प्रारंभ में ही कहना
चाहूँगा कि हिंदी का बाल-साहित्य उपेक्षित और अपढ़ा
अथवा अचर्चित भले ही हो लेकिन किसी भी दृष्टि से कम
महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि कहा जा सकता है कि आज हिंदी
के पास समृद्ध बाल-साहित्य, विशेष रूप से बाल-कविता
उपलब्ध है। और इसका अर्थ यह भी नहीं कि बाल-साहित्य की
अन्य विधाओं, मसलन कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी आदि के
क्षेत्र में उत्कृष्ट सामग्री उपलब्ध न हो। बाल-नाटकों
की एक अच्छी पुस्तक 'उमंग' हाल ही में सुप्रसिद्ध
कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी के संपादन में राजकमल से
प्रकाशित हुई है।
यहाँ यह भी स्पष्ट कर
दिया जाए कि बाल-साहित्य का मूल आशय बालक के लिए
सृजनात्मक साहित्य से है। बहुत से लोग बालक के लिए
'उपयोगी' अथवा शिक्षाप्रद साहित्य को भी बाल-साहित्य
में, ठीक-गलत, गिन लिया करते हैं। उदाहरण के लिए
साइकिल पर कविता और साइकिल से संबद्ध, बालक को ध्यान
में रख कर प्रस्तुत की गई जानकारीपूर्ण सामग्री दो
अलग-अलग रूप हैं। पहला सृजनात्मक साहित्य है तो दूसरा
उपयोगी। जानकार लोग यह भी जानते हैं कि भले ही, हिंदी
में, केवल बाल-साहित्य के रचनाकारों की संख्या न के
बराबर रही हो लेकिन बड़ों के लिए लिखने वाले कितने ही
रचनाकारों ने समृद्ध बाल-साहित्य की रचना की है। श्री
जयप्रकाश भारती की पुस्तक 'बाल-साहित्य इक्कीसवीं सदी
में' और प्रकाश मनु की पुस्तक 'हिंदी बाल कविता का
इतिहास' इस दृष्टि से भी पढ़ी जा सकती हैं। कहानी के
क्षेत्र में तो संस्कृत में ही विश्व ख्याति का
बाल-साहित्य उपलब्ध हो गया था, जैसे पंचतंत्र। हिंदी
में जहाँ अनूदित साहित्य के रूप में बाल-साहित्य या
बाल-कहानी (साहित्य) उपलब्ध हुआ वहाँ मौलिक कहानियाँ
भारतेंदु युग से ही उपलब्ध होनी शुरू हो गई थीं।
शिवप्रसाद सितारे हिंद को कुछ विद्वानों ने बाल कहानी
के सूत्रपात का श्रेय दिया है। उनकी कुछ कहानियाँ हैं
-- राजा भोज का सपना, बच्चों का ईनाम, लड़कों की
कहानी। बाद में तो रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्रा कुमारी
चौहान, प्रेमचंद आदि की रचनाओं के रूप में हिंदी
बाल-साहित्य की कहानी परंपरा का समृद्ध रूप मिलता है।
स्वतंत्रता मिलने के बाद तो इस क्षेत्र में अत्यंत
उल्लेखनीय प्रगति देखी जा सकती है।
विष्णु प्रभाकर,
जयप्रकाश भारती, राष्ट्रबंधु, हरिकृष्ण देवसरे, क्षमा
शर्मा, यादवेंद्र चंद्र शर्मा, चक्रधर नलिन, दिविक
रमेश, उषा यादव, देवेंद्र कुमार आदि कितने ही नाम
गिनाए जा सकते हैं। कविता के क्षेत्र में भी जो
अद्वितीय साहित्य रचा गया है, उसे ध्यान में रखते हुए
स्व. जयप्रकाश भारती ने इस समय को बाल-साहित्य का
स्वर्णिम युग कहा था। परंपरा को खोजते हुए वे श्री
निरंकार देव सेवक की महाकवि सूरदास को सफल बाल गीतकार
न मानने की धारणा से भिन्न, स्नेह अग्रवाल के मत का
समर्थन करते हुए सूरदास को ही बाल-साहित्य का आदि गुरु
मानते हुए प्रतीत होते हैं। हाँ, यह भी सत्य है कि
सूरदास से पूर्व भी हिंदी के ऐसे कवि उपलब्ध हैं जिनकी
रचनाएँ अपने आंशिक रूपों में बच्चों को भी सृजनात्मक
साहित्य का आनंद देती रही है। जगनिक द्वारा रचित आल्हा
