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निबंध

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भक्तिकालीन काव्य में वर्षा ऋतु
- उर्मिला शुक्ला


प्रकृति मनुष्य की सहचरी रही है और मानव मन की अनुभूतियों का चित्रण ही साहित्य है। इसी लिए साहित्य और प्रकृति का साथ हमेशा रहा है। वर्षा और वसंत के बिना साहित्य की बात हो ही नहीं सकती, क्योकि साहित्य का आधार है प्रेम, और प्रेम को उद्दीप्त करने में वर्षा और वसंत की महत्वपूर्ण भूमिका है । दोनों ही प्रेमऋतुएँ हैं लेकिन वर्षा ऋतु साहित्य में वसंत से भी अधिक चित्रित की गई है। भक्ति कालीन साहित्य सगुण और निर्गुण दोनों ही धारा के कवियों ने परमात्मा की उपासना की है। ऐसे में प्रेम प्रसंग कम आये हैं, मगर जहाँ ईश्वर मनुष्य अवतार में हैं, वहाँ प्रेम का चित्रण भी है जैसे - तुलसीदास ने राम और सूरदास ने कृष्ण के प्रेम का वर्णन किया है। कबीर दास ने भी निर्गुण निराकार के प्रेम का चित्रण किया है।

तुलसीदास का वर्षा वर्णन

तुलसी भक्तिकाल के प्रमुख कवि हैं। उनके नायक राम मर्यादा पुरषोत्तम हैं, इसलिए उनसे जुड़े वर्णन में भी मर्यादा है। वे लक्ष्मण से कहते हैं - "बरसाकाल मेघ नभ छाये,गरजत लागत परम सुहाये। "

मोर पपीहा कोयल और दादुर वर्षा ऋतु के संगी हैं। वर्षा के आते ही मोर नाच उठते हैं और उनका नृत्य देख कर मन मगन हो जाता है। राम लक्ष्मण से कहते हैं- "लछमन देखहु मोर गन नाचत वारिद पेखि,गृह विरत रत हरष जस बिसनु भगत देखि ।"

संयोग काल में जो वर्षा सुख दायक लगती है, वही वर्षा विरह काल में दुःख का आगार बन जाती है। सीता वियोग में दुखी राम को भी बादलों के गरजने से डर लगता है -  "घन घमंड नभ गरजत घोरा,प्रिया हीन डरपत मन मोरा। "

तुलसी के कुछ नीति परक दोहों में भी वर्षा के शब्द चित्र मिलते हैं। इनमें वर्षा के उपादानों - बिजली का चमकना, बादलों का गरजना, बिजली का गिरना, उथली नदी का उफनना आदि की तुलना छुद्र प्रविर्तियों से की गई है जैसे -
"दामिनि दमके रहि-रहि घन माहि, खल के प्रीत जथा थिर नाहि।"
"गुंड अघात सहहि गिरि अइसे, खल के वचन संत सहि जइसे।"
“छुद्र नदी भरि चली उतराई, जस थोरेहु धन खल इतराई।" जैसे जल से भरे बादल झुक कर बरस जाते हैं और धरती हरिया उठती है, उसी तरह सज्जन विद्या और बुद्धि पाकर विनम्र हो जाते हैं -
"रसहिं जलद भूमि हियराये, जथा नवहिं बुध विद्या पाये।"
वर्षा के बीतने उल्लेख करते हुए वे कहते है - " फूले कांस सकल मही छाई ,मनो वर्षा रितु सहज बुढाई।"



सूरदास का वर्षा वर्णन-

सूर्य की भक्ति सखा भक्ति है इसलिए वहाँ खुलापन है। वे सौन्दर्य वर्णन में भी वर्षा की छवि रचते हैं
"इंद्र धनुष मनो नवल वसन छवि।
दामिनि दसन विचारि,जनु बग पांति माल मोतिन की, चितवति दिलहि विचारि।"
गोपियों की काम भावना को वे कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं -
"देखियत चहुंदिस ते घनघोर।
मानो मत्त मदन के हथियन बल करि बंधन तोर। "

