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					१२१वीं सदी का बाल-साहित्य : विभिन्न भाषाओं से अनुवाद के 
					संदर्भ में
 
 -दिविक 
					रमेश
 
 
							अनुवाद की बात करना प्राय: तब जायज माना जाता है जब 
							मूल महत्त्वपूर्ण और समृद्ध हो। भारतीय भाषाओं की बात 
							करें तो नि:संदेह बंगला और मराठी जैसी भाषाओं के 
							समृद्ध और महत्त्वपूर्ण बाल-साहित्य की भांति आज 
							हिन्दी का बाल-साहित्य भी मह्त्त्वपूर्ण और समृद्ध है। 
							इस नाते यदि हिन्दी-बाल-साहित्य के संदर्भ में भी 
							अनुवाद की दृष्टि से विचार किया जाए तो तर्कयुक्त ही 
							कहा जाएगा। लेकिन बहुभाषी भारत के संदर्भ में तो मेरे 
							विचार से सभी भाषाओं के बाल-साहित्य के एक दूसरे की 
							भाषा में अनुवाद की आवश्यकता है।  बावजूद इसके 
					कि कई भाषाएँ ऐसी भी हैं जिनसे या जिनमें हिन्दी बाल-साहित्य 
					का अनुवाद करना कोई आसान काम नहीं है। मसलन र. शौरिराजन के 
					अनुसार शब्द, वाक्य-रचना, व्याकरण आदि की भिन्न्ता के कारण 
					अनुवाद की दृष्टि से हिन्दी और तमिल में आदान-प्रदान सरल नहीं 
					है।यह मत उन्होंने बहुत पहले मधुमती (१९६७) के बाल विशेषांक 
					में प्रकट किया था। आज कमोबेश सभी भारतीय भाषाओं में 
					बाल-साहित्य की भी प्रकाशित सामग्री उपलब्ध है। यदि हम चाहते 
					हैं कि हमारे देश की एक बड़ी अनिवार्य जरूरत की तहत भावनात्मक 
					एकता के स्वरूप की महत्तवपूर्ण जानकारी और उसके सच्चे संस्कार 
					हमारे बच्चों में सहज और पुख्ता ढ़ंग से घर कर लें तो नि:संदेह 
					यह कार्य बाल-साहित्य के आदान-प्रदान से ही संभव हो सकता है। 
					आज न बड़ों के और न ही बालकों के दायरे संकुचित रह गए हैं, ऐसी 
					स्थिति अपेक्षित भी नहीं है।  हम वैश्विक 
					होने की होड़ में हैं। सूचनाओं और जानकारियों को भण्डार हमारे 
					सामने खुला पड़ा है। मूल्यों की कोई एक परिभाषा नहीं रह गई है। 
					बिना सोचे-समझे अपनी-अपनी परिभाषाओं से चिपके रहना कोई अच्छी 
					राह नहीं मानी जाती। हालाँकि मूल्यविहीनता का मूल्य किसी को 
					स्वीकार नहीं है -बच्चों की दुनिया में तो एकदम नहीं। लेकिन 
					मूल्यों का आरोपण या उनका उपदेशीकरण भी आज बच्चों तक को 
					ग्राह्य नहीं है। अत: बाल-साहित्य सृजन, आज के साहित्यकार के 
					लिए एक बड़ी चुनौती भी है। अत: बालक के एक बड़े और व्यापक परिवेश 
					की सोच के बिना किसी भी भाषा का बाल-साहित्य सम्पूर्ण नहीं 
					माना जाएगा। और इतने बड़े देश में, इतनी भाषाओं के बच्चों के 
					संदर्भ में यह कार्य अनुवाद के माध्यम से बखूबी संभव हो सकता 
					है। अनुवाद हर भाषा को अपने-अपने क्षितिज व्यापक करने का अवसर 
					प्रदान करता है। आदान-प्रदान हर हाल भारतीय और वैश्विक 
					बाल-साहित्य के विकास में मदद करता है। अगले पड़ावों के रूप में 
					भारतीय बाल-साहित्य और वैश्विक बाल-साहित्य की प्रतिष्ठापना की 
