एकाकी देवदारु
- शेखर जोशी
हिमालय के
आँगन का वन-प्रांतर! और उस सघन हरियाली के बीच खड़ा वह अकेला
देवदारु! खूब सुंदर, छरहरा और सुदीर्घ! सहस्रों लंबी-लंबी
बाँहें पसारे हुए। तीखी अँगुलियाँ और कलाइयों में काठ के कत्थई
फूल पहने हुए। ऐसा था हमारा दारुवृक्ष- एकाकी देवदारु! हमारी
भाषा के आत्मीय संबोधन में ‘एकलु द्यार!’
वृक्ष और भी कई थे। कोई नाटे, झब्बरदार। कोई घने, सुगठित और
विस्तृत। कोई दीन-हीन मरभुखे, सूखे-ठूँठ से। बाँज, फयाँट,
चीड़, बुराँश और पाँगर के असंख्य पेड़। समस्त वनप्रांतर इस
वनस्पति परिवार से भरा-पुरा रहता था- वर्ष-वर्ष भर, बारहों
मास, छहों ऋतुओं में।
देवदारु के वृक्ष भी कम नहीं थे। समीप ही पूरा अरण्य
‘दारु-वणि’ के नाम से प्रख्यात था। हजारों-हजार पेड़ पलटन के
सिपाहियों की मुद्रा में खड़े हुए। कभी ‘सावधान’ की मुद्रा में
देवमूर्ति से शांत और स्थिर तो कभी हवा-वातास चलने पर
सूँसाट-भूँभाट करते साक्षात् शिव के रूप में तांडवरत। लेकिन
हमारे ‘एकाकी देवदारु’ की बात ही और थी। वह हमारा साथी था,
हमारा मार्गदर्शक था। ‘दारुवणि’ जहाँ समाप्त हो जाती, वहाँ से
प्राय: फर्लांग भर दूर, सड़क के मोड़ पर झाड़ी-झुरमुटों के बीच
वह अकेला अवधूत-सा खड़ा रहता था। जैसे, कोई साधु एक टाँग पर
तपस्या में मग्न हो।
सुबह-सुबह पूरब में सूर्य भटकोट की पहाड़ी के पार आकाश में
एक-दो हाथ ऊपर पहुँचते तो उसका प्रकाश पर्वत शिखरों के ऊपर-ऊपर
सब ओर पहुँच जाता था। एकाकी दारु के शीर्ष में प्रात: का घाम
केसर के टीके से अभिषेक कर देता। रात से ही पाटी में कालिख
लगा, उसे घोंट-घाट, कमेट की दवात, कलम और बस्ता तैयार कर हम
लोग सुबह झटपट कलेवा कर अपने प्राइमरी स्कूल के पंडितजी के डर
से निकलते। गाँव भर के बच्चे जुटने में थोड़ा समय लग ही जाता
था और कभी-कभार किसी अनखने-लाड़ले के रोने-धोने, मान-मनौवल में
ही किंचित विलम्ब हो जाता तो मन में धुकुर-पुकुर लग जाती कि अब
पंडितजी अपनी बेंत चमकाएँगे। आजकल की तरह तब घर-घर में न
रेडियो था, न घड़ी। पहाड़ की चोटी के कोने-कोने में घाम उतर आए
तो सुबह होने की प्रतीति हो जाती थी। ऐसे क्षणों में स्कूल के
रास्ते में हमारी भेंट होती थी ‘एकाकी दारु’ से। वही हमको बता
देता था कि अब ‘हे प्रभो आनन्ददाता, ज्ञान हमको दीजिए’
प्रार्थना शुरू हो गई होगी। कि अब गोपाल सिंह की दुकान से
हुक्के का आखिरी कश खींचकर मास्टर साहब कक्षा में आ गए होंगे।
‘एकाकी दारु’ के माथे पर केसर का नन्हाँ टीका देखकर हम
निश्चिंत हो जाते थे कि अब ठीक समय पर प्रार्थना में पहुँच
जाएँगे। यदि बालिश्त भर घाम की पीली पगड़ी बँध गई तो मन में
धुकुर-पुकुर होने लगती थी और हम पैथल की घाटी के उतार में
बेतहाशा दौड़ लगा देते थे और यदि किसी दिन दुर्भाग्य से सफेद
धूप का हाथ भर चौड़ा दुशाला एकाकी दारु के कंधे में लिपट जाता
था तो हमारे पाँव न स्कूल की ओर बढ़ पाते थे, न घर की ओर लौट
पाते थे। किसी कारण घर से स्कूल की और प्रस्थान करते हुए हम मन
ही मन ‘एकाकी दारु’ से मनौतियाँ मनाते कि वह केसर का टीका लगाए
हमें मिले।
साँझ को स्कूल से लौटते समय चीड़ के ठीठों को ठोर मारते,
हिसालू और किलमौड़े के जंगली फलों को बीनते-चखते, पेड़ों के
खोखल में चिडिय़ों के घोंसलों को तलाशते, थके-माँदे ‘दारुवणि’
की चढ़ाई पार कर जब हम ‘एकाकी दारु’ की छाया में पहुँचते तो एक
पड़ाव अनिवार्य हो जाता था। कोई-कोई साथी उसकी नीचे तक झुकी
हुई बाँहों में लेट कर झूलने लगता। कोई उसकी पत्तियों के ढेर
पर फिसलने का आनंद लेता। सुबह शाम का ऐसा संगी था हमारा ‘एकाकी
दारु’।
वर्षा बाद मैं उसी मार्ग से गाँव लौट रहा था। जंगलात की बटिया
अब मोटर सड़क बन गई है। परंतु जिस समय उस मोड़ पर सड़क को
चौड़ा करने के लिए निर्माण विभाग वाले एकाकी दारु को काट रहे
होंगे, रस्सियाँ लगा कर उसकी जड़-मूल को निकालने का षडय़ंत्र रच
रहे होंगे, उस समय शायद किसी ने उन्हें यह न बताया होगा कि यह
स्कूली बच्चों का साथी ‘एकाकी दारु' है, इसे मत काटो, इसे मत
उखाड़ो, अपनी सड़क को चार हाथ आगे सरका लो। शायद सड़क बनवाने
वाले उस साहब ने कभी बचपन में पेड़-पौधों से समय नहीं पूछा
होगा, उनकी बाँहों पर बैठकर झूलने का सुख नहीं लिया होगा और
सुबह की धूप के उस केसरिया टीके, पीली पगड़ी और सफेद दुशाले की
कल्पना भी नहीं की होगी।
अब वहाँ सिर्फ एक सुनसान मोड़ है और कुछ भी नहीं। |