जन्म जयंती ३ अप्रैल के
अवसर पर
परिंदे- नियति का अँधेरा और उजाले की तलाश
- प्रमोद कोव्वप्रत
निर्मल वर्मा की कहानियों में एक प्रकार की रोमांटिक
संवेदना एवं पीड़ा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में व्याप्त
है। अस्तित्ववादी मनोवृत्ति, अनिश्चय बोध, मृत्यु-बोध
तथा अजनबीपन उनकी कहानियों को अधिक संवेदनशील बना देते
हैं। प्रेम की कोमलता, काम की भूख, घुटन, जीवन का
निरर्थकता बोध, मानसिक द्वंद्व, मानव नियति की चिंता
आदि वर्तमान जीवन के, विशेषकर महानगरीय जीवन के
जीवन-बोध उनकी कहानियों में उभर आते हैं। ‘परिंदे’ के
संदर्भ में उनकी कहानियों में व्यक्त मानवीय पीड़ा की
चर्चा प्रमोद कोव्वप्रत द्वारा
मनुष्य का लावारिस, अलगाव और अधूरापन कोई आधुनिक,
पश्चिमी बोध की देन नहीं है- वह मनुष्य के मनुष्यत्व
के बीच एक कीड़े की तरह विद्यमान है, धरती पर उसके महज
‘होने’ के बोध में निहित है। कला यदि इनसे अलग है तो
इसलिए नहीं कि वह इस अधूरेपन के पाप से मुक्ति का
स्वप्न नहीं देखती- यह स्वप्न और आकांक्षा ही तो उनकी
सतत प्रांसगिकता के केंद्र में हैं- फर्क केवल इतना है
(और बुनियादी अंतर है) कि यह स्वप्न कहीं बाहर और परे
न होकर स्वयं उनकी सृष्टि, उसकी फार्म, उसकी संरचना
में सन्निहित है।’ (कला का जोखिम - निर्मल वर्मा)
नई कहानी की चेतना परिवेश से जुड़े हुए व्यक्ति मन की
चेतना है। इसलिए वह न तो बाहरी यथार्थ की अनुभूतिहीन
फार्मूलाबद्ध कथा कहती है और न बाहरी परिवेश से
विच्छिन्न होकर या बाहरी परिवेश को केवल अवचेतन की
दुनिया से संदर्भित कर मात्र व्यक्ति-मन का चित्रण
करती है। वह जीवन परिवेश के दबाव में बनते-बिगड़ते
मानवीय रिश्तों, मूल्यों, संवेदनों की अभिव्यक्ति है।
दरअसल रामदरश मिश्र के ये शब्द निर्मल वर्मा की
कहानियों के लिए पूर्ण रूप से समीचीन हैं। निर्मल की
कहानियों में बदलते मानवीय संबंधों एवं व्यक्ति जीवन
की आधुनिक संवेदना को हू-ब-हू अभिव्यक्ति मिली है।
वास्तव में निर्मल वर्मा की कहानियों में एक अनिश्चय
बोध, मृत्यु-बोध तथा अजनबीपन उनकी कहानियों को अधिक
संवेदनशील बना देते हैं। प्रेम की कोमलता, काम की भूख,
घुटन, जीवन का निरर्थकता बोध, मानसिक द्वंद्व, मानव
नियति की चिंता आदि वर्तमान जीवन के, विशेषकर महानगरीय
जीवन के जीवन-बोध उनकी कहानियों में उभर आते हैं।
‘परिंदे’ की नायिका लतिका है। वह अकेलेपन की पीड़ा मन
में लिए जीने को अभिशप्त है। उसका प्रेमी मेजर गिरीश