					जा सकती है।  हम विश्व के 
					बाल-साहित्य के परिदृष्य में दृढ़ पाँव जमा सकते हैं और ऐसा 
					करके हम मानवीयता से भरपूर वैश्विक बालक और उसके साहित्य को 
					प्राप्त कर सकते हैं। स्पष्ट है कि यही वह राह है जो हमें मानव 
					और विश्व को बचाए रखने में कारगर ढंग से मदद कर सकती है। इस 
					संदर्भ में मैं अपनी पहले ही से बनी एक राय ज़रूर बाँटना 
					चाहूँगा कि विश्व तक जल्दी से जल्दी पहुँचने के लिए हिन्दी को 
					अन्य भारतीय भाषाओं का द्वार बनाना ज़्यादा व्यावहारिक होगा। 
					अर्थात सभी भारतीय भाषाओं के बाल-साहित्य का यदि हिदी में 
					अनुवाद उपलब्ध कराने की व्यवस्था कर ली जाए तो विदेशी भाषाओं 
					के संदर्भ में केवल एक भारतीय भाषा ’हिन्दी’ के माध्यम से उन 
					भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से पहुँचना बहुत सरल तो होगा ही, 
					प्रमाणिक भी होगा क्योंकि हमारे देश का एक एक हिस्सा 
					सांस्कृतिक दृष्टि से तो एक है ही।  सच तो यह है कि जब तक स्रोत 
					और लक्ष्य भाषाओं में सीधे-सीधे अनुवाद करने वालों का अभाव है 
					तब तक किन्हीं भी दो भारतीय भाषाओं में भी बाल-साहित्य की 
					सच्ची पहुँच के लिए ’हिन्दी’ का माध्यम सबसे ज़्यादा उपयुक्त 
					होगा न कि अँग्रेजी का। कम से कम २१ वीं सदी में तो हमें इस 
					तथ्य को स्वीकार कर ही लेना चाहिए। आज इस बात की भी खासी ज़रूरत 
					है कि हिन्दी और भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य को दोयम दर्जे 
					का मानने वाले से सीधी टक्कर ली जाए। 
					जयप्रकाश भारती जैसे साहित्यकार 
					इस दिशा में आदर्श कहे जाएँगे। 
 यहाँ मैं बाल-साहित्य की पहचान से संबद्ध पहले ही से बना अपना 
					यह मत भी बता दूं कि बाल-साहित्य के अन्तर्गत मैं केवल 
					रचनात्मक बाल-साहित्य अर्थात कालात्मक अनुभूति जन्य 
					बाल-साहित्य को ही स्वीकार करता हूँ न कि अध्ययन, शोध, जानकारी 
					अथवा तथ्यजन्य बालोपयोगी बाल-साहित्य को। और जिसे मैं 
					बाल-साहित्य के अन्तर्गत मान रहा हूँ उसी के अनुवाद का मसला 
					कठिन और चुनौतीपूर्ण होता है। यही वह साहित्य होता है जिसके 
					अनुवाद का मतलब एक भाषा के शब्दों को दूसरी भाषा के शब्दों में 
					रख देना मात्र नहीं होता। यहाँ आत्मा का अर्थात संस्कृति, पाठ 
					आदि सब का अनुवाद करना होता है। और 
					यह भी कि अनुवाद के माध्यम से एक भाषा मे लिखी रचना अन्य भाषा 
					में पहुँचकर भी रचना ही लगनी चाहिए। अर्थात दूसरी भाषा की 
					प्रकृति के एकदम अनुकूल - अनूदित कविता पहले कविता होनी चाहिए। 
					यह अनुवादक की दोनों भाषाओं पर अधिकार मात्र से संभव नहीं होता 
					बल्कि भाषाओं से जुड़े जीवन और संस्कृति आदि के गहरे अनुभवात्मक 
					ज्ञान से अधिक संभव होता है। अनुवाद को लेकर विद्वानों में जो 
					शब्दश: अथवा कलात्मक या मुक्त अनुवाद की बहस है, उसके संदर्भ 
