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संस्मरण


एक कथा अर्धशती को नमन
महेश दर्पण


कभी शिवानीजी ने कहा था, 'भारतीय वर्तमान समाज अपना स्वाधीन चिंतन बहुत पहले खो चुका है आज की हमारी नवीन संस्कृति हो या नवीन चिंतन, उसका लगभग सबकुछ पश्चिम से उधार ली गई संपत्ति है वह कर्ज चुकाने में एक दिन हम स्वयं कंगाल हो जाएँगे यह हम अभी नहीं समझ पा रहे हैं, जब समझेंगे तो बहुत देर हो चुकी होगी।' सचमुच बहुत देर हो चुकी है चिंतन तो छोड़िए, अब तो सामान्य व्यवहार भी स्वाधीन नहीं।

स्वातंत्र्योत्तर भारत की सर्वाधिक लोकप्रिय हिंदी कथाकार शिवानी का रचनाकार नाम इस कदर चर्चित हुआ कि गौरा पंत उसके तले दब–ढक सी गईं रचना की भरी–पूरी अर्धशती जीने के बाद अस्सी वर्ष की उम्र में राजधानी दिल्ली में शिवानीजी ने अंतिम सांसें लीं २१ मार्च, २००३ को १७ अक्तूबर, १९२३ को राजकोट, गुजरात में शुरू हुई जीवन–यात्रा ने विराम लिया और हिंदी समाज को यह सोचने पर विवश किया कि छोटे–छोटे गुटों में बँटा–कटा हमारा यह समाज कब रचनात्मकता की पहचान करना सीखेगा!

कुमाऊँनी ब्राह्मण परिवार में जनमी शिवानी में अपने मूल्यांकन को लेकर कभी कोई तनाव या कुंठा नहीं रही उलटे उन्होंने यही कहा कि जितना दे सकी हूँ, उससे कहीं अधिक मैंने पाया है प्रारंभिक शिक्षा शांतिनिकेतन में पाई तो लेखन भी छात्र–जीवन में ही बांग्ला में शुरू किया पहली कहानी बांग्ला में लिखी, लेकिन गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के कहने पर फिर मातृभाषा को ही लेखन का माध्यम बनाया कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक शिवानीजी ने गुरूवर हजारीप्रसाद द्विवेदी को स्मृतियों में सदैव बनाए रखा।

प्रारंभ में ही पारिवारिक वातावरण ऐसा मिला कि एक विस्तृत कथा–फलक बनता चला गया दादा पं. हरिराम पांडे उच्च कोटि के विद्वान् और मदनमोहन मालवीय के मित्र थे पिता कई रियासतों के राजकुमारों के शिक्षक और मंत्री रहे अनेक रियासतों से होते हुए कुमाऊँनी लोक–संस्कृति, परंपरा और चरित्र शिवानी के कथा–संसार में रचते–बसते चले गए 'धर्मयुग' में रचना–प्रकाशन का क्रम क्या प्रारंभ हुआ, फिर तो अनेक धारावाहिक उपन्यास पाठकों की प्रिय रचना बन गए यह कहना जरूरी है कि अपनी आकर्षक कहन के जरिए शिवानी हिंदी की सर्वाधिक लोकप्रिय कथाकार बन गईं।

'चौदह फेरे', 'भैरवी', 'कृष्णकली', 'कैंजा', 'पूतोंवाली', 'कालिंदी', 'विषकन्या', 'लाल दीवारें' और 'अतिथि' सरीखी बाँध लेनेवाली अनेक कथाओं को कौन भुला सकता है चरित्रों के बहाने कथा की अद्भुत फाँस तैयार करनेवाली यह कथाकार समाज में होनेवाले बदलावों को अचीन्हा नहीं छोड़तीं जहाँ वह पली–बढ़ीं, बंगाल हरदम उनकी स्मृतियों में छाया रहा पाठकों को उन्होंने उस दुनिया से रू–बरू कराया, जिसमें रहते हुए वह अपनी पसंद की चीजें चुनता है, विरोध करता है, समझौते और चुनाव करता है परिवर्तनशील शहरी समाज में नजर बनाए रखनेवाली इस रचनाकार की लोकप्रियता अपने आप में इस बात का सबसे बड़ा सबूत है कि उनके विचारों से इत्तेफाक रखनेवालों की तादाद कभी कम नहीं रही उनके पात्रों में यों तो हर उम्र के लोग हैं, लेकिन प्रायः वे युवा पात्रों को तरजीह देती नजर आती हैं उनके चरित्र देर तक पाठक के मन में बसे रहते हैं हिंदी कथा के पाठकों में पैठ बनानेवाले उन जैसे रचनाकार कम ही होंगे।

