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					 अँधेरे 
					गलियारे में चलते हुए लतिका ठिठक गयी। दीवार का सहारा लेकर 
					उसने लैम्प की बत्ती बढ़ा दी। सीढ़ियों पर उसकी छाया एक बैडौल 
					कटी-फटी आकृति खींचने लगी। सात नम्बर कमरे में लड़कियों की 
					बातचीत और हँसी-ठहाकों का स्वर अभी तक आ रहा था। लतिका ने 
					दरवाजा खटखटाया। शोर अचानक बंद हो गया। “कौन है?" 
 लतिका चुप खड़ी रही। कमरे में कुछ देर तक घुसर-पुसर होती रही, 
					फिर दरवाजे की चिटखनी के खुलने का स्वर आया। लतिका कमरे की 
					देहरी से कुछ आगे बढ़ी, लैम्प की झपकती लौ में लड़कियों के 
					चेहरे सिनेमा के परदे पर ठहरे हुए क्लोजअप की भाँति उभरने लगे। 
					“कमरे में अँधेरा क्यों कर रखा है?" लतिका के स्वर में 
					हल्की-सी झिड़की का आभास था। “लैम्प में तेल ही खत्म हो गया, 
					मैडम!" यह सुधा का कमरा था, इसलिए उसे ही उत्तर देना पड़ा। 
					होस्टल में शायद वह सबसे अधिक लोकप्रिय थी, क्योंकि सदा छुट्टी 
					के समय या रात को डिनर के बाद आस-पास के कमरों में रहनेवाली 
					लड़कियों का जमघट उसी के कमरे में लग जाता था। देर तक गप़-शप, 
					हँसी-मजाक च़लता रहता। “तेल के लिए करीमुद्दीन से क्यों नहीं 
					कहा?" “कितनी बार कहा मैडम, लेकिन उसे याद रहे तब तो।"
 
 कमरे में हँसी की फुहार एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गयी। 
					लतिका के कमरे में आने से अनुशासन की जो घुटन घिर आयी थी वह 
					अचानक बह गयी। करीमुद्दीन होस्टल का नौकर था। उसके आलस और काम 
					में टालमटोल करने के किस्से होस्टल की लड़कियों में 
					पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आते थे। लतिका को हठात कुछ स्मरण हो आया। 
					अँधेरे में लैम्प घुमाते हुए चारों ओर निगाहें, दौड़ाईं। कमरे 
					में चारों ओर घेरा बनाकर वे बैठी थीं- पास-पास एक-दूसरे से 
					सटकर। सबके चेहरे परिचित थे, किन्तु लैम्प के पीले मद्धिम 
					प्रकाश में मानो कुछ बदल गया था, या जैसे वह उन्हें पहली बार 
					देख रही थी। “जूली, अब तक तुम इस ब्लाक में क्या कर रही हो?"
 
 जूली खिड़की के पास पलँग के सिरहाने बैठी थी। उसने चुपचाप 
					आँखें नीची कर ली। लैम्प का प्रकाश चारों ओर से सिमटकर अब केवल 
					उसके चेहरे पर गिर रहा था। “नाइट रजिस्टर पर दस्तखत कर दिये?" 
					“हाँ, मैडम।" “फिर...?" लतिका का स्वर कड़ा हो आया। जूली 
					सकुचाकर खिड़की से बाहर देखने लगी। जब से लतिका इस स्कूल में 
					आयी है, उसने अनुभव किया है कि होस्टल के इस नियम का पालन 
					डाँट-फटकार के बावजूद नहीं होता। “मैडम, कल से छुट्टियाँ शुरू 
					हो जायेंगी, इसलिए आज रात हम सबने मिलकर..." और सुधा पूरी बात 
					न कहकर हेमन्ती की ओर देखते हुए मुस्कराने लगी। “हेमन्ती के 
					गाने का प्रोग्राम है, आप भी कुछ देर बैठिए न।"
 
 लतिका को उलझन मालूम हुई। इस समय यहाँ आकर उसने इनके मजे को 
					किरकिरा कर दिया। इस छोटे-से-हिल-स्टेशन पर रहते उसे खासा 
					अर्सा हो गया, लेकिन कब समय पतझड़ और गर्मियों का घेरा पार कर 
					सर्दी की छुट्टियों की गोद में सिमट जाता है, उसे कभी याद नहीं 
					रहता। चोरों की तरह चुपचाप वह देहरी से बाहर को गयी। उसके 
					चेहरे का तनाव ढ़ीला पड़ गया। वह मुस्कराने लगी। “मेरे संग 
					स्नो-फॉल देखने कोई नहीं ठहरेगा?" “मैडम, छुट्टियों में क्या 
					आप घर नहीं जा रही हैं?" सब लड़कियों की आँखे उस पर जम गयीं। 
					“अभी कुछ पक्का नहीं है-आई लव द स्नो-फॉल!"
 
 लतिका को लगा कि यही बात उसने पिछले साल भी कही थी और शायद 
					पिछले से पिछले साल भी। उसे लगा मानों लड़कियाँ उसे सन्देह की 
					दृष्टि से देख रही है, मानों उन्होंने उसकी बात पर विश्वास 
					नहीं किया। उसका सिर चकराने लगा, मानों बादलों का स्याह झुरमुट 
					किसी अनजाने कोने से उठकर उसे अपने में डुबा लेगा। वह थोड़ा-सा 
					हँसी, फिर धीरे-से उसने सर को झटक दिया। “जूली, तुमसे कुछ काम 
					है, अपने ब्लॉक में जाने से पहले मुझे मिल लेना- वेल गुड 
					नाइट!" लतिका ने अपने पीछे दरवाज़ा बंद कर दिया।
 
 “गुड नाइट मैडम, गुड नाइट, गुड नाइट..." गलियारे की सीढ़ियाँ न 
					उतरकर लतिका रेलिंग के सहारे खड़ी हो गयी। लैंप की बत्ती को 
					नीचे घुमाकर कोने में रख दिया। बाहर धुन्ध की नीली तहें बहुत 
					घनी हो चली थीं। लॉन पर लगे हुए चीड़ के पत्तों की सरसराहट हवा 
					के झोंकों के संग कभी तेज, कभी धीमी होकर भीतर बह आती थी। हवा 
					में सर्दी का हल्का-सा आभास पाकर लतिका के दिमाग में कल से 
					शुरू होनेवाली छुट्टियों का ध्यान भटक आया। उसने आँखें मूँद 
					लीं। उसे लगा कि जैसे उसकी टाँगें बाँस की लकड़ियों की तरह 
					उसके शरीर से बँधी हैं, जिसकी गाँठें धीरे-धीरे खुलती जा रही 
					हैं। सिर की चकराहट अभी मिटी नहीं थी, मगर अब जैसे वह भीतर न 
					होकर बाहर फैली हुई धुन्ध का हिस्सा बन गयी थी।
 
 सीढ़ियों पर बातचीत का स्वर सुनकर लतिका जैसे सोते से जगी। शॉल 
					को कन्धों पर समेटा और लैम्प उठा लिया। डॉ. मुकर्जी मि. 
					ह्यूबर्ट के संग एक अंग्रेजी धुन गुनगुनाते हुए ऊपर आ रहे थे। 
					सीढ़ियों पर अँधेरा था और ह्यूबर्ट को बार-बार अपनी छड़ी से 
					रास्ता टटोलना पड़ता था। लतिका ने दो-चार सीढ़ियाँ उतरकर लैम्प 
					को नीचे झुका दिया। “गुड ईवनिंग डाक्टर, गुड ईवनिंग मि. 
					ह्यूबर्ट!" “थैंक यू मिस लतिका" - ह्यूबर्ट के स्वर में 
					कृतज्ञता का भाव था। सीढ़ियाँ चढ़ने से उनकी साँस तेज हो रही 
					थी और वह दीवार से लगे हुए हाँफ रहे थे। लैम्प की रोशनी में 
					उनके चेहरे का पीलापन कुछ ताँबे के रंग जैसा हो गया था।
 
 “यहाँ अकेली क्या कर रही हो मिस लतिका?" - डाक्टर ने होंठों के 
					भीतर से सीटी बजायी। “चेकिंग करके लौट रही थी। आज इस वक्त ऊपर 
					कैसे आना हुआ मिस्टर ह्यूबर्ट?" ह्यूबर्ट ने मुस्कराकर अपनी 
					छड़ी डाक्टर के कन्धों से छुला दी - “इनसे पूछो, यही मुझे 
					जबर्दस्ती घसीट लाये हैं।"
 
 “मिस लतिका, हम आपको निमन्त्रण देने आ रहे थे। आज रात मेरे 
					कमरे में एक छोटा-सा-कन्सर्ट होगा जिसमें मि. ह्यूबर्ट शोपाँ 
					और चाइकोव्स्की के कम्पोजीशन बजायेंगे और फिर क्रीम कॉफी पी 
					जायेगी। और उसके बाद अगर समय रहा, तो पिछले साल हमने जो गुनाह 
					किये हैं उन्हें हम सब मिलकर कन्फ्रेंस करेंगे।" डाक्टर 
					मुकर्जी के चेहरे पर भारी मुस्कान खेल गयी। “डाक्टर, मुझे माफ 
					करें, मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है।"
 
 “चलिए, यह ठीक रहा। फिर तो आप वैसे भी मेरे पास आतीं।" डाक्टर 
					ने धीरे-से लतिका के कंधों को पकड़कर अपने कमरे की तरफ मोड़ 
					दिया। डाक्टर मुकर्जी का कमरा ब्लॉक के दूसरे सिरे पर छत से 
					जुड़ा हुआ था। वह आधे बर्मी थे, जिसके चिह्न उनकी थोड़ी दबी 
					हुई नाक और छोटी-छोटी चंचल आँखों से स्पष्ट थे। बर्मा पर 
					जापानियों का आक्रमण होने के बाद वह इस छोटे से पहाड़ी शहर में 
					आ बसे थे। प्राइवेट प्रैक्टिस के अलावा वह कान्वेन्ट स्कूल में 
					हाईजीन-फिजियालोजी भी पढ़ाया करते थे और इसलिए उनको स्कूल के 
					होस्टल में ही एक कमरा रहने के लिए दे दिया गया था। कुछ लोगों 
					का कहना था कि बर्मा से आते हुए रास्ते में उनकी पत्नी की 
					मृत्यु हो गयी, लेकिन इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं 
					कहा जा सकता क्योंकि डाक्टर स्वयं कभी अपनी पत्नी की चर्चा 
					नहीं करते।
 
 बातों के दौरान डाक्टर अक्सर कहा करते हैं - “मरने से पहले मैं 
					एक दफा बर्मा जरूर जाऊँगा" - और तब एक क्षण के लिए उनकी आँखों 
					में एक नमी-सी छा जाती। लतिका चाहने पर भी उनसे कुछ पूछ नहीं 
					पाती। उसे लगता कि डाक्टर नहीं चाहते कि कोई अतीत के सम्बन्ध 
					में उनसे कुछ भी पूछे या सहानुभूति दिखलाये। दूसरे ही क्षण 
					अपनी गम्भीरता को दूर ठेलते हुए वह हँस पड़ते - एक सूखी, बूझी 
					हुई हँसी।
 
 होम-सिक्नेस ही एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज किसी डाक्टर के 
					पास नहीं है। छत पर मेज-कुर्सियाँ डाल दी गईं और भीतर कमरे में 
					परकोलेटर में कॉफी का पानी चढ़ा दिया गया। “सुना है अगले 
					दो-तीन वर्षों में यहाँ पर बिजली का इन्तजाम हो जायेगा" 
					-डाक्टर ने स्प्रिट लैम्प जलाते हुए कहा। “यह बात तो पिछले दस 
					सालों से सुनने में आ रही है। अंग्रेजों ने भी कोई लम्बी-चौड़ी 
					स्कीम बनायी थी, पता नहीं उसका क्या हुआ" - ह्यूबर्ट ने कहा। 
					वह आराम कुर्सी पर लेटा हुआ बाहर लॉन की ओर देख रहा था।
 
 लतिका कमरे से दो मोमबत्तियाँ ले आयी। मेज के दोनों सिरों पर 
					टिकाकर उन्हें जला दिया गया। छत का अँधेरा मोमबत्ती की फीकी 
					रोशनी के इर्द-गिर्द सिमटने लगा। एक घनी नीरवता चारों ओर घिरने 
					लगी। हवा में चीड़ के वृक्षों की साँय-साँय दूर-दूर तक फैली 
					पहाड़ियों और घाटियों में सीटियों की गूँज-सी छोड़ती जा रही 
					थी। “इस बार शायद बर्फ जल्दी गिरेगी, अभी से हवा में एक सर्द 
					खुश्की-सी महसूस होने लगी है" - डाक्टर का सिगार अँधेरे में 
					लाल बिन्दी-सा चमक रहा था। “पता नहीं, मिस वुड को स्पेशल 
					सर्विस का गोरखधन्धा क्यों पसन्द आता है। छुट्टियों में घर 
					जाने से पहले क्या यह जरूरी है कि लड़कियाँ फादर एल्मण्ड का 
					सर्मन सुनें?" - ह्यूबर्ट ने कहा।
 
 डॉक्टर को फादर एल्मण्ड एक आँख नहीं सुहाते थे। लतिका कुर्सी 
					पर आगे झुककर प्यालों में कॉफी उँडेलने लगी। हर साल स्कूल बन्द 
					होने के दिन यही दो प्रोग्राम होते हैं - चैपल में स्पेशल 
					सर्विस और उसके बाद दिन में पिकनिक। लतिका को पहला साल याद आया 
					जब डाक्टर के संग पिकनिक के बाद वह क्लब गयी थी। डाक्टर बार 
					में बैठै थे। बार रूम कुमाऊँ रेजीमेण्ट के अफसरों से भरा हुआ 
					था। कुछ देर तक बिलियर्ड का खेल देखने के बाद जब वह वापिस बार 
					की ओर आ रहे थे, तब उसने दायीं ओर क्लब की लाइब्रेरी में देखा- 
					मगर उसी समय डाक्टर मुकर्जी पीछे से आ गये थे। मिस लतिका, यह 
					मेजर गिरीश नेगी है।" बिलियर्ड रूम से आते हुए हँसी-ठहाकों के 
					बीच वह नाम दब-सा गया था। वह किसी किताब के बीच में उँगली रखकर 
					लायब्रेरी की खिड़की से बाहर देख रहा था। “हलो डाक्टर" - वह 
					पीछे मुड़ा। तब उस क्षण...
 