नेगी मर चुका है। मृत की स्मृति में वह जीती है।
होस्टल के मायूस माहौल में जीवन बिताती है। वह जानती
है कि अतीत कभी वापस नहीं आ सकता। फिर भी वह सदा उससे
चिपकी रहना पसंद करती है। यानी अपने स्वर्गीय प्रियतम
से अलग होकर भी वह अलग नहीं होती। वह जाएगी कहाँ? यही
उसके सामने एक सवाल है जो अनुत्तरित रह जाता है।
अर्थात् ‘परिंदे’ में टूटे प्यार की संवेदना काफी
महत्वपूर्ण है। ह्यूबर्ट नायक पात्र शोभा के प्रेम में
टूटा हुआ व्यक्ति है। लतिका पर आकृष्ट तो वह अवश्य है।
प्रेमपत्र देने के बावजूद उसे लतिका के बारे में सोचकर
दुख होता है। पश्चाताप के साथ वह चाहकर भी लतिका से
अपने को अलग करने को एक प्रकार से अभिशप्त है। ऐसी एक
प्रेम संवेदना के माध्यम से कथाकर आधुनिक मानव की गहरी
विडंबना को बेनकाब करते हैं।
हॉस्टल में रहने वाली लतिका को अकेलापन पहले अत्यंत
डरावना महसूस होता था। छुट्टियों में उसके सामने एक
गंभीर सवाल है यह। बाद में वह ह्यूबर्ट से कहती है-
"पहले साल अकेलापन कुछ अखरा था- अब आदी हो गई हूँ।"
ह्यूबर्ट अपने प्रिय पात्र लतिका के पास होकर भी दूर
है। दोनों के समान सवाल सामने हैं- ‘कहाँ जाएँ?’ अपने
परिवार से कटा हुआ डॉक्टर मुकर्जी भी अकेला है। ‘वह
कहाँ जाए?’ अपनी आंतरिक व्यथा को अंदर ही छिपाकर
पहाड़ियों में वह डॉक्टरी में तल्लीन है। वह सिर्फ
प्रेमी चरित्रों के बीच के एक संबंध सूत्र के रूप में
रह जाता है। मिस वुड भी अकेलेपन का अंग बन जाती है।
जूली की प्रेमकथा लतिका के तनाव को और बढ़ा देती है।
अपने परिवेश व देश से कटने से कोई भी अजनबी बन सकता
है। डॉक्टर स्वयं मिस वुड से कहता भी है- "सोचने से
क्या होता है मिस वुड...जब बर्मा में था, तब क्या कभी
सोचा था कि यहाँ आकर उम्र काटनी होगी?" शहरी जीवन का
अकेलापन स्वयं कथाकार के लिए भोगा हुआ यथार्थ है।
वर्षों तक विदेशों में जीने के बाद उनका निष्कर्ष था-
‘लेकिन मुझे वहाँ वैसा अलगाव कभी महसूस नहीं हुआ जैसे
दिल्ली में महसूस किया।’ अकेलेपन से मुक्ति का प्रयास
उनके शब्दों में स्पष्ट है। मिस वुड के निम्न वाक्यों
के माध्यम से शायद निर्मल वर्मा ही बोल रहे हैं-
"लेकिन डॉक्टर, कुछ भी कह लो, अपने देश का सुख कहीं और
नहीं मिलता। यहाँ तुम चाहे कितने वर्ष रह लो, अपने को
हमेशा अजनबी ही पाओगे।" वापस अपने देश आने पर अस्मिता
का जो संकट है, वह डॉक्टर के शब्दों में देख सकते है-
"दरअसल अजनबी तो मैं वहाँ भी समझा जाऊँगा, मिस वुड!
इतने वर्षों बाद मुझे कौन पहचानेगा?"
