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					१ब्रिटिश हिंदी कहानी के तीस वर्ष
 -उषा 
					राजे सक्सेना
 १
 
 आलेख 
							आरंभ करने से पूर्व तीन बातें यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक 
							है। पहला तो यह कि ब्रिटेन का लेखन संसार अभी रचनात्मक 
							स्थिति में है उसे अभी और सीझना है। दूसरा यह कि 
							ब्रिटेन में रचनात्मक हिंदी लेखन की शुरुआत कब और किस 
							सन् में हुई इस पर कोई खोज पूर्ण लेखन नहीं हुआ है। 
							तीसरा यह कि कुछ विद्वानों का मत है कि ब्रिटेन के 
							लेखन का इतिहास केवल दो दशकों का है जबकि भारतीयों का 
							प्रवेश ब्रिटेन में १९५० में ही हो गया था। फिर इन तीन 
							दशकों का यह गूँगापन क्यों? इन तीनों तथ्यों को समझने 
							के लिए पहले हमें ब्रिटेन में बाहर से आकर बसनेवालों 
							के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डालनी होगी। 
 आदिकाल में ब्रिटेन यूरोपियन लुटेरों और आक्रमणकारियों 
							(वाइकिंग) से त्रस्त रहा है। समय के साथ ये विदेशी 
							लुटेरे स्थानीय लोगों में घुलते-मिलते ब्रिटेन के 
							स्थाई निवासी बन गएँ। कालांतर में जर्मनी, इटली, 
							ग्रीस, पूर्वी योरोप पोलैण्ड आदि देशों के लोग भी 
							युद्ध, भुखमरी, महामारी और गरीबी आदि के कारण ब्रिटेन 
							के ख़स्ताहाल इलाकों में शरण लेते रहे साथ ही अपने अथक 
							परिश्रम और सूझ-बूझ से धीरे-धीरे समर्थ, समृद्ध और 
							उच्च श्रेणी के स्थाई नागरिक बनते रहे। गोरे प्रवासी 
							अपनी रंगत के कारण समय के साथ मुख्यधारा में विलय होते 
							रहे।
 
 १९वीं सदी के पाँचवें दशक में आए अफ़्रीकन मूल और 
							एशियाई अपने रंगत एवं सशक्त सांस्कृतिक तथा धार्मिक 
							परंपराओं के कारण आज भी मुख्यधारा में विलय न होकर 
							अपनी अलग महत्तवपूर्ण पहचान बनाए हुए हैं। ५०वें दशक 
							में आए, ग़रीबी की रेखा के नीचे खस्ताहाल बस्तियों में 
							बसाव करनेवाले अशिक्षित भारतीय श्रमिकों की संताने आज 
							अपने अथक परिश्रम, दूरदर्शिता और महत्तवकांक्षाओं के 
							कारण ब्रिटेन के आर्थिक विकास में सम्मानित और शीर्ष 
							स्थान पर हैं।
 
 द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात १९५० में 
							ब्रिटेन में श्रमिकों का अभाव हुआ जिसकी आपूर्ति के 
							लिए भारत के पंजाब प्रांत का अशिक्षित मेहनतकश मजदूर 
							बहुत बड़ी संख्या में ब्रिटेन आए जिसे साउथहाल के 
							ख़स्ताहाल बस्तियों में बसाव मिला। जल्दी ही ब्रिटिश 
							सरकार ने यह महसूस किया कि पंजाब का यह अशिक्षित 
							श्रमिक समुदाय इस देश की बोली-भाषा-संस्कृति, रख-रखाव 
							और नियम-कानून न जानने के कारण न केवल शोषित और 
							उपेक्षित हो रहा है बल्कि तरह-तरह के अन्य सामाजिक 
							असंतोष और कठिनाइयाँ भी झेल और उत्पन्न कर रहा है।
 
 इस समस्या के निदान के लिए छठें और सातवें दशक में 
							बड़ी बारीकी से एँट्री क्लीयरेंस और वर्क वाउचर के 
							प्रावधान के तहत अशिक्षित श्रमिकों के प्रवेश पर रोक 
							लगाते हुए ब्रिटिश सरकार ने भारत से शिक्षकों, 
							डॉक्टरों, नर्सों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को आमंत्रण 
							दिया। जिसमें भारी संख्या में भारत से पढ़ेलिखे लोग 
							आए। इसी बीच ८० के दशक में कीनिया, और युगांडा से 
							पलायन करने वाले हज़ारों भारतीय मूल के समर्थ छोटे और 
							बड़े उद्योगपतियों ने भी ब्रिटेन में शरण ली। ब्रिटेन 
							इस झटके के लिए तैयार नहीं था। ब्रिटेन के वेलफेयर 
							स्टेट पर अवांछित भार पड़ा। कटौतियों के कारण स्थानीय 
							जनता में इमिग्रैंट समुदाय के प्रति रोष उभरा। इधर 
							वर्क परमिट और वाउचर सिस्टम के लागू होने के कारण बड़े 
							पैमाने पर अवैध भारतीयों और पाकिस्तानियों की संख्या 
							बढ़ी और उधर गाँजा चरस, अफीम, सोना और काले धन आदि की 
							तस्करी होने लगी। बेकारी और आर्थिक मंदी आदि के कारण 
							समाज में अराजकता फैली। अतः सांप्रदायिक और नस्ली 
							दंगों आदि से वातावरण गर्म और असहिष्णु हो उठा। लेबर, 
							कन्ज़रवेटिव और लिबरल जैसे तीन स्वस्थ राजनैतिक दलीय 
							देश ब्रिटेन में वातावरण को विषाक्त करनेवाली एक 
							सांप्रादायिक दल ‘नेशनल फ्रंट’ की नींव पड़ी। ब्रिटेन 
							के स्थानीय गोरे निवासियों और इमिग्रैंट समुदाय में 
							मुठभेड़ होने शुरू हो गए। फलतः रंग, नस्ल, जाति, धर्म, 
							लिंग आदि के समानता के अधिकारों के लिए सख्त कानून 
							पारित किए गए। समान अवसर और समान अधिकार के प्रावधान 
							बनें।
 
