साहित्यिक कृतियों के समक्ष बाज़ार की चुनौती हमेशा बनी रहती
हैं और अगर यह चुनौती अनुवाद जैसे विशिष्ट क्षेत्रों से जुड़ी
हो तो पाठकों तक कृति की यात्रा और भी कठिन हो जाती है।
अनूदित साहित्य आधुनिक युग की विशिष्ट देन है पर फिर भी यह
प्रश्न उठता है कि इन अनूदित कृतियों के पाठक कितने हैं। यदि
अरूंधती राय और विक्रम सेठ अपनी लोकप्रियता के आधार पर अनूदित
हो भी जाते हैं तो कितने लोग इन्हें पढ़ते हैं। आजकल जब
टेलीविजन और सिनेमा के चलते पठनीयता ही कम हो गई हैं तो अनूदित
साहित्य कौन पढ़ता है? इस संदर्भ में पत्रिकाओं की भूमिका क्या
है? और क्या हो सकती है?
आदि महत्वपूर्ण प्रश्न हैं।
दूरदर्शन पर 'दर्पण' 'कथासागर' जैसे विशिष्ट कार्यक्रमों में
विभिन्न भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनूदित कहानियों की
कड़ियाँ प्रसारित होती थीं पर फ़िल्माधारित कार्यक्रमों के
सामने ऐसे कार्यक्रमों को ओझल होना ही पड़ा। यहाँ प्रश्न
पठनीयता का है। उपरोक्त प्रश्नों के संदर्भ में जब तेलुगु और
हिंदी साहित्य क्षेत्र की तुलना की जाती है तो बड़े रोचक
तथ्यों से सामना होता है। हिंदी व तेलुगु ने पिछली शताब्दी में
अनूदित साहित्य से अपने को समृद्ध किया है, विशेष
तौर पर उपन्यास और कहानियों
द्वारा।
अनूदित कहानियों की विशिष्ट पत्रिकाएँ -
तेलुगु पत्रकारिता के मूलपुरुष कंदुकुरी वीरेश लिंगम पंतुलु
ने 'विकार ऑफ वेकफील्ड' से प्रेरणा लेकर 'राजशेखर चरितमु' लिखा
था और शेक्सपियर के 'मर्चेंट आफ वेनिस' तथा 'कॉमेडी आफ एरर्स'
का भी तेलुगु में अनुवाद किया जिसे पाठकों ने विशेष रुचि से
पढ़ा। पर यह वह समय था जब मुद्रित साहित्य का आरंभ हुआ था और
दृश्य-श्रव्य माध्यमों का विकास नहीं हुआ था। हिंदी साहित्य
क्षेत्र भी बंगाली एवं अँग्रेज़ी उपन्यासों के अनुवाद से विशेष
रूप से प्रभावित था और इन
अनुवादों की शुस्र्आत भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा 'पूर्ण
प्रकाश' और 'चंद्रप्रभा' से हुई।
भारतेंदु और कंदुकुरी दोनों ही आधुनिक युग के साहित्य स्रष्टा
माने जाते हैं। उपन्यासों का प्रवेश भारतीय साहित्य में
अनुवादों से ही हुआ। मौलिक या अनूदित साहित्य पत्रिकाओं,
पुस्तकों या अन्य दृश्य-श्रव्य माध्यमों द्वारा पाठकों तक
पहुँचता है परंतु पाठकों या दर्शकों द्वारा स्वीकृति अनेक
तथ्यों पर निर्भर करती है। किताब पढ़ने वालों की संख्या अवश्य
सीमित हो सकती है परंतु समाचार पत्र और पत्रिकाओं की पहुँच
अधिक होती है। इस संदर्भ में प्रश्न यह है कि अनूदित कृतियों
का स्थान क्या और कहाँ है?
इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाएँ अनूदित कहानियाँ प्रकाशित करती हैं
या कभी-कभी कुछेक पत्रिकाएँ विशेषांक प्रकाशित कर देते हैं पर
नियमित तौर पर मात्र अनूदित कहानियों को प्रकाशित करने वाली
पत्रिकाओं को चलाना लगभग असंभव है, और वो भी ऐसे समय में जब
समाज में मूल रूप से किसी के पास न तो पढ़ने का समय है और न
धैर्य। इस दिशा में दो तेलुगु पत्रिकाओं ने अनूदित कहानियों
के विशिष्टांकों के रूप में न केवल अपने को स्थापित किया है
बल्कि ऐसे बड़े पाठक वर्ग को भी हासिल किया जिनकी रुचि
निरंतर बनी हुई है। आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद स्थित
'ईनाडु ग्रुप' नाम की एक व्यापार संस्था द्वारा 'विपुला' और
'चतुरा' नाम की ये पत्रिकाएँ चलाई जाती हैं जिनके अध्यक्ष श्री
रामोजी राव हैं। इस संस्था ने 'फिल्मसिटी' के नाम से हैदराबाद
के निकट बहुत बड़े क्षेत्र में फ़िल्म बनाने के लिए
विश्वस्तरीय तकनीकी सुविधाओं के साथ स्टूडियो की स्थापना की
है। आज इस ग्रुप की अनेक भाषाओं में निजी टी वी चैनल भी
हैं। 'विपुला' और 'चतुरा' व्हीलर के स्टालों पर उपलब्ध हैं और
आंध्रप्रभा, आंध्रज्योति, आंध्रभूमि, स्वाति, मयूरी जैसी
मनोरंजक पत्रिकाओं से कम लोकप्रिय नहीं है। हिंदी के साहित्य
क्षेत्र में ऐसी पत्रिका शायद ही उपलब्ध हो जो निजी प्रयत्नों
से प्रकाशित होती हो और सरिता, कादंबिनी, सरस सलिल, गृहशोभा
जैसी पत्रिकाओं के समकक्ष व्हीलर के स्टालों पर आम पाठक के
लिए उपलब्ध हों। साहित्य अकादमी से प्रकाशित 'समकालीन भारतीय
साहित्य', 'प्रतिभा' या मानव संसाधन विकास द्वारा प्रकाशित
'भाषा' आदि पत्रिकाएँ सरकारी अनुदान से ही अपने अस्तित्व को
बनाए रखती हैं या रुचि रखने वाले सीमित पाठकों के सदस्य
शुल्कों पर आधारित होती हैं। ऐसी पत्रिकाएँ भी पूर्णत: अनूदित
कृतियों के लिए समर्पित नहीं होती, इनमें कविता, नाटक,
समीक्षा, आलेखों के बीच में कहीं अनूदित कृतियाँ स्थान पाती
हैं।
कहानी संकलन
कहानी संकलन या भारतीय लघु कथा कोश (संपा ब़लराम, ८०० अनूदित
लघु कथाओं का कोश) या महीप सिंह की 'संचेतना' जैसे पत्रिकाओं
में अनूदित कहानियों को पढ़ा जा सकता है परंतु इस तथ्य से मंुह
नहीं फेरा जा सकता कि इन पुस्तकों तक आम आदमी शायद ही पहुँचना
चाहे। चिंता की बात तो यह है कि धर्मयुग और साप्ताहिक
हिंदुस्तान जैसी अत्यंत लोकप्रिय पत्रिकाएँ ही जब बंद हो गइंर्
तो विपुला जैसी पत्रिकाओं को चलाने की कौन सोचेगा? इन
परिस्थितियों के संदर्भ में फ्रांसेस्का ओरिसिनी के इस तर्क पर
ध्यान दिया जा सकता है कि - 'हिंदी साहित्य पाठय पुस्तकीय
संस्कृति का अंग बन गई है जिसकी वजह से कृतियाँ अपने सहज पहुँच
से वंचित हो गई हैं। इस पाठयपुस्तकीय चरित्र का दुष्परिणाम यह
हुआ कि साहित्य आम आदमी तक नहीं पहुँच पाया।'
उन्होंने लिखा है कि हिंदी साहित्यिक क्षेत्र में लेखकों एवं
संस्थागत साहित्यकारों के बीच गहरी खाई उत्पन्न हो गई जिससे
व्यक्तिगत तौर पर लिखने वालों को हिंदी की साहित्यिक परंपरा से
दूर कर दिया गया। हिंदी की साहित्यिक परंपरा से एक बड़ी आबादी
बेगानी है और दूर है। निजी स्तर पर लेखन कार्य में जुटे लेखकों
को हिंदी की साहित्यिक परंपरा के निर्माण व प्रचार से बाहर रखा
गया और संस्थागत व्यक्तित्वों के बीच की गहरी खाई उत्पन्न हो
गई। इस प्रकार संस्थागत विद्वान ही हिंदी विशेषज्ञों के रूप