विदेश और देश में दोहरे अजनबीपन के शिकार पात्रों को
हम ‘परिंदे’ में देख सकते हैं। अपने अकेलेपन एवं
अस्तित्व के संकट से पीड़ित मनःस्थिति ह्यूबर्ट की
चिल्लाहट में देख सकते हैं। वह भयचकित होकर डॉक्टर से
पूछता है- "डॉक्टर, हम कहाँ हैं?" कहानी का सारा
परिवेश इस अकेलेपन के बोध को और भी उद्दीप्त कर देता
है। इस पर डॉ. रामदरश मिश्र ने लिखा है- ‘लतिका की
टूटन, अकेलेपन और व्यथा से पूरा परिवेश
अनुकूल-प्रतिकूल दबावों से जगाता और बोझल करता रहता
है। कुमायूँ रेजीमेंट (जिसमें गिरीश मेजर था) के बैंड
की आवाज, फौजियों के बूटों की आवाज, चर्च का घंटा,
प्रार्थना का उदास संगीत, छात्राओं का घर लौटने का
उत्साह, पिकनिक, जंगल में नेगी के साथ बिताए क्षणों की
स्मृतियाँ, पेड़ जिस पर उन दोनों के साथ-साथ नाम लिखे
थे, रास्ते, उदास ढंग से बहते हुए नाले आदि अनेक
छोटे-बड़े, प्राकृतिक और मानवीय संदर्भ-बिंब आते हैं जो
कहानी में मूल रूप में स्थित अकेलेपन के सन्नाटे को
मूर्त करते चलते हैं।’
‘परिंदे’ में मृत्यु-भय से कुछ पात्र पीड़ित हैं। यह
वास्तव में अस्तित्ववादी दर्शन का हिस्सा है। कहानी के
प्रारंभ के उद्धरण में ही इसकी चिंता व्यक्त की गई है।
इसलिए शायद जान-बूझकर ही निर्मल वर्मा ने मैन्सफील्ड
का उद्धरण दिया है- ‘कैन वी डू नथिंग फॉर द डेड? एंड
फॉर ए लांग टाइम द एंसेर हैड बीन नथिंग!’मृत्युबोध से
पीड़ित एवं आतंकित पात्रों की रुग्ण मानसिकता की ओर
यहाँ संकेत मिलता है। ‘परिंदे’ में ह्यूबर्ट से डॉक्टर
कहता है- "मैं कभी-कभी सोचता हूँ, इंसान जिंदा किसलिए
रहता है- क्या उसे कोई और बेहतर काम करने को नहीं
मिला? हजारों मील अपने मुल्क से दूर मैं यहाँ पड़ा हूँ-
यहाँ कौन मुझे जानता है...यहीं शायद मर भी जाऊँगा।
ह्यूबर्ट, क्या तुमने कभी महसूस किया है कि एक अजनबी
की हैसियत से पराई जमीन पर मर जाना काफी खौफनाक बात
है।" एक प्रसंग में हयूबर्ट के पियानो पर बताया है-
"गिरता हुआ हर ‘पोज’ एक छोटी-सी मौत है।" छाती में
दर्द के कारण ह्यूबर्ट हमेशा मृत्यु के बारे सोचता है।
डॉक्टर से वह पूछता भी है- "डॉक्टर, क्या मैं मर
जाऊँगा?" इस बोध की दूसरी अभिव्यक्ति बुढ़ापे की सोच के
रूप में कुछ भय दिखाया गया है। कथाकार का कहना है-
‘लतिका सोच रही थी- क्या वह बूढ़ी होती जा रही है? उसके
सामने स्कूल की प्रिंसिपल मिस वुड का चेहरा घूम गया-
पोपला मुँह, आँखों के नीचे झूलती हुई माँस की थैलियाँ,
जरा-जरा सी बात पर चिढ़ जाना, कर्कश आवाज में चीखना- सब
उसे ‘ओल्ड मेड’ कहकर पुकारते हैं। कुछ वर्षों के बाद
