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निबंध

उजाले अपनी यादों के
-विजय वाते

पिछले दिनों एक यात्रा के दौरान गुजरात के बड़ोदरा स्टेशन से गुज़रना पड़ा। ट्रेन वहाँ कुछ ज़्यादा ही देर तक रुकती है, इसलिए यों ही प्लेटफ़ार्म पर बुक-स्टॉल में सजी किताबों टटोलने लगा। अनायास ही पेपर बैक में छपी एक छोटी-सी पतली किताब हाथ आ गई, जिसके कवर पर गुजराती लिपि में लिखा था, "बशीर बद्र"। किताब को खोल कर देखा, कोई ६० ग़ज़ले गुजराती में छपी हुई थीं, जिन्हे निदा फाज़ली ने संकलित किया था। मैं गुजराती जानता हूँ, सो वह किताब खरीद ली और बम्बई तक की यात्रा में पूरी पढ़ गया। इस किताब ने मेरे सामने डॉ. बशीर बद्र के कुछ नए रूपों को उद्घाटित किया।

डॉ. बशीर बद्र को यहाँ-वहाँ कुछ-कुछ सुना था, उनके कुछ मशहूर शेरों से मैं उसी तरह वकिफ़ था, जिस तरह ज्ञानी जैल सिंह, श्रीमती इंदिरा गांधी, जुल्फिकार अली भुट्टो से लेकर एक रिक्शेवाले, एक ड्राइवर और कुली, मज़दूर तक के तमाम लोगों की एक लम्बी रेंज वाकिफ़ और प्रभावित हैं। मुझे मालूम था कि...

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए।
और
दुश्मनी जमकर कारो लेकिन ये गुंजाइश रहे,
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों।

जैसे मशहूर शेर डॉ. बशीर बद्र ने कहे हैं और कुछ और मशहूर शेर उनकी उपलब्धियों में शामिल हैं, जैसे -
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज़ का शहर है ज़रा फासले से मिला करो।

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी,
यों कोई बेवफ़ा नहीं होता।

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।

जैसे शेर जो ८-१० करोड़ लोगों की ज़िंदगी के साथ चलते हुए उनकी तकरीर और गुफ्तगू का हिस्सा बन गए हैं, भी डॉ. बशीर बद्र ने कहे हैं। मुझे सबसे ज़्यादा मज़ा तब आया जब एक सड़क-यात्रा में मेरे साथ चल रहे मेरे दोस्त ने मुझे बताया कि आगे जा रहे ट्रक के डाले पर लिखा हुआ शेर डॉ बशीर बद्र का हैं। शेर कुछ यूं था।

मुसाफिर है हम भी, मुसाफिर हो तुम भी,
किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी।

कुछ दिनों बाद मैंने एक और ट्रक के डाले पर लिखा हुआ देखा -

दुश्मनी का सफर, एक कदम-दो कदम,
तुम भी थक जाओगे, हम भी थक जाएँगे।

लुब्बोलुवाब यह कि आम हिन्दी पाठकों की तरह मैं भी डॉ बशीर बद्र को उर्दू का वो शायर मानता था जिसने कामयाबी की बुलंदियों को फतह कर एक लंबी रेंज के लोगों के दिलों की धड़कानों को अपनी शायरी में उतारा हैं। गुजराती में छपे इस छोटे से संग्रह ने ही मुझे बताया कि डॉ बशीर बद्र इन पन्द्रह-पच्चीस महान उद्धरणों से आगे भी जिन्दगी और कविता के मजबूत पायों का शायर हैं। इस किताब में मैंने जब उनका यह शेर पढ़ा -
धूप के उँचे-नीचे रस्तों को,
एक कमरे का बल्ब क्या जाने।