में स्थापित हो गए। साहित्य सीमित कटघरे में बंध गया और बाज़ार
की चुनौतियों का सामना
करने से कतरा गया।
यदि मूल लेखन ही बाज़ार से वंचित है तो अनूदित साहित्य तो धूल
जमा करेगा ही। कभी-कभार जब अंग्रेज़ी की कोई किताब लोकप्रिय हो
जाती है, जैसे विक्रम सेठ की 'सूटेबल बॉय' अनूदित होती हैं तो
कुछ लोगों में उत्सुकता होती है परंतु ऐसे पाठक भी गिने-चुने
ही होते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जो किसी बहुप्रचारित क्रिकेट
मैच के दौरान कपिल देव जैसे व्यक्तित्वों के हाथों में इसे
देखकर पढ़ना चाहें परंतु अंग्रेज़ी से कतराकर हिंदी की प्रति
की चाह करने लगें। इसी कतार में अरूंधती राय की 'गॉड ऑफ स्मॉल
थिंग्स' भी शामिल हो जाती है अन्यथा कुल मिलाकर हिंदी में
अनूदित साहित्य के पाठकों
की संख्या अत्यल्प है।
तेलुगु में अनूदित साहित्य -
तेलुगु के साहित्य क्षेत्र में लेखकों और विद्वानों के बीच ऐसी
खाई या दूरी नहीं है और दूसरी बात ये है कि तेलुगु बहुत उदार
भाषा है और किसी भी अन्य भाषा के शब्दों का तेलुगीकरण करके
स्वीकार कर लिया जाता है। तेलुगु के पाठक कृत्रिम अनुवाद पर
ज़ोर नहीं देते। उनके लिए भाषा का प्रवाह महत्वपूर्ण है।
अंग्रेज़ी, उर्दू, मराठी, तमिल आदि किसी भी भाषा से शब्द स्वत:
लेखन में प्रयुक्त होते हैं ताकि भाषा में जीवंतता और
स्वतंत्रता हो। तेलुगु की पत्रिकाएँ व दैनिक समाचार पत्र भाषा
की इस उदारता के प्रमुख प्रमाण हैं। इसका शायद यह भी कारण हो
सकता है कि तेलुगु साहित्य की एक प्राचीन परंपरा है और पुरानी
व नयी तेलुगु के रूप में बहुत अधिक अंतर नहीं है। तेलुगु
साहित्य व लोकप्रिय पत्रिकाओं में अनूदित साहित्य पाठकों में
सहज स्वीकार्य है क्योंकि लक्ष्य भाषा यानी तेलुगु में अनूदित
कृतियों की भाषा कृत्रिम नहीं है।
अनुवादक का महत्व -
हिंदी में अनूदित साहित्य की स्वीकार्यता में कमी का एक कारण
स्वयं अनुवादक भी है। दक्षिण भारतीय साहित्य को हिंदी में
अनूदित करने वाले अधिकांशत: दक्षिण भारतीय होते हैं जैसे
भीमसेन निर्मल जी। परंतु ऐसे कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर
अनुवादकों के लिए हिंदी अन्य भाषा होती है जिससे उनके अनुवाद
में हिंदी प्रदेश के वातावरण का अभाव खटकता रहता है। स्वीकार
करने वाले पाठक समूह को भाषा तो मिल जाती है परंतु सामाजिक -
सांस्कृतिक सहजता नहीं मिल पाती। वैसे ये खतरा अनुवाद के साथ
हमेशा बना रहता है और किसी भी सफल अनुवाद के पीछे अनुवादक की
क्षमता का महत्व रहता है। यदि अनुवादक लक्ष्य-भाषा-प्रदेश के
परिवेश से परिचित हो तो ऐसी समस्या नहीं आती और दक्षिण भारत से
ऐसे अनुवादकों की कमी नहीं है परंतु अधिकतर अनुवादकों के साथ
ऐसी समस्या जुड़ी हुई है। तेलुगु में 'विकार ऑफ वेकफील्ड' से
लेकर जितने भी अनुवाद हुए हैं उसमें अनुवादक अन्य भाषाओं से
अपनी भाषा अर्थात तेलुगु में अनूदित करता रहा है जो कि तेलुगु
के पाठकों के लिए ही होता है इसलिए पाठक पढ़ते हुए अटकता नहीं
है।
हालाँकि भारतेंदु हरिश्चंद्र के काल से ही कवि-वचन सुधा,
सरस्वती, प्रेमचंद के हंस से लेकर राजेंद्र यादव के हंस तक
अनेक पत्रिकाएँ निकलती रही हैं परंतु अनूदित साहित्य के लिए
तेलुगु की 'विपुला' या 'चतुरा' जैसी पत्रिकाएँ अब भी नहीं
मिलती हैं। यह कहानियों की स्थिति है तो कविता जैसी विधाओं को
तो अनेक अवरोधों का सामना करना पड़ रहा है। |