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रामायण में स्वयंप्रभा
-डॉ.
पांडुरंग राव
रामायण के महिला-पात्रों में स्वयंप्रभा का नाम बहुत
कम लोग जानते हैं, हालाँकि रामायण की आध्यात्मिक भाव
भूमिका के उन्नयन में इस बात का बहुत बड़ा महत्त्व
है।
किसी साधारण पाठक से यह पूछा जाए कि रामायण के किस
प्रसंग में इस पात्र का प्रवेश होता है, तो वह शायद ही
इसका ठीक-ठीक जवाब दे सके। इसका कारण यह है कि
वाल्मीकि रामायण के बाद के राम काव्यों में इस
प्रसंग को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया है। दूसरा
कारण यह है कि वाल्मीकि ने राम के साथ इस पात्र का
संबंध नही जोड़ा है। एकांत तपोवन की
स्वांतस्सुख-साधिका, आराधिका के रूप में आदि कवि ने
स्वयंप्रभा का चित्रण किया है। स्वयंप्रभा का मतलब
ही है - अपनी प्रभा या प्रकाश से आलोकित।
शबरी से साम्य
राम की
प्रतीक्षा में अपने जीवन की अंतिम घडि़यों को गिनते हुए बैठी
अनन्य आराधिका शबरी से स्वयंप्रभा बहुत कुछ मिलती-जुलती है।
दोनों एकांत और प्रशांत वातावरण में संयत जीवन व्यतीत
करनेवाली आश्रम-वासिनियाँ हैं और दोनों आध्यात्मिक साधना और
सिद्धि से संपन्न हैं। शबरी का मातंगवन और स्वयंप्रभा की
सुनहली गुहा, दोनों सामान्य प्राणियों के लिए पहुँच से बाहर
है। मातंगवन फिर भी बाहर से दिखायी देता है, पर स्वयंप्रभा का
तपोवन बाहर से कुछ भी नहीं दिखायी देता। बाहर से केवल काजल की
कोठरी जैसी रहस्यमयी गुहा है। भीतर जाने पर ही उसका प्रकाश और
प्रभाव साधकों को चौंका देता है। इसी अंतर को दृष्टि में रखकर
वाल्मीकि ने शबरी के आश्रम को 'तद्वन' कहा और स्वयंप्रभा की
गुहा को 'महद्वन' कहा। शबरी से भी अधिक पहुँची हुई, सुलझी हुई
और सधी हुई तपस्विनी है - स्वयंप्रभा।
स्वयंप्रभा के
आश्रम की खोज
स्वयंप्रभा का प्रसंग किष्किंधा
कांड के लगभग अंतिम प्रकरण में आता है, जब हनुमान, अंगद,
जांबवान आदि महावानर अपने सहयोगियों के साथ सीता की खोज में चल
पड़ते हैं और खोजते-खोजते एक विचित्र गुहा में घुस जाते हैं।
सीता माता की खोज में ऊँचे-ऊँचे पहाड़, घने-घने जंगल और
चित्र-विचित्र गुहाओं में विचरण करने पर वानर-समूह को प्यास
लगती है। आसपास कहीं पानी का आभास तक नहीं मिलता। इतने में एक
गुहा से भीगे पंखों की चिडि़याँ बाहर निकलती हुई दिखायी देती
है। इन पक्षियों को देखकर बुद्धिमान हनुमान यह अनुमान लगाते
हैं कि जहाँ से ये चिडि़याँ आ रही हैं, उस गुहा में ज़रूर पानी
रहा होगा। उनके इशारे पर और उनहीं के भरोसे सभी वानर बाहर से
बिलकुल अंधकार से भरी दिखायी देनेवाली भयानक गुहा में पहुँच
जाते हैं। रास्ते में सभी बंदर एक दूसरे का सहारा लेते हुए
सघन अंधकार को चीरकर अंदर पहुँच जाते हैं। बहुत दूर जाने पर
अचानक प्रकाश दिखायी देता है। उनको लगता है किसी दैवी प्रेरणा
ने उनको इस रमणीय स्थल तक पहुँचाया है, जहाँ सुनहले रंग के
पेड़, मीठा पानी और अच्छे-अच्छे फल दिखायी देते हैं। वे
सोचने लगते हैं कि इतना सुंदर वन यहाँ कैसे छिपा पड़ा है और यह
किसने लगाया होगा? इतने में उनको एक तेजस्विनी लता की तरह एक
तपस्विनी दिखायी देती है। उस तपस्विनी के चारों तरफ प्रकाश ही
प्रकाश दिखाई देता है। रास्ते में जितना घना अंधेरा था, यहाँ