					में मेरा निवेदन तो यही है कि जहाँ तक रचनात्मक बाल-साहित्य के 
					अनुवाद की बात है, संतुलन करते हुए कलात्मक या मुक्त अनुवाद की राह 
					पकड़नी चाहिए।
 पीताम्बार पबिल्शिंग कम्पनी प्रा० लि० द्वारा 
					प्रकाशित स्लोवाकिया की लोक-कथाओं के रस में पगी दिलचस्प 
					कहानियों के अनुवाद की पुस्तक मैत्री का पुल के सम्पादकीय में 
					जयप्रकाश भारती का कहना है -"डॉ. शारदा यादव ने कथाओं का ऐसा 
					अनुवाद किया है कि अनुवाद नहीं लगता।" २००८ में साहित्य अकादमी 
					द्वारा प्रकाशित और प्रीति पंत द्वारा अनूदित "उरुगुवाई बाल 
					कहानियाँ" पढ़ते समय मुझे भारती जी द्वारा बताए गए गुण के भरपूर 
					दर्शन हुए। उदाहरण के लिए मैं एक कहानी गंजा तोता का ज़िक्र कर 
					सकता हूँ। तोते का नाम है -पेद्रीतो। अनुवाद देखिए - "पेद्रीतो 
					उन बच्चों के साथ खूब समय बिताता था। वे उससे इतना कुछ कहते थे 
					कि वह उनकी तरह बोलना भी सीख गया। वह कहता, "मिट्ठू राम राम 
					अहा मीठी मिर्ची! पेद्रीतो का प्याला!" वह और भी बहुत कुछ 
					कहता था, जो कि बताया नहीं जा सकता है, क्योंकि तोते भी बच्चों 
					की ही तरह बुरी बातें आसानी से सीख जाते हैं।" स्पष्ट है कि 
					यहाँ अनुवाद करते समय अनुवादिका ने ध्यान रखा है कि हिन्दी में 
					अनूदित इन कहानियों के पाठक अधिकतर हिन्दी के जानकार भारतवासी 
					होंगे। अत: राम राम आदि वाली सुखद और ज़रूरी छूट ले ली है और 
					कृत्रिम भाषा-परिवेश से अनुवाद को बचा लिया है। 
					 
 २१वीं सदी को ध्यान में रख कर कहा जाए तो भारत की सहवर्ती 
					भाषाओं में बाल-साहित्य के आदान-प्रदान की स्थिति बहुत 
					उत्साहवर्द्धक नहीं है। साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट, 
					चिलड्रन बुक ट्रस्ट जैसी समर्पित और सक्षम संस्थाओं के बावजूद। 
					कहने को अनेक भारतीय भाषाओं में अनूदित रचनाएँ मिल जाएँगी 
					लेकिन संख्या की दृष्टि से अनुवाद बहुत ही कम कृतियों के हैं। 
					विदेशी बाल-साहित्य के अनुवाद भी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित 
					हैं पर वे भी संख्या की दृष्टि से आशाप्रद नहीं हैं। विधाओं की 
					दृष्टि से देखा जाए तो ज़्यादातर अनुवाद गद्य विधाओं में रची 
					रचनाओं के हुए हैं, और उनमें भी अधिकतर ज़ोर लोककथाओं पर रहा 
					है। इतिहास पर नज़र मारी जाए तो पाएँगे कि "हिन्दी बाल-कहानियों 
					का उदय भारतेन्दु युग से माना जाता है। इस काल की अधिकांश 
					कहानियाँ अनूदित हैं। इसके लिए वे संस्कृत की कहानियों के लिए 
					आभारी हैं। सर्वप्रथम शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने कुछ मौलिक 
					कहानियाँ लिखीं, इनमें ‘राजा भोज का सपना’ ‘बच्चों का इनाम’ 
					तथा ‘लड़कों की कहानी’ का उल्लेख किया जा सकता है। आगे चलकर 
					रामायण-महाभारत आदि पर आधारित अनेक कहानियाँ द्विवेदी युग में 
