पिछले दो दशकों में हमारे समाज में इतनी तेज़ी से
परिवर्तन आया कि बहुतों को तो मालूम ही नहीं पड़ पाया होगा कि कहाँ और कब क्या बदल
गया। उच्च वर्गीय तौर-तरीके खिसक कर मध्यम वर्ग की झोली में अनायास ही आन पड़े।
यों तो मध्यम वर्ग हमेशा से उच्च वर्ग का मुँह
जोहता रहता है, उनके तौर-तरीकों को अपने जीवन में उतारने की कोशिश करता रहता है। इस
अनुकरण के लिए उसे काफ़ी कुछ खोना पड़ता है, फिर भी उसके सपने सदैव उस ओर ही घूमते
हैं, जहाँ उच्च वर्ग की पत्तल परोसी गई हैं। पिछले दो दशकों में मध्यम वर्ग ने एक
मध्यमवर्गीय रास्ता भी खोज निकाला, वह है परिवार के दायरे को कम करके, अपने दायित्व
को संकुचित करके, बहुमुखी आमदनी को अपनाना। हालाँकि इस मध्यम मार्ग का उद्देश्य
सामाजिक उन्नति माना गया पर इसके भीतर छिपी स्वार्थता की ओर बहुत कम लोगों का ध्यान
गया। परिवार टूटते गए, स्वार्थ ने सिर उठा लिया, लोग अपनों से, अंतत: अपने से कटते
गए, फिर शुरू हुआ नया फार्मूला 'हम दो, हमारे दो' के लिए 'दोमुखी आमदनी, चौमुखी
सुविधाएँ'।
इसमें कोई बुराई भी नहीं है हो भी क्यों? आख़िरकार
जो कुछ हो रहा है वह समाज को उन्नत करने के लिए ही तो रहा है। लोगों की व्यय क्षमता
बढ़ रही हैं। सामान्य लोग भी कार, फ्रिज, टी.वी. और वीडियो तक पहुँच पा रहे हैं।
लेकिन परिणाम तो बाद में ही आ पाते हैं। इन दो दशकों की उपलब्धि पर भी ज़रा ग़ौर
कीजिए आज इन परिवारों के बच्चे देश के खर्चे पर उच्च शिक्षा प्राप्त करके विदेशों
की सेवा करके बदले में डालर पा रहे हैं और उनके माता-पिता अकेलेपन के संत्रास को
भोग समझ ही नहीं पा रहें हैं कि कहाँ क्या ग़लत हो गया यह सही है कि उन्होंने
संयुक्त परिवार की चारदीवारी को लांघा पर अपना दायित्व कुछ मात्रा में ही, निभाया
तो सही। पर यह नई पीढ़ी कितनी बेफिक्री से कट गई, एक बार पीछे मुड़ कर देखा भी नहीं
दे दिया 'ओल्ड एज होम' का तोहफ़ा।
दूसरी समस्या और संत्रास झेला नारी वर्ग ने। जब
नौकरी करने की छूट मिली तो अधिकतर नारियों को प्रसन्नता ही हुई कि चलो आत्मनिर्भरता
तो मिली। अब वे जो चाहे कर सकती हैं। नाम कमा सकती हैं। इस क्षेत्र में भी लगता है
कि कुछ एक नारियाँ ही भाग्यशाली रहीं। अन्यथा अधिकतर के हिस्से में आया दुगुना
संत्रास, दुगुनी ज़िम्मेवारियाँ।
रातों-रात सामाजिक मान्यताएँ बदल गईं। अब तो सभी को नौकरीपेशा लड़कियों की ज़रूरत
महसूस होने लगी, कुछ समय तक तो नौकरीपेशा लड़की को दहेज की मुहलत मिल जाया करती थी
पर वे दिन भी जल्दी ही विदा हो गए। आजकल तो डाक्टर, इंजीनियर लड़कियों के माता-पिता
को भी लाखों का दहेज देना पड़ता है। यही नहीं, कहीं-कहीं तो स्थिति यह है कि कमाऊ
लड़की का वेतन भी हथियाकर उसे पाकिटमनि थमा दी जाती है। कितनी कमाऊ लड़कियाँ
कुवाँरी रहने लगीं, क्योंकि उनका वेतन अपने माता-पिता के परिवार चलाने में खप जाता।
थोड़ा बहुत बचता भी तो इतना दहेज इकठ्ठा नहीं हो पाता कि कोई अच्छा लड़का ख़रीद
सके। माता-पिता भी अपनी ज़िम्मेवारियों से मुकरने लगे क्योंकि उन्हें मालूम हैं कि
लड़की खुद कमाती है तो किसी न किसी तरह से जी तो लेगी। शादी हो भी गई तो कमाऊ बहू
घर का काम करे, ससुराल वालों की सेवा भी करे और महीने के महीने वेतन भी लाकर दे। आज
स्थिति यह है कि नौकरी करना लड़कियों के लिए उतना ही ज़रूरी हो गया है कि जितना कि
एक समय सिलाई-बुनाई करना, घर सँभालना और पारिवारिक दायित्व पूरा करना था।
काम करने की संस्कृति ने हमारे विचारों को इतना