 उस क्षण न जाने क्यों लतिका का हाथ काँप गया और कॉफी की कुछ 
					गर्म बूँदें उसकी साड़ी पर छलक आयी। अँधेरे में किसी ने नहीं 
					देखा कि लतिका के चेहरे पर एक उनींदा रीतापन घिर आया है। हवा 
					के झोंके से मोमबत्तियों की लौ फड़कने लगी। छत से भी ऊँची 
					काठगोदाम जानेवाली सड़क पर यू.पी. रोडवेज की आखिरी बस डाक लेकर 
					जा रही थी। बस की हैड लाइट्स में आस-पास फैली हुई झाड़ियों की 
					छायाएँ घर की दीवार पर सरकती हुई गायब होने लगीं।
 
 “मिस लतिका, आप इस साल भी छुट्टियों में यहीं रहेंगी?“डाक्टर 
					ने पूछा। डाक्टर का सवाल हवा में टँगा रहा। उसी क्षण पियानो पर 
					शोपाँ का नोक्टर्न ह्यूबर्ट की उँगलियों के नीचे से फिसलता हुआ 
					धीरे-धीरे छत के अँधेरे में घुलने लगा-मानों जल पर कोमल 
					स्वप्निल उर्मियाँ भँवरों का झिलमिलाता जाल बुनती हुईं दूर-दूर 
					किनारों तक फैलती जा रही हों। लतिका को लगा कि जैसे कहीं बहुत 
					दूर बर्फ की चोटियों से परिन्दों के झुण्ड नीचे अनजान देशों की 
					ओर उड़े जा रहे हैं। इन दिनों अक्सर उसने अपने कमरे की खिड़की 
					से उन्हें देखा है-धागे में बँधे चमकीले लट्टुओं की तरह वे एक 
					लम्बी, टेढ़ी-मेढ़ी कतार में उड़े जाते हैं, पहाड़ों की सुनसान 
					नीरवता से परे, उन विचित्र शहरों की ओर जहाँ शायद वह कभी नहीं 
					जायेगी।
 
 लतिका आर्म चेयर पर ऊँघने लगी। डाक्टर मुकर्जी का सिगार अँधेरे 
					में चुपचाप जल रहा था। डाक्टर को आश्चर्य हुआ कि लतिका न जाने 
					क्या सोच रही है और लतिका सोच रही थी-क्या वह बूढ़ी होती जा 
					रही है? उसके सामने स्कूल की प्रिंसिपल मिस वुड का चेहरा घूम 
					गया-पोपला मुँह, आँखों के नीचे झूलती हुई माँस की थैलियाँ, 
					ज़रा-ज़रा सी बात पर चिढ़ जाना, कर्कश आवाज में चीखना-सब उसे 
					‘ओल्डमेड’ कहकर पुकारते हैं। कुछ वर्षों बाद वह भी हू-ब-हू 
					वैसी ही बन जायेगी...लतिका के समूचे शरीर में झूरझूरी-सी दौड़ 
					गयी, मानों अनजाने में उसने किसी गलीज वस्तु को छू लिया हो। 
					उसे याद आया कुछ महीने पहले अचानक उसे ह्यूबर्ट का प्रेमपत्र 
					मिला था - भावुक याचना से भरा हुआ पत्र, जिसमें उसने न जाने 
					क्या कुछ लिखा था, जो कभी उसकी समझ में नहीं आया। उसे ह्यूबर्ट 
					की इस बचकाना हरकत पर हँसी आयी थी, किन्तु भीतर-ही-भीतर 
					प्रसन्नता भी हुई थी। उसकी उम्र अभी बीती नहीं है, अब भी वह 
					दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है। ह्यूबर्ट का पत्र पढ़कर 
					उसे क्रोध नहीं आया, आयी थी केवल ममता। वह चाहती तो उसकी 
					गलतफहमी को दूर करने में देर न लगती, किन्तु कोई शक्ति उसे 
					रोके रहती है, उसके कारण अपने पर विश्वास रहता है, अपने सुख का 
					भ्रम मानो ह्यूबर्ट की गलतफहमी से जुड़ा है...।
 
 ह्यूबर्ट ही क्यों, वह क्या किसी को चाह सकेगी, उस अनुभूति के 
					संग, जो अब नहीं रही, जो छाया-सी उस पर मँडराती रहती है, न 
					स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती है। उसे लगा, जैसे 
					बादलों का झुरमुट फिर उसके मस्तिष्क पर धीरे-धीरे छाने लगा है, 
					उसकी टाँगे फिर निर्जीव, शिथिल-सी हो गयी हैं। वह झटके से उठ 
					खड़ी हुई- “डाक्टर माफ करना, मुझे बहुत थकान-सी लग रही 
					है...बिना वाक्य पूरा किये ही वह चली गयी। कुछ देर तक टैरेस पर 
					निस्तब्धता छायी रही। मोमबत्तियाँ बूझने लगी थीं। डाक्टर 
					मुकर्जी ने सिगार का नया कश लिया - “सब लड़कियाँ एक-जैसी होती 
					है-बेवकूफ और सेंटीमेंटल।" ह्यूबर्ट की उँगलियों का दबाव 
					पियानो पर ढीला पड़ता गया, अन्तिम सुरों की झिझकी-सी गूँज कुछ 
					क्षणों तक हवा में तिरती रही।
 
 “डाक्टर, आपको मालूम है, मिस लतिका का व्यवहार पिछले कुछ अर्से 
					से अजीब-सा लगता है।" ह्यूबर्ट के स्वर में लापरवाही का भाव 
					था। वह नहीं चाहता था कि डाक्टर को लतिका के प्रति उसकी 
					भावनाओं का आभास-मात्र भी मिल सके। जिस कोमल अनुभूति को वह 
					इतने समय से सँजोता आया है, डाक्टर उसे हँसी के एक ठहाके में 
					उपहासास्पद बना देगा। “क्या तुम नियति में विश्वास करते हो, 
					ह्यूबर्ट?" डाक्टर ने कहा। ह्यूबर्ट दम रोके प्रतीक्षा करता 
					रहा। वह जानता था कि कोई भी बात कहने से पहले डाक्टर को 
					फिलासोफाइज करने की आदत थी। डाक्टर टैरेस के जंगले से सटकर 
					खड़ा हो गया। फीकी-सी चाँदनी में चीड़ के पेड़ो की छायाएँ लॉन 
					पर गिर रही थी। कभी-कभी कोई जुगनू अँधेरे में हरा प्रकाश 
					छिड़कता हवा में गायब हो जाता था।
 
 “मैं कभी-कभी सोचता हूँ, इन्सान जिन्दा किसलिए रहता है-क्या 
					उसे कोई और बेहतर काम करने को नहीं मिला? हजारों मील अपने 
					मुल्क से दूर मैं यहाँ पड़ा हूँ - यहाँ कौन मुझे जानता है, 
					यहीं शायद मर भी जाऊँगा। ह्यूबर्ट, क्या तुमने कभी महसूस किया 
					है कि एक अजनबी की हैसियत से परायी जमीन पर मर जाना काफ़ी 
					खौफनाक बात है...!"
 
 ह्यूबर्ट विस्मित-सा डाक्टर को देखने लगा। उसने पहली बार 
					डॉक्टर मुकर्जी के इस पहलू को देखा था। अपने सम्बन्ध में वह 
					अक्सर चुप रहते थे। “कोई पीछे नहीं है, यह बात मुझमें एक अजीब 
					किस्म की बेफिक्री पैदा कर देती है। लेकिन कुछ लोगों की मौत 
					अन्त तक पहेली बनी रहती है, शायद वे ज़िन्दगी से बहुत उम्मीद 
					लगाते थे। उसे ट्रैजिक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आखिरी दम 
					तक उन्हें मरने का एहसास नहीं होता।" “डाक्टर, आप किसका जिक्र 
					कर रहे हैं?" ह्यूबर्ट ने परेशान होकर पूछा। डाक्टर कुछ देर तक 
					चुपचाप सिगार पीता रहा। फिर मुड़कर वह मोमबत्तियों की बुझती 
					हुई लौ को देखने लगा।
 
 “तुम्हें मालूम है, किसी समय लतिका बिला नागा क्लब जाया करती 
					थी। गिरीश नेगी से उसका परिचय वहीं हुआ था। कश्मीर जाने से एक 
					रात पहले उसने मुझे सबकुछ बता दिया था। मैं अब तक लतिका से उस 
					मुलाकात के बारे में कुछ नहीं कह सका हूँ। किन्तु उस रात कौन 
					जानता था कि वह वापस नहीं लौटेगा। और अब...अब क्या फर्क पड़ता 
					है। लेट द डेड। डाई..." डाक्टर की सूखी सर्द हँसी में खोखली-सी 
					शून्यता भरी थी।
 
 “कौन गिरीश नेगी?" “कुमाऊँ रेजीमेंट में कैप्टन था।" “डाक्टर, 
					क्या लतिका..." ह्यूबर्ट से आगे कुछ नहीं कहा गया। उसे याद आया 
					वह पत्र, जो उसने लतिका को भेजा था, कितना अर्थहीन और 
					उपहासास्पद, जैसे उसका एक-एक शब्द उसके दिल को कचोट रहा हो। 
					उसने धीरे-से पियानो पर सिर टिका लिया। लतिका ने उसे क्यों 
					नहीं बताया, क्या वह इसके योग्य भी नहीं था? “लतिका... वह तो 
					बच्ची है, पागल! मरनेवाले के संग खुद थोड़े ही मरा जाता है।“
 
 कुछ देर चुप रहकर डाक्टर ने अपने प्रश्न को फिर दुहराया। 
					“लेकिन ह्यूबर्ट, क्या तुम नियति पर विश्वास करते हो?" हवा के 
					हल्के झोंके से मोमबत्तियाँ एक बार प्रज्जवलित होकर बुझ गयीं। 
					टैरेस पर ह्यूबर्ट और डाक्टर अँधेरे में एक-दूसरे का चेहरा 
					नहीं देख पा रहे थे, फिर भी वे एक-दूसरे की ओर देख रहे थे। 
					कान्वेंट स्कूल से कुछ दूर मैदानों में बहते पहाड़ी नाले का 
					स्वर आ रहा था। अब बहुत देर बाद कुमाऊँ रेजीमेंट सेण्टर का 
					बिगुल सुनायी दिया, तो ह्यूबर्ट हड़बड़ाकर खड़ा हो गया। 
					“अच्छा, चलता हूँ, डाक्टर, गुड नाइट।"
 
 “गुड नाइट ह्यूबर्ट...मुझे माफ करना, मैं सिगार खत्म करके 
					उठूँगा..." सुबह बदली छायी थी। लतिका के खिड़की खोलते ही धुन्ध 
					का गुब्बारा-सा भीतर घुस आया, जैसे रात-भर दीवार के सहारे सरदी 
					में ठिठुरता हुआ वह भीतर आने की प्रतीक्षा कर रहा हो। स्कूल से 
					ऊपर चैपल जानेवाली सड़क बादलों में छिप गयी थी, केवल चैपल का 
					‘क्रास’ धुन्ध के परदे पर एक-दूसरे को काटती हुई पेंसिल की 
					रेखाओं-सा दिखायी दे जाता था।
 
 लतिका ने खिड़की से आँखें हटाईं, तो देखा कि करीमुद्दीन चाय की 
					ट्रे लिये खड़ा है। करीमुद्दीन मिलिट्री में अर्दली रह चुका 
					था, इसलिए ट्रे मेज पर रखकर ‘अटेन्शन’ की मुद्रा में खड़ा हो 
					गया। लतिका झटके से उठ बैठी। सुबह से आलस करके कितनी बार जागकर 
					वह सो चुकी है। अपनी खिसियाहट मिटाने के लिए लतिका ने कहा - 
					“बड़ी सर्दी है आज, बिस्तर छोड़ने को जी नहीं चाहता।"
 
 “अजी मेम साहब, अभी क्या सरदी आयी है- बड़े दिनों में देखना 
					कैसे दाँत कटकटाते हैं" - और करीमुद्दीन अपने हाथों को बगलों 
					में डाले हुए इस तरह सिकुड़ गया जैसे उन दिनों की कल्पना मात्र 
					से उसे जाड़ा लगना शुरू हो गया हो। गंजे सिर पर दोनों तरफ के 
					उसके बाल खिजाब लगाने से कत्थई रंग के भूरे हो गये थे। बात 
					चाहे किसी विषय पर हो रही हो, वह हमेशा खींचतान कर उसे ऐसे 
					क्षेत्र में घसीट लाता था, जहाँ वह बेझिझक अपने विचारों को 
					प्रकट कर सके।
 
 “एक दफा तो यहाँ लगातार इतनी बर्फ गिरी थी कि भुवाली से लेकर 
					डाक बँगले तक सारी सड़कें जाम हो गईं। इतनी बर्फ थी मेम साहब 
					कि पेड़ों की टहनियाँ तक सिकुड़कर तनों से लिपट गयी थी - 
					बिलकुल ऐसे," और करीमुद्दीन नीचे झुककर मुर्गा-सा बन गया। “कब 
					की बात है?" लतिका ने पूछा।
 