 इधर ब्रिटेन में आए नए भारतीय प्रवासियों का एक मात्र 
							लक्ष्य स्वयं को स्थापित करते हुए अधिक से अधिक धन 
							अर्जन करना था। धन अर्जन और ब्रिटेन के वेलफेयर स्टेट 
							की सुविधाएँ प्राप्त करना उनके जीवन का परम उद्देश्य 
							था। उसे न तो इस पराए देश के दशा और दिशा से कोई मतलब 
							था न ही इसके समाज से जिसमें वे आ बसे थे। अपनी भाषा, 
							संस्कृति तथा समाजिकता आदि को बनाए रखने की आवश्यकता 
							भी उन्हें उस समय नहीं महसूस हुई। ये लोग दिन भर काम 
							करते, शाम को कोई और पार्ट टाइम काम ले लेते तथा कम से 
							कम टैक्स देने का जुगाड़ करते। अधिकांश महिलाएँ भी 
							कहीं न कहीं फैक्ट्री और दुकानों आदि में काम करतीं। 
							धन संचयन तथा अपने बच्चों की उच्च शिक्षा के प्रति ये 
							लोग बहुत सजग और सचेत थे।
 
 इनमें से जो संवेदनशील लोग थे, वे अपनी आंतरिक व्यथा 
							को डायरी या कागज के टुकड़ों पर अभिव्यक्त कर कहीं 
							रखकर भूल जातें। परिष्कृत कर किसी पत्रिका आदि में 
							भेजने का न तो उनका मनोबल बन पाता ना ही उनके पास उस 
							समय कोई साधन था। उस समय आज की तरह साहित्यकारों में 
							आपसी जुड़ाव भी नहीं था। प्रमाण मिलता है कुछ हिंदी 
							प्रेमी (हिंदी भाषियों तथा हिंदी प्रेमियों की संख्या 
							जो संपूर्ण प्रवासी समुदाय की तुलना में सदा न्यूनतम 
							रही।) रचनाकारों जैसे ५० के दशक में पानी के जहाज से 
							आए कवि वेद प्रकाश वटुक (अब अमेरिका में) कवि डॉ. 
							सत्येन्द्र श्रीवास्तव, और ६० के दशक में आए ग़जलकार 
							प्राण शर्मा की रचनाएँ भारत की पत्र-पत्रिकाओं में 
							छपती थीं किंतु लेखन में निरंतरता न होने के कारण 
							उन्हें पहचान नहीं मिली। ब्रिटेन में कुछ हिंदी की 
							संस्थाएँ भी बनीं जैसे, ‘हिंदी परिषद लंदन’, ‘हिंदी 
							प्रचार संस्था’। कुछ पत्रिकाएँ भी निकलीं जैसे 
							‘नैवेद’, ‘अमर दीप’, ‘चेतक’ आदि किंतु सभी दो तीन 
							वर्षों में कालकलवित हो गईं। खोज करने पर अभी हाल ही 
							में एक अपवाद की तरह १९६९ में भारत से आए वेद मित्र 
							मोहला की गद्य की पुस्तक ‘संसार के अनोखे पुल’ १९७२ 
							नेशनल पब्लिशिंग हाउस की मिली। इसी तरह अस्सी के दशक 
							में मिडलैंड में रहनेवाली स्वर्गीय विजया मायर के चार 
							उपन्यास ‘रिश्तों के बंधन’ सन् १९८८ विवेक प्रकाशन, ७ 
							यू.ए जवाहर नगर- दिल्ली, ‘टूटते दायरे’ सन् १९८९ विवेक 
							प्रकाशन ७ यू.ए जवाहर नगर- दिल्ली, ‘तूफ़ान से 
							पहले’-१९९४, ‘तपस्या’ १९९५ (प्रकाशकों के धन की माँग 
							से तंग आकर अंतिम दो पुस्तकें उन्होंने स्वयं छपवाई 
							थी। संपर्क- विद्यासागर मायर- दूरभाष-०२४७६७४००२)
 