वह भी हू-ब-हू वैसी ही बन जाएगी...लतिका के समूचे शरीर
में झुरझुरी-सी दौड़ गई, मानो अनजाने में उसने किसी
गलीज वस्तु को छू लिया हो।’
मृत्युबोध की तरह पात्रों में एक प्रकार की गृहातुरता
भी है। डॉक्टर मुकर्जी जो मूल रूप से बर्मी था, उसमें
नोस्टाल्जिया स्पष्ट है। वह अक्सर कह उठता- "मरने से
पहले मैं एक दफा बर्मा जरूर जाऊँगा।" कथाकार के शब्दों
में- ‘होम-सिकनेस ही एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज किसी
डॉक्टर के पास नहीं।’
स्मृति एवं अनुभूति से कोई बच नहीं सकता है। ‘शब्द और
स्मृति’ में निर्मल वर्मा ने लिखा है- ‘स्मृति मे विगत
को जागृत करना एक प्रकार से अपने भीतर उस खोए हुए समय
को पुनः प्राप्त करना है।’ यह अपने ही भीतर झाँकने की
बात है। ह्यूबर्ट का प्रेमपत्र पढ़कर लतिका को सिर्फ उस
पर ममता आई थी। लतिका के पास गिरीश के पुराने प्रेम की
स्वर्णिम अनुभूतियाँ हैं, जो उस पर एक छाया की तरह
मंडराती रहती है और न स्वयं मिटती हैं, न उसे मुक्ति
दे पाती है। ऐसे मौकों पर बादलों का झुरमुट उसके
मस्तिष्क पर धीरे-धीरे छा जाता है। वह एक प्रकार की
मायूसी एवं शिथिलता की शिकार हो जाती है। इस प्रकार
कभी-कभी एक धुंध की मानसिकता-सी बन जाती है। छुट्टी
में घर जाने वाली छात्राओं से लतिका कहती है- "आई लव द
स्नो-फॉल।" मानसिक उलझन उसकी असल में स्नो की तरह है।
जूली से ‘गुडनाइट’ करके वह विदा लेती है। लेकिन उसके
मन की स्थिति क्या है? कथाकार कहते हैं- "उसे लगा कि
जैसे उसकी टाँगें बाँस की लकड़ियों की तरह उसके शरीर से
बँधी हैं, जिसकी गाँठें धीरे-धीरे खुलती जा रही हैं।
सिर की चकराहट अभी मिटी नहीं थी मगर अब जैसे वह भीतर न
होकर बाहर फैली हुई धुंध का हिस्सा बन गई थी।"
‘परिंदे’ में एक प्रकार से मानव की मुक्ति की पीड़ा
अभिव्यक्ति हुई है। डॉ. नामवर सिंह के अनुसार,
‘स्वतंत्रता या मुक्ति का प्रश्न, जो समकालीन विश्व
साहित्य का मुख्य प्रश्न बन चला है, निर्मल की
कहानियों में प्रायः अलग-अलग कोण से उठाया गया है। एक
तरह से देखा जाए तो ‘परिंदे’ की लतिका की समस्या
स्वतंत्रता या मुक्ति की समस्या है। अतीत से मुक्ति,
स्मृति से मुक्ति, उस चीज से मुक्ति जो हमें चलाए चलती
है और अपने रेले में हमें घसीट ले जाती है।’ अर्थात
कथाकार ने अतीत के क्षणों को पुनर्जीवित करने का
प्रयास करके जीवन को नए अर्थ और अभिव्यक्ति ढूँढने का
प्रयास ‘परिंदे’ के माध्यम से किया है। कहानीकार हमें
जीवन की बहुआयामी अनुभूतियों की ओर ले चलता है। निर्मल
वर्मा के शब्दों में- ‘अनुभूति का परिष्कार और