तो पता लगा कि डॉक्टर साहेब के वो शेर जो मीर-ओ-गालिब के शेरों की तरह मशहूर हैं, अत: अच्छे हैं ही और गज़ल के सरमाये का एक अहम हिस्सा भी, लेकिन जो शेर कल की गज़ल का पैगंबर बनेंगे, उनसे मेरा साक्षात्कार नहीं हुआ था। मुझे यह भी लगा कि अव्वल तो डॉक्टर बशीर बद्र उर्दू लिपि में लिखने और छपने के बावजूद निखालिस उर्दू शायर नहीं हैं और दूसरे हिन्दी कविता के वर्तमान परिदृश्य में वे एक ऐसी आवश्यकता हैं, जिसके बिना यह परिदृश्य अधूरा नहीं तो कम-से-कम कुछ कम तो अवश्य लगेगा। लगा जैसे एक खास लिपि के अज्ञान की दीवारें हिन्दी के पाठकों और काव्य-रसिकों के लिए एक ऐसा कमरा बन गई हैं, जहाँ से ऊँचे-नीचे रस्तों की धूप, कमरे के बल्ब तक और कमरे के बल्ब की रोशनी, धूप के ऊँचे-नीचे रास्तों तक नहीं पहुंच पा रही हैं। फिर मैंने सोचा कि गुजराती में कुछ लोगों ने दीवारें तोड़ने का यह काम अगर कर लिया हैं, तो हिन्दी में भी कुछ लोगों ने किया ही होगा, और किताबों की कई दुकानों को खंगाल मारा कई शायरों के लिप्यंतरण पढ़े। वे मुझे अच्छे लिप्यंतरण लगे और उर्दू शायरी का खासा लुत्फ भी मिला , लेकिन डॉ बशीर बद्र की कोई किताब देवनागरी में नहीं मिल पाई और गज़ल को हिन्दी और उर्दू के खंडों से निकाल कर महसूस करना भी नहीं हो पाया।

इसी दौरान सापेक्ष गज़ल विशेषांक के संपादन में सहयोग का मौका मुझे मिला। मेरा तबादला भी भोपाल हो गया, जहाँ मुझे पता चला कि डॉ बशीर बद्र भी भोपाल में ही मेरे ऑफिस से करीब दो सौ गज की दूरी पर रह रहे हैं। मैंने सोचा कि क्यों न हिन्दी गज़ल पर उनका एका इंटरव्यू कर लिया जाए। डॉ साहब ने अपनी बीमारी के बावजूद बात करने के लिए सहमति दे दी और इंटरव्यू की शुरूआत में ही मैंने उन्हें यह कह कर छेड़ दिया कि वे उर्दू के एक बड़े शायर है : हिन्दी गज़ल पर अपनी टिप्पणी करें" मेरी बात पूरी होने से पहले ही प्रतिवाद के स्वर और कुछ रूखे अंदाज में उन्होंने कहा कि मैं उर्दू-हिन्दी भाषा का शायर नहीं हूं, मैं सिर्फ गज़ल की भाषा का शायर हूँ।

इस तरह शुरूआत में ही उन्होंने मुझे बता दिया कि बातचीत सिर्फ गज़ल पर होगी, हिन्दी ग़ज़ल या उर्दू गज़ल पर नहीं। फिर तो बातों का एक लम्बा सिलसिला चल पड़ा और उस दौरान एक मजेदार मौका तब आया जब मैंने उन्हें उनके बहुत पढ़े जाने वाले मशहूर शेरों के बारे में छेड़ दिया। चिढ़ते तो डाक्टर साहब कभी नहीं थे, लेकिन एक हल्की-सी रुखाई जरूर स्वर में कौंधी और उन्होंने पूछा, "मैं अपने इन मशहूर शेरों की धौंस में क्यों आऊं?" फिलहाल इस इंटरव्यू के दौरान हिन्दी कविता और उर्दू शायरी पर लंबी बातचीत हुई। डॉक्टर साहब ने पूरी जिम्मेदारी के साथ यह दावा भी किया कि उन्हें देवनागरी पढ़ने का अच्छा अभ्यास नहीं होने के कारण वे हिन्दी कविता के अध्ययन और लुत्फ से महरूम रह गये हैं।

