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साहित्यिक निबंध

1३ अगस्त जन्मजयंती के अवसर पर

राष्ट्रकवि की काव्य साधना
- बीनू भटनागर


मैथिली शरण गुप्त उन पहले कवियों मे से थे जिन्होने खड़ी बोली को काव्य के लिये उपयुक्त माना। १९१० में सरस्वती पत्रिका में उनकी पहली रचना ‘’रंग में भंग’’ प्रकाशित हुई थी। आगे चलकर स्वतन्त्रता की लड़ाई में उनकी राष्ट्रवादी कविताएँ बहुत लोकप्रिय हुईं जिनमे ‘’भारत भारती’’ प्रमुख है।

गुप्त जी का जन्म झाँसी जिले के चिरगाँव मे ३ अगस्त १८८६ मे हुआ था उनकी आरंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। उन्होने संसकृत, हिन्दी बंगला और अंग्रेज़ी पढ़ी थी। महावीर प्रसाद दि्ववेदी उनके गुरु थे। उन्होंने रामायण महाभारत और बौद्ध धर्म को आधार बनाकर भी काव्य रचनाएँ की जो बहुत लोकप्रिय भी हुईं, इस संदर्भ मे ‘’साकेत’’ और ‘’यशोधरा’’ का नाम सबसे पहले याद आता है। साकेत में रामायण की कहानी को उन्होंने नए रूप में प्रस्तुत किया। उर्मिला के चरित्र, उसके बलिदान का इससे पहले किसी कवि को ध्यान ही नहीं आया। उन्होने उर्मिला के व्यक्तित्व का सजीव वर्णन किया-
महाव्रती लक्ष्मण की सुवामा,
पवित्रता की प्रतिमा ललामा।
प्रपूर्णकामा यह ‘उर्मिला’ है,
सुयोग क्या ही क्षिति को मिला है

कहा जाता है कि हिन्दी सहित्य की उपेक्षित नारी पात्रों के चरित्रों को गुप्त जी ने बहुत यत्न के साथ सँवारा है। उर्मिला के बाद कैकेई का पश्ताचाप भी भावपूर्ण चित्रित हुआ है-
करके पहाड़ सा पाप मौन रह जाऊँ
राई भर भी अनुत्ताप न करने पाऊँ
क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी
मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी
जल पंजर गत अब अरे अधीर अभागे
वे ज्वलित भाव थे स्वयं तुझी में जागे।

उर्मिला के पात्र को गुप्त जी ने बहुत ऊँचाई दी। सीता तो फिर भी अपने पति के साथ थीं लेकिन उर्मिला ने तो अपने पति से चौदह वर्ष का वियोग अकारण ही सहा, उनसे बलिदान माँगा गया उन्होंने बलिदान दिया पर साकेत से पहले किसी ने उनके बलिदान का गौरवगान नहीं किया।

कैकई को माँ के रूप में कभी नहीं सराहा गया, उनका तिरस्कार उनके बेटे ने भी किया। कैकई बुरी माँ नहीं थी कमज़ोर क्षणों में वो मंथरा की बातों में आगईं, जिसका उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ। कैकई के पश्चाताप से उनके सारे पाप धुल जाते हैं। गुप्त जी ने इसका बड़ा संवेदनशील वर्णन किया है।

राजकुमार सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा ने भी बड़ा बलिदान दिया था उनके पति बिना कहे ही उन्हे छोड़कर चले गये न पुत्र की चिन्ता की न पत्नी की तब अनायास वह कह उठीं-
सखी वो मुझसे कहकर जाते,
कह तो क्या मुझको अपनी पग बाधा पाते।
मुझको बहुत उन्होंने माना,
फिर भी क्या पूरा पहचाना,
जो वे मन में लाते।
‘’मुझसे कहकर जाते’’ में यशोधरा के मन पूरा दर्द कवि ने बहुत सादगी के साथ काव्य में उलट दिया है। यशोधरा की पीड़ा सजीव हो उठी है।

यशोधरा से उनका पुत्र राहुल कहानी सुनाने को कहता है तब वे उसे उसके पिता की वह कहानी सुनाती हैं जब एक बार एक आहत पक्षी को सिद्धार्थ ने बचाया था तब शिकारी ने उनसे अपना शिकार वापिस माँगा, इस बार कहानी को सुनाते समय यशोधरा ने निर्णय राहुल से ही पूछा-
‘’राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?
कह दे निर्भय जय हो जिसका, सुन लें तेरी बानी"
"माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।
राहुल ने उत्तर दिया।
"कोई निरपराध को मारे तो क्यों अन्य उसे न उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी
"न्याय दया का दानी! तूने गुनी कहानी।

बेटे का मा से कहनी सुनाने का आग्रह भी इतना सहज और स्वाभाविक है।-
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।
मैथलीशरण जी की इन भाव-भीनी कविताओं को कौन भुला सकता है। यशोधरा का भाव पक्ष बहुत गहरी छाप छोड़ता है।

महाभारत का आधार लेकर गुप्त जी ‘’जयद्रथ वध’’ की रचना की जिसमें भूमिका के रूप में ये पंक्तियाँ महाभारत का सार हैं।- न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है। इस तत्व पर ही कौरवों से पाण्डवों का रण हुआ।।

इसके बाद अभिमन्यु के जोश, जान की परवाह किये बिना चक्रव्यूह भेदने के लियें तैयार हो जाना इसका चित्रण भी मर्म को छूनेवाला है।-
सुनकर गजों का घोष उसको समझ निज अपयश–कथा,
उन पर झपटता सिंह-शिशु भी रोषकर जब सर्वथा,
फिर व्यूह भेदन के लिए अभिमन्यु उद्यत क्यों न हो,
क्या वीर बालक शत्रु की अभिमान सह सकते कहो ?