संश्लिष्टता की पहचान जो नए कहानीकारों के भीतर है वह
अपने में एक नया अनुभव है। लेकिन इससे हम यह निष्कर्ष
निकाल लें कि यह कोई नए ढंग से कहानी लिखने का दौर नया
था जो पिछले कहानीकरों से बिल्कुल अलग था या उसे तोड़कर
आगे बढ़ा है तो मैं इसे ठीक नहीं समझता।’ इससे स्पष्ट
है कि नए कहानीकार जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों को अर्थ
के स्तर पर व्याप्ति देकर विराट मानवीय सत्य में बदल
देते हैं।
इस विराट मानवीय सत्य मे जीवन के अँधेरे और उजियाले
उजागर होते हैं। ‘परिंदे’ में इन दोनों पक्षों पर
कथाकार ने ध्यान दिया है। जीवन के श्याम-शुभ पक्षों को
यहाँ अभिव्यक्त किया गया है। अँधेरे में व्यक्ति अपने
को अपने परिवेश से कटा हुआ महसूस करता है। वह कुछ भी
देख नहीं पाता है। अस्तित्व में एक सापेक्षिकता है।
अस्तित्व हम किसी के बीच ही महसूस कर सकते हैं। अँधेरे
में भय की मानसिकता होती है। अस्पष्टता की प्रतीति
होती है। उलझन की प्रतीति होती है। शून्यता का अहसास
होता है। भय की अनुभूति होती है। अस्तित्वहीनता महसूस
हो सकती है। लैंप का बीच-बीच में जलना इन सबसे मुक्ति
का ही प्रयास है। ‘परिंदे’ की प्रारंभिक पंक्तियों में
ही देख पाएँगे- ‘अँधेरे गलियारे में चलते हुए लतिका
ठिठक गई। दीवार का सहारा लेकर उसने लैंप की बत्ती बढ़ा
दी।’ आदमी की छाया से भी कुछ विकृत प्रतीक उभर आता है।
कमरे में प्रवेश करने के बाद लतिका का प्रश्न है-
"कमरे में अँधेरा क्यों कर रखा है?" अँधेरे में भटकना
वह नहीं चाहती। जीवन में वह अस्मिता तलाश नहीं पाती
है। उसकी जिजीविषा स्मृति के संबल में जीने तक सीमित
है।
‘परिंदे’ में ह्यूबर्ट जब प्रथम बार आता है तो स्थिति
यह है- ‘सीढ़ियों पर अँधेरा था और ह्यूबर्ट को बार-बार
अपनी छड़ी से रास्ता टटोलना पड़ता है।’
अँधेरे का प्रसंग कहानी में कई बार आया है। कुछ वाक्य
नीचे दिए गए हैं-
‘छत का अँधेरा मोमबत्ती की फीकी रोशनी के इर्द-गिर्द
सिमटने लगा।’
‘डॉक्टर का सिगार अँधेरे में लाल बिंदी-सा चमक रहा
था।’
‘डॉक्टर मुकर्जी का सिगार अँधेरे में चुपचाप जल रहा
था।’
‘अँधेरे में पैरों के नीचे दबे हुए पात्रों की चरमराहट
के अतिरिक्त कुछ सुनाई नहीं देता था।’
‘लतिका बीच सड़क पर अँधेरे में छाया-सी चुपचाप निश्चल
खड़ी है।’
‘मीडोज के झरने का गड़गड़ाता स्वर.... जैसे अंधेरी सुरंग
में झपाटे से ट्रेन गुजर गई हो।’
‘पिछली लाइनों की बैंचें अँधेरे में डूबी हुई थीं...’
‘टैरेस पर ह्यूबर्ट और डॉक्टर अँधेरे में एक-दूसरे का
चेहरा नहीं देख पा रहे थे,...’