इस बातचीत के दौरान उन्होंने अपनी कुछ ऐसी गज़ले सुनाई जो न तो देवनागरी में छपी हैं, न मुशायरों में सुनी गई हैं। एक गज़ल का शेर कुछ यूं था -
सड़कों, बाजारों, मकानों, दफ्तरों में रात दिन
लाल-पीली, सब्ज़, नीली, जलती-बुझती औरतें।

हिन्दी की गज़ल की परम्परा में जो उर्दू से ही आई है, डॉ बशीर बद्र का स्थान मीर-सकी-मीर की विरासत है। यों तो आज गज़ल को हिन्दी और उर्दू के दायरे में देखना ही अनुचित है, क्योंकि सांस्कृतिक आदान-प्रदान के युग में मात्र लेखकीय प्रयोग के प्रति यह दृष्टिकोण संकीर्ण और अप्रासंगिक ही हैं। भाषाओं के संमिश्रण से जब भाषिक विकास होता है, तो यह संमिश्रण केवल शब्दों का ही नहीं, वरन उन भाषाओं के पीछे समूची सांस्कृतिक अवधारणाओं का होता है। इस प्रक्रिया में एक भाषा दूसरी भाषा के नज़दीक, केवल अपना स्थूल शब्दकोश ले कर नहीं आती, बल्कि एक पूरी दुनिया अपने साथ लेकर आती है। उर्दू का हिन्दी में प्रवेश कोई आकस्मिक घटना नहीं हैं, यह भारत में स्वातंत्र्योत्तर काल में विकसित हुई एक संस्कृति की कथा है। कठिनाई यह है कि हम जिस तरह खड़ी बोली की कविता-यात्रा में उर्दू अदब के किंचित प्रभाव को भी विचार में नहीं लेते, उसी तरह हिन्दी गज़ल की प्रकृति का फैसला करते वक्त पूरी गंभीरता से दुश्यंत कुमार के पीछे भी नहीं जाना चाहते।

आज बोलचाल में उर्दू अंग्रेज़ी शब्द अपनी सत्ता पीछे छोड़ कर हिन्दी से एकात्म हो गए हैं। दरअसल इस प्रक्रिया के चलते ही कविता की भाषा और बोलचाल में भाषा के घेरे भी टूटते हैं। अपनी आंतरिक जरूरत के तहत रचना को बोलचाल के जिस शब्द की जरूरत होती है, वह उसे निस्संकोच अपना लेती है। अपनी कथित चरित्रगत स्वच्छता बनाए रखने और भाषा की भूल खो जाने के भय से वह अभिव्यंजना को अधूरा नहीं छोड़ती। यह हिन्दी के बड़े कवियों ने किया है और मीर तकी मीर और कुछ उर्दू शायरों ने भी जिनमें डॉ बशीर बद्र का नाम सबसे उपर लिया जाना जरूरी है। डॉ साहब ने इस सिलसिले में अंग्रेज़ी से भी कोई परहेज नहीं किया हैं। उन्होंने पहली बार उन अंग्रेज़ी शब्दों का गज़ल बनाया जो हमारी भाषा का हिस्सा हो गये थे। उनके पहले गज़ल में ये करतन सोचा भी नहीं जा सकता था। कुछ उदाहरण देखिए -

थके थके पेडल के बीच चले सूरज
घर की तरफ लौटी दफ्तर की शाम।

वो जाफरानी पुलोवर उसी का हिस्सा है,
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे।

विषयांतर का थोड़ा खतरा उठाते हुए यहाँ हम यह भी देख सकते हैं कि सिर्फ भाषा के स्तर पर ही नहीं, अपितु गज़ल को युगीन चेतना से युक्त बौद्धिक प्रतीक धर्मिता से जोड़ कर भी डॉ बशीर बद्र ने एक बुनियादी काम किया हैं। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी और फ़ारसी की गैर गज़ला शब्द-राशि को पूरी सहजता के साथ अपने शेरों से समाहित कर उन्होंने नई गज़ल के लिए जहाँ एक विशाल शब्दकोश खुला छोड़ दिया है वहाँ गज़ल को पारंपरिक बिम्बों, मुहावरों और रूपकों की जड़ता से निकाल कर समकालीन चेतना के साथ साँस लेना भी सिखा दिया हैं।