 “अब यह तो जोड़-हिसाब करके ही पता चलेगा, मेम साहब, लेकिन इतना 
					याद है कि उस वक्त अंग्रेज बहादूर यहीं थे। कण्टोनमेण्ट की 
					इमारत पर कौमी झण्डा नहीं लगा था। बड़े जबर थे ये अंग्रेज, दो 
					घण्टों में ही सारी सड़कें साफ करवा दीं। उन दिनों एक सीटी 
					बजाते ही पचास घोड़ेवाले जमा हो जाते थे। अब तो सारे शेड खाली 
					पड़े हैं। वे लोग अपनी खिदमत भी करवाना जानते थे, अब तो सब 
					उजाड़ हो गया है"। करीमुद्दीन उदास भाव से बाहर देखने लगा। आज 
					यह पहली बार नहीं है जब लतिका करीमुद्दीन से उन दिनों की बातें 
					सुन रही है जब अंग्रेज बहादुर ने इस स्थान को स्वर्ग बना रखा 
					था। “आप छुट्टियों में इस साल भी यही रहेंगी मेम साहब?" “दिखता 
					तो कुछ ऐसा ही है करीमुद्दीन, तुम्हें फिर तंग होना पड़ेगा।" 
					“क्या कहती हैं मेम साहब! आपके रहने से हमारा भी मन लग जाता 
					है, वरना छुट्टियों में तो यहाँ कुत्ते लोटते हैं।"
 
 “तुम जरा मिस्त्री से कह देना कि इस कमरे की छत की मरम्मत कर 
					जाये। पिछले साल बर्फ का पानी दरारों से टपकता रहता था।“ लतिका 
					को याद आया कि पिछली सर्दियों में जब कभी बर्फ गिरती थी, तो 
					उसे पानी से बचने के लिए रात-भर कमरे के कोने में सिमटकर सोना 
					पड़ता था।
 
 करीमुद्दीन चाय की ट्रे उठाता हुआ बोला - “ह्यूबर्ट साहब तो 
					शायद कल ही चले जायें, कल रात उनकी तबीयत फिर खराब हो गयी। आधी 
					रात के वक्त मुझे जगाने आये थे। कहते थे, छाती में तकलीफ है। 
					उन्हें यह मौसम रास नहीं आता। कह रहे थे, लड़कियों की बस में 
					वह भी कल ही चले जायेंगे।" करीमुद्दीन दरवाजा बन्द करके चला 
					गया। लतिका की इच्छा हुई कि वह ह्यूबर्ट के कमरे में जाकर उनकी 
					तबीयत की पूछताछ कर आये। किन्तु फिर न जाने क्यों स्लीपर पैरों 
					में टँगे रहे और वह खिड़की के बाहर बादलों को उड़ता हुआ देखती 
					रही। ह्यूबर्ट का चेहरा जब उसे देखकर सहमा-सा दयनीय हो जाता 
					है, तब लगता है कि वह अपनी मूक-निरीह याचना में उसे कोस रहा है 
					- न वह उसकी गलतफहमी को दूर करने का प्रयत्न कर पाती है, न उसे 
					अपनी विवशता की सफाई देने का साहस होता है उसे लगता है कि इस 
					जाले से बाहर निकलने के लिए वह धागे के जिस सिरे को पकड़ती है 
					वह खुद एक गाँठ बनकर रह जाता है।
 
 बाहर बूँदाबाँदी होने लगी थी, कमरे की टिन की छत खट-खट बोलने 
					लगी। लतिका पलँग से उठ खड़ी हुई। बिस्तर को तहाकर बिछाया। फिर 
					पैरों में स्लीपरों को घसीटते हुए वह बड़े आईने तक आयी और उसके 
					सामने स्टूल पर बैठकर बालों को खोलने लगी। किंतु कुछ देर तक 
					कंघी बालों में ही उलझी रही और वह गुमसुम हो शीशे में अपना 
					चेहरा ताकती रही। करीमुद्दीन को यह कहना याद ही नहीं रहा कि 
					धीरे-धीरे आग जलाने की लकड़ियाँ जमा कर ले। इन दिनों सस्ते 
					दामों पर सूखी लकड़ियाँ मिल जाती हैं। पिछले साल तो कमरा धुएँ 
					से भर जाता था जिसके कारण कँपकँपाते जाड़े में भी उसे खिड़की 
					खोलकर ही सोना पड़ता था।
 
 आईने में लतिका ने अपना चेहरा देखा - वह मुस्कुरा रही थी। 
					पिछले साल अपने कमरे की सीलन और ठण्ड से बचने के लिए कभी-कभी 
					वह मिस वुड के खाली कमरे में चोरी-चुपके सोने चली जाया करती 
					थी। मिस वुड का कमरा बिना आग के भी गर्म रहता था, उनके गदीले 
					सोफे पर लेटते ही आँख लग जाती थी। कमरा छुट्टियों में खाली 
					पड़ा रहता है, किन्तु मिस वुड से इतना नहीं होता कि दो महीनों 
					के लिए उसके हवाले कर जायें। हर साल कमरे में ताला ठोंक जाती 
					हैं वह तो पिछले साल़ गुसलखाने में भीतर की साँकल देना भूल गयी 
					थीं, जिसे लतिका चोर दरवाजे के रूप में इस्तेमाल करती रही थी।
 
 पहले साल अकेले में उसे बड़ा डर-सा लगता था। छुट्टियों में 
					सारे स्कूल और होस्टल के कमरे साँय-साँय करने लगते हैं। डर के 
					मारे उसे जब कभी नींद नहीं आती थी, तब वह करीमुद्दीन को रात 
					में देर तक बातों में उलझाये रखती। बातों में जब खोयी-सी वह सो 
					जाती, तब करीमुद्दीन चुपचाप लैम्प बुझाकर चला जाता। कभी-कभी 
					बीमारी का बहाना करके वह डाक्टर को बुलवा भेजती थी और बाद में 
					बहुत जिद करके दूसरे कमरे में उनका बिस्तर लगवा देती।
 
 लतिका के कंधे से बालों का गुच्छा निकाला और उसे बाहर फेंकने 
					के लिए वह खिड़की के पास आ खड़ी हुई। बाहर छत की ढलान से बारिश 
					के जल की मोटी-सी धार बराबर लॉन पर गिर रही थी। मेघाच्छन्न 
					आकाश में सरकते हुए बादलों के पीछे पहाड़ियों के झुण्ड कभी उभर 
					आते थे, कभी छिप जाते थे, मानो चलती हुई ट्रेन से कोई उन्हें 
					देख रहा हो। लतिका ने खिड़की से सिर बाहर निकाल लिया - हवा के 
					झोंके से उसकी आँखें झिप गयी। उसे जितने काम याद आते हैं, उतना 
					ही आलस घना होता जाता है। बस की सीटें रिजर्व करवाने के लिए 
					चपरासी को रुपये देने हैं जो सामान होस्टल की लड़कियाँ पीछे 
					छोड़े जा रही हैं, उन्हें गोदाम में रखवाना होगा। कभी-कभी तो 
					छोटी क्लास की लड़कियों के साथ पैकिंग करवाने के काम में भी 
					उसे हाथ बँटाना पड़ता था।
 
 वह इन कामों से ऊबती नहीं। धीरे-धीरे सब निपटते जाते हैं, कोई 
					गलती इधर-उधर रह जाती है, सो बाद में सुधर जाती है। हर काम में 
					किचकिच रहती है, परेशानी और दिक्कत होती है, किन्तु देर-सबेर 
					इससे छुटकारा मिल ही जाता है किन्तु जब लड़कियों की आखिरी बस 
					चली जाती है, तब मन उचाट-सा हो जाता है। खाली कॉरीडोर में 
					घूमती हुई वे कभी इस कमरे में जाती हैं और कभी उसमें। वह नहीं 
					जान पातीं कि अपने से क्या करें, दिल कहीं भी नहीं टिक पाता, 
					हमेशा भटका-भटका-सा रहता है।
 
 इस सबके बावजूद जब कोई सहज भाव में पूछ बैठता है, “मिस लतिका, 
					छुट्टियों में आप घर नहीं जा रहीं?" तब वह क्या कहे? 
					डिंग-डांग-डिंग... स्पेशल सर्विस के लिए स्कूल चैपल के घंटे 
					बजने लगे थे। लतिका ने अपना सिर खिड़की के भीतर कर लिया। उसने 
					झटपट साड़ी उतारी और पेटीकोट में ही कन्धे पर तौलिया डाले 
					गुसलखाने में घुस गयी। लेफ्ट-राइट लेफ्ट...लेफ्ट...
 
 कण्टोनमेण्ट जानेवाली पक्की सड़क पर चार-चार की पंक्ति में 
					कुमाऊँ रेजीमेंट के सिपाहियों की एक टुकड़ी मार्च कर रही थी। 
					फौजी बूटों की भारी खुरदरी आवाजें स्कूल चैपल की दीवारों से 
					टकराकर भीतर ‘प्रेयर हाल’ में गूँज रही थीं।
 
 “ब्लेसेड आर द मीक..." फादर एल्मण्ड एक-एक शब्द चबाते हुए 
					खँखारते स्वर में ‘सर्मन आफ द माउण्ट’ पढ़ रहे थे। ईसा मसीह की 
					मूर्ति के नीचे ‘कैण्डलब्रियम’ के दोनों ओर मोमबत्तियाँ जल रही 
					थीं, जिनका प्रकाश आगे बेंचों पर बैठी हुई लड़कियों पर पड़ रहा 
					था। पिछली लाइनों की बैंचें अँधेरे में डूबी हुई थीं, जहाँ 
					लड़कियाँ प्रार्थना की मुद्रा में बैठी हुई सिर झुकाये 
					एक-दूसरे से घुसर-पुसर कर रही थीं। मिस वुड स्कूल सीजन के 
					सफलतापूर्वक समाप्त हो जाने पर विद्यार्थियों और स्टाफ सदस्यों 
					को बधाई का भाषण दे चुकी थीं- और अब फादर के पीछे बैठी हुई 
					अपने में ही कुछ बुड़बुड़ा रही थीं मानो धीरे-धीरे फादर को 
					‘प्रौम्ट’ कर रही हों।
 
 ‘आमीन।’ फादर एल्मण्ड ने बाइबल मेज पर रख दी और ‘प्रेयर बुक’ 
					उठा ली। हॉल की खामोशी क्षण भर के लिए टूट गयी। लड़कियों ने 
					खड़े होते हुए जान-बूझकर बैंचों को पीछे धकेला - बैंचे फर्श पर 
					रगड़ खाकर सीटी बजाती हुई पीछे खिसक गयीं - हॉल के कोने से 
					हँसी फूट पड़ी। मिस वुड का चेहरा तन गया, माथे पर भृकुटियाँ 
					चढ़ गयीं। फिर अचानक निस्तब्धता छा गयी। हॉल के उस घुटे हुए 
					घुँधलके में फादर का तीखा फटा हुआ स्वर सुनायी देने लगा -“जीजस 
					सेड, आई एम द लाइट ऑफ द वर्ल्ड, ही दैट फालोएथ मी शैल नॉट वाक 
					इन डार्कनेस, बट शैल हैव द लाइट ऑफ लाइफ।"
 
 डाक्टर मुखर्जी ने ऊब और उकताहट से भरी जमुहाई ली, “कब यह 
					किस्सा खत्म होगा?" उसने इतने ऊँचे स्वर में लतिका से पूछा कि 
					वह सकुचाकर दूसरी ओर देखने लगी। स्पेशल सर्विस के समय डाक्टर 
					मुकर्जी के होंठों पर व्यंग्यात्मक मुस्कान खेलती रहती और वह 
					धीरे-धीरे अपनी मूँछों को खींचता रहता। फादर एल्मण्ड की 
					वेश-भूषा देखकर लतिका के दिल में गुदगुदी-सी दौड़ गयी। जब वह 
					छोटी थी, तो अक्सर यह बात सेाचकर विस्मित हुआ करती थी कि क्या 
					पादरी लोग सफेद चोगे के नीचे कुछ नहीं पहनते, अगर धोखे से वह 
					ऊपर उठ जाये तो?
 
 लेफ्ट...लेफ्ट...लेफ्ट... मार्च करते हुए फौजी बूट चैपल से दूर 
					होते जा रहे थे-केवल उनकी गूँज हवा में शेष रह गयी थी।
 
 ‘हिम नम्बर ११७’फादर ने प्रार्थना-पुस्तक खोलते हुए कहा। हॉल 
					में प्रत्येक लड़की ने डेस्क पर रखी हुई हिम-बुक खोल ली। 
					पन्नों के उलटने की खड़खड़ाहट फिसलती हुई एक सिरे से दूसरे 
					सिरे तक फैल गयी। आगे की बैंच से उठकर ह्यूबर्ट पियानो के 
					सामने स्टूल पर बैठ गया। संगीत शिक्षक होने के कारण हर साल 
					स्पेशल सर्विस के अवसर पर उसे ‘कॉयर’ के संग पियानो बजाना 
					पड़ता था। ह्यूबर्ट ने अपने रूमाल से नाक साफ की। अपनी घबराहट 
					छिपाने के लिए ह्यूबर्ट हमेशा ऐसा ही किया करता था। कनखियों से 
					हॉल की ओर देखते हुए अपने काँपते हाथों से हिम-बुक खोली। लीड 
					काइण्डली लाइट...
 
