मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


संस्मरण

भावभीनी श्रद्धांजलि के साथ

शिवबहादुर सिंह भदौरिया: नदी का बहना मुझमें हो
-शेरजंग गर्ग


लगभग बीस वर्ष पुरानी बात है। कवि सम्मेलनों का इतना पतन नहीं हुआ था। तब वहाँ श्रेष्ठ कविता संवेदनशीलता और और सम्मान के साथ सुनी, सराही जाती थी। इंडियन-ऑयल कॉरपोरेशन का मंच था जिसे भालंकर अडिटोरियम में सुरुचिपर्वूक सजाया गया था। जहाँ तक याद पड़ता है इस कवि सम्मेलन में गोपालदास नीरज, देवराज दिनेश, वीरेंद्र मिश्र, रामावतार त्यागी, राघेश्याम प्रगल्भ के साथ -साथ युवा कवियों में विजयकिशोर मानव, प्रमोद तिवारी, असीम शुक्ला थे तो नव काव्य से जुड़े अजित कुमार एवं इंदुलैन भी थे। इसी कवि सम्मेलन में लालगंज, जिला रायबरेली से डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया आए थे।

पहली बार देखने पर भदौरिया जी बहुत ही सामान्य किस्म के पूरी तरह ग्रामीण परिवेश से आए व्यक्तित्व से परिपूर्ण लगते हैं। सहज मिलन सार स्वभाव के कारण कवियों से प्रेमभाव से मिल रहे थे। साँवले रंग का सलोनापन और काव्य पाठ की मनमोहकता की बात ही कुछ और थी। इस आयोजन में उन्होंने अपने श्रेष्ठतम गीतों में से एक ‘नदी का बहना मुझमें हो’ का पाठ किया तो उन्हें काव्य के विशिष्ट स्वर के रूप में सराहा गया। नदी पर रचित हजारों कविताओं और गीतों की मूल संवदेना से नितांत भिन्न यह गीत कवि की सर्वथा उदार मानवीय दृष्टि का द्योतक है। इस कवि सम्मेलन में भदौरिया जी सचमुच ही अपने अकेले कंठ की पुकार की मौलिकता के कारण छा-छा गए थे। ज्यों ही उन्होंने गीत की प्रथम पंक्ति सधे हुए स्वर में सुनाई श्रोतागण दम साधकर बैठ गए:
मेरी कोशिश है
कि नदी की बहना मुझमें हो।
तट से सटे कछार छने हों
जगह-जगह पर घाट बने हों
टीलों पर मन्दिर हों जिनमें
स्वर के विविध वितान तनें हों
भीड़ मूर्च्छनाओं का
उठना गिरना मुझमें हो

अर्थात् ऐसी नदी का बहना हो, जहाँ से कोई प्यासा न लौटे, जिसके तट पर कोई उदास न रहे, जिसके घाट पर हिरन, वाघ, गाय और बकरी एक साथ पानी पिएँ तथा मगरमच्छ, घड़ियाल सभी एक साथ रहें। कवि की यह अत्यंत उदात्त चाहत भला किसे राहत नहीं देगी। कहना होगा कि भदौरिया जी का यह अकेला ही गीत उन्हें हिंदी साहित्याकाश में ध्रुवतारे का दर्जा प्रदान करता है।

यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि भदौरिया जी आज के तथाकथित लोकप्रिय गीतकारों-शायरों के समान श्रोताओं से आशीर्वाद के रूप में दाद माँगने वाले कवियों में नहीं हैं। उनकी गणना तो ऐसे यशस्वी रचनाकारों में की जाती है जो आशीर्वाद स्वरूप श्रोता को श्रेष्ठ रचनाओं का दान देते हैं।

