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व्यक्तित्व

अभिव्यक्ति में वृंदावनलाल वर्मा की रचनाएँ

संस्मरण में
रसीद

 


वृंदावनलाल वर्मा

जन्म ९ जनवरी १८८९ ई० को उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले के मऊरानीपुर नामक गाँव में।
शिक्षा- साहित्य एवं विधि में स्नातक की उपाधि।

कार्यक्षेत्र- १९०९ में वृंदावन लाल की पहली कृति छपी 'सेनापति ऊदल' नाम से जिसे तत्कालीन सरकार ने जब्त कर लिया था। १९२० ई० तक छोटी छोटी कहानियाँ लिखते रहे। १९२७ ई० में 'गढ़ कुण्डार' दो महीने में लिखा। १९३० ई० में 'विराटा की पद्मिनी' लिखा। विक्टोरिया कालेज ग्वालियर से स्नातक तक की पढाई करने के लिये वे आगरा आये और आगरा कालेज से कानून की पढाई पूरी करने के बाद बुन्देलखंड (झांसी) में वकालत करने लगे। उन्हें बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये उन्नीस साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’१९०८ में ही लिख ली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति ऊदल’(१९०९) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया था। वृदावनलाल वर्मा जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक थे। उन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूँजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी।

पुरस्कार व सम्मान

वृंदावनलाल वर्मा भारत सरकार, राज्य सरकार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश राज्य के साहित्य पुरस्कार तथा डालमिया साहित्यकार संसद, हिन्दुस्तानी अकादमी, प्रयाग (उत्तर प्रदेश) और नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के सर्वोत्तम पुरस्कारों से सम्मानित किये गये हैं। आगरा विश्वविद्यालय तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने इन्हे क्रमशः ‘साहित्य वाचस्पति’ तथा ‘मानद डॉक्ट्रेट’ की उपाधि से विभूषित किया एवं भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से भी अलंकृत किया गया। भारत सरकार ने इनके उपन्यास ‘झांसी की रानी’ को पुरूस्कृत भी किया है। इनकी अनेक रचनाओं को केन्द्रीय एवं प्रान्तीय राज्यों ने पुरस्कृत किया है। अंतरराष्ट्रीय जगत में इनके लेखन कार्य को सराहा गया है जिसके लिये इन्हे ‘सोवियत लैन्ड नेहरू पुरस्कार’ प्राप्त हुआ है। उनके सम्मान में भारत सरकार ने दिनांक ९ जनवरी १९९७ को एक डाक टिकट जारी किया।

प्रकाशित कृतियाँ

प्रमुख ऐतिहासिक उपन्यासः-गढ़ कुन्द(१९२७), विराट की पद्मिनी(१९३०), मुसाहिबजू(१९४३), झांसी की रानी(१९४६), कचनार(१९४७), माधवजी सिंन्धिया(१९४९), टूटे कांटे(१९४९), मृगनयनी(१९५०), भुवन विक्रम(१९५४), अहिल्या बाई(१९५५),

प्रमुख सामाजिक उपन्यासः- संगम(१९२८), लगान(१९२९), प्रत्याघात(१९२९), कुण्डली चक्र(१९३२), प्रेम की भेनी(१९३९), कभी न कभी(१९४५), आचल मेरा कोई(१९४७), राखी की लाज(१९४७), सोना(१९४७), अमर बेल(१९५२),

प्रमुख नाटकः- झाँसी की रानी(उपन्यास पर आधारित), हंस मयूर(१९५०), बांस की फांस(१९५०), पीले हाथ(१९५०), पुर्व की ओर(१९५१), केवट(१९५१), नीलकंठ(१९५१), मंगल सूत्र(१९५२), बीरबल(१९५३),ललित विक्रम(१९५३), इनके द्वारा लिखी गयी लघु कहानियां भी सात संस्करणों में प्रकाशित हुयी हैं जिनमें से कलाकर का दर्द(१९४३), और श्रंघात सृंघात(१९५५), विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।

आत्म कथा ‘अपनी कहानी’

यद्यपि वृंदावनलाल वर्मा की ख्याति ऐतिहासिक गद्य लेखक के रूप में रही है परन्तु इनके नाटकों में कई स्थानों पर कविता के अंश भी अंकित हुये है जिन्हें १९५८ में डॉ० रामविलास शर्मा के संपादन में प्रकाशित ‘समालोचक’ में सम्मिलित किया गया है।

निधन २३ फरवरी, १९६९

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