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छायावादी काव्य में वर्षा ऋतु की उपस्थिति
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डॉ. अश्विनी कुमार विष्णु
ऋतुओं की सुरम्य लीलास्थली है भारत। प्रकृति ने जिस
सहज औदार्य से स्वयं को यहाँ प्रस्तुत किया है अन्यत्र
कहीं नहीं। भारतीय मानस ने सदैव ही इस सत्य को अनुभव
किया है और प्रकृति को अपनी विविधवर्णी छटाओ से
सिरजती-सँवारती ऋतुओं को शब्द-स्वर-संगीत देकर
प्रकृति-पुरुष के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की है।
षड्ऋतुवर्णन भारतीय काव्य की विशेषता तो है ही,
परम्परा भी है। भारतीय कवियों ने-- चाहे वे भक्तिकाल के
हों, रीतिकाल के, भारतेन्दु युग या द्विवेदी युगीन--
सभी ने वर्षाकालीन प्रकृति की अत्यंत सहज, गतिमय, व
मनोहर छवियाँ अंकित की हैं।
छायावादी काव्य कल्पना के अनन्त विस्तार, विशिष्ट
भाव-बोध, और अनाविल सौंदर्यचेतना का काव्य है। वस्तुतः
छायावाद जीवन और जगत के प्रति उस भावात्मक दृष्टि का
नाम है जिसमें बहिर्जगत की रूपराशि में रचनाकार के
अंतर्जगत का सौन्दर्य विन्यस्त रहता है । प्रकृति से
अगाध प्रेम छायावादी कवियों की प्रमुख विशेषता है।
निसर्ग के स्थूल सौन्दर्य ने उन्हें अनिर्वचनीय आनन्द
से प्लावित किया है तो उसके सूक्ष्म रूप ने उन्हें
रहस्य-विमुग्ध भी किया है। प्रकृति में माँ, कभी
प्रेयसी / सहचरी के, तो कभी अलौकिक शक्ति के दर्शन
उन्होंने किए हैं।
यहाँ उल्लेखनीय यह है कि छायावाद के प्रवर्तक कवियों-
जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, तथा
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के प्रकृति-विषयक
दृष्टिकोण में भिन्नता रही है । प्रसाद की प्रकृति
देवी है जिसके चरणों में उन्होंने समस्त वसुधा को
समर्पित कर दिया है; पन्त ने प्रकृति को प्रेयसी माना
है जिसके रूप-सौंदर्य का पान करते वह न कभी अघाते हैं
और न ही तृप्त होते हैं; महादेवी प्रकृति में ब्रह्म
की सत्ता का साक्षात्कार करती हैं। साथ ही उन्होंने
प्रकृति को वात्सल्यमई माँ के रूप में भावित किया है
जिसका दुलार उन्हें सहज उपलब्ध है, अंतरंग सखी की तरह
माना है जिससे अपनी करुण-कथा कहकर वह अपना जी हल्का कर
लेती हैं; मुख्य रूप से मानवीय भावनाओं के कवि निराला
ने प्रकृति को संवाहिका शक्ति मानकर उसमें मानवीय
भावनाओं का आरोपण किया है।
प्राग्वैदिक काल से ही भारतीय भूभाग कृषि-प्रधान
सभ्यता का केन्द्र रहा है । वर्षा-ऋतु में प्रकृति
बहुविधि निखरती और सँवरती है । वन-कानन,
नदी-सरोवर-समुद्र, गिर-मरू-पठार प्रकृति के हर अवयव
में नवजीवन का संचार इसी ऋतु में होता है। अस्तु, इस
ऋतु का महत्व केवल सौन्दर्य तक ही सीमित नहीं है,
बल्कि उसकी महत्ता उस लोक-मंगलकारी लक्ष्य के लिए भी
है जिससे खेत शस्य-श्यामल होते हैं और धरती सच्चे
अर्थों में अन्नगर्भा का रूप धारण करती है। यही मनोभाव
लिए प्रसाद जलद का आह्वान करते हुए कहते हैं:
“ शीघ्र आ जाओ जलद ! स्वागत तुम्हारा हम करें
ग्रीष्म के सन्तप्त मन के ताप को कुछ कम करें
है धरित्री के उरस्थल में जलन तेरे बिना....