शिवबहादुर सिंह भदौरिया का लुभावना नखशिल वर्णन डॉ. उपेन्द्र ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी गीत और गीतकार में कुछ इस प्रकार किया है-‘‘साँवला रंग, बड़ी लेकिन उदास आँखें, नाक और होंठों के मध्य का भाग कुछ ज्यादा ही चौड़ा, छोटी मूँछें, भरा हुआ ऊँचा मस्तक, सिर पर पीछे की ओर काढ़े हुए थोड़े-से गंगा-जमुनी केश, गर्दन सिर और कनपटियों पर दुहरा-तिहरा लिपटा गुलबंद, कोट के कालर और मुड्ढ़ों पर विराजमान गाँव की धरती की लाड़ली धूल, सामान्य कद-काठी, हाथ में चमड़े का पुराना बैग और कंधे पर कंबल-इस हुलिया और वेश-भूषा में किसी शहर या कस्बे के बस अड्डे अथवा रेलवे स्टेशन के आसपास मुसाफिरों की भीड़ से बाहर निकलते और निहायत बेफिक्री से लस्टम-पस्टम गति से चलते हुए डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया को देखकर यह कदापि नहीं लगता कि यह महाशय हिंदी के मधुर गीतकार हैं और एक डिग्री कॉलेज के प्राचार्य पद को कई वर्षों तक सुशोभित कर चुके हैं।’’

हाँ, यही हैं मधुर-मोहक और सदाबहार गीतकार शिवबहादुर सिंह भदौरिया जो अपनी ग्राम्य छवि के साथ-साथ श्रेष्ठ गीत कवि होने की पुष्टि करते हैं। वास्तव में, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे हिंदी बहुल क्षेत्र में कवि सम्मेलनों के मंच पर एक बहुत अधिक लोकप्रिय और आत्मीय नाम है शिवबहादुर सिंह भदौरिया का। उनके व्यवहार में स्वभाव में, रहन-सहन में कहन में जो सादगी है, वह कवि सम्मेलनी कवियों के प्रति एक प्रशंसा भरा सकारात्मक भाव लगाती है। बाकी रही-सही कसर उनका मोहक काव्यपाठ पूरी कर देता है।

भदौरिया जी के गीति काव्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन है उसमें व्याप्त आंचलिकता का गहरा समावेश। उन्होंने अपने ग्रामांचल, उसके परिवेश, जन व्यवहार रीति-रिवाजों को अत्यंत सहज ढंग से प्रस्तुत किया है। मानने वाले तो उन्हें गीतों में रेणु का सहोदर मानने में गर्व करते हैं। श्री ओमप्रकाश अवस्थी ने इस तथ्य को इस तरह रेखांकित किया है-‘‘उनके गीतों में श्रंगारिकता प्रकृति का आँचल थामकर इस प्रकार चली कि उसका रूढ़ और पारंपरिक रूप प्रकृति जीवन की मानवीकृत अंतरंगता में छिप गया। आंचलिक संस्कृति में देशप्रेम तथा मानवीय अनुभूतियों को प्रकृति के माध्यम से अभिव्यक्त करने की चाल से नए परिवेश और नए मूल्य तथा आधुनिकता सभी को अपने में समेट लिया। कथा साहित्य में जो देश अनुराग फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों और कहानियों में आया, जिस प्रकार बिहार प्रांत का पूर्णिया जिला उनके कथा साहित्य में संपूर्णता से बोल उठा, वैसा ही सांस्कृतिक परिवेश वैसवारा की धरती का डॉ. भदौरिया के गीतों में स्वर-साधना करने लगा। यदि डॉ. भदौरिया कथा साहित्य लिखते तो रेणुजी की तरह लिखते और यदि रेणु गीत लिखते तो उनमें भदौरिया जी के वर्ण्य विषय होते।’’

उक्त पंक्तियों को पढ़कर स्पष्ट होता है कि भदौरिया जी के क्षेत्र वैसवाड़े के लोग, काव्यप्रेमी, साहित्यकार, और बुद्धिजीवी भदौरिया जी को कितने ऊँचे मुकाम पर रखते हैं।

शिवबहादुर सिंह भदौरिया के अनेक गीतों में दर्जनों पंक्तियाँ हैं जो आधुनिक हिन्दी गीत कविता का श्रंगार हैं, मुग्धकारी हैं और बार-बार गुनगुनाने को प्रेरित करती हैं। उनकी सादगी में जो ईमानदारी एवं परिपक्वता है उससे नए रचनाकार बहुत कुछ सीख सकते हैं। यहाँ में भदौरिया जी के गीतों की कुछ चुनिंदा पंक्तियाँ उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ:
संकल्पित खड़े सभी योद्धा
दुविधा में घिरा मैं अकेला
पंख कटे हंसों के आगे
कई बार गिरा मैं अकेला

