद वह माँ बनते ही विशेषत: नर की माँ बनते ही नारी से कुछ ऊपर
समझने लगती है संभवत: देवी और शामिल हो जाती है नर के जुल्म में।
पुराण या पुरातनता को छोड़ आगे बढ़ा जाए तो क्या आप सोचते हैं कि आज के युग में भी
नारी दासत्व से मुक्ति पा सकी है? कभी मैंने अभिमन्यु-अनंत के किसी लेख में पढ़ा
था कि मारीशस में रहने वाले भारतीय मित्र अपने बेटे की शादी तो भारतीय युवती से
करना चाहते हैं पर बेटी की शादी मारीशस के युवक से। कारण स्पष्ट है भारतीय बहू
अपने साथ ढेर से दहेज के साथ भारतीय नारी, भारतीय संस्कृति की डिग्री लाएगी पर
मारीशस के युवकों से शादी रचाने में लड़कियों को न तो दहेज की ज़रूरत और भारतीय नारी
के तमगे की पूरी छूट ख़ैर इसमें भी कोई संदेह नहीं कि आधुनिक अपने को स्वतंत्र
मानने वाली लड़कियाँ कितनी परतंत्र हैं कितनी परवश हैं यह बात हम हर कदम में
देखते हैं मुझे तो लगता है कि पाश्चात्य देशों में नारी शोषण की मात्रा कम नहीं
हैं। वस्तुत: नारी स्वातंत्र्य के अर्थ को ही ग़लत मान्यता दे दी गई। नारी
स्वातंत्र्य का अर्थ न तो फ्री सेक्स है और न खुली मनमानी जैसा कि पाश्चात्य या
फिर पाश्चात्य रंग में रंगी नारियाँ सोच लेती हैं, लेकिन इसमें भी नर का ही फ़ायदा
है नारी का नहीं। नारी का स्वातंत्र्य तो उसकी सोच में निहित है उसके व्यक्तित्व
में हैं।
पहले मेरा विचार था कि शोषण मात्र पितृ प्रधान समाज का अंग है। जब मैं केरल में आई
तो मैंने पाया कि इसके मातृ-प्रधान समाज में नारी को न तो परिवार विछोह की तकलीफ़ का
सामना करना पड़ता है और न ही पैतृक संपत्ति के अनाधिकार का। फिर भी उन दिनों भी
लगता था कि कहीं कुछ घुटन ज़रूर है। समझ में ही नहीं आता था कि कहाँ क्या घुमड़ रहा
है। एक तो भाषा समझ में नहीं आती और दूसरे आत्ममुखी सामाजिक चरित्र के कारण मेरी
सोच बिना किसी निष्कर्ष के मेरे पास ही लौट आती थी। अख़बारों में नारी-आत्महत्या की
ख़बरें पढ़ती तो आश्चर्य होता कि कहाँ कमी हैं। धीरे-धीरे परतें खुलने लगीं। और जब
तकषी शिवशंकर पिलै के उपन्यास 'कयर' के संक्षिप्तीकरण का अनुवाद करने का मौका मिला
तो आँखें खुल गईं। क्या-क्या नहीं सहा है इस मातृप्रधान संस्कृति की नारियों ने,
मानसिक, शारीरिक सामाजिक अत्याचार।
पुरानी 'तरवाट्टु' परंपरा में संपत्ति की अधिकारिणी तो स्त्री थी पर उसकी देखभाल
करने वाले थे उसके अपने ही भाई-बंधु अर्थात बहनें मालकिन और भाई मॅनेजर। बहनें
भाई से संवाद भी नहीं कर सकतीं अत: अनायास ही सारा अधिकार घर मालिक यानि कि बड़े
भाई के हाथों चला गया। अब संपत्ति की रक्षा का भी बड़ा उत्तम उपाय। घर की लड़कियों
की शादी नहीं बल्कि संबंध होता था। वह भी इसलिए ज़रूरी था क्यों कि बहन की संतति
ही खानदानी संपत्ति की अधिकारिणी होती थी, न कि भाई के। संबंध का तरीका बड़ा
अमानवीय किसी भी उम्र के ब्राह्मण को पकड़ा और संबंध करवा दिया गया। संभवत:
इसलिए कि ब्राह्मण की संतान उच्च रक्त की होगी। (यानी कि वर्गीयता तो है ही।)
संबंधकार ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ मात्र शय्या का अधिकारी, इस कृत्य के लिए
उसकी दान-दक्षिणा बंधी होती थी, यही नहीं कुलीन खानदानों में तो मठ भी बने होते थे
जहाँ इस तरह के संबंधकारी ब्राह्मण रहा करते थे। वे न तो पत्नी का छुला खाते-पीते