नेत्र-निर्झर सुख-सलिल से भरें, दुख सारे भगें
शीघ्र आ जाओ जलद! आनन्द के अंकुर उगें !” (कानन-कुसुम)
इसी प्रकार कृषि व कृषक के लिए बरसाती-बादलों के महत्व
को दर्शाते हुए वह कहते हैं:
“ अम्बर-पथ-आरूढ़ कृषक मन को हरषावत ।
लोक-दृष्टि ते सबहिं लखत जबहीं तुम आवत !!....
लखो अबहिं ये लगे परन पुनि सघन फुहारें ।
परिमल सुरभित वारि बूंद पुनि बांधि कतारें ॥
अब तो इन राख्यो न भेद अम्बर धरती में ।
वारिसूत्र सो बांधि दियो है एकतती में॥ “ ( नीरद,
प्रसाद : चित्राधार)
छायावादी कवि की दृष्टि तत्ववेत्ता की दृष्टि है ।
नानारूपधरा प्रकृति एवं रूपात्मक जगत के विविध
उपादानों में उसे भावात्मक एकात्मता की अनुभूति होती
है । वस्तुजगत व प्रकृति की चिर-परिचित छटाओं में वह
अपने ही अन्तर्मन की अभिव्यक्ति को लक्षित करता है।
प्रबल भावावेग से युक्त तो वह होता ही है, उसी के दम
पर वह जड़ तथा चेतन को अपनी अंतश्चेतना के रंग में रँग
देता है । नभ में मुक्त उड़ान भरते पक्षी में, उन्मुक्त
झरते निर्झर में उसे अपना ही निर्बाध संचरण दिखाई पड़ता
है । खगकुल-कलरव में अपनी ही आत्मा की झंकृतियाँ वह
सुनता है । इसी प्रकार निदाघ की आतप से संतप्त भूमि पर
शीतल जल की वर्षा करने वाले बादलों में उसे निज
अन्तःकरण के करुणा-भाव के दर्शन होते हैं:
“रजतरश्मियों की छाया में धूमिल घन सा वह आता।
इस निदाघ से मानस में करुणा के स्रोत बहा जाता।“ (
महादेवी : सन्धिनी )
छायावादी कवियों ने मुख्य रूप से- आलम्बन (प्रकृति में
किसी इतर भावना का आरोपण न करते हुए ज्यों का त्यों
वर्णन), उद्दीपन (भावनाओं को उद्दीप्त करने के लिए
प्रकृति के उपादानों का उपयोग), तथा मानवीकरण (
प्रकृति में चेतन-सत्ता का आरोपण) आदि रूपों में
प्रकृति का वर्णन किया है। इसी के साथ प्रकृति के
माध्यम से दर्शन की अभिव्यक्ति करना भी इन कवियों की
प्रमुख विशेषता रही है। वर्षाकालीन वर्णन में भी
इन्हीं रूपों का दर्शन मिलता है। पावसकालीन प्राकृतिक
सुषमा हृदय में नित-नूतन भावों की सृष्टि करती है।
चतुर्दिक छाई हरियाली, धुले-धुले वृक्षों में कुहुकती
कोयल, दिग-दिगन्त में अपने उन्मुक्त कंठ का उल्लास
भरते मयूरों के स्वर, उद्दाम लहरों के वेग में मचलती
सरिताएँ, वायु की द्रुत-मंद्र झकोरों के सँग
झूमती-झूलती लताएँ, परियों के चितवन-संकेत-से जुगनू
अग-जग में प्रणयोद्दीपक प्रभा का आलोक-सा रच देते हैं
।
छायावादी कवियों ने संयोग-वियोग दोनों ही स्थितियों
में वर्षा-ऋतु का भावात्मक वर्णन किया है। जिस प्रकार
संयोग की स्थिति में रिमझिम-रिमझिम बौछारें हृदय को
प्रेमोद्दीप्त कर अतीव हर्षोल्लास से भर देती है उसी
प्रकार वियोग की अवस्था में क्लांत वेदना से प्लावित
भी। वर्षा-ऋतु में विरहिणी की मनोदशा का वर्णन करते
हुए पन्त कहते हैं : “ अह ! वह वर्षा ऋतु ! वे वारिद !