					लिखी गईं। किन्तु हिन्दी बाल कहानी अपने स्वर्णिम अभ्युदय के 
					लिए प्रेमचन्द्र जी की ऋणी है। उनकी अनेक कहानियों में बाल-मन 
					का प्रथम निवेश हुआ और उसकी ज्वलंत झाँकी अनेक कहानियों में 
					मिलती है। बालमन के अनुरूप उनकी बहुत सी कहानियाँ जो कि बड़ों 
					के लिए ही थीं, बच्चों ने उल्लास के साथ हृदयंगम की।" (हिन्दी 
					की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ, उषा यादव एवं राजकिशोर सिंह, 
					आत्माराम एण्ड सन्स, २००१ ) |
 विडम्बना ही है कि कविताओं या 
					कविता-पुस्तकों के अनुवाद अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलते हैं। 
					रमेश कॊशिक ने रूसी बाल कविताओं के अच्छे अनुवाद किए हैं। 
					दिविक रमेश द्वारा चयनित और अनूदित और नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा 
					प्रकाशित कोरियाई कविताओं की पुस्तक ’कोरियाई बाल 
					कविताएँ’ (२००१) बच्चों में बहुत ही लोकप्रिय सिद्ध हुई है। 
					महेश नेवाणी ने सिंधी के साथ हिन्दी में बाल कविताओं के हिन्दी 
					अनुवाद पुस्तक रूप में प्रकाशित किए हैं। पुस्तक का नाम- बधी 
					एकता है जो पहली बार २००५ में प्रकाशित हुई थी। लोकिन पुस्तक 
					खास स्कूली बच्चों के लिए है। ’दो शब्द’ में महेश नेवाणी की 
					चिन्ता विचारणीय है -"सिंधी जाति के लोगों पर से मेरा विश्वास 
					डोल गया है। सिंधी भाषा में कविता करूँ या नहीं इस पर फिर एक 
					बार गौर करना पड़ेगा।"  एक बात यहाँ अवश्य कहना चाहूँगा कि 
					अनुवाद करने से पहले रचानाओं का चयन बहुत सावधानी के साथ किया 
					जाना चाहिए। तब अनु्वाद बहुत प्रभाव छोड़ता है। कठिनाई यह भी है 
					कि अनुवाद को भी दोयम दर्जे का मानने वालों की कमी नहीं है। 
					डॉ. श्याम सिंह शशि कि यह चिन्ता जायज ही है कि "विदेशी भाषाओं 
					के बालसाहित्य-लेखकों में चार्ल्स डिकिंस, मोपांसा, टॉलस्टाय, 
					अरकदे, शैदार का कुछ बालसाहित्य हिंदी में अनूदित हुआ है 
					किंतु तमिल, तेलुगु, कन्नड, मलयालम आदि भारतीय भाषाओं के कई 
					बाल उपन्यास का अनुवाद शायद ही हिंदी में हुआ हो। कैसी विडंबना 
					है ? वास्तव में अनुवाद को भी दोयम दर्जे का लेखन माना जाता 
					रहा है, जिसकी चर्चा हिंदी साहित्य के इतिहासों में प्रायः 
					नगण्य है। बांग्ला से हिंदी में कथा साहित्य का जितना अनुवाद 
					हुआ है - उसकी अपेक्षा एक-तिहाई भी शायद हिंदी से बांग्ला में 
					नहीं हुआ।" फिर भी ऐसा तो कहा ही जा सकता कि २१वीं सदी के एक 
					दशक में अनुवाद के क्षेत्र में भले ही आशा के अनुरूप या पहले 
					की तुलना में संख्या की दृष्टि से थोड़ी कमी नज़र आती हो लेकिन 
					गुणवत्ता की दष्टि से कोई कमी नहीं है।  साहित्य अकादमी को ही 
					लें। साहित्य अकादेमी के प्रकाशन कार्यक्रम की नई योजनाओं में 
					से एक योजना है-विभिन्न भाषाओं में बाल पुस्तकों का 
					प्रकाशन। भारतीय भाषाओं में बाल कृतियों के अनुवादों के प्रकाशन 