वर्षा एक दृश्य और, यहाँ कृष्ण राधा से मिलना चाहते हैं बार बार संदेश भेजते हैं, मगर दूसरी सखी स्वयं कृष्ण का सानिध्य चाहती है, इसलिए वह संदेश ले जाने वाली की बुराई कर रहि है, ताकि कृष्ण उस पर विश्वास करने लगें-
"बात बूझति बहरावति।
सुनहु स्याम वे सखी सयानी, पावस रितु राधाहिं न सुनावत।
घन गरजत तौ कहत कुशल मति गूंजत गुहा सिंह समुझावत।
नाहि दामिनी द्रुम दव सैल चढी फिर बयारि उलटी झर लावति।"

सूर के काव्य में वियोग वर्णन में वर्षा का वर्णन मिलता है। कृष्ण के मथुरा जाने के बाद गोपियों की आँखों से लगातार आँसू बहते हैं। वे कहती हैं -
"निस दिन बरसत नैन हमारे। सदा रहत पावस रितु इन पे जब से स्याम सिधारे।"
कभी वे सोचती हैं ये बादल भी गरज गरज कर उन्हें सता रहे हैं वे कृष्ण से कहती हैं -
बरु ये बदराउ बरसन आये।
अपनी अवधि जान नन्द नन्दन गरजि गगन घन छाये।" यहाँ बादलों के प्रति उपहास का भाव है कि हमारे बुरे दिन हैं, कृष्ण हमारे साथ नहीं हैं, तो बादलों की भी इतनी हिम्मत बढ़ गई कि वे भी हमें डरा रहे हैं।

मीरा के काव्य में वर्षाऋतु

मीरा तो प्रेम दीवानी ही थीं। कृष्ण मिलन की चाह उनके गीतों का मूल है। गोपियों की तरह उन्हें भी कृष्ण के बिना अकेले में बादल और बिजली डरावने लगते हैं। इस प्रकार वियोग चित्रण में मीरा ने वर्षा ऋतु को अनेक स्थानों पर शब्द दिये हैं। नीचे दिये गए पद में वे कहती हैं- दादुर मोर और पपीहा पुकारने लगे हैं घनघोर घटा घिर आई हैं और बिजली बार बार चमक कर डरा रही है।
"दादुर मोर पपीहा बोले , कोयल सबद सुनावे,
घुमर घटा उलर होइ आइ, दामिनी दमक दिखाय डरावे।"

एक ओर सावन की झड़ी लगी है और दूसरी और उनकी आँखों से आँसुओं की। ऐसे में वे कृष्ण को उलाहना देती हैं-
"बादल देख झरी हो स्याम। बादल देख झरी।
जित जाऊ तित पानी हि पानी, पानी पानि हुई सब भोम हरी।"

सावनी तीज आ गयी है, मगर कृष्ण नहीं आये। व्याकुल मीरा कहती है -
"सावन में झड़ लागियो, सखि तीजा खेलहो।
भादवे नदिया बहे हूरी जिन मेलह।"


कबीर की कविता में वर्षा ऋतु

कबीर यूँ तो निर्गुण निराकार के उपासक हैं, जहाँ संसारिक ख़ुशी या गम कोई मायने नहीं रखते और उनका वर्णन
उलटबांसियों में ढलता है जैसे -
"बरसे कम्बल भीजे पानी"

मगर कहीं - कहीं वे वर्षा के बिम्ब प्रस्तुत करते हैं, भले ही यहाँ वर्षा प्रतीकात्मक है -
"गगन गरजि मघ जोइया, तंह दिसे तार अनंत।
बिजुरी चमकि घन बरसिह्य जहाँ भिजत हैं सब संत।"