‘एक क्षण के लिए उसे भ्रम हुआ कि चैपल का फीका-सा
अँधेरा उस छोटे-से प्रेयर हॉल के चारों कोनों से
सिमटता हुआ उसके आस-पास घिर आया है।’
कथाकार ने अँधेरे के माध्यम से एक विशेष मानसिक
अनुभूति को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। अँधेरे
की तरह अपनी नियति पर जीने वाले पात्र भी इसमें हैं।
कुछ ऐसी अदृश्य सत्ता है जो हमें ले चलती है। लतिका का
कहना है- "डॉक्टर, सब कुछ होने के बावजूद वह क्या चीज
है जो हमें चलाए चलती है, हम रुकते हैं तो भी अपने
रेले में वह हमें घसीट ले जाती है।" डॉक्टर बीच-बीच
में ह्यूबर्ट से पूछता है कि क्या तुम नियति में
विश्वास करते हो? निराशा के क्षणों मे नियति की डोरी
एक संबल-सी दीखती है। गिरीश नेगी के प्रणय-प्रसंग की
बात करते समय भी नियतिवादी प्रश्न डॉक्टर, ह्यूबर्ट से
पूछता है। ह्यूबर्ट की व्यथा अनकही रह जाती है। वह
गुनगुनाता रहा है। ‘इन ए बैक लेन ऑफ द सिटी देयर इज एक
गर्ल हू लव्ज मी।’ वह स्वयं तसल्ली पाना चाहता है।
छुट्टियों के समय जब छात्र हॉस्टल से निकल जाते हैं तब
लतिका अनजान देश की ओर उड़ने वाले परिंदों को देखती
रहती है। वह उनके माध्यम से अपनी नियति का पर्दाफाश
करना चाहती है। प्रवास, भटकन, अजनबीपन, अस्तित्वबोध
सबकी मानसिक दुविधा यहाँ देखी जा सकती है। कहानी के
अंतिम भाग में लतिका और डॉक्टर बात कर रहे हैं। वे उड़
जाने वाले पक्षियों को देखते हैं- ‘लतिका को याद आया,
हर साल सर्दी की छुट्टियों से पहले ये परिंदे मैदानों
की ओर उड़ते हैं, कुछ दिनों के लिए बीच के इस पहाड़ी
स्टेशन पर बसेरा करते हैं, प्रतीक्षा करते हैं बर्फ के
दिनों की जब वे नीचे अजनबी, अनजाने देशों में उड़
जाएँगे।’ कहानी में आगे बताया गया है- ‘क्या वे सब भी
प्रतीक्षा कर रहे हैं? वह, डॉक्टर मुकर्जी, मि.
ह्यूबर्ट- लेकिन कहाँ के लिए, हम कहाँ जाएँगे।’
परिंदों के माध्यम से इन पात्रों की लक्ष्यहीनता व
भटकन को ही कथाकार ने अभिव्यक्त किया है। यहाँ परिंदे
प्रतीक हैं उन टूटे प्रेमियों के जो अपनी-अपनी जगहों
से टूटकर उस पहाड़ी स्थान पर एकत्र हो गए हैं। लतिका,
डॉक्टर मुकर्जी, ह्यूबर्ट भी तो परिंदे ही हैं। किंतु
परिंदे तो एक ठहराव के बाद मैदान की ओर उड़ जाएँगे पर
वे तीनों कहाँ जाएंगे? वे तो उसी सुनसान पहाड़ी स्थान
पर एक साथ होते हुए भी अलग-अलग रहने के लिए अभिशप्त
हैं। रामदरश मिश्र के अनुसार, ‘यह कहानी अन्य कहानियों
की अपेक्षा अपनी संवेदना में गहरी (और सूक्ष्म तो है
ही) है और पाठक की संवेदना पर एक गहरा संश्लिष्ट
प्रभाव छोड़ती है। अनुकूल बिंबों और प्रतीकों से
संश्लिष्ट प्रेम-संवेदना मूर्त होती चलती है और कहानी
अंत तक आते-आते हमारे भीतर एक जीवंत भावात्मक परिवेश
निर्मित कर देती है।’
‘परिंदे’ में संगीत का भरा-पूरा वातावरण मिलता है।
ह्यूबर्ट स्वयं पियानो-वादक है। कई अवसरों पर संगीत
पूरे परिवेश को सहज बना देता है। ह्यूबर्ट ही नहीं,
डॉक्टर मुकर्जी भी अंग्रेजी धुन गुनगुनाते हुए हमारे