 विजया मायर सातवें दशक में कीनिया से लंदन आईं। उनके 
							उपन्यासों के पात्र भारतीय हैं और उनकी मानसिकता भी 
							भारतीय है। इसी बीच १९६० में ब्रिटेन आईं पंजाबी की 
							प्रसिद्ध लेखिका कैलाशपुरी का पंजाबी में लिखा उपन्यास 
							‘सूज़ी’ (अनु. नरेंद्र धीर) १९८३ (अभिव्यंजना प्रकाशन- 
							दिल्ली) में हिंदी में अनूदित होकर आया। यह मार्मिक 
							उपन्यास पचासवें दशक में पंजाब से आए कामगरों के 
							संघर्षपूर्ण जीवन, समस्याओं और सामाजिकता पर आधारित 
							है। उपन्यास भारत में अवश्य पढ़ा गया होगा किंतु 
							ब्रिटेन में इसकी कोई चर्चा नहीं हुई। १९६७ में भारत 
							से आई गोरखपुर विश्वविद्यालय की कहानी प्रतियेगिता 
							(१९६४) में प्रथम आई कहानी ‘विरासत’ की लेखिका उषा 
							राजे सक्सेना भी इस देश से ताल-मेल बैठाने में ऐसी 
							खोईं कि उनकी पहले की लिखी कविताएँ उनकी हस्तलिखित 
							पुस्तक ‘मुक्ता’ में बंद रही। इस बीच एक-दो अपवाद ऐसे 
							भी रहे जैसे स्व. ओंकार श्रीवास्तव, श्रीमती, कीर्ति 
							चौधरी (तीसरा सप्तक) जो भारत के साहित्य जगत में 
							स्थापित और कीर्तमान थे। दोनों पति-पत्नी ब्रिटेन आने 
							पर बी.बी.सी. हिंदी सेवा और जीवन यापन की समस्याओं में 
							ऐसे उलझे कि ब्रिटेन आने के बाद उनकी लेखनी अवरुद्ध हो 
							गई। सन् १९८२ में बी.बी.सी. लंदन प्रसारण से संबद्ध 
							होकर आए डॉ. गौतम सचदेव की कई कृतियाँ भारत में 
							प्रकाशित हो चुकी थीं परंतु ब्रिटेन आने के बाद १९९५ 
							के पूर्व उनकी कोई रचना प्रकाशन में नहीं आई, तथा सन् 
							१९८७ में आई। ‘बर्दाश्त बाहर’ जैसे संग्रह की लेखिका 
							अचला शर्मा ने भी यहाँ आ कर उस बीच कोई ऐसा लेखन नहीं 
							किया जिसका उल्लेख कहीं मिलता हो। अचला जी के रेडियो 
							नाटक अवश्य उस बीच बी.बी.सी. रेडियो पर प्रसारित होते 
							रहे।
 
 सन् १९८५ में ब्रिटेन आईं दिव्या माथुर जिनकी कहानियाँ 
							नवभारत टाइम्स, कादंबिनी आदि में छपती रही थीं। 
							ब्रिटेन आने के बाद ९० के दशक तक वे भी कुछ नहीं लिख 
							सकीं। इन तथ्यों से पता चलता है कि ५०-८० के दशक में 
							मौलिक साहित्यिक सृजन की जमीन में कुछ (वेद प्रकाश 
							वटुक, बी.एन. पाण्डेय, देव मुरारका, सतीश भटनागर, 
							नारायण स्वरूप शर्मा, ओंकार सिंह ‘निर्भय,’ धर्मेंद्र 
							गौतम, सत्येन्द्र श्रीवास्तव, प्राण शर्मा आदि) अंकुर 
							फूटे तो किंतु उन अंकुरों को पनपने के लिए खाद और पानी 
							नहीं मिला।
 
 ब्रिटिश भूमि में हिंदी के लेखकों को उर्वर भूमि एक 
							लंबे अर्से तक नहीं मिली। कारण कुछ भी हो सकता है। 
							पचास के दशक में अशिक्षित श्रमिकों का बसाव, मीडिया 
							में भारतीयों की बिगड़ती छवि, समाज में उपेक्षा, अजनबी 
							परिवेश, समय का अभाव, सांस्कृतिक दबाव, 
							प्रकाशकों-संपादकों की उदासीनता, सृजनात्मक संवेदना का 
							पोषण न हो पाना। साथ ही ‘ब्रिटेन आए भारतीयों का 
							मानसिकरूप से पीछे छोड़े हुए भारत में ‘रुके’ रहना, 
							साथ ही एक अपरोक्ष ग्लानि से त्रस्त होना कि जिस 
							अँग्रेज जाति ने वर्षों उन पर राज्य किया, जिसके 
							विरुद्ध उन्होंने विद्रोह किया, उसी अँग्रेज के देश 
							में अब वे जीवन-यापन करते हुए सुखी महसूस कर रहे हैं। 
							यह एक ऐसा मनोवैज्ञानिक पहलू है जिससे ५०-८० के दशक 
							में आया आप्रवासी कभी भी समझैता नहीं कर पाएगा।’ 
							(ब्रिटेन में हिंदी पृ. २२ ले. उ. रा. सक्सेना) एक और 
							कुरूप सत्य ५०-७० के दशक में अँग्रेज़ी भाषी समाज में 
							लोगो को अपनी मातृ भाषा बोलने में लज्जा ही नहीं डर भी 
							लगता रहा कि कहीं कोई उन्हें मातृ भाषा बोलते या लिखते 
							हुए सुन और देख कर यह न समझ ले कि वे अपढ़ गँवार है, 
							उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती।
 समय ने करवट ली, परिवेश में बदलाव आया। भारत एक पराधीन 
							भारत नहीं रहा। विश्व के मानचित्र पर एक शक्तिशाली 
							भारत उभरने लगा।
 