खंड के कुछ अंश ग्रामीण बच्चों में प्रचलित रहे हैं।
अमीर खुसरो की रचनाएँ बच्चों को भी प्रिय हैं। जहाँ तक
बालक की पहली पुस्तक का प्रश्न है, तो वह 1623 ई. में
जटमल द्वारा लिखित 'गोरा बादल की कथा' मानी जाती है।
मिश्र बंधुओं ने पुस्तक की भाषा में खड़ी बोली का
प्राधान्य माना है। इस कृति में मेवाड़ की महारानी
पद्मावती की रक्षा करने वाले गोरा-बादल की कथा है।
बाल-कविता के क्षेत्र में श्रीधर पाठक, विधाभूषण
'विभु', स्वर्ण सहोदर, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी,
सोहनलाल द्विवेदी आदि कितने ही रचनाकारों की रचनाएँ
अमर हैं।
स्वाधीन भारत में
बाल-साहित्य और साहित्यकार की भले ही घनघोर उपेक्षा
होती आई हो लेकिन रचनाओं की दृष्टि से निसंदेह यह युग
स्वर्णिम युग है और विश्व की अन्य श्रेष्ठ बाल-रचनाओं
के लिए चुनौतीपूर्ण है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,
श्रीप्रसाद, दामोदर अग्रवाल, शेरजंग गर्ग, दिविक रमेश,
बालकृष्ण गर्ग, रमेश तैलंग, प्रकाश मनु, लक्ष्मीशंकर
वाजपेयी, रमेश कौशिक, कृष्ण शलम, अहद प्रकाश,
श्यामसिंह शशि, जयप्रकाश भारती, राधेश्याम प्रगल्भ,
श्याम सुशील आदि एक बहुत ही लंबी सूची के कुछ
उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण बिंदु हैं। इनके अतिरिक्त
बच्चन, भवानीप्रसाद मिश्र, प्रभाकर माचवे जैसे कवियों
ने भी बाल-कविता-जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज की है।
नमूने के तौर पर एक कवितांश 'विभु' जी से और दूसरा
स्वतंत्रता के बाद की कविता से उद्धृत है :
1.
घूम हाथी, झूम हाथी
घूम हाथी, झूम हाथी
राजा झूमें, रानी झूमें, झूमें राजकुमार
घोड़े झूमें, फौजें झूमें, झूमें सब दरबार
2.
अगर पेड़ भी चलते होते
कितने मज़े हमारे होते।
बाँध तने में उसके रस्सी
चाहे कहीं संग ले जाते
जहाँ कहीं भी धूप सताती
उसके नीचे झट सुस्ताते
जहाँ कहीं वर्षा हो जाती
उसके नीचे हम छिप जाते।
अगर पेड़ भी चलते होते
कितने मज़े हमारे होते।
(दिविक रमेश)
1947 से 1970 तक के
समय को हिंदी बाल-कविता की ऊँचाइयों का समय या 'गौरव
युग' माना गया है क्यों कि प्रकाश मनु के शब्दों में,
'इस दौर को 'गौरव युग' कहने का अर्थ यह है कि इस दौर
में बाल कविता में जितनी उर्जित, काव्य-क्षमतापूर्ण,
संभावनापूर्ण और नए युग की चेतना से लैस प्रतिभाएँ
मौजूद थीं, वे न इससे पहले थी और न बाद में ही नज़र
आती हैं। इस मत से पूरी तरह सहमत होना तो किसी भी सचेत
पाठक के लिए कठिन होगा - विशेष रूप से उनके इस मत से
कि वे न इससे पहले थीं और न बाद में ही नज़र आती हैं`
फिर भी उनके अतिरिक्त उत्साह को हटा कर उनके शेष भाव
को ठीक माना जा सकता है। वस्तुत: स्वतंत्रता के बाद अब
तक की पूरी बाल कविता को दृष्टि में रख कर बात की जाए
तो ठीक रहेगा। बाल कविता के अनेक ऊँचे शिखर उपलब्ध हो
जाएँगे। निसंदेह इस समय में दामोदर अग्रवाल, शेरजंग
गर्ग, श्रीप्रसाद और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ऊँचे
शिखरों में भी ऊँचे हैं। पहले के ऊँचे शिखर जैसे
स्वर्ण सहोदर, निरंकार देव सेवक, शकुंतला सिरोठिया,
सोहनलाल द्विवेदी इस दौर में भी सक्रिय थे।
कुछ बानगियाँ :
बड़ी शरम की बात है