 पियानो के सुर दबे, झिझकते से मिलने लगे। घने बालों से ढँकी 
					ह्यूबर्ट की लंबी, पीली अँगुलयाँ खुलने-सिमटने लगीं। ‘कॉयर’ 
					में गानेवाली लड़कियों के स्वर एक-दूसरे से गुँथकर कोमल, 
					स्निग्ध लहरों में बिंध गये। लतिका को लगा, उसका जूड़ा ढीला 
					पड़ गया है, मानो गरदन के नीचे झूल रहा है। मिस वुड की आँख बचा 
					लतिका ने चुपचाप बालों में लगे क्लिपों को कसकर खींच दिया। 
					“बड़ा झक्की आदमी है...सुबह मैंने ह्यूबर्ट को यहाँ आने से मना 
					किया था, फिर भी चला आया" - डाक्टर ने कहा।
 
 लतिका को करीमुद्दीन की बात याद हो गयी। रात-भर ह्यूबर्ट को 
					खाँसी का दौरा पड़ा था, कल जाने के लिए कह रहे थे। लतिका ने 
					सिर टेढ़ा करके ह्यूबर्ट के चेहरे की एक झलक पाने की विफल 
					चेष्टा की। इतने पीछे से कुछ भी देख पाना असंभव था, पियानो पर 
					झुका हुआ केवल ह्यूबर्ट का सिर दिखायी देता था।
 
 लीड काइण्डली लाइट, संगीत के सुर मानों एक ऊँची पहाड़ी पर 
					चढ़कर हाँफती हुई साँसों को आकाश की अबाध शून्यता में बिखेरते 
					हुए नीचे उतर रहे हैं। बारिश की मुलायम धूप चैपल के 
					लम्बे-चैकोर शीशों पर झिलमिला रही है, जिसकी एक महीन चमकीली 
					रेखा ईसा मसीह की प्रतिमा पर तिरछी होकर गिर रही है। 
					मोमबत्तियों का धुआँ धूप में नीली-सी लकीर खींचता हुआ हवा में 
					तिरने लगा है। पियानो के क्षणिक ‘पोज’ में लतिका को पत्तों का 
					परिचित मर्मर कहीं दूर अनजानी दिशा से आता हुआ सुनायी दे जाता 
					है। एक क्षण के लिए एक भ्रम हुआ कि चैपल का फीका-सा अँधेरा उस 
					छोटे-से ‘प्रेयर-हॉल’ के चारों कोनों से सिमटता हुआ उसके 
					आस-पास घिर आया है मानों कोई उसकी आँखों पर पट्टी बाँधकर उसे 
					यहाँ तक ले आया हो और अचानक उसकी आँखें खोल दी हों। उसे लगा कि 
					जैसे मोमबत्तियों के धूमिल आलोक में कुछ भी ठोस, वास्तविक न 
					रहा हो-चैपल की छत, दीवारें, डेस्क पर रखा हुआ डाक्टर का 
					सुघड़-सुडौल हाथ और पियानो के सुर अतीत की धुन्ध को भेदते हुए 
					स्वयं उस धुन्ध का भाग बनते जा रहे हों।
 
 एक पगली-सी स्मृति, एक उद्भ्रान्त भावना-चैपल के शीशों के परे 
					पहाड़ी सूखी हवा, हवा में झुकी हुई वीपिंग विलोज की काँपती 
					टहनियाँ, पैरों तले चीड़ के पत्तों की धीमी-सी चिर-परिचित 
					खड़....खड़...। वहीं पर गिरीश एक हाथ में मिलिटरी का खाकी हैट 
					लिये खड़ा है-चौड़े, उठे हुए, सबल कन्धे, अपना सिर वहाँ टिका 
					दो, तो जैसे सिमटकर खो जायेगा, चार्ल्स बोयर, यह नाम उसने रखा 
					था, वह झेंपकर हँसने लगा। “तुम्हें आर्मी में किसने चुन लिया, 
					मेजर बन गये हो, लेकिन लड़कियों से भी गये बीते हो, 
					ज़रा-ज़रा-सी बात पर चेहरा लाल हो जाता है।" यह सब वह कहती 
					नहीं, सिर्फ सोचती भर थी, सोचा था कभी कहूँगी, वह ‘कभी’ कभी 
					नहीं आया, बुरुस का लाल फूल लाये हो न झूठे खाकी कमीज के जिस 
					जेब पर बैज चिपके थे, उसमें से मुसा हुआ बुरुस का फूल निकल 
					आया। छिः सारा मुरझा गया अभी खिला कहाँ है? (हाउ क्लन्जी) उसके 
					बालों में गिरीश का हाथ उलझ रहा है-फूल कहीं टिक नहीं पाता, 
					फिर उसे क्लिप के नीचे फँसाकर उसने कहा- देखो
 
 वह मुड़ी और इससे पहले कि वह कुछ कह पाती, गिरीश ने अपना 
					मिलिटरी का हैट धप से उसके सिर पर रख दिया। वह मन्त्रमुग्ध-सी 
					वैसी ही खड़ी रही। उसके सिर पर गिरीश का हैट है-माथे पर 
					छोटी-सी बिन्दी है। बिन्दी पर उड़ते हुए बाल है। गिरीश ने उस 
					बिन्दी को अपने होंठों से छुआ है, उसने उसके नंगे सिर को अपने 
					दोनों हाथों में समेट लिया है - लतिका
 
 गिरीश ने चिढ़ाते हुए कहा- मैन ईटर आफ कुमाऊँ- (उसका यह नाम 
					गिरीश ने उसे चिढ़ाने के लिए रखा था)... वह हँसने लगी। 
					“लतिका.... सुनो!" गिरीश का स्वर कैसा हो गया था! “ना, मैं कुछ 
					भी नहीं सुन रही।" “लतिका... मैं कुछ महीनों में वापिस लौट 
					आऊँगा" “ना... मैं कुछ भी नहीं सुन रही" किन्तु वह सुन रही है- 
					वह नहीं जो गिरीश कह रहा है, किन्तु वह जो नहीं कहा जा रहा है, 
					जो उसके बाद कभी नहीं कहा गया... लीड काइण्डली लाइट...
 
 लड़कियों का स्वर पियानो के सुरों में डूबा हुआ गिर रहा है, उठ 
					रहा है. .ह्यूबर्ट ने सिर मोड़कर लतिका को निमिष भर देखा, 
					आँखें मूँदे ध्यानमग्ना प्रस्तर मूर्ति-सी वह स्थिर निश्चल 
					खड़ी थी। क्या यह भाव उसके लिए है? क्या लतिका ने ऐसे क्षणों 
					में उसे अपना साथी बनाया है? ह्यूबर्ट ने एक गहरी साँस ली और 
					उस साँस में ढेर-सी थकान उमड़ आयी। “देखो... मिस वुड कुर्सी पर 
					बैठे-बैठे सो रही है" डाक्टर होंठों में ही फुसफुसाया। यह 
					डाक्टर का पुराना मजाक था कि मिस वुड प्रार्थना करने के बहाने 
					आँखे मूँदे हुए नींद की झपकियाँ लेती है।
 
 फादर एल्मण्ड ने कुर्सी पर फैले अपने गाउन को समेट लिया और 
					प्रेयर बुक बंद करके मिस वुड के कानों में कुछ कहा। पियानो का 
					स्वर क्रमशः मन्द पड़ने लगा, ह्यूबर्ट की अँगुलियाँ ढीली पड़ने 
					लगी। सर्विस के समाप्त होने से पूर्व मिस वुड ने आर्डर पढ़कर 
					सुनाया। बारिश होने की आशंका से आज के कार्यक्रम में कुछ 
					आवश्यक परिवर्तन करने पड़े थे। पिकनिक के लिए झूला देवी के 
					मन्दिर जाना सम्भव नहीं हो सकेगा, इसलिए स्कूल से कुछ दूर 
					‘मीडोज’ में ही सब लड़कियाँ नाश्ते के बाद जमा होंगी। सब 
					लड़कियों को दोपहर का ‘लंच’ होस्टल किचन से ही ले जाना होगा, 
					केवल शाम की चाय ‘मीडोज’ में बनेगी।
 
 पहाड़ों की बारिश का क्या भरोसा? कुछ देर पहले धुआँधार बादल 
					गरज रहे थे, सारा शहर पानी में भीगा ठिठुर रहा था- अब धूप में 
					नहाता नीला आकाश धुन्ध की ओट से बाहर निकलता हुआ फैल रहा था। 
					लतिका ने चैपल से बाहर आते हुए देखा-वीपिंग बिलोज की भीगी 
					शाखाओं से धूप में चमकती हुई बारिश की बूँदे टपक रही थीं, 
					लड़कियाँ चैपल से बाहर निकलकर छोटे-छोटे गुच्छे बनाकर कॉरीडोर 
					में जमा हो गयी हैं, नाश्ते के लिए अभी पौन घण्टा पड़ा था और 
					उनमें से अभी कोई भी लड़की होस्टल जाने के लिए इच्छुक नहीं थी। 
					छुट्टियाँ अभी शुरू नहीं हुई थीं, किन्तु शायद इसीलिए वे इन 
					चन्द बचे-खुचे क्षणों में अनुशासन के भीतर भी मुक्त होने का 
					भरपुर आनन्द उठा लेना चाहती थीं।
 
 मिस वुड को लड़कियों का यह गुल-गपाड़ा अखरा, किन्तु फादर 
					एल्मण्ड के सामने वह उन्हें डाँट-फटकार नहीं सकी। अपनी 
					झुँझलाहट दबाकर वह मुस्कराते हुए बोली- “कल सब चली जायेंगी, 
					सारा स्कूल वीरान हो जायेगा।" फादर एल्मण्ड का लम्बा ओजपूर्ण 
					चेहरा चैपल की घुटी हुई गरमाई से लाल हो उठा था। कॉरीडोर के 
					जंगले पर अपनी छड़ी लटकाकर वह बोले - “छुट्टियों में पीछे 
					हॉस्टल में कौन रहेगा?" “पिछले दो-तीन सालों से मिस लतिका ही 
					रह रही हैं।" “और डाक्टर मुकर्जी छुट्टियों में कहीं नहीं 
					जाते?" “डाक्टर तो सर्दी-गर्मी यहीं रहते हैं।" मिस वुड ने 
					विस्मय से फादर की ओर देखा। वह समझ नहीं सकी कि फादर ने डाक्टर 
					का प्रसंग क्यों छेड़ दिया है!
 
 “डाक्टर मुकर्जी छुट्टियों में कहीं नहीं जाते?" “दो महीने की 
					छुट्टियों में बर्मा जाना काफी कठिन है, फादर!" - मिस वुड 
					हँसने लगी।
 
 “मिस वुड, पता नहीं आप क्या सोचती हैं। मुझे तो मिस लतिका का 
					होस्टल में अकेले रहना कुछ समझ में नहीं आता।" “लेकिन फादर," 
					मिस वुड ने कहा, “यह तो कान्वेन्ट स्कूल का नियम है कि कोई भी 
					टीचर छुट्टियों में अपने खर्चे पर होस्टल में रह सकते हैं।" 
					“मैं फिलहाल स्कूल के नियमों की बात नहीं कर रहा। मिस लतिका 
					डाक्टर के संग यहाँ अकेली ही रह जायेंगी और सच पूछिए मिस वुड, 
					डाक्टर के बारे में मेरी राय कुछ बहुत अच्छी नहीं है।" “फादर, 
					आप कैसी बात कर रहे हैं? मिस लतिका बच्चा थोड़े ही है।" मिस 
					वुड को ऐसी आशा नहीं थी कि फादर एल्मण्ड अपने दिल में ऐसी 
					दकियानूसी भावना को स्थान देंगे।
 
 फादर एल्मण्ड कुछ हतप्रभ-से हो गये, बात पलटते हुए बोले- “मिस 
					वुड, मेरा मतलब यह नहीं था। आप तो जानती हैं, मिस लतिका और उस 
					मिलिटरी अफसर को लेकर एक अच्छा-खासा स्कैण्डल बन गया था, स्कूल 
					की बदनामी होने में क्या देर लगती है" “वह बेचारा तो अब नहीं 
					रहा। मैं उसे जानती थी फादर! ईश्वर उसकी आत्मा को शान्ति दे।" 
					मिस वुड ने धीरे-से अपनी दोनों बाँहों से क्रास किया।
 
 फादर एल्मण्ड को मिस वुड की मुर्खता पर इतना अधिक क्षोभ हुआ कि 
					उनसे आगे और कुछ नहीं बोला गया। डाक्टर मुकर्जी से उनकी कभी 
					नहीं पटती थी, इसलिए मिस वुड की आँखों में वह डाक्टर को नीचा 
					दिखाना चाहते थे। किन्तु मिस वुड लतिका का रोना ले बैठी। आगे 
					बात बढ़ाना व्यर्थ था। उन्होंने छड़ी को जंगले से उठाया और ऊपर 
					साफ खुले आकाश को देखते हुए बोले- “प्रोग्राम आपने यूँ ही 
					बदला, मिस वुड, अब क्या बारिश होगी।"
 
 ह्यूबर्ट जब चैपल से बाहर निकला तो उसकी आँखें चकाचैंध-सी हो 
					गईं। उसे लगा जैसे किसी ने अचानक ढेर-सी चमकीली उबलती हुई 
					रोशनी मुट्ठी में भरकर उसकी आँखों में झोंक दी हो। पियानो के 
					संगीत के सुर रुई के छुई-मुई रेशों की भाँति अब तक उसके 
					मस्तिष्क की थकी-माँदी नसों पर फड़फड़ा रहे थे। वह काफी थक गया 
					था। पियानो बजाने से उसके फेफड़ों पर हमेशा भारी दबाव पड़ता, 
					दिल की धड़कन तेज हो जाती थी। उसे लगता था कि संगीत के एक नोट 
					को दूसरे नोट में उतारने के प्रयत्न में वह एक अँधेरी खाई पार 
					कर रहा है।
 