 सन् १९९० में भारत से आए हिंदी प्रेमी महामहिम डॉ. 
							लक्ष्मीमल्ल सिंघवी और उनकी पत्नी ने इस विषम 
							परिस्थिति को समझा। उन्होंने अपने घर पर अनौपचारिक 
							साहित्यिक गोष्ठियों और चर्चाओं के द्वारा अवरुद्ध 
							लेखनियों को गतिशील और पत्थर होती संवेदनाओं को 
							जलसिंचित करने का सायास प्रयास किया। महामहिम और उनकी 
							पत्नी भारतीय समुदाय में सदा हिंदी में भाषण देते और 
							वार्तालाप करते। भारतीयों का मनोबल बढ़ा। उनकी कुंठित 
							जिह्वा और लेखनी मुखरित होने लगीं। कई राजनैतिक और 
							सामाजिक उथल-पुथल के कारण ब्रिटिश समाज भी चैतन्य हो 
							उठा। एकल भाषा और एकल संस्कृति का गर्व ढहने लगा। 
							ब्रिटेन नतमस्तक बहुसांस्कृतिक और बहुभाषीय जीवंत 
							परिधान पहनने लगा। उस समय की साहित्यक संस्थाएँ यू।के 
							हिंदी समिति- १९९१ और गीतांजलि बहुभाषीय समुदाय 
							बर्मिंघम- १९९५ ने एक बड़ी संख्या में हिंदी प्रेमियों 
							को जोड़ा। लेखकों का नेटवर्क बना। अंग्रेज़ी के गढ़ 
							ब्रिटेन में हिंदी का लेखकीय संसार का पनपना आरंभ हो 
							गया। लेखन के क्षेत्र में ‘सृजनात्मक विस्फोट’ 
							(तेजेन्द्र शर्मा- पत्रिका ‘प्रवासी संसार’) हुआ। 
							८०-९० का यह दशक मुख्यतः काव्य विधा का ही रहा। डॉ. 
							पद्मेश गुप्त ने भारत के स्वाधीनता दिवस की पचासवीं 
							वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में एक खूबसूरत संकलन ‘दूर बाग 
							में सोंधी मिट्टी’ प्रकाशित की जिसमें ब्रिटेन के २५ 
							कवि संकलित थे।
 
 तदंतर १९९७ में साहित्यिक पत्रिका ‘पुरवाई’ के प्रकाशन 
							ने तनावग्रस्त लेखकों और कहानीकारों को संबल दिया। 
							गद्य की अनेक विधाओं में रचनाकारों की लेखनी सक्रिय हो 
							उठी।
 
 यदि ब्रिटेन के हिंदी कथा संसार पर खोजपूर्ण दृष्टि 
							डाली जाए तो हमें जो पहली हिंदी कहानी किसी ब्रिटिश 
							हिंदी लेखक की मिलती है। वह है प्राण शर्मा की कहानी 
							‘पराया देश’ जो सन् १९८२ अगस्त में कादंबिनी में 
							आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना 
							पुरस्कार से सम्मानित हुई। कहानी एक ऐसे आप्रवासी बस 
							ड्राइवर की है जो सिर्फ़ पाँच वर्षो में ‘खूब धन कमाकर 
							भारत लौट जाउँगा’ की ठान कर आता है किंतु वह लौटने की 
							घड़ी कभी नहीं आती है। ब्रिटेन में बरसों बरस रहते हुए 
							लौट जाने की द्वंद्वात्मक दुविधा में फँसे बस ड्राइवर 
							की एक दिन अपनी ही किसी गलती के कारण एक सभ्य सी 
							दिखनेवाली गोरी महिला यात्री से झड़प हो जाती है। बहुत 
							अनुनय-विनय करने और ‘सॉरी’ कहने पर भी वह महिला उसे 
							क्षमा नहीं करती है और अंत में उसे फटकारते हुए ‘ब्लैक 
							बास्टर्ड’ और ‘पाकी’ जैसी नस्ली गाली देते हुए उसका 
							नाम और बस का नम्बर लेकर धमकाते हुए चली जाती है। डरा 
							हुआ भीरु बस ड्राइवर अपमानित और पीड़ित महसूस करता है। 
							लंच टाइम में वह अपनी पीड़ा लंदन ट्रांसपोर्ट में 
							कामकरने वाले मित्रों से कहता है। सब उस पर हँस पड़ते 
							हैं कि यह तो साधारण सी बात है। ड्राइवर उस महिला के 
							अभद्र व्यवहार से ‘असंख्य सुइयों की चुभन’ अपने कलेजे 
							पर महसूस करता है। अवसाद से भरा, अनमना, दुखी वह शाम 
							को अपनी पत्नी और बच्चों को ब्रिटिश परिवेश की 
							बुराइयाँ बताता देश का गुण-गान करता, उपरोक्त घटना का 
							उल्लेख करता है और वापस भारत लौटने की पेशकश करता है 
							किंतु पत्नी और बच्चे उसकी खिल्ली उड़ाते हुए, ‘आप तो 
							जरा-जरा सी बात को दिल से लगा लेते हैं।’ कह कर उसकी 
							पीड़ा का उपहास करते हैं। विडंबना यह है कि क्षुब्ध बस 
							ड्राइवर अपने ही परिवार के बीच अकेला और तन्हा महसूस 
							करता हुआ खुद को आंतरिक यूटोपिया में क़ैद कर लेता है। 
							उसे ब्रिटेन की कोई भी सुख-सुविधा और धन-धान्य सुकून 
							नहीं देते। वह भारत के अभावों, तनावों, रंग-भेद, 
							वर्ग-भेद, प्रांतीयता, आदि को अनदेखा कर उसे ही स्वर्ग 
							ठहराता है। बात बढ़ने लगती है वह पत्नी और बच्चों को 
							धिक्कारता है कि जिस ब्रिटेन ने भारत देश को दो सौ साल 
							तक गुलाम बनाए रखा वे उसी ब्रिटेन के सुख-सुविधाओं के 
							गुलाम हो गए है। अंत में पत्नी सुषमा उसे शांत करने के 
							लिए कहती है, ‘अगर आप इस देश से इतना तंग आ गए है तो 
							एक दिन हम यहाँ से चले जाएँगे। बस बच्चों की शिक्षा 
							पूरी हो जाने दो और उनको अपने पैरों पर खड़ा हो जाने 
							दो।’ वह सोचता है सुषमा बातें बनाकर उसे बहलाने में 
							कितनी होशियार है।
 