बिजली, बड़ी शरम की बात
जब देखो गुल हो जाती हो
ओढ़ के कंबल सो जाती हो
नहीं देखती हो यह दिन है
या यह काली रात है बिजली
बड़ी शरम की बात।
(दामोदर अग्रवाल)
कितनी अच्छी कितनी प्यारी
सब पशुओं में न्यारी गाय,
सारा दूध हमें दे देती
आओ इसे पिला दें चाय।
(शेरजंग गर्ग)
ऐसा नहीं कि इन कवि
की सभी रचनाएँ एक-सी ऊँची हों, लेकिन जो रचना ऊँची है
वह सचमुच ऊँची है। सन १९७० के बाद के दौर की कविता को
भले ही प्रकाश मनु ने 'विकास युग' माना हो लेकिन
ऊँचाइयाँ इस युग में भी भरपूर हैं। उनके अनुसार 'विकास
युग' इस मानी में कि इस दौर में हिंदी में बालगीत सबसे
अधिक लिखे गए। बाल कविता में बहुत से नए-नए नाम दिखाई
पड़े। ख़ासकर युवा लेखकों की हिस्सेदारी काफ़ी बड़ी
नज़र आती है। बाल कविता के रूप में विविधता भी इस दौर
में काफ़ी है और वह रूप बदलती है, विकास के नए-नए
रास्ते तलाश करती है। पता नहीं क्यों मनु जी ने इस दौर
के शिखरों को टीले कहना मुनासिब समझा है और तथाकथित
'गौरव युग' की तुलना में 'विकास युग' की कविता में
अनूठेपन, शक्ति आदि को कमतर समझा है। यह भी ऐसा समय है
जिसमें तीन या चार पीढ़ियों के बाल कवि एक साथ रचनारत
नज़र आते हैं। कुछ बानगियाँ इस दौर की कविताओं से :
अले, छुबह हो गई,
आँगन बुहार लूँ।
मम्मी के कमले की तीदें थमाल लूँ।
कपड़े ये धूल भले
मैले हैं यहाँ पले
ताय भी बनाना है
पानी भी लाना है।
पप्पू की छर्ट फटी, दो ताँके दाल लूँ,
मम्मी के कमले की तीदें थमाल लूँ।
(रमेश तैलंग)
थकता तो होगा सूरज
रोज़ सवेरे
इतना गट्ठर
बाँध रोशनी
लाता है
चोटी तक ढोकर
थकता तो होगा सूरज।
पर पापा, इक बात बताओ
नहीं न होता सबका घर
क्या करते होंगे वे बच्चे
जिनके पास नहीं है घर।
(दिविक रमेश)
एक था राजा, एक थी
रानी
दोनों करते थे मनमानी
राजा का तो पेट बड़ा था
रानी का भी पेट घड़ा था।
खूब वे खाते छक-छक-छक कर
फिर सो जाते थक-थक-थककर।
काम यही था बक-बक, बक-बक
नौकर से बस झक-झक, झक-झक
(जयप्रकाश भारती)
निसंदेह किसी भी दौर
की तरह इस समय में भी बहुत सी रचनाएँ चलताऊ या ख़राब
भी मिलती हैं। और उन्हें उद्धृत करके सहज ही सिद्ध
किया जा सकता है कि बाल-कविता के आँगन में कितना कूड़ा
कर्कट है। लेकिन नज़र तो अच्छी और ऊँची कविताओं की ओर
जानी चाहिए। इसके लिए जिज्ञासा, पढ़ने और खोजने की ललक
चाहिए। अच्छी बात है कि आजकल बाल-साहित्य संबंधी शोध
एवं आलोचना का कार्य भी बढ़ चला है, भले ही वह अभी
बहुत कम और ऊँचे स्तर का न हो। बाल-साहित्य पर
केंद्रित सेमिनार आदि भी होने लगे हैं भले ही उनकी
संख्या बहुत उत्साहवर्द्धक न हो।
श्री जयप्रकाश भारती,
हम सब जानते हैं, बालक के प्रति पूरा जीवन पूरी तरह
समर्पित रहे। बालक और बाल-साहित्य की घोर उपेक्षा से
वे हमेशा विचलित रहे और अशांति, अपराध और असमाजिक
तत्वों के फलने-फूलने का कारण भी उन्होंने उपर्युक्त
उपेक्षा को ही माना। उनका मानना था कि 'जिस देश के पास
समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, वह उज्जवल भविष्य की आशा
कैसे कर सकता है।' और 'क्या बालक को कल या परसों के
भरोसे छोड़ा जा सकता है? इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों
के लिए हमारे बालक तैयार हैं कि नहीं?