मैंने उनकी अंतिम कहानी पढ़ी थी– 'लिखूँ' इस रचना का चरित्र प्रिया दामले भी याद रह जानेवाला है एक तो उसका व्यक्तित्व और फिर शिवानी की किस्सागोई, पाठक एकबारगी तो फँसकर रह ही जाता है मैं जाने कितने ऐसे पाठकों से परिचित हूँ, जो शिवानी के कथाजगत में अपने असल जीवन की छवि देखते हैं जाने कितने पाठक ऐसे होंगे, जिन्होंने उनकी रचनाओं से मैक्सफैक्टर सरीखे आधुनिक जीवन के टिप्स लिये होंगे, उनके पात्र जिनकी कल्पनाओं में छाए रहे होंगे।

उनकी संस्कृतनिष्ठ भाषा का–सा प्रवाह और बंगला कथा के संस्कार ही हैं, जिन्होंने उन्हें हिंदी का शरत बनाया स्त्री पात्रों के अंतरतम की गहराइयों में उतरना उनके कथा–संसार की विशेषता हैं ग्रामीण अंचल से लेकर शहरी आधुनिक समाज तक और देश से लेकर विदेश तक यात्राओं के बीच उनके पात्र सहज आकर्षण लिये हैं आडंबर से शिवानीजी को सख्त चिढ़ थी उनका कहना है, 'आज लोग त्योहारों पर उपहार भेजनेवालों के हृदय की गरिमा को नहीं तौलते, वे उपहारों की गरिमा तौलना सीख गए हैं बाह्याडंबर जितना ही बढ़ता जा रहा है उतना ही हृदय सिमट–सिकुड़ छोटा होता जा रहा है।' समय–प्रवाह में बदलती जा रही त्योहारों की दुनिया में काफूर हो रहे उत्साह और वर्तमान हो रही विवशता को वह बहुत गौर से देख और अनुभव कर रही थीं।

सम्मिलित परिवार के संस्कार लिये शिवानी घर से बाहर एक बड़ी दुनिया से रू–बरू हुईं कथा के अतिरिक्त यह हम उनके संस्मरणों और यात्रा–वृत्तों में देख सकते हैं लोहनीजी से बचपन में सुनी कहानियों से कैसा कथा–बीज मन में पड़ा कि फिर एक कथा–समुद्र ही उमड़ पड़ा, यह आत्म–स्वीकार बड़े सहज अंदाज में रचनाकार शिवानी ने 'सुनहु तात यह अकथ कहानी' में किया है पति को खो देना उनके लिए एक सुदृढ़ पाठक और आलोचक को खोना था पति और बहन जयंती पर उनके संस्मरण हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं परंपरा और आधुनिकता का ऐसा मेल उनके यहाँ मौजूद नजर आता है कि स्विस चॉकलेट और 'गुड़ पू' एक साथ नजर आते हैं।

शिवानी का मानस मानववादी बना रहा हिंदुस्तान की मिली–जुली संस्कृति को उन्होंने हर साँस में भरा था तभी तो वह लिख पाईं यह बड़ा सच, जो हम समझते–बूझते भी भूल–भूल जाते हैं उन्होंने एक जगह लिखा है– '...मैं उस युग की साक्षिणी रही हूँ, जब इन्सान इन्सान था, न हिंदू, न मुसलमान हर हिंदू त्योहार में देश भर के पढ़े–लिखे अपढ़ मुसलमान समान उत्साह से भाग लेते थे और हर हिंदू उसी उत्साह से मुसलमानों के त्योहार में भाग लेता था हर हिंदू जबान पर सेवइयों की मिठास रहती और हर मुसलमान गुझियों का आनंद उठाता था।'

ऐसा नहीं था कि शिवानी ने हिंदू–मुसलिम दंगे न देखे हों बनारस के भयानक दंगों की स्मृति उन्हें अच्छी तरह से थी लेकिन एक रचनाकार की समझदार आँख ने यह देख लिया था कि 'तब वे चतुर–चालक अंग्रेजों की भड़काई आग थी, आज हमारे अपने राजनीतिज्ञ ही हमारे घरों को फूँक तमाशा देख रहे हैं।'

क्या एक भरी–पूरी कथा–अर्धशति को श्रद्धांजलि देते हुए हम फिर से कौमी यकज़हदी के उस माहौल को हरा करने का सपना नहीं देख सकते! कम ही लोग जानते होंगे कि किस्सों–कहानियों के उस्ताद अमृतलाल नागर पर निकले 'सारिका' के विशेषांक का विमोचन लखनऊ में शिवानी के हाथों ही नागरजी के अनुरोध पर कराया गया था यह एक बड़े रचनाकार का उनके प्रति सम्मान था, जो हिंदी–जगत की उठा–पटक में अब बिला ही गया है।

 
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