 कहानी मातृभूमि की यादों से जुड़ी होते हुए भी यथार्थ 
							की भावभूमि पर खड़ी है। मानसिक द्वंद्व और आंतरिक 
							संघर्ष को व्यक्त करते हुए जीवन के दोनों पक्षों के 
							दिखाने में सक्षम कहानी पाठक को सोचने के लिए मजबूर 
							करती है कि ऐसे नए परिवेश के साथ समझौता सही है या 
							पलायन। भाषा और शैली की दृष्टि से कहानी ८० के दशक के 
							भारतीय लेखकों के समकक्ष ठहरती है।
 
 दूसरी कहानी ‘पुरवाई’ सन् १९९७ अंक-१ सितंबर पृ.३३ 
							(संपादक डॉ. पदमेश गुप्त) पर ‘एक मुलाक़ात’ (ले. उषा 
							राजे सक्सेना) प्रकाशित हुई। कहानी ब्रिटेन में 
							रहनेवाली एक संवेदनशील लेखिका की है जो एक लंबे अर्से 
							के बाद भारतीय रेल में यात्रा कर रही है। किसी कारणवश 
							उसका आरक्षण एयरकंडिशन डिब्बे में नहीं हो पाता है। 
							सुख-सुविधाओं की आदी लेखिका को तीसरे दर्ज़े के महिला 
							डिब्बे में यात्रा करनी पड़ती है। उसे बड़ी असुविधा 
							होती है। डिब्बे में जरूरत से ज़्यादा लोग और सामान 
							ठुसे हुए हैं। परेशान लेखिका को डिब्बे में ठुसे लोग 
							‘गंदे, उज्जड और गँवार’ लगते है। ‘उसे उबकाई सी आती 
							है’ इस प्रक्रिया में उसकी दृष्टि सामने बैठी २२-२३ 
							वर्षीय ‘जर्द चेहरे वाली उदास’ और मासूम युवती के 
							चेहरे पर फिसलती है, जिसका एक चौदह महीने का नटखट 
							बच्चा इधर-उधर पास बैठे लोगो से इसतरह हिल-मिल रहा है 
							मानो वह उन सबके परिवार का हों। दूसरा बच्चा ‘जर्द 
							चेहरे वाली’ युवती के गोद में पहलू बदलता रहता है 
							तीसरा बच्चा उसके फूले हुए पेट के अंदर है। परेशान, 
							‘उदास जर्द चेहरे वाली’ वह महिला कभी एक बच्चे को 
							संभालती तो कभी दूसरे को। लेखिका औरत की बेचारगी पर 
							वितृष्णा से भर जाती है किंतु धीरे-धीरे डिब्बे के 
							अंदर बदलता सहज, सहिष्णु और सौजन्यपूर्ण माहौल लेखिका 
							के संवेदनशील हृदय में उस गरीब और बेचारी औरत के चेहरे 
							को सौंदर्य की प्रतीक मोनालिसा ( लियानार्डो दा विन्ची 
							की प्रसिद्ध पेंटिंग) में बदल देता है। यात्रा समाप्त 
							होते-होते उसे उन लोगों में ‘एक ख़ास ख़ुशबू और अपनापन 
							नजर आने लगाता है। गंगा-जमुनी भाषा में लिखी इस कहानी 
							की भाव-भूमि भारत और ब्रिटेन दोनों हैं। कहानी 
							परोक्ष-अपरोक्ष रूप से लेखिका के प्रगतिशील सांस्कृतिक 
							समन्वय और स्त्री विमर्श की ओर बढ़ते रुझान की ओर 
							संकेत करती है। यह कहानी अपनी संरचना में प्रभावशाली 
							और मर्मस्पर्शी है।
 