बिना किसी शोर-शराबे और नारेबाज़ी के गज़ल महफ़िलों से बाहर आ कर शहरों, गाँवों, घर, परिवार, प्रेम, वियोग, कारख़ानों, बग़ीचों, और प्रकृति के साथ-साथ रेल, बसों और किताबों में आकर रम गई। यह गज़ल का पुनर्जीवन है। इसीलिए शायद यह अकारण नहीं है कि डॉ बशीर बद्र की ग़ज़लों में शमा परवाना जामोमीनासाकी का प्रयोग सिरे से गायब मिलता है। अभिव्यंजना में दुराग्रहों से कोसों दूर रहने वाले डॉ बशीर बद्र ने यहाँ दुराग्रह से काम लिया हैं। कभी जो संज्ञा वाचक शब्द किसी वस्तु विशेष का बोध कराते थे, वे आगे चल कर बहुत सहज बिंब हो जाते हैं और संज्ञाओं के पीछे के आदमी की हंसी-खुशी, आशाओं, आकांक्षाओं, चिंताओं, उद्वेगों, आवेगों का मूर्त बोध कराने लगते हैं। यादों के साथ उजाले, मृत्यु के साथ शाम और जीवन के साथ अनेकानेक गलियों का रूपक अब भाषा में एकाकार हो गया है, यहाँ संप्रेषण के किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं रह जाती हैं और यह रूपक जन-मन तक आसानी से पहुँचनेवाली कविता की पहचान बन जाते हैं यहीं काव्य की विकास यात्रा है। कवि की निजी नितांत वैयक्तिकता के क्षणों में उसके आस पास की चीजें, मेज़, कुर्सी, सूरज, रेल की परी, नारियल के दरख़्त, अटैची, कोट, आदि के पीछे जो आदमी है, वह उससे बातचीत करता हैं और यह बातचीत जब एक सार्थक अभिव्यंजना के रूप में फूट पड़ती है तो वह एक महान कविता होती हैं। आज भाषा में ये रूपक संज्ञा की परिधि के बाहर नहीं आ पाने से यदि आमफहम नहीं हो पाए हैं, तो भी इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाले कल के काव्य रसिक इनके भीतर के इनसान को पहचान पाएँगे? पाठक पर ऐसा अविश्वास करना काव्य की विकास यात्रा पर अविश्वास करना है।

जब डॉ बशीर कहते हैं - बारिशों में किसी पेड़ को देखना, शाल ओढ़े हुए भीगता कौन हैं।
तो वे किसी पेड़ को एक ऊनी कपड़ा तो नहीं ओढ़ाते है। जब रात के घुप्प अंधेरे में दूर से आती हुई रेल को देख कर डॉ बशीर बद्र कहते हैं -
पीछे पीछे रात थी तारों का एक लश्कर लिये,
रेल की पटरी पे सूरज चल रहा था रात को।

तो यह मंजर, सिर्फ रात के अंधेरे में चल रही रेल का मंजर तो नहीं होता, बल्कि एक चलती-फिरती जीवंत दुनिया होती है। और जब वे कहते हैं -
नारियल के दरख़्तों की पागल हवा, खुल गये बादवां लौट जा लौट जा,
सांवली सरजमी पर मैं अगले बरस फूल खिलने से पहले ही आ जाऊँगा।
या
सब्ज पत्ते धूप की ये आग जब पी जाएँगे
उजले फ़र के कोट पहने हल्के जाड़े आएँगे।

और जब वे यह कहते हैं -
मुझको शाम बता देती है,
तुम कैसे कपड़े पहने हो।

सारे दिन की थकी साहिली रेत पर
दो तड़पती हुई मछलियाँ सो गई।

झिलमिलाते हैं कश्तियों में दिये,
पुल खड़े सो रहे हैं पानी में।

और उससे भी आगे जा कर जब कहते हैं -
कच्चे फल कोट की जेब में ठूँस कर जैसे ही मैं किताबों की जानिब बढ़ा,
गैलरी में छुपी दोपहर ने मुझे नारियल की तरह तोड़ कर पी लिया