					से इस योजना का शुभारंभ किया गया। आकर्षक चित्रों के साथ ये 
					कृतियाँ अकादेमी द्वारा सन् १९९० से प्रकाशित की जा रही हैं। 
					१६ भारतीय भाषाओं की बाल कृतियों के १०० से अधिक अनुवाद तथा 
					साथ ही गारो, बोडो, हमान खासी, काकबरोक और 
					राभा भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित 
					किए जा चुके हैं।
 अनुवाद बहुत बार ऐतिहासिक भूमिका निभा दिया करता है। यह बात 
					कोरिया के बच्चों के पितामह माने जाने वाले सो पा बांग जुंग 
					हवा के हवाले से अच्छी तरह से समझी जा सकती है। सो पा स्वयं 
					बहुत अच्छे बाल-साहित्यकार थे और सथ ही १९२३ में उन्होंने 
					बच्चों के लिए पत्रिका भी निकाली। १९२३ से ५ मई को बाल-दिवस के 
					रूप में स्थापित भी किया ताकि बच्चों में स्वतंत्रता और 
					राष्ट्र का गौरव घर कर सके। उस समय कोरिया जापान के अधीन था। 
					उन्होंने और एक अन्य बहुत बड़े कोरियाई बाल-साहित्यकार (कवि) 
					यून सॉक जुंग ने नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगौर की 
					बच्चे और बचपन पर केन्द्रित बाल-कविताओं की पस्तक ’द क्रीसेंट 
					मून’ का अनुवाद किया था। टैगौर की पुस्तक १९१३ में प्रकाशित 
					हुई थी और स्वयं टैगौर ने अपनी रचनाओं का अँग्रेजी में अनुवाद 
					किया था। खैर। यह वह समय था जब कोरिया में पारम्परिक रूप से 
					बच्चों के साहित्य के प्रति कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता 
					था। इस पुस्तक का अनुवाद न केवल उत्तम कोटि की बाल-कविता का 
					परिचायक माना गया बल्कि कोरियाई बाल-साहित्य के क्षेत्र में 
					नयी शॆली की स्थापना के अवसर के रूप में भी स्वीकार किया गया। 
					स्पष्ट है कि बाल-साहित्य के क्षेत्र में भी,किसी भी दृष्टि 
					से, अनुवाद की भूमिका कम 
					नहीं होती।
 
 यदि बालक सृष्टि की सबसे मूल्यवान रचना है तो बाल-साहित्य का 
					महत्त्व भी कम नहीं है। और भारत के संदर्भ में भारतीय और विश्व 
					के संदर्भ में वैश्विक बालक और बालक की कल्पना बिना अनुवाद के 
					करना आज लगभग असंभव है। इसीलिए भारत में बच्चों की एक अलग 
					केन्द्रीय अकादमी आज की बड़ी जरूरत है जिसकी एक महत्तवपूर्ण 
					गतिविधि अनुवाद कर्म होना चाहिए। विस्तार से फिर कभी।
 आज 
					हिन्दी में बहुत अच्छा लिखा जाने के बावजूद और अच्छा लिखे जाने 
					और उसके समय पर प्रकाशन की प्रेरणादयी स्थितियाँ बनाए बिना न 
					बालक का और न ही मानव का ही हित होने वाला है। जो संस्थाएँ 
					अपने सीमित साधनों के द्वारा इस दिशा में कुछ काम कर रही हैं 
					उन्हें बढ़ावा मिलना चाहिए। फिर उतना ही ध्यान अनुवाद पर देना 
					होगा। यूँ हिन्दी में बाल साहित्य की बिक्री, यदि प्रकाशकों की 
					माने तो उत्साहवर्द्धक है -"वाणी प्रकाशन के प्रेमकिरण जी ने 
					बताया कि उपन्यास, कहानी संग्रह के अलावा बाल साहित्य से जुड़ी 