वह मेरा / अविरल दृग जल।“ निराला की विरहिणी-नायिका को
वर्षा-कालीन मेघों में प्रिय के ही दर्शन होते हैं,
जिससे उसकी विरह-वेदना और भी घनीभूत हो जाती है: “ वे
गए असह दु:ख भर / वारिद झरझर झर कर।" विरह में डूबी
रमणी को प्रिय की अनुपस्थिति में मेघों का स्मर-शर
उद्विग्न कर देता है:
“ अलि, घिर आए घन पावस के ।
द्रुम समीर-कंपित थर थर थर
झरतीं धाराएँ झर झर झर
जगती के प्राणों में स्मर-शर
बेध गए कसके – “ (निराला : परिमल)
बरसते सावन मेघ प्रसाद को अतीत की स्मृतियों में ले
जाते हैं:
“वे कुछ दिन कितने सुंदर थे !
जब सावन-घन सघन-बरसते—
इन आँखों की छाया भर थे !
सुरधनु रंजित नव जलधर से—
भरे, क्षितिज व्यापी अम्बर से,
मिले चूमते जब सरिता के,
हरित कूल युग मधुर अधर थे !” (लहर)
प्रकृति के भिन्न-भिन्न उपादानों पर मानवीय
कार्य-व्यवहारों के आरोपण में छायावादी कवियों को
महारत हासिल है । प्रकृति का मानवीकरण जिस दक्षता से
इन कवियों ने किया है, श्लाघ्य है । प्रकृति और स्त्री
इन कवियों के प्रेम, विस्मय, और आकर्षण का केंद्र बनीं
हैं । प्रमुखतः प्रकृति के नयनरम्य रूपों पर नारी के
सौन्दर्य का आरोप करने में उनकी प्रवृत्ति रही है ।
कविवर ‘पन्त’ को बरसात में नहाई हुई धरती सद्यःस्नात
ऋतुमती स्त्री-की भाँति सुघढ़ और आकर्षक प्रतीत होती है
:
“बदली छंटने पर लगती प्रिय
ऋतुमती धरित्री सद्यःस्नात । “ (ग्राम्या)
सौन्दर्य के कुशल चितेरे पन्त ने “वर्षा गीत” में
वर्षा को यौवन के आवेग में सुध-बुध भूली कामातुर तरुणी
के रूप में चित्रित किया है। सिंधु-सुता की यह छवि
मंत्रमुग्ध-सा कर देती है:
“ नीलांजन नयना,
उन्मद सिन्धु-सुता वर्षा यह
चटक प्रिय वयना !
नभ में श्यामल कुन्तल छहरा
क्षिति में चल हरितांचल फहरा,
लेती क्षितिज तले अर्द्धोत्थित
शैल माल जघना !” (रश्मिबन्ध )
रामकुमार वर्मा ने ‘गजरे तारोंवाले’ में वर्षा को
झूमती-नृत्य करती अप्सरा के रूप में चित्रित किया है,
तो प्रसाद ने भी “वर्षा में नदी कूल” कविता में उसे
सुन्दर किनारी वाली साड़ी में सुसज्ज नटिनी के रूप में
वर्णित किया है।
प्राचीन काल से ही मानव प्रकृति से उपदेश एवं नीति का
ज्ञान प्राप्त करने में प्रवृत्त रहा है। कविवर जयशंकर
प्रसाद ‘कामायनी’ में जीवन की नश्वरता का उपदेश
प्रकृति के जिस माध्यम से ग्रहण करते हैं वह है
वर्षाकालीन मेघ। जैसे नील-घनमाला क्षणमात्र के लिए
बिजली की कौंध से आप्लावित होकर फिर से शून्य हो जाती
है, उसी प्रकार जीवन क्षणभंगुर है जो थोड़े समय तक ही
प्रकाशित रहकर मृत्यु के मुख में समा जाता है :
“ जीवन तेरा क्षुद्र अंश है, व्याप्त नील घनमाला में
सौदामिनी सन्धि-सा सुन्दर, क्षण भर रहा उजाला में ।“
महादेवी वर्मा संसार की निष्ठुरता का सन्देश मूक तृण,
बेसुध पिक, चिर-पिपासित चातकी तथा झरे हुए सुमनों
द्वारा करवाती हैं :
“ यह बताया झर सुमन ने, यह बताया मूक तृण ने,
यह कहा बेसुध पिकी ने, चिर-पिपासित चातकी ने
सत्य जो दिव कह न पाया था अमिट सन्देश में
आँसुओं के देश में “ ( दीपशिखा )
वर्षा को आलम्बन बना प्रेम और दैहिक-आकर्षण में अन्तर