बाल-साहित्य के
क्षेत्र में भी दुर्भाग्य से गुटबाजी की अनुगूँजें
सुनाई पड़ जाती हैं। दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों का भी
चलन हो चला है। इससे तुरंत बचना होगा। केवल अपने अपने
अहंकार की तुष्टि के लिए बचकानी बहसों को छोड़ना होगा।
आज का बाल-साहित्य कैसा हो इसे संतुलित ढंग से समझना
होगा। परियों का नाम आते ही बिदकना और आधुनिकता के नाम
पर जबरदस्ती कुछ वैज्ञानिक उपकरणों के नाम जाप से बचना
होगा। यह समझना होगा कि बाल-साहित्य की रचना प्रक्रिया
भी वैसी होती है जैसी बड़ों के साहित्य की। आधुनिकता
ट्रीटमेंट में भी हो सकती है। स्वयं मैंने परियों को
लेकर लिखा है। मेरा यहाँ ज्ञान परी को भी स्थान मिला
और एक अति यथार्थपरक मानवीय परी को भी। प्रौढ़ होकर एक
बात समझ में आई कि बाल-कविता और बालक के द्वारा लिखी
गई कविता (या कहानी आदि) में अंतर होता है। बाल-कविता
बाल-मन के निकट की, बालक के लिए रचना होती है जबकि
बालक के द्वारा रचित रचना बड़ों के लिए भी हो सकती है,
और प्राय: होती है। बात यह भी समझ में आई कि बालक समझ
कर जिस बच्चे की बातों, उसकी समझदारी को हम कच्चेपन की
बात कहते हैं, वह ठीक नहीं। बच्चा आहे बगाहे बड़ों से
ज्य़ादा बड़ी बात कहने की क्षमता रखता है। मुझे याद है
कि एक बार मित्रों के साथ सपरिवार पिकनिक में मेरे
अल्प आयु बेटे ने ऐसी बात की थी कि वह मुझे आज तक याद
है। मैंने ऐसे ही सिगरेट जला ली थी। देखा-देखी। मेरे
बेटे ने कहा, 'पापा बीड़ी गंदी चीज़ है।' और मैंने
सिगरेट फेंक दी। मेरे पिता जी यानी बेटे के दादा बीड़ी
के शौकीन थे। अत: बेटे ने सिगरेट को भी बीड़ी कहा
क्यों कि उसकी शब्द-संपदा में बीड़ी ही पंजीकृत थी। कभी
दादा ने सहज ही कहा होगा की बीड़ी बुरी चीज़ है। काफ़ी
बाद में जाकर थोड़ी कल्पना के सहारे आत्मपरक शैली में
एक कविता लिखी गई, 'बहुत बुरा है यह हुक्का'। कविता
कुछ यों बनी:
रोज़ देखते थे मुन्ना
जी
दादा को पीते हुक्का
खूब मज़ा आता था उनको
जब करता गुड़गुड़ हुक्का
सोचा करते क्यों न मैं भी
पी कर के देखूँ हुक्का
कहना था पर दादा जी का
'ना पीते बच्चे हुक्का।'
लेकिन मौका देख बजाया
गुड़गुड़ मुन्ने ने हुक्का
घुसना ही था धुआँ हलक में
चिलम भरा था वह हुक्का।
हाल हुआ था बुरा खाँसकर
फेंका मुन्ने ने हुक्का
सोचा कभी न पीऊँगा मैं
बहुत बुरा है यह हुक्का।
क्यों कि मेरी
पृष्ठभूमि गाँव की है अत: शब्द परिवेश आदि गाँव का
रचित हुआ है। बाल-कविता (रचना) प्राय: अपने समय के
बच्चे से ही अधिक प्रेरणा ग्रहण किए होती है, लेकिन
स्वयं रचनाकार के अपने बचपन-अनुभव भी सृजनशील होकर
योगदान किए रहते हैं। दूसरी यह कि बाल रचना और उसमें