 पुरवाई के उपरोक्त अंक में ही दिव्या माथुर की कहानी 
							‘दिशा’ है। कहानी एक नेत्रहीन युवक मणि और उसकी 
							ख़बसूरत चंचल गर्भवती पत्नी शमा के समर्पित प्रेम की 
							चटपटी, चुलबुली और सार्थक कहानी है। नेत्रविहीन मणि 
							संसार का दर्शन अपनी पत्नी की आँखों से करता है। कहानी 
							की भावभूमि किसी भी देश की हो सकती है। मणि आशंकित है 
							कि कहीं उसकी होनेवाली संतान उसकी ही तरह नेत्रहीन तो 
							न होगी। शमा शंका निवारण बड़ी निपुणता से करती है 
							किंतु अपने अंधेपन के कारण मणि के मन में शंका बनी 
							रहती है। कहानी पति-पत्नी के सरस, चंचल-चपल वार्तालाप 
							के साथ आगे बढ़ती है। कहानी का अंत शमा के स्वस्थ्य और 
							सुंदर बच्चे के जन्म के आनंद और उल्लास के नोट पर 
							समाप्त होती है। कहानी में महत्तवपूर्ण है नेत्रविहीन 
							पति और स्वस्थ्य सुंदर पत्नी के संबंधों की मिठास जो 
							मुँह में बताशे घोलती है।
 एक लंबे अर्से तक ‘एक मुलाक़ात’ और ‘दिशा’ को ही 
							ब्रिटेन की पहली कहानी मानी जाती रही परंतु जब मैंने 
							‘ब्रिटेन में हिंदी’ (सन्२००६- मेधा बुक्स) पुस्तक 
							लिखने के लिए सामग्री एकत्रित की तो अनुसंधान के दौरान 
							उसने पाया कि सन् १९६५ में ब्रिटेन में आए प्राण शर्मा 
							की कहानी ‘पराया देश’ ब्रिटिश प्रवासी द्वारा लिखी गई 
							पहली हिंदी कहानी है जिसकी भावभूमि और समस्याएँ 
							ब्रिटेन की हैं।
 
 सन् १९९९ से पूर्व ब्रिटेन के कहानीकार गुमनाम थे। वे 
							आपस में भी एक दूसरे को नहीं जानते थे। अंतर्राष्ट्रीय 
							कवि सम्मेलनों और कवि गोष्ठियों के कारण ब्रिटेन के 
							कवि तो देश-विदेश में चर्चित होने लगे थे किंतु 
							कहानीकारों का कोई मंच नहीं बन पाया।
 
 सन् १९९७-९८ में मैंने कहानीकारों का एक नेटवर्क बनाया 
							और सन् १९९९ में आयोजित ‘छठे विश्व हिंदी सम्मेलन’ के 
							अवसर पर ‘मिट्टी की सुगंध’ राधाकृष्ण प्रकाशन- नई 
							दिल्ली, द्वारा ब्रिटेन के कहानीकारों को मुख्यधारा के 
							अजस्र धारा में प्रविष्ठ कराया। पुस्तक चर्चा में आई। 
							हिंदी साहित्य के कई अध्येताओं ने इस पुस्तक पर अपने 
							विचार प्रकट किए और इसे अपने लेखन का विषय बनाया। इस 
							संकलन के प्रकाशन का एक मात्र उद्देश्य ब्रिटेन के 
							साहित्यकारों के नवलेखन को भारत के मनीषियों तक 
							पहुँचाना था। आज यह पुस्तक ब्रिटेन के हिंदी साहित्य 
							के अध्ययन में नींव का पत्थर है।
 
 आप्रवासी हिंदी कहानियों के विषय में लिखते हुए डॉ. 
							रामदरश मिश्र कहते हैं, ‘किसी स्थान विशेष के लेखकों 
							की रचनाएँ होने मात्र से उन्हें वैशिष्ट्य प्राप्त 
							नहीं होता, उन्हें वैशिष्ट्य इसलिए प्राप्त होता है कि 
							वे स्थान विशेष (क्षेत्र, प्रदेश, देश) के जीवन के 
							अपने रंग को उभारती हैं और इस तरह वे उस भाषा में लिखे 
							जा रहे साहित्य के अनुभव को नए आयाम प्रदान करती 
							हैं... विदेश में रह रहे भारतीय मूल के लोगों में देश 
							की यादें बची रहती हैं, रह-रह कर उभरती हैं और परेशान 
							करती हैं। अपना देश बुलाता है किंतु देश की जिन 
							असुविधाओं से घबराकर विदेश गएँ वे सामने आ जाती हैं और 
							विदेश की सुविधाएँ भी उन्हें कहाँ छोड़ती हैं जिनसे 
							खिंचकर वे विदेश गए। इसी द्वंद्व की मानसिकता में उनकी 
							रचनाएँ फूटतीं रहती हैं... इस संकलन में देशी-विदेशी 
							मानसिकता की टकराहट इन कहानियों में है- ‘अभिशप्त’ 
							(तेजेन्द्र शर्मा), ‘एक मुलाक़ात’ (उषा राजे सक्सेना), 
							‘घर का ठूँठ’ (शैल अग्रवाल), ‘पुराना घर, नए वासी’ 
							(फिरोज मुखर्जी), ‘पराया देश’ (प्राण शर्मा), 
							‘प्रेयसी’ (दिव्या माथुर), ‘बेघर’ (अचला शर्मा), और 
							‘सर्द रात का सन्नाटा’ (तोषी अमृता) ‘सुबह की सियाही’ 
							इरा सक्सेना। शेष कहानियाँ भारतीय भूमि पर ही लिखी गईं 
							हैं।’ (भूमिका मिट्टी की सुगंध- ले. उ. रा. सक्सेना)
 