पर उतना ही उजाला दिखायी पड़ता है। सबसे बढ़कर प्रेरणा और
विस्मय का आधार स्वयंप्रभा की प्रभा-भास्वर मनोहर मूर्ति
है, जो वल्कल, जटा आदि धारण करते हुए भी आध्यात्मिक आभा से
आप्लावित और तपस्या की दीप्ति से आपूर्ण थी।
हनुमान से भेंट
स्वयंप्रभा के पास जाकर अपने
कुतूहल का समाधान करने की क्षमता, योग्यता और अर्हता केवल
हनुमान में थी। इसलिए वह आगे बढ़कर तपस्विनी से सविनय प्रश्न
करते हैं। हनुमान पहले अपनी और अपने साथियों की स्थिति का
निवेदन करते हुए सारी राम-कहानी सुनाते हैं और बताते हैं बताते
हैं कि इसी राम-काज के सिलसिले में अपनी प्यास बुझाने के लिए
वे इस गुहा में पहुँच गये और अब उनकी प्यास केवल भौतिक नहीं
है, बल्कि आध्यात्मिक बन गयी है। इस रहस्यमयी गुहा के बारे
में जानने की उनके मन में सहज जिज्ञासा है। स्वयंप्रभा
संसारभर की करूणा से परिपूर्ण मंजुल स्वर में उनका स्वागत
करती है और पहले उनको अपनी भौतिक पिपासा (प्यास) को शांत करने
के लिए वहाँ उपलब्ध प्रचुर खाद्य सामग्री का यथेष्ट उपयोग
करने के लिए कहती है। उसके बाद वह अपने आश्रम की सारी गाथा
सुनाती है।
मायावी मय की
रचना
यह सुंदर उपवन असल में
स्वयंप्रभा की सहेली हेमा का था। देवताओं के कुशल और मायावी
अभियंता मय ने अपनी प्रेयसी हेमा के लिए यह उपवन बनाया था।
बरसों तक विश्वकर्मा मय ने इस वन में मनचाहे सुखों का आनंद
पाकर अंत में हेमा के प्रति प्रेम-लालसा प्रकट की। हेमा
देवकन्या थी। इसलिए इंद्र ने मय पर बिगड़कर उसे वन से
निष्कासित कर दिया। उसके बाद ब्रह्मा ने उस वन की देखभाल का
दायित्व हेमा को सौंपा, जो सभी ललित कलाओं में निष्णात थी।
हेमा के बाद यह भार स्वयंप्रभा ने अपने ऊपर ले लिया और अपनी
तपस्या, साधना और निष्ठा के बल पर उपवन को परम रमणीय रूप
प्रदान किया।
इसी सुंदर वन को वाल्मीकि महद्वन, उत्तम वन, कांचन वन,
दुर्गम वन आदि विशेषणों से अभिवर्णित करते हैं। बाहर की गुहा
को 'श्रीमद्बिल' कहा गया है। इस बिल की सश्री को समझने के लिए
'श्रीमत' शब्द को अभिधा, लक्षणा और व्यंजना तीनों रूपों में
आत्मसात करना आवश्यक होता है। यह सारा वर्णन हनुमान जैसा
मेघावी ही पूर्ण रूप से हृदयंगम कर सकता है। स्वयंप्रभा में
जितनी आत्मनिर्भरता है, उससे अधिक आत्मसंयम है। वह अपने
तपोवन का सारा इतिहास जिज्ञासु हनुमान को बताती है और
अतिथियों का यथेष्ट आदर-सत्कार करती है और उसके बाद ही उनके
आगमन का कारण पूछती है। उस समय भी वह केवल इतना ही कहती है कि
अगर वह कहने लायक हो और कहने में उनको कोई आपत्ति न हो तभी
कहें। यदि - 'चैतन्मया श्राव्यं श्रोतुमिच्छामि तां कथाम्'।
इस पर हनुमान सारी राम-कथा संक्षेप में सुनाते हैं।
किसी से कोई
अपेक्षा नहीं
प्राण-संकट से सबको बचानेवाली
स्वयंप्रभा के प्रति हनुमान अपना और अपने साथियों का आभार
प्रकट करते हैं, 'देवि, आज्ञा दें कि इसके प्रत्युपकार में हम
आपकी क्या सेवा कर सकते है।' सबकुछ जाननेवाली (सर्वज्ञा)
स्वयंप्रभा धर्मसंहित मंगलमय वाणी में कहती है, 'धर्म का आचरण
करनेवाली मैं किसी से कोई अपेक्षा नहीं करती हूँ और न कोई मेरे
लिए कुछ कर सकते हैं (चरन्त्या मम धर्मेण न कार्यमिह
केनचित्)।' ये शब्द कहते समय धर्मचारिणी स्वयंप्रभा के चेहरे
पर जो आभा चमक रही थी और उसकी आँखों में जो अमंद आनंद प्रकट हो
