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ग्रीष्म के शीतल मनोरंजन
(प्राचीन साहित्य के पन्नों से)
-पूर्णिमा वर्मन
भारत में मध्य जून के बीतते जब मानसून की पहली दस्तक होती
है, खाड़ी देशों में ग्रीष्म ऋतु अपने कदम बढ़ा रही होती है।
सूरज गरमा रहा होता है। मुहल्लों की गलियाँ सन्नाटों से भर
उठती हैं। देर रात की भीड़-भाड़ बढ़ जाती है। मौसम अनमना
होने लगता है। इसी समय प्रारंभ होते हैं ग्रीष्मकाल के अनेक
आयोजन और मनोरंजन। वातानुकूलन, तरह तरह के ठंडे-मीठे
व्यंजनों और मानव निर्मित तरणतालों ने गरमी के मौसम का मज़ा
बनाए रखा है पर प्राचीनकाल में जब तकनीकी विकास आज जैसा नहीं
था, तब गरमी के लंबे दिन कैसे कटते होंगे?
हज़ारों साल पहले भारतीय गरमी के मौसम का आनंद कैसे उठाते थे
इसके रोचक प्रसंग साहित्य में मिलते हैं। हड़प्पा काल के
लोगों ने अपने घरों में एक फ्रिज बना रखा था। वे मिट्टी के
संदूक का आकार बनाते जिसके एक भाग में जल को वाष्पीकृत किया
जाता। इस प्रक्रिया द्वारा जब एक ग्राम पानी सूख कर वाष्प
बनता तो साढ़े पाँच सौ कैलरी गरमी सोख लेता और मिट्टी के इस
संदूक में पानी आठ अंश दस अंश सेंटीग्रेट तापमान तक ठंडा
रहता। खाने पीने के अन्य सामान भी इसमें रखे जाते थे।
संस्कृत पाली तथा प्राकृत के लगभग सभी ग्रंथों में जलक्रीडा
का अत्यंत मनोरंजक वर्णन मिलता है। जिससे पता लगता है कि
ग्रीष्मकाल में इस क्रीडा द्वारा कितना अधिक मनोरंजन किया
जाता था। माघ के 'शिशुपाल वध' महाकाव्य में यादवों के
जलविहार का सजीव वर्णन मिलता है-
संक्षेप में सभी अपनी अपनी पत्नियों के साथ तालाब में उतरे।
पानी से डरने वालों पर खूब पानी फेंका गया और उन्हें पानी
में ढकेल दिया गया। कुछ तालाब के ऊँचे किनारों से पानी में
कूदे। जलक्रीडा करते हुए उनकी आंखों में लाली आगई और काजल व
ओंठों का लाल रंग भी धुल गया।
बहुत बार जलक्रीडा करने वाले के हाथ में सोने की पिचकारियाँ
होतीं जिनसे वे एक दूसरे पर पानी की धारें फेंकते। जलक्रीडा
के लिए 'धारागृह' नामक विशेष कक्ष में ढेरों फव्वारे बने
रहते। ये फव्वारे शेर, हाथी और मगर के आकारों में स्फटिक
जैसी मणियों में ढले होते थे। इस कक्ष में मूर्तियों की
सजावट भी की जाती थी। 'आदिपुराण' में धारागृह का वर्णन करते
हुए कहा गया है कि वहाँ हर समय वर्षा ऋतु बनी रहती है।
'विनय
पिटक' में एक स्थान पर काशीराज ब्रह्मदत्त का रानियों के साथ
जलक्रीडा का रोचक वर्णन मिलता है। इस प्रकार की जल क्रीडाओं
में नौका विहार, खाना पीना तथा गाना बजाना भी होता। साथ ही
सर्दी से बचाव की दवाएँ और अन्य औषधियाँ होती थीं। 'मनोरथ
पूरणी' शीर्षक एक कहानी से पता लगता है कि रात में भी मणियों