					पुस्तकों की अच्छी बिक्री है। साहित्य अकादमी के स्टाल पर 
					विभिन्न भाषाओं की अनूदित बाल साहित्य व लोक कथाएँ संबंधी 
					पुस्तकों की काफी बिक्री है। राजकमल प्रकाशन के दिनेश आधार 
					पाण्डेय ने बताया कि अल्बर्ट आइंस्टाइन की जीवनी, रवीन्द्रनाथ 
					टैगोर की गीतांजलि, गुणाकर मुले की अक्षर कथा व तारों भरा आकाश 
					समेत अन्य प्रसिद्ध कहानियों की किताबों की अच्छी बिक्री 
					है।"(पटना, पुस्तक मेला )। हैरी पोटर(जे.के. राउलिंग) को ही 
					लें। भारत तथा विश्व की चौंसठ भाषाओं में उसके अनुवाद छप चुके 
					हैं। करोड़ों बाल पाठकों ने उन्हें पढ़ा है। वस्तुत: भारतीय 
					बालसाहित्य और हिन्दी में बाल साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है। 
					हाँ उसे हैरी पॉटर की तरह प्रमोट करना भी आना चाहिए।  यहीं पर 
					थोड़ा विषयांतर करते हुए मैं इस संतुलित दृष्टि का भी समर्थन 
					करना चाहूँगा -"हम बालसाहित्य के लेखकों से कहना चाहेंगे कि वे 
					इक्कीसवीं सदी के बालक को ध्यान में रखते हुए उत्तर कंप्यूटरी 
					युग तक की कल्पना करेंगे तो भारतीय बालसाहित्य विश्व स्तर पर 
					समसामयिक रूप ले सकेगा।हाँ, उसे रामायण, महाभारत तथा भारत के 
					स्वर्णिम इतिहास का ज्ञान कराना भी आवश्यक है।हिंदी बालसाहित्य 
					के लेखकों में प्रायः बहस होती रही है कि उन्हें परी कथाएँ 
					लिखनी चाहिए या विज्ञान कथाएँ? हमारा मानना है कि बचपन को 
					कल्पना लोक में विचरने के लिए परी कथाएँ भी 
					चाहिए किंतु भूत-प्रेत या 
					अंधविश्वास का मनोरंजन बाल मन से खिलवाड़ होगा।"
 खैर चलते चलते मैं इस सदी की हिन्दी में अनूदित कुछ पुस्तकों 
					की और ध्यान दिलाना चाहूँगा, वे हैं -सुकुमार राय की चुनिन्दा 
					कहानियाँ (अनुवादक : अमर गोस्वामी, साहित्य अकादमी, २००२), 
					जापान की कथाएँ (साहित्य अकादमी, २००१), जादुई बांसुरी और 
					अन्य कोरियाई कथाएँ (अनुवादक: दिविक रमेश नेशनल बुक ट्रस्ट, 
					२००९), कोरियाई लोक कथाएँ (अनुवादक: दिविक रमेश पीताम्बर 
					पब्लिशिंग कम्पनी, २०००)। एक प्रकाशन है -तूलिका। इसने इसी सदी 
					में द्विभाषी अर्थात अंग्रजी और हिन्दी में अनेक पुस्तकें 
					प्रकाशित की हैं। असल में यह पुस्तक-शृंखला है। प्रकाशक के 
					अनुसार इन पुस्तकों से बच्चों की शब्द-कल्पना-शक्ति बढ़ेगी- 
					द्विभाषी पुस्तकों की यह शृंखला, कहानी सुनाने के माहौल में 
					तस्वीरों की मदद से बच्चों की शब्द अनुमान शक्ति और शब्द भंडार 
					बढ़ाने में मदद करती है।
 एक खबर के अनुसार -" बच्चों के लिए काम 
					करनेवाली गैरसरकारी और गैरव्यावसायिक संस्था ‘कथा’ ने बच्चों 
					के लिए हिंदी भाषा में तीन पुस्तकें तैयार की हैं। तीनों 
					पुस्तकें अन्य भाषाओं से हिंदी में अनूदित हैं। अनुवाद में 
					हिंदी की आत्मा कितनी उतर पाई है या फिर कथाओं के तार 
					स्थानीयता और बाल सुलभ भावनाओं के साथ कितना जुड़ पाते हैं? 