आत्मा को हरी करने के लिये वे प्रेम के बादल की वर्षा आवश्यक मानते हैं इसी लिये वे कहते हैं कि मेरे ऊपर प्रेम का बादल इस प्रकार बरसा है मेरे अंतर में बसने वाली आत्मा हरी हो गई हैं-
कबिरा बादल प्रेम का, हम परि बरष्या आइ।
अंतरि भीगी आत्माँ हरी भई बनराइ॥


मलिक मोहम्मद जायसी का वर्षा वर्णन

भक्ति काल में वर्षा पर सबसे अधिक प्रेम मार्गी कवियों ने लिखा है मलिक मोहम्मद जायसी की पद्मावत और कुतबन की मधु मालती में वर्षा के अनेक चित्र मिलते हैं, मगर जैसा वर्णन जायसी ने किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है। उनहोंने वर्षा के सारे उपादानों के साथ - साथ वर्षा काल के नक्षत्रों का भी सम्यक चित्रण किया है। हिंदी साहित्य में बारह - मासा की जब बात की जाती है, तब जायसी का नाम सबसे पहले लिया जाता है। बारह मासा की शुरुवात आषाढ़ से की जाती है। नागमती के विरह की पीड़ा को महसूस करते हुए जायसी लिखते हैं-
"चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा, साजा विरह दुंद दल बाजा।
धूम साम धौरे घन धाये, सेत धजा बग पाँति देखाये।
खड्ग बीजू चमकै चहुँ ओरा, बूंद बान बरसहि घनघोरा।
ओनइ घटा आइ चहुँ ओरी, कंत उबार मदन हौं घेरी।
दादुर मोर कोकिला पीउ, गिरे बीजू घट रहे न जीउ।
पुष्य नखत सिर उपर आवा, हौ बिनु नाह मन्दिर को छावा।
अद्रा लागि सकल भुइ लेई, मोहि बिनु पीउ को आदर देई। "
आषाढ़ का इतना प्रामाणिक वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है

सावन का एक यह वर्णन देखें-
" सावन बरस मेह अति पानी, भरनि परी हौं बिरह झुरानी।
सखिन्ह रचा पीउ संग हिंडोला, हरियर भूमि कुसुम्भी चोला।
हिय हिंडोल अस डोले मोरा, बिरह झुलाई देय झकझोरा।
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी, मोर नाव खेवक बिनु थाकी।

भादों के महीने में बहुत वर्षा होती है। जहाँ देखो वहाँ पानी ही पानी नजर आता है। अँधेरी रात बहुत अँधेरी प्रतीत होती है
नागमती कहती है -
भर भादों दूभर अति भारी, कैसे भरव रैन अंधियारी।
चमकि बीजू घन गरजि तरासा, बिरह काल होइ जीउ गरासा।
बरसे मघा झकोरी झकोरी, मोर दुइ नयन चुअय जस ओरी।
धनि सूख भर भादों माहा, अबहूँ न आय नहि सिचेहूँ नाहा।
पुरबा लाग भूमि जल पूरी, आक जवास भई तस झूरी।
थल जल भरे अपूर सब, धरती गगन मिलि एक।"
भादों के बाद क्वार में वर्षा कम होने लगती है-
"लाग कुवार नीर जग घटा,अबहूँ आउ कंत तन लटा । "
इस तरह जायसी बरसात के सभी महीनों को उनकी सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ प्रस्तुत करते हैं।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि भक्ति काल में वर्षा रितु अपनी सम्पूर्ण गरिमा और सौन्दर्य के साथ उपस्थित है। इस काल के सभी कवियों ने वर्षा ऋतु का चित्रण किया है- कहीं प्रतीकात्मक रूप में कहीं शृंगार के उद्दीपक रूप में तो कहीं वियोग के रूप में। इस प्रकार वर्षा ऋतु की उपस्थिति भक्तिकालीन काव्य में विभिन्न रूपों में हैं। जहाँ कहीं ऋतु वर्णन के लिये सीधे ही रचना की गई है वहाँ ये वर्णन इतने स्वाभाविक है कि वर्षा के दृश्य सजीव हो उठते हैं।

३० जुलाई २०१२

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