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व्यक्तित्व

अभिव्यक्ति में डा शेरजंग गर्ग की
रचनाएँ

संस्मरण में-

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एक था टी हाउस

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शिवबहादुर सिंह भदौरिया: नदी का बहना मुझमें हो
 

 


डा शेरजंग गर्ग

२९ मई १९३७ को देहरादून में जन्मे डॉ. शेरजंग की हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में प्रसिद्धि इनके शोध प्रबंध 'स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता में व्यंग्य' के कारण विशेष रूप से है। इस ग्रंथ को हिंदी हास्य-व्यंग्य की विधिवत आलोचना का आरंभिक बिंदु माना जा सकता है। डॉ. शेरजंग गर्ग ने इस ग्रंथ तथा अपनी एक अन्य पुस्तक 'व्यंग्य आलोचना के प्रतिमान' द्वारा व्यंग्य की गंभीर आलोचना को एक दिशा देने का प्रयत्न किया है।

वे अपनी गज़लों में व्यंग्य की प्रहारक शक्ति के प्रयोग के लिए भी प्रसिद्ध हैं। इनकी गज़लों में वर्तमान व्यवस्था के विरूद्ध एक सार्थक आक्रोश दिखाई देता है। बहुत ही सरल भाषा में सहज प्रहार करने की इनकी क्षमता तथा इनका गज़ल कहने का अंदाज़ इन्हें मंच का चर्चित व्यक्तित्व बना देते हैं। इन्होंने मंच से कभी कोई समझौता नहीं किया है अपितु मंच को सही संस्कार दिए हैं। इनका प्रसिद्ध गज़ल संग्रह है -- 'गज़लें ही गज़लें'

डॉ. शेरजंग गर्ग ने गद्य और पद्य दोनों में समाज सापेक्ष तथा मानवीय मूल्यों पर आधारित रचनाएँ लिखी हैं। 'चंद ताजा गुलाब मेरे नाम' काव्य संकलन उनकी काव्य प्रतिभा का तथा 'बाजार से गुजरा हूँ' उनकी गद्य व्यंग्य प्रतिभा का सजग उदाहरण है।

बाल-साहित्य उनके योगदान को कभी विस्मृत नहीं कर सकता। ऐसे समय में जब हिंदी साहित्य में शिशु गीत न के बराबर थे, डॉ. गर्ग ने उनकी शुरूआत की। बाल-साहित्य के प्रति उनके योगदान को देखते हुए हिंदी अकादमी, बालकन बारी तथा बाल भवन ने उनको सम्मानित किया है। बाल-साहित्य की उनकी विशिष्ट रचनाएँ हैं -- 'सुमन बाल गीत', 'अक्षर गीत', 'गुलाबों की बस्ती', 'नटखट गीत', 'भालू की हड़ताल'। हिन्दी भवन के निदेशक के रूप में कार्य करते हुए इन्होंने हिन्दी से जुड़े अनेक नए कार्यक्रमों तथा आयोजनों को आयोजित किया।

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