					शायद ये अलग मुद्दे होकर भी वैश्विक युग में ज्यादा मायने नहीं 
					रखते, लेकिन बच्चे पुस्तक को देखने के बाद उसे हाथ में लेते 
					हैं, उसके पृष्ठों पलटते हैं और पुस्तकों के चित्रों में रम 
					जाते हैं। इन पुस्तकों की यही ताकत है और बच्चों की पुस्तकों 
					में यह ताकत होनी भी चाहिए। बच्चे चित्रों के जरिए शब्दों की 
					पहचान कर लेते हैं और पृष्ठों को पलटते जाते हैं। पुस्तकों के 
					निर्माण में संसाधनों की सुलभता का स्पष्ट दर्शन होता है, साथ 
					ही उस सुरुचि का भी, जिसके बगैर इस दर्जे का काम कर पाना असंभव 
					है।लेकिन इसके साथ ही पुस्तकों की कीमतें भी अधिक हैं। ‘सूई की 
					नोक पर था एक’ गीता धर्मराजन द्वारा रचित अंग्रेजी भाषा की 
					पुस्तक ‘ऑन द टिप ऑफ ए पिन वाज’ को विवेक नित्यानंद और मोयना 
					मजुमदार ने हिंदी में रूपांतरित किया है।  इसी तरह बियाट्रिस 
					आलेमान्या द्वारा फ्रेंच भाषा में लिखी पुस्तक ‘ए लॉयन इन 
					पेरिस’ को हिंदी में अनुदित किया है मोयना मजुमदार ने। इस 
					पुस्तक की कथा पेरिस के प्रसिद्ध दोंफेर-रोशेरो चौराहे पर 
					स्थापित शेर से प्रेरित है। यह पुस्तक अनोखी है। कथा की तीसरी 
					पुस्तक है ‘उल्टा पुल्टा’। जर्मन भाषा की लेखिका ऑत्ये दाम्म की 
					बच्चों के लिए लिखी गई पुस्तक 'फ्लिडोलिन’ का हिंदी अनुवाद 
					है। अनुवाद मोयना मजुमदार ने किया है। यह कहानी चमगादड़ों के 
					माध्यम से बच्चों में कुतूहल और सूझ-बूझ पैदा करती है। बहरहाल, 
					इस सुरुचिपूर्ण कार्य के लिए ‘कथा’ और उसके साथ जुड़े लोग 
					साधुवाद के पात्र हैं।" किताबघर प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, आलेख 
					प्रकाशन और आत्माराम एण्ड संस जैसी अनेक महत्तवपूर्ण संस्थाएँ 
					हैं जिनका बाल साहित्य में भी अच्छा खासा हस्तक्षेप है। आशा की 
					जा सकती है कि ये अनुवाद के क्षेत्र में भी, खासकर बाल कविता 
					के अनुवाद के क्षेत्र में अधिक से अधिक कृतियाँ लाएँगी। 
                            १६ मई 
							२०११ |