पुरखा पथ-से पहिए रथ के
मोड़ रहा है गाँव
ढीले होते कसते-कसते
पक्के घर में कच्चे रिश्ते
जोड़ रहा है गाँव

जहाँ तक बने सच से
दूर दूर रहिए
श्लेष से यथा सम्भव काम लिए रहिए,
बन्धु सदा शब्दों के दाम लिए रहिए,
मुँह पकड़ा जाए तो
अर्थ आड़ गहिए।

माँ ये गीत कहाँ से लाई
किसके पाले पोसे हैं?

परिवेश से जुड़े क्षण
महसूस हुए हैं
कोप भवन में बैठी शक्लों से डरिए
शक्लों पर पहचानी शक्लों से डरिए
सुर्ख फूल चेहरे
मनहूस हुए हैं।

ओढ़े हुए रामनामी-सी
तीर्थ यात्री सपना मेरा
नींद तोड़ने को इतने में
आ पहुँचा बाँहों का घेरा।


कहना होगा कि भदौरिया जी की अनेकों गीत पंक्तियाँ सूक्तियों का काम करती हैं और गीति काव्य कही मनोरमता के अनूठे, विक्षलण चित्र प्रस्तुत करती हैं। ऐसी बहुत-सी पंक्तियों के आधार पर कहा जा सकता है कि भदौरिया जी हमारे दौर के अत्यधिक भावप्रवण, चिंतक प्रधान और प्रभावशाली कवि-गीतकार हैं।

हमारे देश में विभिन्न साहित्यिक, गैर साहित्यिक, सरकारी-गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा प्रति वर्ष सैंकड़ों साहित्यकारों को वाँछित-अवाँछित पुरस्कारों, सम्मानों, अंलकरणों से मंडित-दंडित किया जाता रहा है। नाजायज और सिफारिशी रचनाकार निश्चित ही इससे महिमा मंडित होते हैं और सुयोग्य प्रतिभावान आस्थावान, दंडित। कहना होगा कि ऐसे सम्मान और अलंकरण कई सवालों को जन्म देते हैं। ऐसे सवाल पूछने वालों को कोई पैसा-वैसा नहीं देता अपितु खतरनाक जिंस के रूप में देखा जाता है। भदौरियाजी को अब तक जो भी सम्मान मिले हैं उनसे सम्मान ही सम्मानित हुआ है, भदौरिया जी को तो महज छोटी-मोटी राशि ही मिली है। भदौरिया जी का सबसे बड़ा सम्मान है उन्हें मिला असंख्य श्रोताओं का प्यार एवं दुलार। यही बात उनके मर्मस्पर्शी गीतों के पाठकों के संबंध में भी कही जा सकती है।

डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया के काव्य का सबसे बड़ा गुण है उनकी रचनाओं में चित्रित प्रतिबिंबित लोक परिवेश। यही भावस्थली उनके गीतों को प्राणवान बनाती है। ग्राम्य जीवन के सीधे-सच्चे वित्रचरित्र, लोकगीतों में विद्यमान धुनों का मोहक समावेश और कृत्रिमता विहीन भाषा सौंदर्य इन गीतों की जान है। भदौरिया जी के संबंध में लोकप्रिय युवा गीतकार कैलाश गौतम की यह टिप्पणी पूर्णतः सटीक है-’’डॉ. भदौरिया का लोक परिवेश उनके रचनाकार को वाक्स में प्रकाशित समाचार की तरह मुख पृष्ठ पर अलग से रेखांकित-स्थापित कर देता है। अपने मौलिक सहज ठेठ तेवर के चलते परंपरा से चले आ रहे लोकगीत न कभी बासी पड़ते है, न कभी बोझ होते हैं बल्कि आदमी के साथ-साथ हर जगह रचे-बसे दिखाई देते हैं। ऐसा इसलिए कि वहाँ किसी प्रकार की औपचारिकता नहीं है, जितना है सहज है। उसे जानने-समझने के लिए न शब्दकोश देखने की आवश्यकता है, न संदर्भ ग्रंथ।‘‘ संभवतः यही कारण है कि भदौरिया जी का व्यक्तित्व और गीत कृतित्व सभी को अपना-अपना-सा लगता है।

