द्वारा मुक्तिबोध की कविताओं को ही
नहीं बल्कि लंबी कविताओं की चेतना के विस्तार को भी
समझा जा सकता है। कहानी का एक अंश प्रस्तुत है-
''मैंने एक कहानी लिखी। चार पन्ने लिखने के बाद मालूम
हो गया कि वह उस तरह आगे नहीं बढ़ाई जा सकती। मुख्य
पात्र की ज़िंदगी थी, मैं भाष्यकर्ता दर्शक कि हैसियत
से एक पात्र बना हुआ था। कहानी बढ़ सकती थी बशर्ते कि
मैं मूर्खता को कला समझ लेता। और अब मैं यह सोचने लगा
कि कहानी आगे क्यों नहीं बढ़ रही है। एक दीवार खड़ी हो
गई है। वह क्यों हुई? मेरे मन ने लिखने से क्यों इनकार
कर दिया?
''बहुत दुख है कि मैं कहानी नहीं लिख पाया। बाद में
उसी तैश में कुछ लकीरें शब्दों में बाँध दी, जो इस
प्रकार हैं -
'फाँसी पाना, मरना अच्छा होता है।
मन बच्चा है।
अगर आदमी बना न पाओ
उसे मार दो।
मन-
कच्ची माटी आकार न दो उसको
अगर बनाओगे घट,
उसको भर न सकोगे
जब घट खाली रहा कि
कोई विशाल प्रतिध्वनि की गहरी आवाज़
उभरती आएगी उसमें से
इस घट में से गहरी गूँज
निकलती है जो
उसे अनसुनी कर, ओ जीने वालों,
घड़ा फोड़ दो
उसकी आवाज़ न सह पाओगे।''
मुझे मालूम नहीं किस वस्तुगत संदर्भ से यह बात कही गई।
मैं घपले में पड़ा हुआ हूँ। अरे, कोई मुझे सहायता दे।
लेकिन यह मैं कैसे कहूँ कि इस कविता का कोई अर्थ नहीं
है? अर्थ है, लेकिन वह मेरी बुनियाद नहीं है। बुनियाद
कोई और थी, जहाँ पर मैं खड़ा था, जहाँ से मैं चला था।
कहाँ से मैं चला था?
इसी कहानी के दौरान में, मैंने एक और कविता भी लिख दी
थी। अगर आप मुझे समझना चाहते हैं तो उसे कृपा कर पढ़
लीजिए। वैसे मुझे यह कविता सुनानी चाहिए। पहले की
कविता पढ़ने की था, यह सुनाने की है -
'हाथ मटकाते हुए, कुछ बुदबुदाते हुए, पागल-सी भागती
वे, और बुझती-भड़कती वे क्षुब्ध चंचल-सी, स्वयं से
विकसी भयंकर ज्वलन रेखाएँ झपटती-सी चौमुखी वे
अग्नि-शाखाएँ प्रकट होतीं, गुप्त होतीं, नील लहरें
चौंधियाती हैं। आसमानी बादलों पर आत्म-चिंता फैल जाती
है।
कविताएँ मैंने आपको इसलिए बताईं कि
जब कहानी लिख न पाया तब उसका आवेग मन में बचा रहा। भाव
नहीं, विचार नहीं, कथानक नहीं, पात्र नहीं, प्रसंग
नहीं। मात्र एक उद्वेग, मात्र एक आवेग। जब मैंने ये
कविताएँ लिखीं तब मुझे समझ में आया कि आवेग कितना
ज़ोरदार था। उसे किसी न किसी तरह अपने को प्रकट करके
बिलकुल खो देना था।
'प्रकट करके अपने को खो देने वाली यह बात बड़े मारके
की है। शायद हर लेखक को इस समस्या को सामना करके हल
खोज लेना पड़ता है। मैं तो क्षणिक उच्छवासों की कविता
करना ही जुर्म समझता हूँ- मतलब कि लिखना टाल जाता
हूँ।'
वस्तुतः कहानियाँ नहीं लिख पाते और
बीच में ही कविता करने लगते हैं। इससे यह अनुमान लगाया
जा सकता है कि उनकी अधूरी कहानियाँ लंबी कविताओं में
परिणत हो गई। ऐसी कविताएँ जो-
'नहीं होती, कहीं भी खत्म कविता नहीं होती
कि वह आवेग - त्वरित काल-यात्री है।
व मैं उसका नहीं करता,
पिता-धाता
कि वह कभी दुहिता नहीं होती
परम स्वाधीन है, वह विश्व शास्त्री है।'
गहन गंभीर छाया आगमिष्यत की
लिए, वह जन-चरित्र है।
नए अनुभव व संवेदन
ने अध्याय-प्रकरण जुड़
तुम्हारे कारणों से सकुच जाती है।
कि मैं अपनी अधूरी बीडियाँ सुलगा,
ख्याली सीढ़ियाँ चढ़कर
पहुँचता हूँ
निखरते चाँद के तल पर
अचानक विकल होकर तब मुझी से लिपट जाती है।'
लंबी कविताएँ कहीं भी खत्म नहीं
होती, जिस प्रकार कवि अपनी अधूरी बीड़ियाँ सुलगाकर
ख्याली सीढ़ियाँ चढ़कर फिर से कुछ लिखने लगता है उसी