 आज चैपल में मैंने जो महसूस किया, वह कितना रहस्यमय, कितना 
					विचित्र था, ह्यूबर्ट ने सोचा। मुझे लगा, पियानो का हर नोट 
					चिरन्तन खामोशी की अँधेरी खोह से निकलकर बाहर फैली नीली धुन्ध 
					को काटता, तराशता हुआ एक भूला-सा अर्थ खींच लाता है। गिरता हुआ 
					हर ‘पोज’ एक छोटी-सी मौत है, मानो घने छायादार वृक्षों की 
					काँपती छायाओं में कोई पगडण्डी गुम हो गयी हो, एक छोटी-सी मौत 
					जो आनेवाले सुरों को अपनी बची-खुची गूँजों की साँसे समर्पित कर 
					जाती है, जो मर जाती है, किन्तु मिट नहीं पाती, मिटती नहीं 
					इसलिए मरकर भी जीवित है, दूसरे सुरों में लय हो जाती है।
 
 “डाक्टर, क्या मृत्यु ऐसे ही आती है?" अगर मैं डाक्टर से पूछूँ 
					तो वह हँसकर टाल देगा। मुझे लगता है, वह पिछले कुछ दिनों से 
					कोई बात छिपा रहा है- उसकी हँसी में जो सहानुभूति का भाव होता 
					है, वह मुझे अच्छा नहीं लगता। आज उसने मुझे स्पेशल सर्विस में 
					आने से रोका था - कारण पूछने पर वह चुप रहा था। कौन-सी ऐसी बात 
					है, जिसे मुझसे कहने में डाक्टर कतराता है। शायद मैं शक्की 
					मिजाज होता जा रहा हूँ, और बात कुछ भी नहीं है।
 
 ह्यूबर्ट ने देखा, लड़कियों की कतार स्कूल से होस्टल जानेवाली 
					सड़क पर नीचे उतरती जा रही है। उजली धूप में उनके रंग-बिरंगे 
					रिबन, हल्की आसमानी रंग की फ्रॉकें और सफेद पेटियाँ चमक रही 
					हैं। सीनियर कैम्ब्रिज की कुछ लड़कियों ने चैपल की वाटिका के 
					गुलाब के फूलों को तोड़कर अपने बालों में लगा लिया है 
					कण्टोनमेण्ट के तीन-चार सिपाही लड़कियों को देखते हुए अश्लील 
					मजाक करते हुए हँस रहे हैं और कभी-कभी किसी लड़की की ओर ज़रा 
					झुककर सीटी बजाने लगते हैं।
 
 “हलो मि. ह्यूबर्ट!" ह्यूबर्ट ने चैंककर पीछे देखा। लतिका एक 
					मोटा-सा रजिस्टर बगल में दबाये खड़ी थी। “आप अभी यहीं हैं?" 
					ह्यूबर्ट की दृष्टि लतिका पर टिकी रही। वह क्रीम रंग की पूरी 
					बाँहों की ऊनी जैकट पहने हुई थी। कुमाऊँनी लड़कियों की तरह 
					लतिका का चेहरा गोल था, धूप की तपन से पका गेहुँआ रंग 
					कहीं-कहीं हल्का-सा गुलाबी हो आया था, मानों बहुत धोने पर भी 
					गुलाल के कुछ धब्बे इधर-उधर बिखरे रह गये हों। “उन लड़कियों के 
					नाम नोट करने थे, जो कल जा रही हैं सो पीछे रुकना पड़ा। आप भी 
					तो कल जा रहे हैं मि. ह्यूबर्ट?" “अभी तक तो यही इरादा है। 
					यहाँ रुककर भी क्या करूँगा। आप स्कूल की ओर जा रही हैं?“ 
					“चलिए"
 पक्की सड़क पर लड़कियों की भीड़ जमा थी, इसलिए वे दोनों पोलो 
					ग्राउण्ड का चक्कर काटती हुई पगडण्डी से नीचे उतरने लगे। हवा 
					तेज हो चली। चीड़ के पत्ते हर झोंके के संग टूट-टूटकर पगडण्डी 
					पर ढेर लगाते जाते थे। ह्यूबर्ट रास्ता बनाने के लिए अपनी छड़ी 
					से उन्हें बुहारकर दोनों ओर बिखेर देता था। लतिका पीछे खड़ी 
					हुई देखती रहती थी। अल्मोड़ा की ओर से आते हुए छोटे-छोटे बादल 
					रेशमी रूमालों से उड़ते हुए सूरज के मुँह पर लिपटे से जाते थे, 
					फिर हवा में बह निकलते थे। इस खेल में धूप कभी मन्द, फीकी-सी 
					पड़ जाती थी, कभी अपना उजला आँचल खोलकर समूचे शहर को अपने में 
					समेट लेती थी।
 
 लतिका तनिक आगे निकल गयी। ह्यूबर्ट की साँस चढ़ गयी थी और वह 
					धीरे-धीरे हाँफता हुआ पीछे से आ रहा था। जब वे पोलोग्राउण्ड के 
					पवेलियन को छोड़कर सिमिट्री के दायीं और मुडे, तो लतिका 
					ह्यूबर्ट की प्रतीक्षा करने के लिए खड़ी हो गयी। उसे याद आया, 
					छुट्टियों के दिनों में जब कभी कमरे में अकेले बैठे-बैठे उसका 
					मन ऊब जाता था, तो वह अक्सर टहलते हुए सिमिट्री तक चली जाती 
					थी। उससे सटी पहाड़ी पर चढ़कर वह बर्फ में ढँके देवदार वृक्षों 
					को देखा करती थी। जिनकी झुकी हुई शाखों से रुई के गोलों-सी 
					बर्फ नीचे गिरा करती थी, नीचे बाजार जानेवाली सड़क पर बच्चे 
					स्लेज पर फिसला करते थे। वह खड़ी-खड़ी बर्फ में छिपी हुई उस 
					सड़क का अनुमान लगाया करती थी जो फादर एल्मण्ड के घर से गुजरती 
					हुई मिलिटरी अस्पताल और डाकघर से होकर चर्च की सीढ़ियों तक 
					जाकर गुम हो जाती थी। जो मनोरंजन एक दुर्गम पहेली को सुलझाने 
					में होता है, वही लतिका को बर्फ में खोये रास्तों को खोज 
					निकालने में होता था।
 
 “आप बहुत तेज चलती हैं, मिस लतिका" - थकान से ह्यूबर्ट का 
					चेहरा कुम्हला गया था। माथे पर पसीने की बूँदे छलक आयी थीं। 
					“कल रात आपकी तबियत क्या कुछ खराब हो गयी थी?" “आपने कैसे 
					जाना? क्या मैं अस्वस्थ दीख रहा हूँ?" ह्यूबर्ट के स्वर में 
					हलकी-सी खीज का आभास था। सब लोग मेरी सेहत को लेकर क्यों बात 
					शुरू करते हैं, उसने सोचा। “नहीं, मुझे तो पता भी नहीं चलता, 
					वह तो सुबह करीमुद्दीन ने बातों-ही-बातों में जिक्र छेड़ दिया 
					था।" लतिका कुछ अप्रतिभ-सी हो आयी। “कोई खास बात नहीं, वही 
					पुराना दर्द शुरू हो गया था, अब बिल्कुल ठीक है।" अपने कथन की 
					पुष्टि के लिए ह्यूबर्ट छाती सीधी करके तेज कदम बढ़ाने लगा। 
					“डाक्टर मुकर्जी को दिखलाया था?" “वह सुबह आये थे। उनकी बात 
					कुछ समझ में नहीं आती। हमेशा दो बातें एक-दूसरे से उल्टी कहते 
					हैं। कहते थे कि इस बार मुझे छह-सात महीने की छुट्टी लेकर आराम 
					करना चाहिए, लेकिन अगर मैं ठीक हूँ, तो भला इसकी क्या जरूरत 
					है?"
 
 ह्यूबर्ट के स्वर में व्यथा की छाया लतिका से छिपी न रह सकी। 
					बात को टालते हुए उसने कहा - “आप तो नाहक चिन्ता करते हैं, मि. 
					ह्यूबर्ट! आजकल मौसम बदल रहा है, अच्छे भले आदमी तक बीमार हो 
					जाते हैं।" ह्यूबर्ट का चेहरा प्रसन्नता से दमकने लगा। उसने 
					लतिका को ध्यान से देखा। वह अपने दिल का संशय मिटाने के लिए 
					निश्चिन्त हो जाना चाहता था कि कहीं लतिका उसे केवल दिलासा 
					देने के लिए ही तो झूठ नहीं बोल रही। “यही तो मैं सोच रहा था, 
					मिस लतिका! डाक्टर की सलाह सुनकर मैं डर ही गया। भला छह महीने 
					की छुट्टी लेकर मैं अकेला क्या करूँगा। स्कूल में तो बच्चों के 
					संग मन लगा रहता है। सच पूछो तो दिल्ली में ये दो महीनों की 
					छुट्टियाँ काटना भी दूभर हो जाता है।"
 
 “मि. ह्यूबर्ट....कल आप दिल्ली जा रहे हैं?" लतिका चलते-चलते 
					हठात् ठिठक गयी। सामने पोलो-ग्राउण्ड फैला था, जिसके दूसरी ओर 
					मिलिटरी की ट्रकें कण्टोनमेण्ट की ओर जा रही थीं। ह्यूबर्ट को 
					लगा, जैसे लतिका की आँखें अधमुँदी-सी खुली रह गयी हैं, मानों 
					पलकों पर एक पुराना भूला-सा सपना सरक आया है।
 
 “मि.ह्यूबर्ट...आप दिल्ली जा रहे हैं," इस बार लतिका ने प्रश्न 
					नहीं दुहराया उसके स्वर में केवल एक असीम दूरी का भाव घिर आया। 
					“बहुत अर्सा पहले मैं भी दिल्ली गयी थी, मि. ह्यूबर्ट! तब मैं 
					बहुत छोटी थी, न जाने कितने बरस बीत गये। हमारी मौसी का ब्याह 
					वहीं हुआ था। बहुत-सी चीजें देखी थीं, लेकिन अब तो सब कुछ 
					धुँधला-सा पड़ गया है। इतना याद है कि हम कुतुब पर चढ़े थे। 
					सबसे ऊँची मंजिल से हमने नीचे झाँका था, न जाने कैसा लगा था। 
					नीचे चलते हुए आदमी चाभी भरे हुए खिलौनों-से लगते थे। हमने ऊपर 
					से उन पर मूँगफलियाँ फेंकी थीं, लेकिन हम बहुत निराश हुए थे 
					क्योंकि उनमें से किसी ने हमारी तरफ नहीं देखा। शायद माँ ने 
					मुझे डाँटा था, और मैं सिर्फ नीचे झाँकते हुए डर गयी थी। सुना 
					है, अब तो दिल्ली इतना बदल गया है कि पहचाना नहीं जाता"
 
 वे दोनों फिर चलने लगे। हवा का वेग ढीला पड़ने लगा। उड़ते हुए 
					बादल अब सुस्ताने से लगे थे, उनकी छायाएँ नन्दा देवी और 
					पंचचूली की पहाड़ियों पर गिर रही थीं। स्कूल के पास 
					पहुँचते-पहुँचते चीड़ के पेड़ पीछे छूट गये, कहीं-कहीं खुबानी 
					के पेड़ों के आस-पास बुरुस के लाल फूल धूप में चमक जाते थे। 
					स्कूल तक आने में उन्होंने पोलोग्राउण्ड का लम्बा चक्कर लगा 
					लिया था। “मिस लतिका, आप कहीं छुट्टियों में जाती क्यों नहीं, 
					सर्दियों में तो यहाँ सब कुछ वीरान हो जाता होगा?"
 
 “अब मुझे यहाँ अच्छा लगता है," लतिका ने कहा, “पहले साल 
					अकेलापन कुछ अखरा था, अब आदी हो चुकी हूँ। क्रिसमस से एक रात 
					पहले क्लब में डान्स होता है, लाटरी डाली जाती है और रात को 
					देर तक नाच-गाना होता रहता है। नये साल के दिन कुमाऊँ 
					रेजीमेण्ट की ओर से परेड-ग्राउण्ड में कार्नीवाल किया जाता है, 
					बर्फ पर स्केटिंग होती है, रंग-बिरंगे गुब्बारों के नीचे फौजी 
					बैण्ड बजता है, फौजी अफसर फैन्सी ड्रेस में भाग लेते हैं, हर 
					साल ऐसा ही होता है, मि. ह्यूबर्ट। फिर कुछ दिनों बाद विण्टर 
					स्पोट्र्स के लिए अंग्रेज टूरिस्ट आते हैं। हर साल मैं उनसे 
					परिचित होती हूँ, वापिस लौटते हुए वे हमेशा वादा करते हैं कि 
					अगले साल भी आयेंगे, पर मैं जानती हूँ कि वे नहीं आयेंगे, वे 
					भी जानते हैं कि वे नहीं आयेंगे, फिर भी हमारी दोस्ती में कोई 
					अंतर नहीं पड़ता। फिर...फिर कुछ दिनों बाद पहाड़ों पर बर्फ 
					पिघलने लगती है, छुट्टियाँ खत्म होने लगती हैं, आप सब लोग 
					अपने-अपने घरों से वापिस लौट आते हैं - और मि. ह्यूबर्ट पता भी 
					नहीं चलता कि छुट्टियाँ कब शुरू हुई थीं, कब खत्म हो गईं"
 
 लतिका ने देखा कि ह्यूबर्ट उसकी ओर आतंकित भयाकुल दृष्टि से 
					देख रहा है। वह सिटपिटाकर चुप हो गयी। उसे लगा, मानों वह इतनी 
					देर से पागल-सी अनर्गल प्रलाप कर रही हो। “मुझे माफ करना मि. 
					ह्यूबर्ट, कभी-कभी मैं बच्चों की तरह बातों में बहक जाती हूँ।" 
					“मिस लतिका..." ह्यूबर्ट ने धीरे-से कहा। वह चलते-चलते रुक गया 
					था। लतिका ह्यूबर्ट के भारी स्वर से चौंक-सी गयी। “क्या बात है 
					मि. ह्यूबर्ट?" “वह पत्र उसके लिए मैं लज्जित हूँ। उसे आप 
					वापिस लौटा दें, समझ लें कि मैंने उसे कभी नहीं लिखा था।"
 