 उपरोक्त संकलन के अतिरिक्त इस बीच कुछ और कहानी संकलन 
							आएँ, उनमें से मुख्य हैं मुंबई निवासी सूरज प्रकाश 
							द्वारा संकलित ‘कथा दशक’- सन् २००१ जिसमें कथा यू.के. 
							की गोष्ठियों में पढ़ी गई दस कहानियाँ श्रोताओं की 
							टिप्पणियों के साथ संकलित हैं। दूसरा है उषा वर्मा की 
							‘साँझी कथा यात्रा’ सन् २००३ वाणी प्रकाशन दिल्ली, 
							जिसमें १२ हिंदी-उर्दू की महिला कथाकार सम्मिलित हैं। 
							तीसरा संकलन है ‘प्रवास में पहली कहानी’ सन् २००८ वाणी 
							प्रकाशन। जिसमें १८ हिंदी-उर्दू की मात्र महिला कथाकार 
							सम्मिलित हैं।
 
 इन तीस वर्षों में ब्रिटेन के ४५ कहानीकारों ने लगभग 
							६० संग्रहों से मुख्य धारा के कथा साहित्य को एक नया 
							आयाम दिया है। उपरोक्त चर्चित कहानीकारों के अतिरिक्त 
							जिन साहित्यकारों और लेखकों ने अपनी पहचान गद्य के 
							विभिन्न क्षेत्रों में बनाई है और जिनकी एक से अधिक 
							पुस्तकें आई है वे हैं साहित्य मनीषी डॉ. श्याम मनोहर 
							पाण्डेय, नरेश भारतीय, कहानीकार कादंबरी मेहरा, 
							महेन्द्र दवेसर दीपक, नीना पॉल, अरुण सब्बरवाल, 
							भारतेंदु विमल, विद्या सागर आनंद, नरोत्तम पाण्डेय, 
							सरोज सूरी, साहिर शीवी, रिफ़त शमीम, सुरेंद्रनाथ लाल 
							आदि। इनके अतिरिक्त लघु पत्रिकाओं, ब्लॉग्स, और 
							इंटरनेट पत्रिकाओं में स्थान बना रहे कहानीकारों में 
							नीरा त्यागी, दीपक मशाल, कृष्ण कुमार, स्वर्ण तलवाड़, 
							जकिया ज़ुबैरी, पुष्पा भार्गव, चाँद शिज़ैल, पद्मेश 
							गुप्त, रमा जोशी, वन्दना मुकेश, जय वर्मा आदि भी चर्चा 
							में आ रहे हैं।
 सन् १९९८ में ब्रिटेन में नए आए तेजेन्द्र शर्मा दो 
							कहानी संग्रह अपने साथ लेकर आए। १९९९ में उनका कहानी 
							संग्रह ‘देह की क़ीमत’- १९९९, वाणी प्रकाशन- दिल्ली से 
							ब्रिटेन में आया। संग्रह की १२ कहानियों में केवल ‘रेत 
							का घरौंदा’ का परिवेश ब्रिटेन है। अन्य सभी कहानियों 
							की भावभूमि भारत है और कहानियाँ वहीं की समस्याओं से 
							जूझती हैं।
 
 सन् १९९८ में ब्रिटेन आई दिव्या माथुर का कहानी संग्रह 
							‘आक्रोश’-२००० हिंदी बुक सेंटर- दिल्ली से प्रकाश से 
							आई। दिव्या बताती हैं कि ये सभी कहानियाँ भारत में 
							लिखी गई थीं। कहानियों की पृष्ठ-भूमि और समस्याएँ भारत 
							की हैं तथा कहानियों की अंतर्धारा स्त्री विमर्श है।
 
 सन् १९६७ में ब्रिटेन आई उषा राजे सक्सेना का संग्रह 
							‘प्रवास में’ प्रभात प्रकाशन (ज्ञान गंगा)- दिल्ली 
							संकलन की सभी कहानियाँ ब्रिटेन में लिखी गई तथा 
							कहानियों की भाव-भूमि, समस्याएँ और परिवेश ब्रिटेन की 
							हैं। संस्कृति समन्वय और स्त्री विमर्श इन कहानियों की 
							अंतर्धारा है।
 
 उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रिटेन के 
							लेखन का इतिहास दो दशकों का नहीं तीन दशकों का है और 
							यह भी सच है कि ब्रिटेन का लेखन संसार अभी रचनात्मक 
							स्थिति में ही है। उसे समृद्ध होने और मुख्य-धारा में 
							अपना महत्तवपूर्ण स्थान बनाने में अभी समय लगेगा। 
							यद्यपि मुख्यधारा के मनीषियों, भारत की 
							पत्र-पत्रिकाओं, इंटरनेट मैगज़ीन, ब्लागों और 
							प्रकाशकों ने ब्रिटेन के हिंदी साहित्य की उपस्थिति 
							तेज़ी से दर्ज़ करनी शुरू कर दी है।
 