यों जीवन के गहन संघर्ष ने, विसंगतियों के घटाटोप, दुर्दमनीय स्थितियों में भी जीने के लिए सतत प्रयासरत मनुष्य में राग के प्रति अनुराग को भी पूर्ण विराम नहीं, तो अर्द्धविराम की स्थिति तक अवश्य पहुँचा दिया है। मनुष्य काव्यात्मकता अथवा गीतात्मकता से भटककर गद्यात्मक बनता चला गया है। मगर भदौरिया जी ने गीतात्मकता और काव्यात्मकता को छोड़ा नहीं, अपितु ओढ़ा-बिछाया है, जिस पर स्वयं उन्हें ही नहीं; सुधी श्रोताओं को भी विश्रान्ति मिली है। गीतकार श्याम निर्मम द्वारा भदौरिया जी के संबंध मे कहे गए ये शब्द बहुत हद तक समीचीन प्रतीत होते हैं-’’डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया के संबंध में सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि भदौरिया जी ने एक समर्थ और सशक्त रचनाकार के रूप में काव्य विधा के अंतर्गत गीत, नवगीत में एक विशिष्ट पहचान निर्भित की है।‘‘

‘माध्यम और भी’ संकलन में भदौरिया जी ने गीत, गजल, मुक्तक और ’हाइकु‘ रचनाएँ देकर अपनी चतुर्भुज प्रतिभा का परिचय दिया है। इस प्रसंग में कवि मधुर शास्त्री उन्हें इन शब्दों में याद करते हैं-’’भदौरिया जी मौन-साधक, संकोची, आत्मगोपन में एकांत सुखानुभवी, प्रर्दशन से दूर, सरल सहज जीवन के स्वामी दूरदर्शी कवि हैं। कविता के वे पुजारी है और प्रेमी भी।‘‘ खुद भदौरिया जी अपने आत्मकथ्य में अपनी बहुमुखी काव्य चेतना का खुलासा इस प्रकार करते हैं-’’दरअसल कविता मुझे कई जन्मों की पहचानी हुई आवाज-सी लगी जो कभी दूर से, कभी बहुत नजदीक आकर मुझे पुकारने, बुलाने के अलावा सत्परामर्श भी देती रही है। उसका सर्वाधिक आकर्षक गुण मुझे यह लगा कि वह गीती है और आज छ्यित्तर वर्ष की आयु में आज भी गाने कि लिए मुझे प्रेरित करती है। प्रबुद्ध साहित्यिक मित्र तो मुझे कभी-कभी रोकते-टोकते भी हैं और आगाह करते हैं कि समकालीन वैचारिक जटिलताओं, उलझनों और पदार्थवादी उत्सुकता के कारण गीतिमयता के लिए अवकाश कहाँ है? इस परामर्शों के वरअक्स समरसता और संगति का गीतिमय विकल्प ही वैश्विक विषमताओं और अवांछित तत्वों से मनुष्य को मुक्त कर सकता है-ऐसा अटूट विश्वास मुझे जाने-अनजाने दृढ़ता प्रदान करता रहा है।‘‘ संभवतः यही दृढ़ता और विश्वास है जिसने भदौरिया जी को गीत से जोड़े रखा और उन्होंने हर स्थिति-परिस्थिति को अपने गीति कौशल में बाँधने का यत्न किया।

उल्लेखनीय है कि भदौरिया जी का पहला गीत संकलन ’शिंजिनी‘ सन् 53 में प्रकाशित हुआ था। तब वे मात्र शिवबहादुर सिंह के नाम से लिखते थे। भूमिका में उन्होंने लिखा था-’’सुना था किसी को प्रश्रय देकर निर्वाह करना महान आदर्श है, चाहे वह विषवृक्ष ही क्यों न हो। जीवन में प्रेम पहले एक साधारण शब्द के रूप में आया, फिर समस्या बना और अंत में संस्कार हो गया... हाँ पालतू और जंगली कबूतर में केवल इतना ही तो अंतर है कि वह जंगली कबूतर के साथ-साथ उड़कर भी अपने घर आने का ज्ञान नहीं खोता। मैंने भी कल्पना लोक की सुखश्री बटोर लाने का प्रयत्न किया है किंतु साथ ही धरती की सत्य और कठोर बाँहों पर नीड़ सृजन करना नहीं भूला हूँ।‘‘

