सुनंदा भाभी
अंबरीश मिश्रा
दल के सभी सदस्य भास्कर जी की बातें बड़ी एकाग्रता से
सुन रहे थे। वे हिमालय के पिन्डारी ग्लेशियर मार्ग में
१२,००० फीट की उँचाई पर स्थित चिल्टा में बैठकर अपनी
हिमालय की यात्राओं में मिले अनेकों लोगों में से एक
असाधारण महिला सुनन्दा भाभी के साथ हुए अनुभवों को
बाँट रहे थे। दुनियादारी में भले ही भास्कर जी कच्चे
हों, पर हिमालय के विषय में उन्हें कोई चकमा नहीं दे
सकता। पिछले २० वर्षों से भी अधिक समय से हिमालय के
अनगिनत भागों में पैदल ही घूम–घूम कर उसके हर रूप को
देखा है और मन के अन्दर उतारा है उन्होंने।
पूछते ही कागज पर पूरा हिमालय उतार कर कल्पनाओं में
भ्रमण कराने में देर नहीं करते हैं। आम आदमी से हटकर
भास्कर जी को क्या मिलता है इससे? उनके सिवाय कौन जान
सकता हैॐ
हिमालय की अनेकों यात्राओं के रास्तों में न जाने
कितने लोगों से सम्पर्क हुए हैं उनके और कितने स्नेही
स्थायी तौर से मित्र बन गए। शायद यह उस हिमालय का असर
है या उधर जो जाता है, वह होता ही ऐसा है। उन्हीं
भास्कर जी की बद्रीनाथ के पास फूलों की घाटी की यात्रा
के समय एक गुजराती परिवार से भेंट हुई।
परिवार के सदस्य सुनन्दा भाभी तथा उनके पति मानिक
बम्बई से एक यात्रा टोली के साथ इधर आये थे। भास्कर जी
अपनी टोली के दो अन्य सदस्यों के साथ सतोपन्त जाने की
योजना बना ही रहे थे कि तभी सुनन्दा भाभी ने भी साथ
जाने का आग्रह किया। चौड़े किनारे की साड़ी में लिपटी
इकहरे बदन की सुनन्दा भाभी की उम्र रही होगी ३५ वर्ष
के आसपास। हिमालय की वह पहली यात्रा थी उनकी। सतोपन्त
के कठिन रास्ते का आभास कराने पर मानिक ने तो एक बार
अपना इरादा बदल ही डाला था, पर शायद सुनन्दा भाभी का
अन्तर्मन कुछ अधिक ही दृढ़ था। वे साथ चलने का आग्रह
भास्कर जी से बराबर इस तरह से करती रहीं, जैसे वे
उन्हें न जाने कब से जानती हों।
सुनन्दा भाभी की इतनी इच्छा तथा उत्साह को देखकर
भास्कर जी असंमजस में पड़ गये। उन्होंने हिमालय के
आकर्षण को भी जाना है और उसकी दुर्गमता भी उनसे छिपी
नहीं हैं। अनेकों बार रास्ता भटक कर ठण्डे खुले आसमान
के नीचे शेर–भालू जैसे जानवरों वाले भागों में जाग–जाग
कर कितनी रातें बिताई हैं उन्होंने। पतली किनारीदार
पगडंडी के दोनों ओर अथाह गहराई वाले रास्तों पर चलकर
कितनी बार मृत्यु तथा जीवन के बीच झूलकर गुजरे हैं वे।
बार–बार आग्रह करके सुनन्दा भाभी ने साथ ले जाने के
अलावा कोई दूसरा विकल्प छोड़ा ही नहीं।
सब कुछ ठीक–ठाक करके सभी लोग चल पड़े सतोपन्त के रास्ते
पर। सुनन्दा भाभी तथा उनके पति मानिक भास्कर जी की
टोली में ऐसे शामिल हो गए, जैसे शुरू से ही उनके साथ
आये हों। भास्कर जी ने कई साथियों को देखा हैं, जो
शुरू में तो शेखी बघारते हैं, पर बाद में कठिन चढ़ाई
समय अपनी हिम्मत गवाँ बैठते हैं और एक साधारण आदमी से
नीचे गिर कर टोली के अन्य सदस्यों को भी परेशानी में
डाल देते हैं। इस तरह की यात्राओं में आगे चलते ही
रहने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता है। भास्कर
जी के मन में सुनन्दा भाभी को साथ लेने में कुछ ऐसा ही
भाव उपजा था उस समय, यह सोचकर कि एक तो स्त्री, ऊपर से
कठिन रास्ता। पर शायद सुनन्दा भाभी ने गलत ही साबित
करने की ठान ली थी। वे पीठ
पर अपना आवश्यक सामान लादकर हाथ में लाठी लिए सभी के
आगे चढ़ाई के रास्ते पर बढ़ रही थीं।
जब भास्कर जी ने बताया कि इसी सतोपन्त के रास्ते से ही
महाभारत के पाँचों पांडव हिमालय की चोटी पर चढ़े थे और
न जाने कहाँ लुप्त हो गए, तो सुनन्दा भाभी ने उत्तेजित
होकर न जाने कितने प्रश्न पूछे भास्कर जी से, जैसे सभी
कुछ जान लेना चाहती हों, अपनी पहली ही हिमालय की इस
यात्रा में। चलते–चलते दिन का उजाला धीरे–धीरे अंधकार
में बदल गया, पर रास्ता समाप्त होने का नाम नहीं ले