वीर अभिमन्यु और उनकी पत्नी उत्तरा के बीच के संवाद भी कवि ने अनोखे लिखे हैं। पत्नी की विकलता, और पति का उन्हें धीरज दिलाना अत्यन्त भावुक प्रसंग है जिसको कवि ने बहुत सुन्दर रचा है। अभिमन्यु वध के बाद पाण्डवों का विलाप उत्तरा सुहाग खोने का दुख सजीव चित्रित हुआ है। अर्जुन की प्रतिज्ञा थी कि वे २४ घन्टे में जयद्रथ का वध कर लेंगे अन्यथा अपने प्राण त्याग देंगे। संध्या के समय तक जयद्रथ का न मिलना पान्डवों के खेमे में निराशा का छा जाना बहुत सजीव चित्रित हुआ है। अंत में पूर्ण सूर्यग्रहण के बाद जयद्रथ का वध ऐसे तीर से होता है कि उसका सिर सीधा अपने पिता की गोद में गिरता है और उनकी भी मृत्यु हो जाती है। गुप्त जी के काव्य की भाषा इतनी सरल व सहज है कि जिसे थोड़ी सी भी हिन्दी आती हो वह इस कथा को समझ कर आनन्द ले सकता है।

मैथिलीशरण गुप्त जी को भारत का राष्ट्रकवि माना जाता है, उन्होंने केवल पौराणिक कथाओं पर आधारित जयद्रथ वध, साकेत या यशोधरा ही नहीं बल्कि देशप्रेम और मातृभूमि की वन्दना में भी काव्य सृजन किया है-
हम खेले-कूदे-हर्ष युत जिसकी प्यारी गोद में
हे मातृभूमि तुझको निरख क्यों न हो मन मोद में
जिस मातृभूमि की गोद में बड़े हुए वही मतृभूमि जीवन के अंत में भी अपनी शरण में लेगी-
फिर अंत समय तूही अचल देख अपनायेगी।
हे मातृभूमि ये अंत में तुझमें ही मिल जायेगी।

मातृ भूमि के प्रति इतनी भावुकता इतना, प्रेम, सादगी और सरल सुन्दर शब्द किसी भी देशवासी को भावविहल कर ने में सक्षम है। भारत को आर्यों की भूमि भी कहा जा सकता है। उनकी कविता में आर्यो के व्यक्तित्व के गुणों काभी सजीव चित्र है।-
यह पुण्य भूमि प्रसिद्ध है,इसके निवसी आर्य हैं
विद्या,कला कौशल्य सबके जो प्रथम आचार्य हैं।

‘’आर्य’’ कविता मैथिली जी की प्रसिद्ध कृति भारत भारती का अंश है। इसमें भी उनका मातृ भूमि के प्रति प्रेम प्रकट होता है।-
फैला यहीं से ज्ञान का आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी ज्योति जो अब जग रही संसार में।

भारत भारती कवि की वह कृति जिसमें राष्ट्रीयता है, भारतवर्ष के प्रति प्रेम समर्पण इस काव्य की मूल भावना है।
कवि ने देश की उन्नति में कृषकों की भमिका को भी बहुत सराहा है।-
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवासा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन तनसे पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित सुखाकर हल तथापि चल रहे
किस लोभ में इस अर्चि में वे निज शरीर जला रहे।

मैथिली जी की एक और प्रसिद्ध कविता है जो कभी न कभी सभी हिन्दी जानने वालों ने अवश्य पढ़ी होगी ‘’नर हो न निराश करो मन को’’। इस कविता में कवि ने देशवासियों को प्रोत्साहित किया है कि वे हमेशा कुछ अच्छा और उपयोगी करते रहें कभी भी निराश होकर धैर्य न खोयें। मानव जीवन मिला है तो उसका सदुपयोग करें।-
जग में रहकर निज काम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।

मैथिली शरण गुप्त जी सब रचनाओं के नाम गिनाना यहाँ संभव नहीं है। जिन रचनाओं की ऊपर संक्षिप्त-सी चर्चा यहाँ हो सकी है, उसके अतिरिक्त उन्होंने द्वापर, काशी कर्बला, सिद्धराज, नहुष प्लासी कायुद्ध और अंजलि अर्घ्य जैसे काव्यों की भी रचना की। गुप्त जी ने उमर ख़य्याम की रुबाइयाँ और स्वप्नवासवदत्ता नामक संस्कृत नाटक का हिन्दी में अनुवाद भी किया उन्होंने चन्द्रहास, तिलोत्तमा और विजय पर्व के अतिरिक्त कुछ और नाटक भी लिखे।

१९४७में स्वतन्त्रता प्राप्त होने के बाद उन्हे राज्य सभा का मनोनीत सदस्य बनाया गया जहाँ वे अपने विचार कभी कभी कविता के रूप में रखते थे। अपने अंत समय तक वे राज्य सभा के सदस्य बने रहे। 

६ अगस्त २०१२

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