तरह लंबी कविताएँ कुछ देर सुस्ताकर दूसरी कविता का रूप
धारण कर लेती है। नए अनुभव व संवेदन नए
अध्याय-प्रकरणों से जुड़कर अचानक विकल होकर मुक्तिबोध
से लिपट जाती है और किसी न किसी तरह अपने को प्रकट
करके बिल्कुल खो देती है।
आज जिन अर्थों में हम लंबी कविताओं
को जानते हैं उन अर्थों में मुक्तिबोध की कविताओं से
ही लंबी कविताओं की कहानी शुरू होती है परंतु छायावादी
कविताओं में इस परंपरा के बीज देखे जाते हैं-
'छायावाद का जन्म हुआ छोटी कविताओं से, परंतु उसे
प्रतिष्ठा मिली लंबी कविताओं से ही जिसमें 'कामायनी'
को भी गिना जा सकता है। छायावाद में लंबी कविताओं के
महत्व को निःसंकोच स्वीकारा जा सकता है क्यों कि
छायावादी वृहत्रयी के तीनों कवि प्रसाद, पंत और निराला
ने लंबी कविताएँ लिखी वह एक मुद्दा है जिस पर विचार
करना आवश्यक है। ये समस्त कविताएँ उस दौरान लिखी गई
हैं जबकि प्रबंधात्मक रचना विधान को विशेष सम्मान
प्राप्त था। डॉ. नरेंद्र मोहन के अनुसार जिन कविताओं
की रचना के दौरान ये कवि निश्यय ही अपने रचनात्मक
अभ्यासों और रचनाशील मानसिकता से जूझे होंगे और उन्हें
अपने अभ्यस्त प्रगीतात्मक रूप-विधान की सीमाओं से बाहर
आने या ऊपर उठने के लिए रचनात्मक तौर पर संघर्षरत होना
पड़ा होगा।'
यह तो स्पष्ट है कि छायावाद ने
परंपरागत प्रबंधात्मक रचनाओं से भिन्न काव्य रूप को
जन्म दिया परंतु यह भी ध्यान देने योग्य है कि
छायावादी कवियों को अभ्यस्त प्रगीतात्मक रूप-विधान की
'सीमाओं' से जूझना पड़ा और दूसरी बात यह है कि
छायावादी लंबी कविताओं में किसी न किसी कथा का आधार
लिया गया है, पंत के परिवर्तन को छोड़कर। परंतु
मुक्तिबोध की लंबी कविता न तो किसी अभ्यस्त
काव्य-विधान से जूझती है और न ही कथा-कहानी का आधार
लेती है बल्कि कहानी की मरुभूमि से एक ऐसे झरने की
भाँति फूट पड़ती है जो सूख जाने तक बहती है। उनकी सारी
अपूर्ण कहानियाँ लंबी कविताओं को रूप धारण करती हैं।
कहानियाँ वे पूरी नहीं कर पाते क्यों कि वह सही संगत
निष्कर्षों तक नहीं पहुँच पाते हैं और परिणामतः 'चाँद
का मुँह टेढ़ा है' का संपूर्ण काव्य संकलन नाममात्र के
लिए अनेक कविताओं का संकलन बन पड़ा है। ऐसा लगता है कि
एक ही कविता विस्तार पा रही है- अद्यंत रहित कविता।
उनके अनुभवों का कच्चा-चिट्ठा। आधुनिक जीवन की जटिल
प्रक्रियाओं एवं अवधारणाओं में फँसा एक मामूली मानव की
समष्टि चेतना ही कविता का रूप धारण करती है।
यों तो लंबी कविताओं को कथा, भाषा,
बिंब, प्रतीक, नाटकीयता और फैंटसी आदि के आधार पर
वर्गीकृत किया जाता है परंतु लंबी कविता सबसे पहले
पढ़ने की कविता है और इस दृष्टि से सौमित्र मोहन की 'लुकमान
अली' महत्वपूर्ण है। पढ़ने की कविता में यथार्थ के
दबाव को महसूस किया जा सकता है। ऐसा यथार्थ जो बहुमुखी
परिवर्तनों का परिणाम है। एक 'अपूर्ण और अवरुद्ध' आथिक
और सांस्कृतिक परिवर्तनों के दुष्चक्र में फँसे आम
आदमी की अधूरी कहानी की काव्यात्मक परिणति ही लंबी
कविता का मूलाधार है।
संदर्भ ग्रंथ
१. मुक्तिबोध रचनावली, पृ १२२-१२३
२. चाँद का मुँह टेढ़ा है- गजानन माधव मुक्तिबोध,
अष्टम संस्करण (१९८५), भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
३. परिवर्तन और विकास के सांस्कृतिक आयाम- पूरणचंद
जोशी- राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पटना प्र.स. १९८७
४. नयी लंबी कविता को लंबी कविताएँ- डॉ. रामसुधार
सिंह, राधा पब्लिकेशन्स, नयी दिल्ली-११०००२.
१ जुलाई २००७ |