 लतिका कुछ समझ न सकी, दिग्भ्रान्त-सी खड़ी हुई ह्यूबर्ट के 
					पीले उद्धिग्न चेहरे को देखती रही। ह्यूबर्ट ने धीरे-से लतिका 
					के कन्धे पर हाथ रख दिया। “कल डाक्टर ने मुझे सबकुछ बता दिया। 
					अगर मुझे पहले से मालूम होता तो...तो" ह्यूबर्ट हकलाने लगा। 
					“मि. ह्यूबर्ट..." किन्तु लतिका से आगे कुछ भी नहीं कहा गया। 
					उसका चेहरा सफेद हो गया था।
 
 दोनों चुपचाप कुछ देर तक स्कूल के गेट के बाहर खड़े रहे। 
					मीडोज...पगडण्डियों, पत्तों, छायाओं से घिरा छोटा-सा द्वीप, 
					मानों कोई घोंसला दो हरी घाटियों के बीच आ दबा हो। भीतर घूसते 
					ही पिकनिक के काले आग से झुलसे हुए पत्थर, अधजली टहनियाँ, 
					बैठने के लिए बिछाये गये पुराने अखबारों के टुकड़े इधर-उधर 
					बिखरे हुए दिखायी दे जाते हैं। अक्सर टूरिस्ट पिकनिक के लिए 
					यहाँ आते हैं। मीडोज को बीच में काटता हुआ टेढ़ा-मेढ़ा बरसाती 
					नाला बहता है, जो दूर से धूप में चमकता हुआ सफेद रिबन-सा 
					दिखायी देता है।
 
 यहीं पर काठ के तख्तों का बना हुआ टूटा-सा पुल है, जिस पर 
					लड़कियाँ हिचकोले खाते हुए चल रही हैं।
 
 “डाक्टर मुकर्जी, आप तो सारा जंगल जला देंगे"। मिस वुड ने अपनी 
					ऊँची एड़ी के सैण्डल से जलती हुई दियासलाई को दबा डाला, जो 
					डाक्टर ने सिगार सुलगाकर चीड़ के पत्तों के ढेर पर फेंक दी थी। 
					वे नाले से कुछ दूर हटकर चीड़ के दो पेड़ों से गुँथी हुई छाया 
					के नीचे बैठे थे। उनके सामने एक छोटा-सा रास्ता नीचे पहाड़ी 
					गाँव की ओर जाता था, जहाँ पहाड़ की गोद में शकरपारों के खेत 
					एक-दूसरे के नीचे बिछे हुए थे। दोपहर के सन्नाटे में 
					भेड़-बकरियों के गलों में बँधी हुई धण्टियों का स्वर हवा में 
					बहता हुआ सुनायी दे जाता था। घास पर लेटे-लेटे डाक्टर सिगार 
					पीते रहे। “जंगल की आग कभी देखी है, मिस वुड...एक अलमस्त नशे 
					की तरह धीरे-धीरे फैलती जाती है।"
 
 “आपने कभी देखी है डाक्टर?" मिस वुड ने पूछा, “मुझे तो बड़ा डर 
					लगता है।"
 
 “बहुत साल पहले शहरों को जलते हुए देखा था।" डाक्टर लेटे हुए 
					आकाश की ओर ताक रहे थे। “एक-एक मकान" ताश के पत्तों की तरह 
					गिरता जाता। दुर्भाग्यवश ऐसे अवसर देखने में बहुत कम आते हैं।
 
 “आपने कहाँ देखा, डाक्टर?"
 
 “लड़ाई के दिनों में अपने शहर रंगून को जलते हुए देखा था।" मिस 
					वुड की आत्मा को ठेस लगी, किन्तु फिर भी उनकी उत्सुकता शान्त 
					नहीं हुई।
 
 “आपका घर, क्या वह भी जल गया था?"
 
 डाक्टर कुछ देर तक चुपचाप लेटा रहा।
 
 “हम उसे खाली छोड़कर चले आये थे, मालूम नहीं बाद में क्या 
					हुआ।" अपने व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में कुछ भी कहने में 
					डाक्टर को कठिनाई महसूस होती है।
 
 “डाक्टर, क्या आप कभी वापिस बर्मा जाने की बात नहीं सोचते?" 
					डाक्टर ने अँगड़ाई ली और करवट बदलकर औंधे मुँह लेट गये। उनकी 
					आँखें मुँद गईं और माथे पर बालों की लटें झूल आयीं।
 
 “सोचने से क्या होता है मिस वुड... जब बर्मा में था, तब क्या 
					कभी सोचा था कि यहाँ आकर उम्र काटनी होगी?"
 
 “लेकिन डाक्टर, कुछ भी कह लो, अपने देश का सुख कहीं और नहीं 
					मिलता। यहाँ तुम चाहे कितने वर्ष रह लो, अपने को हमेशा अजनबी 
					ही पाओगे।"
 
 डाक्टर ने सिगार के धुएँ को धीरे-धीरे हवा में छोड़ दिया- 
					“दरअसल अजनबी तो मैं वहाँ भी समझा जाऊँगा, मिस वुड। इतने 
					वर्षों बाद मुझे कौन पहचानेगा! इस उम्र में नये सिरे से रिश्ते 
					जोड़ना काफी सिरदर्द का काम है, कम-से-कम मेरे बस की बात नहीं 
					है।"
 
 “लेकिन डाक्टर, आप कब तक इस पहाड़ी कस्बे में पड़े रहेंगे, इसी 
					देश में रहना है तो किसी बड़े शहर में प्रैक्टिस शुरू कीजिए।"
 
 “प्रैक्टिस बढ़ाने के लिए कहाँ-कहाँ भटकता फिरूँगा, मिस वुड। 
					जहाँ रहो, वहीं मरीज मिल जाते हैं। यहाँ आया था कुछ दिनों के 
					लिए, फिर मुद्दत हो गयी और टिका रहा। जब कभी जी ऊबेगा, कहीं 
					चला जाऊँगा। जड़ें कहीं नहीं जमतीं, तो पीछे भी कुछ नहीं छूट 
					जाता। मुझे अपने बारे में कोई गलतफहमी नहीं है मिस वुड, मैं 
					सुखी हूँ।"
 
 मिस वुड ने डाक्टर की बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया। दिल में 
					वह हमेशा डाक्टर को उच्छृंखल, लापरवाह और सनकी समझती रही है, 
					किन्तु डाक्टर के चरित्र में उनका विश्वास है, न जाने क्यों, 
					क्योंकि डाक्टर ने जाने-अनजाने में उसका कोई प्रमाण दिया हो, 
					यह उन्हें याद नहीं पड़ता।
 
 मिस वुड ने एक ठण्डी साँस भरी। वह हमेशा यह सोचती थी कि यदि 
					डाक्टर इतना आलसी और लापरवाह न होता, तो अपनी योग्यता के बल पर 
					काफी चमक सकता था। इसलिए उन्हें डाक्टर पर क्रोध भी आता था और 
					दुख भी होता था।
 
 मिस वुड ने अपने बैग से ऊन का गोला और सलाइयाँ निकालीं, फिर 
					उसके नीचे से अखबार में लिपटा हुआ चौड़ा कॉफी का डिब्बा उठाया, 
					जिसमें अण्डों की सैण्डविचें और हैम्बर्गर दबे हुए थे। थर्मस 
					से प्यालों में कॉफी उंडेलते हुए मिस वुड ने कहा - “डाक्टर, 
					कॉफी ठण्डी हो रही है"
 
 डाक्टर लेटे-लेटे बुड़बुड़ाया। मिस वुड ने नीचे झुककर देखा, वह 
					कोहनी पर सिर टिकाये सो रहा था। ऊपर का होंठ जरा-सा फैलकर मुड़ 
					गया था, मानों किसी से मजाक करने से पहले मुस्करा रहा हो।
 
 उसकी अँगुलियों में दबा हुआ सिगार नीचे झुका हुआ लटक रहा था। 
					“मेरी, मेरी, वाट डू यू वाण्ट, वाट डू यू वाण्ट?" दूसरे 
					स्टैण्डर्ड में पढ़नेवाली मेरी ने अपनी चंचल, चपल आँखें ऊपर 
					उठायीं, लड़कियों का दायरा उसे घेरे हुए कभी पास आता था, कभी 
					दूर खिंचता चला जाता था।
 
 “आई वाण्ट... आई वाण्ट ब्लू" दोनों हाथों को हवा में घुमाते 
					हुए मेरी चिल्लायी। दायरा पानी की तरह टूट गया। सब लड़कियाँ 
					एक-दूसरे पर गिरती-पड़ती किसी नीली वस्तु को छूने के लिए 
					भाग-दौड़ करने लगीं। लंच समाप्त हो चुका था। लड़कियों के 
					छोटे-छोटे दल मीडोज में बिखर गये थे। ऊँची क्लास की कुछ 
					लड़कियाँ चाय का पानी गर्म करने के लिए पेड़ों पर चढ़कर सूखी 
					टहनियाँ तोड़ रही थीं।
 
 दोपहर की उस घड़ी में मीडोज अलसाया-ऊँघता-सा जान पड़ता था। हवा 
					का कोई भूला-भटका झोंका, चीड़ के पत्ते खड़खड़ा उठते थे। कभी 
					कोई पक्षी अपनी सुस्ती मिटाने झाड़ियों से उड़कर नाले के 
					किनारे बैठ जाता था, पानी में सिर डुबोता था, फिर ऊबकर हवा में 
					दो-चार निरुद्देश्य चक्कर काटकर दुबारा झाड़ियों में दुबक जाता 
					था।
 
 किन्तु जंगल की खामोशी शायद कभी चुप नहीं रहती। गहरी नींद में 
					डूबी सपनों-सी कुछ आवाजें नीरवता के हल्के झीने परदे पर सलवटें 
					बिछा जाती हैं, मूक लहरों-सी हवा में तिरती हैं, मानों कोई दबे 
					पाँव झाँककर अदृश्य संकेत कर जाता है- “देखो मैं यहाँ हूँ" 
					लतिका ने जूली के ‘बाब हेयर’ को सहलाते हुए कहा, “तुम्हें कल 
					रात बुलाया था।"
 
 “मैडम, मैं गयी थी, आप अपने कमरे में नहीं थीं।" लतिका को याद 
					आया कि रात वह डाक्टर के कमरे के टैरेस पर देर तक बैठी रही थी 
					और भीतर ह्यूबर्ट पियानो पर शोपाँ का नौक्टर्न बजा रहा था। 
					“जूली, तुमसे कुछ पूछना था।" उसे लगा, वह जूली की आँखों से 
					अपने को बचा रही है। जूली ने अपना चेहरा ऊपर उठाया। उसकी भूरी 
					आँखों से कौतूहल झाँक रहा था।
 
 “तुम आफिसर्स मेस में किसी को जानती हो?" जूली ने अनिश्चित भाव 
					से सिर हिलाया। लतिका कुछ देर तक जूली को अपलक घूरती रही।
 
 “जूली, मुझे विश्वास है, तुम झूठ नहीं बोलोगी।" कुछ क्षण पहले 
					जूली की आँखों में जो कौतूहल था, वह भय से परिणत होने लगा। 
					लतिका ने अपनी जैकेट की जेब से एक नीला लिफाफा निकालकर जूली की 
					गोद में फेंक दिया। “यह किसकी चिट्ठी है?"
 
 जूली ने लिफाफा उठाने के लिए हाथ बढ़ाया, किन्तु फिर एक क्षण 
					के लिए उसका हाथ काँपकर ठिठक गया-लिफाफे पर उसका नाम और होस्टल 
					का पता लिखा हुआ था।
 
 “थैंक यू मैडम, मेरे भाई का पत्र है, वह झाँसी में रहते हैं।" 
					जूली ने घबराहट में लिफाफे को अपने स्कर्ट की तहों में छिपा 
					लिया। “जूली, ज़रा मुझे लिफाफा दिखलाओ।" लतिका का स्वर तीखा, 
					कर्कश-सा हो आया।
 
 जूली ने अनमने भाव से लतिका को पत्र दे दिया। “तुम्हारे भाई 
					झाँसी में रहते हैं?" जूली इस बार कुछ नहीं बोली। उसकी 
					उद्भ्रान्त उखड़ी-सी आँखें लतिका को देखती रहीं। “यह क्या है?"
 
 जूली का चेहरा सफेद, फक पड़ गया। लिफाफे पर कुमाऊँ रेजीमेण्टल 
					सेण्टर की मुहर उसकी ओर घूर रही थी। “कौन है यह?" लतिका ने 
					पूछा। उसने पहले भी होस्टल में उड़ती हुई अफवाह सुनी थी कि 
					जूली को क्लब में किसी मिलिटरी अफसर के संग देखा गया था, 
					किन्तु ऐसी अफवाहें अक्सर उड़ती रहती थीं, और उसने उन पर 
					विश्वास नहीं किया था। “जूली, तुम अभी बहुत छोटी हो" जूली के 
					होंठ काँपे-उसकी आँखों में निरीह याचना का भाव घिर आया।
 
 “अच्छा अभी जाओ, तुमसे छुट्टियों के बाद बातें करूँगी।" जूली 
					ने ललचाई दृष्टि से लिफाफे को देखा, कुछ बोलने को उद्यत हुई, 
					फिर बिना कुछ कहे चुपचाप वापिस लौट गयी।
 
 लतिका देर तक जूली को देखती रही, जब तक वह आँखों से ओझल नहीं 
					हो गयी। क्या मैं किसी खूँसट बुढ़िया से कम हूँ? अपने अभाव का 
					बदला क्या मैं दूसरों से ले रही हूँ?
 