भी बाल कविता को किसी विषय केंद्रित लय-तुक का अभ्यास
मात्र नहीं होना चाहिए। वस्तुत: बाल-कविता भी एक रचना
है। और जैसा पहले भी कहा जा चुका है उसकी
रचना-प्रक्रिया भी लगभग वैसी ही होती है जैसी कि एक
प्रौढ़ कविता की। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि बाल
रचना में भी कोई विषय नहीं होता बल्कि कलात्मक अनुभव
ही होता है और रचनाकार के इसी कलात्मक अनुभव के कारण
रचना भी मौलिक हो पाती है। रचना में पेड़ दिखना रचना
का पेड़ विषय पर रचना होना नहीं होता बल्कि रचना में
तो पेड़ का रचनाकार द्वारा कलात्मक अनुभव होता है और
रचना बन जाती है -
अगर पेड़ भी चलते होते
कितने मज़े हमारे होते।
कालजयी या दीर्घकाल
जीवी कविता अथवा रचना की एक विशेषता उसका सदा
प्रासंगिक बने रहना भी होता है। तो कहा जा सकता है कि
रचनाकार समय समय पर लिखी जाने वाली रचना को अपने समय
के अर्थात रचना के समय के बच्चे के लिए तो लिखता ही
है, साथ ही एक हद तक भविष्य के बच्चे के लिए भी लिखता
है। स्पष्ट है कि बच्चे के लिए लिखते समय उस बच्चे की
समस्याएँ और आकांक्षाएँ आदि सब कुछ रचनाओं में झलकेगा
ही।
मेरी श्रेष्ठ रचनाओं का प्रेरक बच्चा सामान्यतया एक
समझदार, जीवंत, संजीदा, आत्मविश्वासी, अभिव्यक्ति का
जाने-अनजाने खतरा उठा सकने वाला, अपने में मस्त, सहज,
जिज्ञासु, विरोधाभासों एवं पाखंडों के प्रति समझदार,
कल्पनाशील और सकारात्मक है। बड़ों का पाखंड उसे दुखी
करता है, आक्रोश से भरता है --
अगर बड़े हैं, कर्णधार हैं
हमें न ऐसी राह दिखाएँ
बच्चों की अच्छी दुनिया में
मत कूड़ा-करकट फैलाएँ।
(अगर चाहते, मधुर गीत-3)
अब भी बच्चों के
प्रति पूरा दायित्व समझते हुए, बच्चों के लिए सच्चा
एवं श्रेष्ठ लिखा जाना बहुत शेष है। बच्चों के लिए
लिखा बच्चों के ही समान मासूम, स्वाभाविक, निर्मल एवं
'बड़ा' होना चाहिए। फिर लिख दूँ कि बहुत से बड़े लोग
बाल-साहित्य के क्षेत्र में भी बड़ी याने गंदी राजनीति
लाकर उसे दूषित करना चाह रहे हैं, इसका विरोध होना
चाहिए। लेकिन यकीन मानिए आज हिंदी में उत्तम कोटि का
बाल-साहित्य उपलब्ध है और पुस्तकों की साज-सज्जा आदि
की दृष्टि से भी
आज हम गर्व कर सकते हैं। और यह भी कि
आज हिंदी में अन्य भारतीय भाषाओं से ही नहीं बल्कि
विदेशी भाषाओं से भी अनुवाद के रूप में बाल-साहित्य
उपलब्ध है। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित 'कोरियाई
बाल कविता' पुस्तक में तो मेरे ही अनुवाद हैं। आज सबसे
ज़्यादा ज़रूरत अच्छे बाल-साहित्य की पहचान और उसे
रेखांकित/विज्ञापित करने के साथ-साथ उसे बालक का खेल
समझ उसकी उपेक्षा करने वालों को चुनौती देने की है।
16 नवंबर 2007 |