थे और न ही परिवार के अंग हो पाते थे। एक ब्राह्मण कई जगह संबंध कर सकता था। संतति
न तो अपने पिता को पहचानती थी और न ही पिता उसको।
अब नारी के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह समग्र व्यापार ही बड़ा घिनौना होता होगा।
वह मात्र शयन सामग्री और संतति जनन का उपकरण बनी रही। पति नहीं तो भाइयों की इच्छा
का खिलौना रही। हालाँकि इस तरह की मातृक-संस्कृति केरल से सौ-पचास वर्षों पहले ही
विदा हो ली, उसका कुछ प्रभाव ज़रूर होगा, तभी केरलीय पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ अभी भी
मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो पाई हैं। अब मातृक संस्कृति बड़ी तेज़ी से पैतृक
संस्कृति में बदल रही है। लड़कियाँ भारी दहेज के साथ विदा होने लगी हैं। जो नारी
भाइयों पर आधारित रहती थीं अब पति पर रहने लगीं हैं। पैतृक संस्कृति के दोषों को
गुण मान कर अपनाया जा रहा है। अभी ही कुछ सालों से परिवार की सामूहिक आत्महत्या के
किस्से बहुतायत से दिखाई देने लगे हैं। अभी कुछ दिनों पहले मैंने पत्रकार लीला
मेनोन की रिपोर्ट अख़बार में पढ़ी थी। उनका कथन था कि इस सामूहिक आत्महत्या का
निर्णय पति नाम के जीव द्वारा लिया जाता है, परिवार के बाकी सदस्य तो बस आज्ञा पालन
करते हैं।
इन सामूहिक आत्महत्या का कारण भी बड़ा अजीब है। अधिकतर जब पति उधारीकरण के चंगुल से
निकलने में असमर्थ हो जाता है तो यह रास्ता अपना लेता है। मज़े की बात है कि ये
परिवार न तो ग़रीबी रेखा से नीचे होते हैं और न ही भूखे मर रहें होते हैं। असलियत तो
यह है कि वे अच्छे खाते-पीते होते हैं लेकिन उपभोक्तावाद की आँधी ने उन्हें अंधी
दौड़ में शामिल कर लिया, जिसका परिणाम हुआ लालसा की वृद्धि और आत्महत्या से मुक्ति।
लीला मेनोन ने जो विशेष बात लिखी है वह यह है कि ज़िंदगी तो ज़िंदगी, मौत को
स्वीकार करने में भी नारी को नर की आज्ञा का पालन करना पड़ता है, और वह भी सर्वाधिक
साक्षर सभ्य मातृप्रधान समाज में। वास्तविकता तो यह है कि यह भद्र समाज मातृप्रधान
रहा ही नहीं बस मातृप्रधान का मुखौटा पहने रहा।
पिछले दिनों मेरी बातचीत आदिवासी युवा कवि राघवन अत्तौली से हो रही थी तो वे कहने
लगे कि हम आदिवासी समाज में अम्मा देवी ही नहीं बल्कि संस्कृति है। उन्होंने अपनी
पत्नी के लिए कहा कि ये मेरी भार्या (पत्नी) है, पर वस्तुस्थिति में मेरी सखि है
क्यों कि ये ही मेरे परिवार और मेरी देखभाल करती हैं। उन्होंने बड़े गर्व से कहा कि
हम आदिवासी मातृपूजक मातृप्रधानता को मानने वाले होते हैं। लीला मेनोन और राघवन की
बातों से मुझे लगा कि वास्तविक मातृप्रधान भावना तो आदिवासी संस्कृति के साथ सिमट
गई। तथाकथित सभ्य समाज ने तो बस उसके मुखौटे को धारण किया वह भी संपत्ति की रक्षा
के लिए यानि कि नारी का मोल माटी के मोल से कहीं कम आँका गया।
संस्कृति की आड़ में असंस्कृति के खेल का लेखा-जोखा तैयार किया जाए तो एक महाभारत
तैयार हो जाएगा, लेकिन इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि इस असंस्कृति की संस्कृति
ने नारीवर्ग को दलितों का दलित बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अभी तो न जाने कब तक
इस असंस्कृति के भार को ढोना पड़ेगा। शायद सृष्टि के अंत तक कौन जाने?
९ सितंबर २००४
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