 शायद, कौन जाने... शायद जूली का यह प्रथम परिचय हो, उस अनुभूति 
					से, जिसे कोई भी लड़की बड़े चाव से सँजोकर, सँभालकर अपने में 
					छिपाये रहती है, एक अनिर्वचनीय सुख, जो पीड़ा लिये है, पीड़ा 
					और सुख को डुबोती हुई उमड़ते ज्वर की खुमारी, जो दोनों को अपने 
					में समो लेती है एक दर्द, जो आनन्द से उपजा है और पीड़ा देता 
					है।
 
 यहीं इसी देवदार के नीचे उसे भी यही लगा था, जब गिरीश ने पूछा 
					था-“तुम चुप क्यों हो?" वह आँखें मूँदे सोच रही थी, सोच कहाँ 
					रही थी, जी रही थी, उस क्षण को जो भय और विस्मय के बीच भिंचा 
					था-बहका-सा पागल क्षण। वह अभी पीछे मुड़ेगी तो गिरीश की 
					‘नर्वस’ मुस्कराहट दिखायी दे जायेगी, उस दिन से आज दोपहर तक का 
					अतीत एक दुःस्वप्न की मानिन्द टूट जाएगा। वही देवदार है, जिस 
					पर उसने अपने बालों के क्लिप से गिरीश का नाम लिखा था। पेड़ की 
					छाल उतरती नहीं थी, क्लिप टूट-टूट जाता था, तब गिरीश ने अपने 
					नाम के नीचे उसका नाम लिखा था। जब कभी कोई अक्षर बिगड़कर 
					ढेढ़ा-मेढ़ा हो जाता था तब वह हँसती थी, और गिरीश का काँपता 
					हाथ और भी काँप जाता था।
 
 लतिका को लगा कि जो वह याद करती है, वही भूलना भी चाहती है, 
					लेकिन जब सचमुच भूलने लगती है, तब उसे भय लगता है कि जैसे कोई 
					उसकी किसी चीज को उसके हाथों से छीने लिये जा रहा है, ऐसा कुछ 
					जो सदा के लिए खो जायेगा। बचपन में जब कभी वह अपने किसी खिलौने 
					को खो देती थी, तो वह गुमसुम-सी होकर सोचा करती थी, कहाँ रख 
					दिया मैंने। जब बहुत दौड़-धूप करने पर खि़लौना मिल जाता, तो वह 
					बहाना करती कि अभी उसे खोज ही रही है, कि वह अभी मिला नहीं है। 
					जिस स्थान पर खिलौना रखा होता, जान-बूझकर उसे छोड़कर घर के 
					दूसरे कोने में उसे खोजने का उपक्रम करती। तब खोई हुई चीज याद 
					रहती, इसलिए भूलने का भय नहीं रहता था।
 
 आज वह उस बचपन के खेल का बहाना क्यों नहीं कर पाती? 
					‘बहाना’शायद करती है, उसे याद करने का बहाना, जो भूलता जा रहा 
					है...दिन, महीने बीत जाते हैं, और वह उलझी रहती है, अनजाने में 
					गिरीश का चेहरा धुँधला पड़ता जाता है, याद वह करती है, किन्तु 
					जैसे किसी पुरानी तस्वीर के धूल भरे शीशे को साफ कर रही हो। अब 
					वैसा दर्द नहीं होता, सिर्फ उसको याद करती है, जो पहले कभी 
					होता था, तब उसे अपने पर ग्लानि होती है। वह फिर जान-बूझकर उस 
					घाव को कुरेदती है, जो भरता जा रहा है, खुद-ब-खुद उसकी कोशिशों 
					के बावजूद भरता जा रहा है। देवदार पर खुदे हुए अधमिटे नाम 
					लतिका की ओर निस्तब्ध निरीह भाव से निहार रहे थे। मीडोज के घने 
					सन्नाटे में नाले पार से खेलती हुई लड़कियों की आवाजें गूँज 
					जाती थीं...वाट डू यू वाण्ट? वाट डू यू वाण्ट?
 
 तितलियाँ, झींगुर, जुगनू...मीडोज पर उतरती हुई साँझ की छायाओं 
					में पता नहीं चलता, कौन आवाज किसकी है? दोपहर के समय जिन 
					आवाजों को अलग-अलग पहचाना जा सकता था, अब वे एकस्वरता की अविरल 
					धारा में घुल गयी थीं। घास से अपने पैरों को पोंछता हुआ कोई 
					रेंग रहा है झाड़ियों के झुरमुट से परों को फड़फड़ाता हुआ 
					झपटकर कोई ऊपर से उड़ जाता है किन्तु ऊपर देखो तो कहीं कुछ भी 
					नहीं है। मीडोज के झरने का गड़गड़ाता स्वर, जैसे अँधेरी सुरंग 
					में झपाटे से ट्रेन गुजर गयी हो, और देर तक उसमें सीटियों और 
					पहियों की चीत्कार गूँजती रही हो।
 
 पिकनिक कुछ देर तक और चलती, किन्तु बादलों की तहें एक-दूसरे पर 
					चढ़ती जा रही थीं। पिकनिक का सामान बटोरा जाने लगा। मीडोज के 
					चारों ओर बिखरी हुई लड़कियाँ मिस वुड के इर्द-गिर्द जमा होने 
					लगीं। अपने संग वे अजीबोगरीब चीजें बटोर लायी थीं। कोई किसी 
					पक्षी के टूटे पंख को बालों में लगाये हुए थी, किसी ने पेड़ की 
					टहनी को चाकू से छीलकर छोटी-सी बेंत बना ली थी। ऊँची क्लास की 
					कुछ लड़कियों ने अपने-अपने रूमालों में नाले से पकड़ी हुई 
					छोटी-छोटी बालिश्त भर की मछलियों को दबा रखा था जिन्हें मिस 
					वुड से छिपकर वे एक-दूसरे को दिखा रही थीं।
 
 मिस वुड लड़कियों की टोली के संग आगे निकल गयीं। मीडोज से 
					पक्की सड़क तक तीन-चार फर्लांग की चढ़ाई थी। लतिका हाँफने लगी। 
					डाक्टर मुकर्जी सबसे पीछे आ रहे थे। लतिका के पास पहुँचकर वह 
					ठिठक गये। डाक्टर ने दोनों घुटनों को जमीन पर टेकते हुए सिर 
					झुकाकर एलिजाबेथयुगीन अंगे्रजी में कहा - “मैडम, आप इतनी 
					परेशान क्यों नजर आ रही हैं?" और डाक्टर की नाटकीय मुद्रा को 
					देखकर लतिका के होंठों पर एक थकी-सी ढीली-ढीली मुस्कराहट बिखर 
					गयी। “प्यास के मारे गला सूख रहा है और यह चढ़ाई है कि खत्म 
					होने में नहीं आती।"
 
 डाक्टर ने अपने कन्धे पर लटकते हुए थर्मस को उतारकर लतिका के 
					हाथों में देते हुए कहा - “थोड़ी-सी कॉफ़ी बची है, शायद कुछ 
					मदद कर सके।" “पिकनिक में तुम कहाँ रह गये डाक्टर, कहीं दिखायी 
					नहीं दिये?" “दोपहर भर सोता रहा-मिस वुड के संग। मेरा मतलब है, 
					मिस वुड पास बैठी थीं।" “मुझे लगता है, मिस वुड मुझसे मुहब्बत 
					करती हैं।" कोई भी मजाक करते समय डाक्टर अपनी मूँछों के कोनों 
					को चबाने लगता है। “क्या कहती थीं?" लतिका ने थर्मस से कॉफी को 
					मुँह में उँडेल लिया। “शायद कुछ कहतीं, लेकिन बदकिस्मती से बीच 
					में ही मुझे नींद आ गयी। मेरी जिन्दगी के कुछ खूबसूरत 
					प्रेम-प्रसंग कम्बख्त इस नींद के कारण अधूरे रह गये हैं।"
 
 और इस दौरान में जब दोनों बातें कर रहे थे, उनके पीछे मीडोज और 
					मोटर रोड के संग चढ़ती हुई चीड़ और बाँज के वृक्षों की कतारें 
					साँझ के घिरते अँधेरे में डूबने लगीं, मानों प्रार्थना करते 
					हुए उन्होंने चुपचाप अपने सिर नीचे झुका लिये हों। इन्हीं 
					पेड़ों के ऊपर बादलों में गिरजे का क्रास कहीं उलझा पड़ा था। 
					उसके नीचे पहाड़ों की ढलान पर बिछे हुए खेत भागती हुई 
					गिलहरियों से लग रहे थे, जो मानों किसी की टोह में स्तब्ध ठिठक 
					गयी हों। “डाक्टर, मि. ह्यूबर्ट पिकनिक पर नहीं आये?" डाक्टर 
					मुकर्जी टार्च जलाकर लतिका के आगे-आगे चल रहे थे। “मैंने 
					उन्हें मना कर दिया था।" “किसलिए?"
 
 अँधेरे में पैरों के नीचे दबे हुए पत्तों की चरमराहट के 
					अतिरिक्त कुछ सुनायी नहीं देता था। डॉक्टर मुकर्जी ने धीरे-से 
					खाँसा। “पिछले कुछ दिनों से मुझे संदेह होता जा रहा है कि 
					ह्यूबर्ट की छाती का दर्द शायद मामूली दर्द नहीं है।" डाक्टर 
					थोड़ा-सा हँसा, जैसे उसे अपनी यह गम्भीरता अरुचिकर लग रही हो।
 
 डाक्टर ने प्रतीक्षा की, शायद लतिका कुछ कहेगी। किन्तु लतिका 
					चुपचाप उसके पीछे चल रही थी। “यह मेरा महज शक है, शायद मैं 
					बिल्कुल गलत होऊँ, किन्तु यह बेहतर होगा कि वह अपने एक फेफड़े 
					का एक्सरे करा लें, इससे कम-से-कम कोई भ्रम तो नहीं रहेगा।" 
					“आपने मि. ह्यूबर्ट से इसके बारे में कुछ कहा है?" “अभी तक कुछ 
					नहीं कहा। ह्यूबर्ट जरा-सी बात पर चिन्तित हो उठता है, इसलिए 
					कभी साहस नहीं हो पाता" डॉक्टर को लगा, उसके पीछे आते हुए 
					लतिका के पैरों का स्वर सहसा बन्द हो गया है। उन्होंने पीछे 
					मुड़कर देखा, लतिका बीच सड़क पर अँधेरे में छाया-सी चुपचाप 
					निश्चल खड़ी है। “डाक्टर..." लतिका का स्वर भर्राया हुआ था। 
					“क्या बात है मिस लतिका, आप रुक क्यों गयी?" “डाक्टर-क्या मि. 
					ह्यूबर्ट...?
 
 डाक्टर ने अपनी टार्च की मद्धिम रोशनी लतिका पर उठा दी...उसने 
					देखा लतिका का चेहरा एकदम पीला पड़ गया है और वह रह-रहकर 
					पत्ते-सी काँप जाती है। “मिस लतिका, क्या बात है, आप तो बहुत 
					डरी-सी जान पड़ती हैं?" “कुछ नहीं डाक्टर, मुझे...मुझे कुछ याद 
					आ गया था" वे दोनों फिर चलने लगे। कुछ दूर जाने पर उनकी आँखें 
					ऊपर उठ गयीं। पक्षियों का एक बेड़ा धूमिल आकाश में त्रिकोण 
					बनाता हुआ पहाड़ों के पीछे से उनकी ओर आ रहा था। लतिका और 
					डाक्टर सिर उठाकर इन पक्षियों को देखते रहे। लतिका को याद आया, 
					हर साल सर्दी की छुट्टियों से पहले ये परिन्दे मैदानों की ओर 
					उड़ते हैं, कुछ दिनों के लिए बीच के इस पहाड़ी स्टेशन पर बसेरा 
					करते हैं, प्रतीक्षा करते हैं बर्फ के दिनों की, जब वे नीचे 
					अजनबी, अनजाने देशों में उड़ जायेंगे।
 
 क्या वे सब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं? वह, डाक्टर मुकर्जी, मि. 
					ह्यूबर्ट, लेकिन कहाँ के लिए, हम कहाँ जायेंगे?
 