 यहाँ यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि साहित्य की छलनी 
							बहुत बारीक छानती है। कितने छनेंगे कितने भूँसी की तरह 
							फेंक दिए जाएँगे यह तो समय ही बताएगा। साहित्य में 
							रणनीति नहीं रचना बोलती है। इसी के साथ यह भी 
							विश्लेषित करना आवश्यक हो जाता है कि एक कहानीकार का 
							संवेदन संस्कार के रूप में अपने परिवेश को ग्रहण करता 
							है। वह उसी में जीता है। साँस लेता है। प्रवासी लेखक 
							अपने घर परिवार, देश और मिट्टी से अलग हो कर एक अन्य 
							देशकाल और परिवेश में चला जाता है। वहाँ उसके नए 
							संस्कार बनते हैं, नए दृष्टकोण बनते हैं। परिवेश बदल 
							जाने से उसकी ज़िंदगी में बहुत सी पेचीदगियाँ आ जाती 
							हैं उसकी मान्यताएँ बदलने लगती हैं। (भूमिका- मिट्टी 
							की सुगंध)। इन्हीं बदलती मान्यताओं के द्वंद्व से कथा 
							साहित्य में नई जमीन फूटती है।
 
 एक समय था जब कि हिंदी कहानी ने प्रयोगवादी कहानी, 
							प्रतीकात्क कहानी, अकहानी, सहज कहानी, सचेतन कहानी 
							जैसे आंदोलन चलाएँ। चूँकि संसार विकासशील है इसलिए 
							कहानी एक आंदोलन पर नहीं टिकी। आज हिंदी कहानी चाहे 
							भारत में लिखी जा रही हो या इंग्लैण्ड अमेरिका में, आज 
							कोई ऐसा आंदोलन नहीं चल रहा है जो रेखांकित किया जा 
							सके। विभिन्न प्रकार के विमर्श (स्त्री विमर्श, दलित 
							विमर्श अवश्य) अवश्य चल रहे हैं। पिछले दस-ग्यारह 
							वर्षों में ब्रिटेन के कई लेखकों ने नॉस्टैलजिया से 
							बाहर निकल कर नई जमीन तोड़ी हैं। समाज में बदलाव आता 
							है। संसार में हर चीज बदलती है। खान-पान, रहन-सहन आदि 
							आदि। व्यक्ति समाज में रहता है। समाज से अलग उसका कोई 
							अस्तित्व नहीं है।। व्यक्ति और समाज की बदलती 
							परिस्थितियाँ ही संवेदनशील रचनाकार को सृजन के लिए 
							उद्वेलित करती हैं। मानी हुई बात है परिस्थितियों के 
							बिना कहानियाँ रूपाकार नहीं हो सकती हैं। ६०-७० के दशक 
							का नस्ली, रंग-भेदवाला ब्रिटेन ९० के दशक में आते-आते 
							बहुसांस्कृतिक और बहुभाषीय हो गया। ब्रिटेन का समाज 
							बदला तो ब्रिटेन की हिंदी कहानी भी बदली। आज ब्रिटेन 
							की हिंदी कहानियों में यहाँ के सामाजिक सरोकारों 
							परिवेश और स्थानीयता का सजीव चित्रण और वर्णन मिलता 
							है।
 
 यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ब्रिटेन के 
							लेखक किसी वाद विशेष के तहत नहीं लिखते हैं। हाँ, यदि 
							लिखने के बाद वह किसी वाद विशेष के अंतर्गत आ जाए तो 
							वह दूसरी बात है। वे अपनी कहानियों में भिन्न भिन्न 
							देशी-विदेशी परिवेश और परिस्थतियों के प्लॉट और चरित्र 
							लाते हैं और उसके सही निर्वाह का प्रयास भी करते हैं। 
							एक कथाकार की संवेदनाएँ समय की धड़कन को अपने में समों 
							लेती हैं। यह समोना कोई सचेत प्रक्रिया नहीं होती है 
							जिसमें लेखक सचेत रूप से अपने समय के कालबोध को पाठक 
							तक पहुँचाने के लिए कहानी के माध्यम का प्रयोग करे। 
							लेखक कहानी दे सकता है किंतु उसकी आलोचना तो उसके पाठक 
							ही करेंगे। लेखक के अंदर पैठी पूर्वागृह और श्रेष्ठता 
							की भावना उसकी कमज़ोरी होती है जिससे उसे बचना चाहिए।
 
 पिछले बीस वर्षों में हमारे चार-पाँच कथाकारों की 
							लेखनी अन्य विधाओं और परिस्थतिवश किसी अन्य भाषा की ओर 
							मुड़ गई साथ ही हमारे छः विशिष्ठ साहित्यकार रमा 
							भार्गव, डॉ. ओंकार श्रीवास्तव, कीर्ति चौधरी, डॉ. 
							फिरोज मुखर्जी, प्रतिभा डावर, श्री महावीर शर्मा 
							स्वर्गवासी हुए। दिवंगत कथाकारों को श्रद्धांजलि देते 
							हुए यह आलेख समाप्त करती हूँ।
 
					टिप्पणी- लेखिका 
					ने सूचित किया है उन्हें अभी पता चला है कि स्वतंत्रता से 
					पूर्व १९३० में ब्रिटेन से लिखी गई पहली हिंदी कहानी प्रेमचंद 
					धनी की है। संदर्भ नहीं मिल रहा है यह राजेन्द्र यादव ने बताई 
					है आगे वह कुछ और नहीं बता सके। यदि किसी के पास कोई और सूचना 
					हो तो लेखिका को या अभिव्यक्ति को ईमेल करें। 
                            ११ 
							जुलाई 
							२०११ |