तो डॉ बशीर बद्र का वह रूप सामने आता है, जिसके बारे में उन्होंने खुद ही एक जगह कहा है -

कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बंधा हुआ,
ये गज़ल का लहजा नया-नया न कहा न सुना हुआ।

गज़ल के इन शेरों का आज लोकप्रिय न होना गुणवत्ता की कोई कसौटी नहीं है, और इस बात की भी गारंटी नहीं है कि कल या आज भी नारियल के दरख़्तों की पागल हवा के पीछे काव्य-रसिक भारत के दूर दक्षिण में समंदर के किनारे की किसी अल्हड़ युवती को न देख पाये। ऐसा सोचना कविता की विकास यात्रा में अनास्था जाहिर करना है।

गज़ल के साथ जो बहुत सी ग़लतफ़हमियाँ जुड़ी है उनमें जो एक रूपकों और बिंबों के पुनरावर्तन से निकली संप्रेषणीय सहजता की विशिष्टता भी हैं। बल्कि आमतौर पर यह गज़ल की अनिवार्यता ही मानी जाती है। इसी ग़लतफ़हमी के चलते जहाँ एक ओर हिंदी कविता के मर्मज्ञ गज़ल को ही कविता से खारिज कर देते हैं वहीं दूसरी ओर डॉ बशीर बद्र की उन ग़ज़लों पर पर्याप्त आलोचना उर्दू हिन्दी में भी नहीं की गई जिसमें एकदम नये बिंब व रूपक हैं, जिसमें नई दुनिया से लाई हुई कल्पना है, जो एक तरह से गज़ल की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भी पारंपरिकता से दूर हैं। यहाँ बशीर बद्र के जो शेर दुनिया भर में सब से मशहूर शेर हैं, उनकी काव्यगत गुणवत्ता पर कोई टिप्पणी किये बगैर मैं यह कहना चाहूँगा कि उनका असली कारनामा आज की वैश्विक जिन्दगी से नये इंसान की तलाश किया जाता है, जिस पर अभी काफी कुछ लिखा जाना था।

डॉ बशीर बद्र ने शब्दों से अपनी बात बुलवाने का काम किया है और इस दौरान उन्होंने शब्द में अपनी जमीन और मिट्टी के संस्कार बो दिए हैं। यही कारण है कि उनके 'शब्द' उनकी ग़ज़लों के हिंदी या उर्दू होने पर कोई फैसला नहीं दे सकते हैं। अगर उनकी गजलियत पर उर्दू आलोचना में सवाल उठाए भी गये हैं, तो शायद इसलिए कि वे एक रची-रचाई बंधी-बंधाई बिंब योजना, रूपकों और मुहावरों से बाहर चले गए हैं। लेकिन इस तरह बाहर जाना उनकी मजबूरी थी, क्योंकि रचना की आत्मतुष्ट वैयक्तिकता और रूमानी भाववाद के जिस दौर में सामाजिक चिन्ता और मानवीय सरोकारों में बँधे कवि एक गहरा अंधेरा महसूस कर रहे थे, जहाँ एक ओर किशोर भावुकता की भीड़ लगी थी और दूसरी ओर कलावाद के नये-नये जुमले पाठक को छल रहे थे, कुछ हिन्दी कवियों की तरह डॉ बशीर बद्र ने भी अपनी गज़ल के शेरों में उस देशकाल की मिट्टी के संस्कार बो दिए जिन्होंने अगली पीढ़ी को प्रभावित किया। उनकी काव्य-भाषा, मुहावरे और अभिव्यक्ति के सीधे नुकीलेपन ने इस कविता को आकर्षक बनाया। यहाँ कविता साधारण आदमी के साथ जीवन से तर्क या प्रश्न नहीं करती, उसे असहाय खीझकर छोड़ नहीं देती, उसे उपदेश और सलाह नहीं देती, देती है तो सिर्फ एक दिलासा। उनकी कविताएँ या शेर किसी दिशा विशेष की ओर से ले जाने की वजह से नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों के सार्थक आश्वासन और आत्मविश्वास को संवेदनात्मक बल पहुँचाने की वजह से श्रेष्ठ है इसीलिए लिप्यंतरण का यह उपक्रम हैं।