 किन्तु उसका कोई उत्तर नहीं मिला-उस अँधेरे में मीडोज के झरने 
					के भुतैले स्वर और चीड़ के पत्तों की सरसराहट के अतिरिक्त कुछ 
					सुनायी नहीं देता था। लतिका हड़बड़ाकर चौंक गयी। अपनी छड़ी पर 
					झुका हुआ डाक्टर धीरे-धीरे सीटी बजा रहा था।
 
 “मिस लतिका, जल्दी कीजिए, बारिश शुरू होनेवाली है।" होस्टल 
					पहुँचते-पहुँचते बिजली चमकने लगी थी। किन्तु उस रात बारिश देर 
					तक नहीं हुई। बादल बरसने भी नहीं पाते थे कि हवा के थपेड़ों से 
					धकेल दिये जाते थे। दूसरे दिन तड़के ही बस पकड़नी थी, इसलिए 
					डिनर के बाद लड़कियाँ सोने के लिए अपने-अपने कमरों में चली गयी 
					थीं।
 
 जब लतिका अपने कमरे में गयी, तो उस समय कुमाऊँ रेजीमेण्ट 
					सेण्टर का बिगुल बज रहा था। उसके कमरे में करीमुद्दीन कोई 
					पहाड़ी धुन गुनगुनाता हुआ लैम्प में गैस पम्प कर रहा था। लतिका 
					उन्हीं कपड़ों में, तकिये को दुहरा करके लेट गयी। करीमुद्दीन 
					ने उड़ती हुई निगाह से लतिका को देखा, फिर अपने काम में जुट 
					गया। “पिकनिक कैसी रही मेम साहब?" “तुम क्यों नहीं आये, सब 
					लड़कियाँ तुम्हें पूछ रही थीं?" लतिका को लगा, दिन-भर की थकान 
					धीरे-धीरे उसके शरीर की पसलियों पर चिपटती जा रही है। अनायास 
					उसकी आँखें नींद के बोझ से झपकने लगीं। “मैं चला आता तो 
					ह्यूबर्ट साहब की तीमारदारी कौन करता। दिनभर उनके बिस्तर से 
					सटा हुआ बैठा रहा और अब वह गायब हो गये हैं।" करीमुद्दीन ने 
					कन्धे पर लटकते हुए मैचे-कुचैले तौलिये को उतारा और लैम्प के 
					शीशों की गर्द पोंछने लगा।
 
 लतिका की अधमुँदी आँखें खुल गयी। “क्या ह्यूबर्ट साहब अपने 
					कमरे में नहीं हैं?" “खुदा जाने, इस हालत में कहाँ भटक रहे 
					हैं। पानी गर्म करने कुछ देर के लिए बाहर गया था, वापिस आने पर 
					देखता हूँ कि कमरा खाली पड़ा है।" करीमुद्दीन बड़बड़ाता हुआ 
					बाहर चला गया। लतिका ने लेटे-लेटे पलँग के नीचे चप्पलों को 
					पैरों से उतार दिया।
 
 ह्यूबर्ट इतनी रात कहाँ गये? किन्तु लतिका की आँखें फिर झपक 
					गयीं। दिन-भर की थकान ने सब परेशानियों, प्रश्नों पर कुंजी लगा 
					दी थी, मानों दिन-भर आँख-मिचौनी खेलते हुए उसने अपने कमरे में 
					‘दय्या’ को छू लिया था। अब वह सुरक्षित थी, कमरे की चहारदीवारी 
					के भीतर उसे कोई नहीं पकड़ सकता। दिन के उजाले में वह गवाह थी, 
					मुजरिम थी, हर चीज का उससे तकाजा था, अब इस अकेलेपन में कोई 
					गिला नहीं, उलाहना नहीं, सब खींचातानी खत्म हो गयी है, जो अपना 
					है, वह बिल्कुल अपना-सा हो गया है, जो अपना नहीं है, उसका दुख 
					नहीं, अपनाने की फुरसत नहीं...
 
 लतिका ने दीवार की ओर मुँह घुमा लिया। लैम्प के फीके आलोक में 
					हवा में काँपते परदों की छायाएँ हिल रही थीं। बिजली कड़कने से 
					खिड़कियों के शीशे-चमक-चमक जाते थे, दरवाजे चटखने लगते थे, 
					जैसे कोई बाहर से धीमे-धीमे खटखटा रहा हो। कॉरीडोर से 
					अपने-अपने कमरों में जाती हुई लड़कियों की हँसी, बातों के कुछ 
					शब्द, फिर सबकुछ शान्त हो गया, किन्तु फिर भी देर तक कच्ची 
					नींद में वह लैम्प का धीमा-सा ‘सी-सी’ स्वर सुनती रही। कब वह 
					स्वर भी मौन का भाग बनकर मूक हो गया, उसे पता न चला। कुछ देर 
					बाद उसको लगा, सीढ़ियों से कुछ दबी आवाजें ऊपर आ रही हैं, 
					बीच-बीच में कोई चिल्ला उठता है, और फिर सहसा आवाजें धीमी पड़ 
					जाती हैं। “मिस लतिका, जरा अपना लैम्प ले आइये" - कॉरिडोर के 
					जीने से डाक्टर मुकर्जी की आवाज आयी थी।
 
 कॉरीडोर में अँधेरा था। वह तीन-चार सीढ़ियाँ नीचे उतरी, लैम्प 
					नीचे किया। सीढ़ियों से सटे जंगले पर ह्यूबर्ट ने अपना सिर रख 
					दिया था, उसकी एक बाँह जंगले के नीचे लटक रही थी और दूसरी 
					डाक्टर के कन्धे पर झूल रही थी, जिसे डाक्टर ने अपने हाथों में 
					जकड़ रखा था। “मिस लतिका, लैम्प ज़रा और नीचे झुका 
					दीजिए....ह्यूबर्ट...ह्यूबर्ट..." डाक्टर ने ह्यूबर्ट को सहारा 
					देकर ऊपर खींचा। ह्यूबर्ट ने अपना चेहरा ऊपर किया। व्हिस्की की 
					तेज बू का झोंका लतिका के सारे शरीर को झिंझोड़ गया। ह्यूबर्ट 
					की आँखों में सुर्ख डोरे खिंच आये थे, कमीज का कालर उलटा हो 
					गया था और टाई की गाँठ ढीली होकर नीचे खिसक आयी थी। लतिका ने 
					काँपते हाथों से लैम्प सीढ़ियों पर रख दिया और आप दीवार के 
					सहारे खड़ी हो गयी। उसका सिर चकराने लगा था।
 
 “इन ए बैक लेन ऑफ द सिटी, देयर इज ए गर्ल हू लव्ज मी..." 
					ह्यूबर्ट हिचकियों के बीच गुनगुना उठता था।
 
 “ह्यूबर्ट प्लीज...प्लीज," डाक्टर ने ह्यूबर्ट के लड़खड़ाते 
					शरीर को अपनी मजबूत गिरफ्त में ले लिया।
 
 “मिस लतिका, आप लैम्प लेकर आगे चलिए" लतिका ने लैम्प उठाया। 
					दीवार पर उन तीनों की छायाएँ डगमगाने लगीं।
 
 “इन ए बैक लेन ऑफ द सिटी, देयर इज ए गर्ल हू लव्ज मी" ह्यूबर्ट 
					डाक्टर मुकर्जी के कन्धे पर सिर टिकाये अँधेरी सीढ़ियों पर 
					उल्टे-सीधे पैर रखता चढ़ रहा था।
 
 “डाक्टर, हम कहाँ हैं?" ह्यूबर्ट सहसा इतनी जोर से चिल्लाया कि 
					उसकी लड़खड़ाती आवाज सुनसान अँधेरे में कॉरीडोर की छत से 
					टकराकर देर तक हवा में गूँजती रही।
 
 “ह्यूबर्ट..." डाक्टर को एकदम ह्यूबर्ट पर गुस्सा आ गया, फिर 
					अपने गुस्से पर ही उसे खीझ-सी हो आयी और वह ह्यूबर्ट की पीठ 
					थपथपाने लगा। “कुछ बात नहीं है ह्यूबर्ट डियर, तुम सिर्फ थक 
					गये हो।“ ह्यूबर्ट ने अपनी आँखें डाक्टर पर गड़ा दीं, उनमें एक 
					भयभीत बच्चे की-सी कातरता झलक रही थी, मानो डाक्टर के चेहरे से 
					वह किसी प्रश्न का उत्तर पा लेना चाहता हो। ह्यूबर्ट के कमरे 
					में पहुँचकर डाक्टर ने उसे बिस्तरे पर लिटा दिया। ह्यूबर्ट ने 
					बिना किसी विरोध के चुपचाप जूते-मोजे उतरवा दिये। जब डाक्टर 
					ह्यूबर्ट की टाई उतारने लगा, तो ह्यूबर्ट, अपनी कुहनी के सहारे 
					उठा, कुछ देर तक डाक्टर को आँखें फाड़ते हुए घूरता रहा, फिर 
					धीरे-से उसका हाथ पकड़ लिया। “डाक्टर, क्या मैं मर जाऊँगा?" 
					“कैसी बात करते हो ह्यूबर्ट!" डाक्टर ने हाथ छुड़ाकर धीरे-से 
					ह्यूबर्ट का सिर तकिये पर टिका दिया। “गुड नाइट ह्यूबर्ट" “गुड 
					नाइट डाक्टर," ह्यूबर्ट ने करवट बदल ली। “गुड नाइट मि. 
					ह्यूबर्ट..." लतिका का स्वर सिहर गया। किन्तु ह्यूबर्ट ने कोई 
					उत्तर नहीं दिया। करवट बदलते ही उसे नींद आ गयी थी।
 
 कॉरीडोर में वापिस आकर डाक्टर मुकर्जी रेलिंग के सामने खड़े हो 
					गये। हवा के तेज झोंकों से आकाश में फैले बादलों की परतें जब 
					कभी इकहरी हो जातीं, तब उनके पीछे से चाँदनी बुझती हुई आग के 
					धुएँ-सी आस-पास की पहाड़ियों पर फैल जाती थी। “आपको मि. 
					ह्यूबर्ट कहाँ मिले?" लतिका कॉरीडोर के दूसरे कोने में रेलिंग 
					पर झुकी हुई थी। “क्लब के बार में उन्हें देखा था, मैं न 
					पहुँचता तो न जाने कब तक बैठे रहते। डाक्टर मुकर्जी ने सिगरेट 
					जलायी। उन्हें अभी एक-दो मरीजों के घर जाना था। कुछ देर तक 
					उन्हें टाल देने के इरादे से वह कॉरीडोर में खड़े रहे।" नीचे 
					अपने क्वार्टर में बैठा हुआ करीमुद्दीन माउथ आर्गन पर कोई 
					पुरानी फिल्मी धुन बजा रहा था।
 
 “आज दिन भर बादल छाये रहे, लेकिन खुलकर बारिश नहीं हुई" 
					“क्रिसमस तक शायद मौसम ऐसा ही रहेगा।" कुछ देर तक दोनों चुपचाप 
					ख़डे रहे। कॉन्वेन्ट स्कूल के बाहर फैले लॉन से झींगुरों का 
					अनवरत स्वर चारों ओर फैली निस्तब्धता को और भी अधिक घना बना 
					रहा था। कभी-कभी ऊप़र मोटर रोड पर किसी कुत्ते की रिरियाहट 
					सुनायी पड़ा जाती थी। “डाक्टर... कल रात आपने मि. ह्यूबर्ट से 
					कुछ कहा था मेरे बारे में?" “वही जो सब लोग जानते हैं और 
					ह्यूबर्ट, जिसे जानना चाहिए था, नहीं जानता था।" डाक्टर ने 
					लतिका की ओर देखा, वह जड़वत अविचलित रेलिंग पर झुकी हुई थी। 
					“वैसे हम सबकी अपनी-अपनी जिद होती है, कोई छोड़ देता है, कोई 
					आखिर तक उससे चिपका रहता है।" डाक्टर मुकर्जी अँधेरे में 
					मुस्कराये। उनकी मुस्कराहट में सूखा-सा विरक्ति का भाव भरा था। 
					“कभी-कभी मैं सोचता हूँ मिस लतिका, किसी चीज को न जानना यदि 
					गलत है, तो जान-बूझकर न भूल पाना, हमेशा जोंक की तरह उससे 
					चिपटे रहना, यह भी गलत है। बर्मा से आते हुए मेरी पत्नी की 
					मृत्यु हुई थी, मुझे अपनी जिन्दगी बेकार-सी लगी थी। आज इस बात 
					को अर्सा गुजर गया और जैसा आप देखती हैं, मैं जी रहा हूँ 
					उम्मीद है कि काफी अर्सा और जिऊँगा। जिन्दगी काफी दिलचस्प लगती 
					है, और यदि उम्र की मजबूरी न होती तो शायद मैं दूसरी शादी करने 
					में भी न हिचकता। इसके बावजूद कौन कह सकता है कि मैं अपनी 
					पत्नी से प्रेम नहीं करता था, आज भी करता हूँ" “लेकिन 
					डाक्टर..." लतिका का गला रुँध आया था। “क्या मि़स लतिका..."
 
 “डाक्टर - सबकुछ होने के बावजूद वह क्या चीज़ है जो हमें चलाये 
					चलती है, हम रुकते हैं तो भी अपने रेले में वह हमें घसीट ले 
					जाती है।" लतिका को लगा कि वह जो कहना चाह रही है, कह नहीं पा 
					रही, जैसे अँधेरे में कुछ खो गया है, जो मिल नहीं पा रहा, शायद 
					कभी नहीं मिल पायेगा। “यह तो आपको फादर एल्मण्ड ही बता सकेंगे 
					मिस लतिका," डाक्टर की खोखली हँसी में उनका पुराना सनकीपन उभर 
					आया था। “अच्छा चलता हूँ, मिस लतिका, मुझे काफी देर हो गयी 
					है," डाक्टर ने दियासलाई जलाकर घड़ी को देखा। “गुड नाइट, मिस 
					लतिका।" “गुड नाइट, डाक्टर।"
 
 डाक्टर के जाने पर लतिका कुछ देर तक अँधेरे में रेलिंग से सटी 
					खड़ी रही। हवा चलने से कॉरीडोर में जमा हुआ कुहरा सिहर उठता 
					था। शाम को सामान बाँधते हुए लड़कियों ने अपने-अपने कमरे के 
					सामने जो पुरानी कापियों, अखबारों और रद्दी के ढेर लगा दिये 
					थे, वे सब अब अँधेरे कॉरीडोर में हवा के झोंकों से इधर-उधर 
					बिखरने लगे थे।
 
 
  लतिका 
					ने लैम्प उठाया और अपने कमरे की ओर जाने लगी। कॉरीडोर में चलते 
					हुए उसने देखा, जूली के कमरे में प्रकाश की एक पतली रेखा 
					दरवाजे के बाहर खिंच आयी है। लतिका को कुछ याद आया। वह कुछ 
					क्षणों तक साँस रोके जूली के कमरे के बाहर खड़ी रही। कुछ देर 
					बाद उसने दरवाजा खटखटाया। भीतर से कोई आवाज नहीं आयी। लतिका ने 
					दबे हाथों से हलका-सा धक्का दिया, दरवाजा खुल गया। जूली लैम्प 
					बुझाना भूल गयी थी। लतिका धीरे-धीरे दबे पाँव जूली के पलँग के 
					पास चली आयी। जूली का सोता हुआ चेहरा लैम्प के फीके आलोक में 
					पीला-सा दीख रहा था। लतिका ने अपनी जेब से वही नीला लिफाफा 
					निकाला और उसे धीरे-से जूली के तकिये के नीचे दबाकर रख दिया। |