थोथा बना दिया है कि हमारी सोच ही बदल गई हैं। अभी पिछले महीने ही मैं रूंपांबरा के
राजभाषा सम्मेलन में पाँडिचेरि गई। बड़े-बड़े राजभाषा अधिकारी विराजमान थे। जब कभी
बातचीत होती, सभी का एक ही सवाल होता, 'रति जी आप क्या करतीं हैं?' मुझे समझ में
नहीं आता कि क्या जवाब दूँ क्योंकि काम तो मैं बहुत से करती हूँ, घर संभालती हूँ,
लिखती-पढ़ती हूँ, अनुवाद करती हूँ, रेडियो टीवी में भी ज़रूरत पड़ने पर आवाज़ देती
हूँ और कुछ न कुछ लेखन भी करती हूँ। इन सबके साथ स्कूल का कार्य भी सँभालती हूँ।
इसलिए मैंने कहा कि - कुछ नहीं और बहुत कुछ। पूछने वाली महिला थी, वे फुसफुसा कर
बोली कि -'बेचारी गृहिणी है।' यों तो गृहिणी संबोधन अपमानजनक तो नहीं पर बेचारी
विशेषण के साथ जिस तरह प्रयुक्त किया गया था तो लगा कि मैं बेचारी किसी चिड़ियाघर
की जीव हूँ। हर जगह यह प्रश्न पूछा गया और हर बार मैंने भिन्न-भिन्न तरह से जवाब
दिया। एक बार मैंने कहा कि मैं पढ़ती हूँ तो जवाब आया कि वो तो सब ही पढ़ते हैं आप
काम क्या करती हैं अर्थात किस युनिवर्सिटी से किस तरह जुड़ी हैं?
अभी कुछ दिनों पहले तिरूवनंतपुरम में आदिवासियों
के शिल्प का मेला लगा था। मुझे सूचना मिली कि उसमें मलयाली आदिवासी कवि 'राघवन
अत्तोळि' भी आएँ हैं। वे शिल्पकार, चित्रकार और कवि हैं। मैंने उनकी कविताओं का
अनुवाद किया है इसलिए मिलने की तीव्र इच्छा थी। मैं राघवन और उनकी पत्नी से मिली
'कृति ओर' के लिए बातचीत भी की। उनके तीखे परंतु बुद्धिशील विचारों से परिचित भी
हुई। उनके चित्र, लकड़ी के शिल्प, कविता की पुस्तकें और कुछ कविता चित्रों से तंबू
बड़ा भव्य लग रहा था।
तभी एक अन्य व्यक्ति जो युनीवर्सिटी में अच्छे पद
पर आसीन हैं, पधारे। सब कुछ देखने-भालने के बाद उन्होंने राघवन से प्रश्न किया कि
-'काम क्या करते हो?' राघवन का जवाब था -'मूर्ति बनाना, चित्र बनाना, कविता लिखना
आदि आ़दि।' सज्जन ने फिर प्रश्न किया -'नहीं मेरा मतलब कि काम क्या करते हो? कहाँ
तक पढ़े हो?' राघवन थोड़े असमंजस में थे फिर धीरे से बोले -'प्री डिग्री तक'
सज्जन ने प्रश्न किया कि कोई नौकरी नहीं मिली क्या? तुम्हें तो कोटे में कोई न कोई
नौकरी मिल ही जाती। मुझे उनका प्रश्न चाबुक-सा लगा, पता नहीं राघवन को कैसा लगा
होगा। पर उन्होंने संभल कर उत्तर दिया कि यदि मैं नौकरी करता तो शिल्प कैसे बनाता?
कविता कैसे रचता? चित्र कैसे बनाता? मुझे तो अभी भी समय की कमी महसूस होती है। यदि
मेरी पत्नी घर को अच्छी तरह से नहीं संभाल लेती तो मैं कुछ भी नहीं कर पाता। लेकिन
उन सज्जन का फिर से सवाल था -'घर का खर्चा कैसे चलता है?' राघवन ने जवाब दिया
-'मित्रों की दया से चल ही जाता है। हम लोग खेती में काम करने वाले मज़दूर हैं।
हमारे घर के सभी सदस्य मज़दूरी करते हैं। हमें जब ज़रूरत होती हैं, मज़दूरी कर सकते
हैं। यही नहीं हमें तो बचपन से भूखे रहने की आदत हैं। फिर भूख को महसूस नहीं करूँगा
तो कविता कैसे रचूँगा। मेरी कविता देवदासी थोड़े ही है वह तो अम्मा है।'
आगे कहने की ज़रूरत ही नहीं। यही हमारी संस्कृति
की अपसंस्कृति हैं। कला काम नहीं है अपितु धनोपार्जन काम है, किसी पद पर आसीन होना
काम है। चाहे हम भीतर से कितने ही थोथे हों, पर ऊपर से सभ्य दिखना ज़रूरी है। हमें
अपने भीतर सत्व नहीं जगाना है बस बाहरी आवरण को बदलना है। यही हमारी सभ्यता की
निशानी है।
९ अक्तूबर २००४
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