रहा था, उसको पहचानकर सूक्ष्म बुद्धिवाले हनुमान तापसी से
निवेदन करते हैं - 'देवि, हम प्राण-संकट से तो बच गये पर एक
धर्म-संकट में पड़ गये हैं। आपने जो हमारे प्राणों की रक्षा की
है, वैसे हमारे धर्म की भी रक्षा कीजिए। सुग्रीव की आज्ञा के
अनुसार हमें एक मास के अंदर सीताजी का पता लगाकर वापस पहुँचना
है। पर खोजते-खोजते एक मास की अवधि बीत चुकी है और हमें किसी
भी हालत में जल्दी वापस जाना है और इसके लिए पहले बिल से बाहर
पहुँचना जरूरी है। बिल के अंदर तो हम किसी तरह से पहुँच गये
हैं। पर इससे बाहर निकलना हमारे बस की बात नहीं है। इसमें आपकी
मदद चाहिए। कृपया हमें बाहर जाने का रास्ता बता दें।'
हनुमान आदि की
सहायता
हनुमान बलवान होते हुए भी इतनी
छोटी सी बात के लिए एक अबला की मदद माँगने में संकोच तो कर रहे
थे। लेकिन कोई दूसरा उपाय नहीं था। वह यह भी जान गये कि
स्वयंप्रभा कोई साधारण अबला या महिला नहीं है। वह तो साध्वी
है और उसका सहारा लिये बिना उनका बाहर निकलना संभव नहीं है।
इसके अलावा उस साध्वी की उदारता का भी उनको काफी परिचय मिला
था। स्वयंप्रभा भी जानती थी कि जो एक बार बिल के अंदर पहुँच
जाता है, वह किसी हालत में सजीव बाहर नहीं निकल सकता। लेकिन
राम-कार्य से ये लोग अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करने में
लगे हुए हैं। इसलिए उनकी सहायता करना वह अपना कर्तव्य समझती
है और कहती है 'तुम अपनी अँगुलियों से अपनी आँखें बंद कर लो।'
सभी लोग, हनुमान समेत, अपनी पतली लंबी अँगुलियों से अपनी आँखें
बंद कर लेते हैं। पलभर में सब लोग अपने को बिल से बाहर पाते
हैं और सामने खड़ी है - स्वयंप्रभा, सबको विदा करने के लिए।
विषम संकट से बचे हुए बंदरों को सामने का समुद्र दिखाकर,
स्वयंप्रभा फिर अपने बिल के भीतर चली जाती है। श्रीदेवी फिर
श्रीबिल के अंदर समा जाती है। इस प्रकार स्वयंप्रभा वानरसेना
को और विशेषकर हनुमान को एक विशिष्ट अनुभूमि प्रदान करती है,
जो सीताजी की खोज में उनको मदद देती है।
आज्ञाचक्र की
साधिका
स्वयंप्रभा आज्ञाचक्र की
सर्वज्ञ साधिका है। योगशास्त्र के अनुसार आज्ञाचक्र मूलाधार
से लेकर छठा चक्र है, जो दोनों आँखों के बीच और नासादंड के ऊपर
दोनों भृकुटियों के संधिस्थल पर प्रतिष्ठित होता है। कमर से
लेकर कंठ तक की सारी काया को शिर और ग्रीवा के साथ समान रखकर,
दोनों आँखों की दृष्टि को नाक के कोने पर स्थिर बनाने से इस
आज्ञाचक्र का दर्शन हो जाता है, जहाँ पर शरीर की रूद्रग्रंथि
भी होती है। सबसे पहली ग्रंथि ब्रह्मग्रंथि है, जो मूलाधार में
होती है। दूसरी ग्रंथि मणिपुर या नाभि के पास होती है और इसी
को विष्णुग्रंथि कहा जाता है। इन दोनों को पार करने के बाद
सहस्त्रार चक्र में परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
स्वयंप्रभा इसी रूद्रग्रंथि और आज्ञाचक्र की प्रतीक है, जिसको
पार करने पर द्रष्टव्य का दर्शन होता है। इसके पहले मंथरा,
और कैकेयी का गठबंधन मूलाधार और ब्रह्मग्रंथि के रूप में मौजूद
था और अनुसूया का प्रीतिदान मणिपुर चक्र और विष्णुग्रंथि के
प्रतीक के रूप में प्रकट हुआ था। अब स्वयंप्रभा का प्रकाशदान
अंतिम ग्रंथि (रूद्रग्रंथि) और आज्ञाचक्र का प्रतिनिधित्व
करता है।
२४
अक्तूबर
२०११ |