डॉ बशीर बद्र की कविता का अत्यंत प्रीतिकर पक्ष उनकी सादगी है। कितने भोलेपन से वे कह जाते हैं-
हम से मुसाफिरों का सफर इंतज़ार है
सब खिड़कियों के सामने लंबी कतार हैं।
और ऐसे ही कहते हैं -
हम क्या जाने दीवारों से, कैसी धूप उतरती होगी
रात रहे बाहर जाना है, रात गए घर आना बाबा।
तो लगता है कि यह भोलापन सिर्फ अभिव्यंजना का भोलापन नहीं है। यह इसलिए आकर्षित करता है कि जहाँ कविता एक छोर पर सहजता की आड़ में, सपाटबयानी और वक्तव्य का पर्याय हो गई है, वहीं दूसरे छोर पर वह गहरी और मार्मिक होने की प्रक्रिया में जटिल और दूभर हो गई। जन की पक्षधरता के बावजूद कवि जन तक पहुँचने वाली कविता अक्सर नहीं दे सके। नई कविता की भाषा का आदर्श भले ही बोलचाल की भाषा रहा हो, लेकिन कई जगह अनुभूतियों के एकांत अपरिचित प्रतीक संयोजन और शैली की वक्रता ने उसे जटिल बना दिया है। कुल मिलाकर अगर भाषा सहज हुई तो भी वह सहजता दिखावटी ही रही। डॉ बशीर बद्र ने माना है कि अभिव्यक्ति प्रक्रिया का मुख्य काम अनुभव और विचार को अधिक सार्थक, सघन और प्रभावी बनाना है। युद्ध का हथियार बनानेवाले कारीगर में योद्धा का सा आक्रोश नहीं होता, लेकिन अस्त्र की मारक क्षमता और युद्ध में उसके होनेवाले प्रभाव पर निगाह जरूर होती है। विषमताओं पर तीखे प्रहार भी कितनी बाल सुलभ मासूमियत से किए जा सकते है यह इस शेर से स्पष्ट हो जायेगा,
किसने जलाई बस्तियाँ बाज़ार क्यों लुटे
मैं चांद पर गया था मुझको पता नहीं।

सहजता में कविता एक चिंतन को कैसे रूप दे सकती है ये डॉ साहब की कविता में देखा जा सकता है और यह भी कि संप्रेषण के स्तर पर सरलता से उपलब्ध कविता अनुभूति और रचना-प्रक्रिया के स्तर पर सहज होते हुए भी अपने पीछे से कवि के आत्म-संघर्ष, भीतरी खोजें, बेचैनी, उसके अध्ययन और चिंतन के सरोकारों से लबालब होती है। इसीलिए दंगों की त्रासदी पर वह आसानी से कह सकता है :
मकां से क्या मुझे लेना मकां तुमको मुबारक हो
मगर ये घासवाला रेशमी कालीन मेरा है।

ये गज़ल कविता को आश्वस्त करती है कि अभिव्यंजना के लिए माध्यम की न तो कोई मर्यादा होती है, न ही उसकी कोई भाषा। अगर ऐसी कोई मर्यादा है तो मानवी सरोकारों की, और कोई भाषा है तो हमारे आस-पास सांस ले रही जिन्दगी की। डॉ बशीर बद्र इसी भाषा के कवि है और इसलिए जब वे कहते हैं कि वे उर्दू लिपि में जानेवाली गज़ल की भाषा के शायर हैं, तो यह लिप्यंतर जरूरी हो जाता है।

("उजाले अपनी यादों के" की भूमिका से साभार)

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