स्पष्ट करते हुए “प्रेम-पथिक” कविता में प्रसाद लिखते
हैं:
“प्रबल वेग से उठते हैं जब वर्षा की नदियों में दृप्त—
तुमुल तरंग गरजते फिरते किसी कूल को प्लावित कर,
वह स्वरूप वास्तविक नहीं है इस जीवन-निर्झरिणी का ।
उसी तरह से युवक-युवतियों का होता है प्रणयोच्छ्वास,
उस पर ही अंधानुरक्त हो दु:खपूर्ण जीवन करना
महामूर्खता है केवल उच्छृंखल वृत्ति पुष्टि करना।“
(कानन-कुसुम)
छायावादी कवियों का मुख्य आकर्षण रहे हैं वृष्टिकालीन
मेघ! निराला तो बादलों के कवि कहलाते ही हैं और उनकी
सबसे प्रिय ऋतु वर्षा ही है। ‘गीत गुंज’ में सबसे अधिक
कविताएं बादलों पर ही हैं। ‘परिमल’ में ‘बादल राग’
शीर्षक से छह कविताओं में मेघों को सेवाभाव भरे,
सौम्य, विप्लवकारी, विद्रोही, व ईश्वरीय आदि स्वरूपों
में कल्पित करते हुए अत्यन्त गतिशील व संश्लिष्ट बिम्ब
उपस्थित कर अपने मनोभावों को अभिव्यक्ति दी है। “जलद
के प्रति” कविता में उनके कृतज्ञ-भाव इस प्रकार मुखरित
हुए हैं:
“जलद नहीं, -- जीवनद, जिलाया
जब कि जगज्जीवन्मृत को;
तपन-ताप-संतप्त तृषातुर
तरुण-तमाल-तलाश्रित को।
पय-पीयूष-पूर्ण पानी से
भरा प्रीति का प्याला है;
नव वन, नव जन, नव तन, नव मन,
नव घन! न्याय निराला है!” (परिमल)
महादेवी ने तो स्वयं को “नीर भरी दुख की बदली” कहकर
घटाओं-बादलों से अपना अटूट नाता स्पष्ट ही कर दिया है।
उनके गीतों में बादल कहीं नव-कुन्द-कुसुम की अम्लान
माधुरी लेकर प्रकट होते हैं तो कभी करुणा के रखवाले
बनकर। बादलों के विभिन्न रँग-रूपों का पल-प्रतिपल
बदलती छवियों के बहुत ही कुशल चित्रांकन के लिए
प्रस्तुत पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं:
“तू भू के प्राणों का शतदल !
सीपी से नीलम से द्युतिमय
कुछ पिंग अरुण कुछ सित श्यामल,
कुछ सुख-चंचल कुछ दुख-मंथर
फैले तम से कुछ तूल तरल
मँडराते शत-शत अलि बादल । “ (सन्धिनी)
‘बादल’ शीर्षक कविता में पन्त ने जल-रहित मेघों की
तुलना चौकड़ी भरते मृग और शशक से की है तो पानी भरे
बादलों की समानता मतवाले हथियों से की है:
“कभी चौकड़ी भरते मृग-से
भू पर चरण नहीं धरते
मत्त मतंगज कभी झूमते
सजग शशक नभ को चरते “ (पल्लव)
सजल मेघ के लिए गजराज का उपमान पारंपरिक है। प्रसाद ने
भी ‘कामायनी’ में बादल के लिए कुंजर कलभ की उपमा का
प्रयोग किया है। वर्णन करते हुए वह कहते हैं कि
वर्षाकालीन जलद ऐसे मोहक लग रहे हैं मानों हाथियों के
बच्चे सोने के गहने पहने विचरण कर रहे हों:
“नीचे जलधर दौड़ रहे थे सुन्दर सुरधनु माला पहने
कुंजर कलभ सदृश इठलाते चमकते चपला के गहने ।“
संक्षेप में, छायावादी कवियों का पावस-ऋतु वर्णन
सर्वविधि सम्पन्न है। प्रसाद, पन्त, महादेवी,
निराला-सभी ने अत्यन्त सम्मोहक चित्रों में भ्रमरों की
गुंजार, झींगुरों की झंकार, लहरों की कोमल कलकल,
बादलों की गरज, झरनों के झरझर नाद, और पक्षियों के कल
कूजन, सुगंधित वनस्पतियों-कुसुमों का माधुर्यपूर्ण
वर्णन किया है। उनकी रसमय संवेदना सहज ही पाठक का मन
मोह लेती है और रस-प्रतीति द्वारा अद्भुत अनुरंजन भी
करती है।
३० जुलाई २०१२ |