उक्त वक्तव्य में पहली गौरतलब बात तो यह है कि कवि ने अपने जीवन के साधारण शब्द के रूप में आए प्रेम की समस्याओं का सामना करते हुए उसे अपना संस्कार बना लिया। और दूसरा आकर्षक बिंदु यह है कि वह कल्पना और सपनों के आकाश में विचरण करने के बावजूद कभी जंगली कबूतरों की तरह आवारा नहीं बना, बल्कि पालतू कबूतर की तरह हमेशा ही नीड़ में, घर में लौट आया। सचमुच ही भदौरिया जी ने प्रेम को संस्कार बना लिया और उनके प्रेम गीतों ने भी प्रेम की संस्कारित ही लिया, उसे समस्या के रूप में नहीं देखा।

गीत के प्रति पूर्णतः समर्पित गीतकार असीम शुक्ल भदौरिया जी के अवदान को इन शब्दों में रेखांकित करते हैं-’’भदौरिया जी ने आर्थिक और सामाजिक वैषम्यजन्य तनावों के क्षणों में अपने गीतों के माध्यम से एक रागात्मक संसार साकार कर दिया है। यही नहीं, उनके नवगीत मानवीय मूल्यों को भी जनमानस में पूरी-पूरी सुरक्षा प्रदान करते हुए दिखाई पड़ते हैं। परंपरा और आधुनिक समाज की चित्तवृति संयुमित रूप में भदौरिया जी के गीत वहन कर रहे हैं तथा संवेदनात्मक परिधि को व्यापकता प्रदान कर रहे हैं।‘‘ सचमुच भदौरिया जी ने गीत को मात्र गीतात्मकता की रक्षा का माध्यम ही नहीं बनाया अपितु कविता की गहन संवेदनात्मक परिधियों से जोड़ने का काम भी किया है। उनके गीतों को सुनने का आनंद तो है ही पढ़ने में भी अपना पूरा प्रभाव बरकरार रखते हैं ये गीत। उदाहरणार्थ:
जीकर देख लिया
जीने में कितना मरना पड़ता है
अपनी शर्तों पर जीने की
एक चाह सब में रहती है
किन्तु जिन्दगी अनुबन्धों के
अनचाहे आश्रय गहती है
क्या-क्या कहना
क्या-क्या सुनना
क्या-क्या करना पड़ता है।

जीवन के विभिन्न रूपों, ऊहापोहों, समझौतों, चाहे-अनचाहे रिश्तों को निभाने में पीड़ा के अनेक बिंबो को सँजोने वाला यह गीत भदौरिया जी की अनुभव संपन्नता का दस्तावेज है।

तीस के जितने भी बड़े कवियों को देखा है, चाहे वे सुमित्रानंदन पंत हों, बच्चन हों, नरेंद्र शर्मा हों, भवानी भाई हों, गिरिजा कुमार माथुर हों, बलवीर सिंह रंग हों सभी को अत्यंत सहज-सरल आत्मीय और गहरा पाया है। शिवबहादुर सिंह भदौरिया भी उसी माला के एक वेश कीमती मनके हैं। उनसे जब भी मिलना हुआ है एक निष्कपट, निश्छल, निर्विकार और निरभिमानी व्यक्ति से मिलने का संतोष प्राप्त हुआ है, उनको जब भी सुना है, एक अत्यंत संवदेना प्रवण, मन-प्राण का स्पर्श करने वाले गीतकार-कवि को सुनने का आनंद मिला है और उन्हें पढ़कर लगा है कि उनकी विद्वता आतंकित-आशंकित नहीं, अपितु मुग्ध और आश्वस्त करती है।

 

१९ अगस्त २०१३

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।