सामने आता है। ह्यूबर्ट के प्रेमपत्र के प्रसंग के बाद
की मानसिकता पर कथाकार ने लिखा है- ‘ह्यूबर्ट की
उँगलियों का दबाव पियानो पर ढीला पड़ता गया। अंतिम
सुरों की झिझकी-सी गूँज कुछ क्षणों तक हवा में तिरती
रही।’ फिर बताते हैं कि पियानो पर हर नोट चिरंतन
खामोशी की अंधेरी खोह से निकलकर बाहर फैली नीली धुंध
को काटता, तराशता हुए एक भूला-सा अर्थ खींच लाता है।
ह्यूबर्ट के संगीत के प्रभाव के बारे में फिर एक
प्रसंग में बताया गया है- ‘लीड काइंडली लाइट...संगीत
के सुर मानो एक ऊँची पहाड़ी पर चढ़कर हा्फती हुई साँसों
को आकाश की अबाध शून्यता में बिखेरते हुए नीचे उतर रहे
हैं।"
कहानी की भाषा कई प्रसंगों में काव्यात्मक लगती है।
काव्यात्मकता से वातावरण का भी निरूपण हो जाता है। कई
बार उपमा और उत्प्रेक्षा का सहारा लिया गया है। कुछ
ऐसे वाक्य यहाँ प्रस्तुत हैं-
‘लैंप की झपकती लौ में लड़कियों के चेहरे सिनेमा के
परदे पर ठहरे हुए क्लोजअप की भाँति उभरने लगे।’
‘उसका सिर चकराने लगा, मानो बादलों का स्याह झुरमुट
किसी अनजाने कोने से उठकर अपने में डुबो देगा।’
‘और करीमुद्दीन नीचे झुककर मुर्गा-सा बन गया।’
लतिका के बारे में बताया गया है- ‘धूप की तपन से पका
गेहुँगा रंग कहीं-कहीं हल्का -सा गुलाबी हो आया था,
मानो बहुत धोने पर भी गुलाल के कुछ धब्बे इधर-उधर
बिखरे रह गए हों।’
निर्मल वर्मा की भाषा के बारे में नामवर सिंह ने लिखा
है- ‘इन कहानियों को पढ़ते हुए एक नए गद्य से परिचय
होता है- अपने प्रयोजन के लिए बनाया हुआ लेखक का अपना
गद्य। संभवतः कहानी का गद्य इतना संवेदनशील पहले तो
कभी नहीं था। या तो भावोच्छ्वसित गद्य या नितांत
कामकाजी। ‘परिंदे’ को देखकर लगता है कि भाषा के
क्षेत्र में जो काम इतने दिनों से प्रयोगशील ‘नई
कविता’ भी न कर सकी, उसे अंततः कहानी के गद्य ने कर
दिखाया।’
वस्तुतः ‘परिंदे’ आधुनिक जीवन-बोध से भरपूर एक कहानी
है। इसमें मानव नियति का ही चित्र कथाकार ने खींचा है।
महानगरीय बोध की एक अनूठी कहानी है यह। अति व्यस्त
जीवन की एक झाँकी भी इसमें देखी जा सकती है। मानवीय
अस्मिता एवं अस्तित्व का संकट आदि को समग्रता से उजागर
करने का प्रयास यहाँ हुआ है। अँधेरा, उजाला, अजनबीपन,
मृत्यु-भय, निराशा, पश्चाताप, रिक्तता, सर्वोपरि मानव
नियति को ही निर्मल वर्मा ने शब्दबद्ध किया है। अशोक
वाजपेयी के शब्दों में- ‘इस शताब्दी में अस्मिता,
पश्चिम से मुठभेड़, अध्यात्म की स्थिति, विचार की
नियति, व्यक्ति और आत्म की चेतना, सामाजिक तनाव,
इतिहास के अंतर्विरोध आदि के जो प्रश्न केंद्रीय रहे
हैं, उन सभी को तीक्ष्णता, साहस और तैयारी के साथ
निर्मल वर्मा ने अपने सर्जनात्मक लेखन और चिंतनपरक
रचनाओं में संबोधित, स्पष्ट और विन्यस्त किया है। एक
कथाकार के रूप में वह हमारे समय में व्यक्ति के
आत्मसंघर्ष, आत्मबोध, अंतःकरण और उसकी नैतिक
जिम्मेदारी के सूक्ष्मतम ब्यौरों को गूँथते हुए,
इतिहास और स्मृति की छाया में विकसित-विकल- उद्विग्न
संबंधों के अत्यंत संवेदनशील रचयिता हैं।
३० मार्च २०१५ |