के प्रकाश में जलक्रीडा होती थी। यह मणियाँ या मणिदीपक आजकल
के विद्युत लैंपों तरह पानी और हवा से न बुझने वाले विशेष
दीपक थे।
आखेट, जलक्रीडा, उद्यान यात्रा, नृत्यसंगीत तथा नाटक प्राचीन
काल के प्रमुख ग्रीष्मकालीन मनोरंजन थे। आमोद प्रमोद के ये
साधन वहाँ की भौगोलिक स्थिति पर निर्भर करते थे। जंगल के
समीपवर्ती स्थानों में वन विहार की आकर्षक परंपरा थी।
घूमने-घूमते लोग जंगल के भीतर चले जाते और 'उत्तालक', 'पुष्प
भंजिका', 'शाल भंजिका' तथा 'ताल भंजिका' नामक खेलों का मज़ा
लेते। इन खेलों में फूल पत्तियों को तोड़ कर एक दूसरे पर
फेंकने की प्रतियोगिता सी होती थी। साखू, अशोख और ताड़ के
पेड़ों के नीचे एकत्र होकर लोग हज़ारों की संख्या में फूल एक
दूसरे पर फेंकते। महिलाएँ पुरुषों पर फूल फेंकतीं जिसे
अत्यंत आनंददायक खेल समझा जाता था।
रामायण में
कहा गया है कि अयोध्या की महिलाएँ हवा खाने के लिए नगर के
बाहर बने सार्वजनिक उद्यानों में जाती थीं। हनुमान जी ने
नंदी ग्राम पहुँचने पर ढेर से स्त्री पुरुषों को उद्यान
में टहलते देखा। महाभारत में अर्जुन ने एक बार कृष्ण से
प्रस्ताव किया कि आइए शीतल बयार का आनंद लेने यमुना के
किनारे चलें। सपरिवार सारा दिन वहाँ बिता कर संध्या होने पर
वापस लौट आएँगे।
प्राचीन
काल के ग्रीष्मकालीन मनबहलावों का 'कर्पूर मंजरी' नामक नाटक
में विस्तृत और सजीव वर्णन मिलता है। लोग पूरे शरीर में चंदन
का लेप लगाते और शाम तक भीगे वस्त्र पहने रहते। रात के पहले
पहर तक वे जलक्रीडा में मग्न रहते। इसके बाद वे शीतल सुरा का
पान करते। एक स्थान पर यह भी कहा गया है कि बाँसुरी पर पंचम
राग अलापने से कानों को शांति मिलती है।
वृक्षों झुरमुटों और पुष्पों की शीतल छाया में पहेलियाँ,
शतरंज और समस्यापूर्ति के सुंदर खेल हुआ करते थे। जिनमें
उलझे हुए गर्मी की दोपहर शीघ्र ही बीत जाती। प्राचीन काल में
स्नान की परिपाटी भी किसी मनोरंजन से कम न थी। राजाओं और
धनिकों के स्नान करने के अत्यंत रोचक वर्णन प्राप्त होते
हैं। प्राकृत साहित्य में लिखा है कि प्रात:कालीन व्यायाम के
पश्चात लोग स्नानागार में जाते जहाँ खूब कुशल मालिश करने
वाले 'शतपाक' और 'सहस्रपाक' तेलों द्वारा शरीर की मालिश करते
थे। ये तेल विशेष रीति से बना कर तैयार किए जाते थे। मालिश
के बाद वे रंग बिरंगी चौकियों पर बैठते जहाँ सुगंधित जल का
छिड़काव किया जाता था। इस सुगंधिक जलों के 'सुखोदक',
'पुष्पोदक', 'शुद्धोदक' आदि मनोरंजक नाम मिलते हैं। इन्हें
बारी बारी से छिड़का जाता। स्नान के अवसर पर हंसी मज़ाक भी
होता।
इस प्रकार
हमारे पूर्वज मनोविनोद, खेल और मनोरंजन के साथ हुए खूब आराम
से गरमियों का मौसम बिताया करते।
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