रहा था, ऊपर से ठण्ड भी बढ़ती जा रही थी।
सभी ने अपनी–अपनी टार्च निकाल ली और रास्ते पर नजर गड़ा
कर निश्चित करने के बाद ही आगे बढ़ रहे थे। भास्कर जी
रास्ते की लीक छूट जाने का नतीजा देख चुके थे कई बार,
इसलिए सबसे आगे आकर मार्ग–दर्शन कर रहे थे। वे बार–बार
हिम्मत बंधाते कि जब रास्ता है, तो अवश्य ही कहीं न
कहीं ले ही जाएगा हमें। सुनन्दा भाभी चलते–चलते सभी
वाद–विवादों में बराबर का हिस्सा ले रही थीं, पर उनके
पति चुपचाप सबके साथ चल रहे थे इस भावना से कि इसके
अलावा कोई दूसरा चारा ही नहीं था उनके पास।
पत्नी का स्वभाव वे शुरू से ही जानते हैं कि जिस चीज
को वह ठान ले तो उसके अन्त पर पहुँच कर ही साँस लेती
है वह। विशाल हृदय पाया है उसने, शादी के १५ वर्ष होने
को हो आये, सन्तान न होने का दुःख कभी दर्शाया नहीं
उसने। जब कभी बात छिड़ती भी तो जवाब देती मुस्कुराते
हुए कि सारा संसार ही अपना है। कभी अपनी उस संतान का
जिक्र करके वह रोई भी नहीं, जो जन्म के एक माह के
अन्दर ही एक भुलावा सा देकर एक सपना दिखा कर चला गया।
शायद अन्दर ही अन्दर इस दुःख को पी गई वह, कभी मानिक
के सामने उसे दर्शाया नहीं। विपत्ति के समय पति को
हमेशा हिम्मत ही दी है उन्होंने। मानिक इसीलिए उनका
अनुसरण करते आये हैं हर बात में। जब पत्नी ने निश्चय
कर लिया कि सतोपन्त जाना है तो उन्हें भी जाना ही है।
शायद पत्नी को सुखी देखने में उनको भी सुख मिलता है।
करीब रात के २ बजे के आस–पास ही पहुँच पाये सतोपन्त
झील के आसपास। ऊपरी हिमालय में गिने–चुने तालों में से
हैं यह सतोपन्त झील। सभी लोग ज्यादा समय न खराब करते
हुर साथ लाये दो टेन्टों को लगाने में लग गये। सब कुछ
करते कराते भोर गये तक एक टेन्ट में गुजराती परिवार और
दूसरे में ग्रुप के तीन सदस्य जो घुसे, तो तेज सूरज की
किरणों के ताप का आभास पाकर ही उठे सभी लोग। उठते ही
सुनन्दा भाभी ने रसोई का चार्ज संभाल लिया। किसने सोचा
था कि हिमालय की इतनी ऊँचाई पर उस एकान्त में बम्बई के
किसी भाग से आई सुनन्दा भाभी के हाथों की चाय तथा
गर्म–गर्म खाना नसीब होगा उन्हें? और किसमें थी यह
जानने की शक्ति कि जो अन्नपूर्णा माँ जैसी स्त्री
स्नेह के साथ परोस कर खिला रही है, उस समय जीवन के मूल
आशय को समझने तथा अपने–पराये के परे उठने की अपार
शक्ति का अंकुर
अन्दर ही अन्दर फूट रहा है उनमें?
सतोपन्त से दोपहर के आस–पास ही निकल पाये तथा कठिन
रास्तों को पार करके हिमालय की सुन्दर निर्मल छटाओं को
देखते हुए रात के १२ बजे के करीब ही पहुँच पाये
बद्रीनाथ। सुनन्दा भाभी प्रकृति के सुन्दर दृश्यों में
इतना आत्मसात हो जाती कि उन्हें लगता कि यहीं कहीं हैं
उनके जीवन का अन्तिम पड़ाव।
अगले दिन सुनन्दा भाभी के ही अनुरोध पर चार पोर्टरों
को लेकर बद्रीनाथ के ऊपर ऊँचाई पर स्थित माना गाँव
जाकर रहे। गाँव के बच्चे बूढ़े लोगों के बीच बैठकर
सुनन्दा भाभी सहित सभी ने उनके दुःख सुखों की अन्दर
दबी बातें उन्हीं की टूटी–फूटी भाषा में सुनी। सुनन्दा
भाभी बच्चों के साथ मिल कर बच्चों जैसे हँसी और उनके
दुःखों की बातें सुनकर गम्भीर भी हुई थी। बम्बई जैसे
शहर की जिन्दगी का कही भी नामो निशान नहीं देख पा रही
थी वे, उन लोगों की आँखों में।
अब तक मानिक काफी थक चुके थे, इसीलिये उस यात्रा के
अन्तिम दौर की सुई कुछ तेज चलने लगी। माना गाँव से
बद्रीनाथ लौट कर सुनन्दा भाभी सभी के ऊपर आत्मीय छाप
सी छोड़कर बम्बई लौट गई, तथा भास्कर भी अपने निर्धारित
कार्यक्रम के अनुसार कुछ और भागों में घूम कर वापस
अपने साथियों के साथ कानपुर लौटकर आम जीवन के क्रम में
मिल गये।
जिन्हें भुलाया जा सके, सुनन्दा भाभी उन लोगों में से
नहीं थी, और न ही भास्कर जी भी ऐसे हैं जो हिमालय के
अपने साथियों को आसानी से भूल जायें। एक साधारण सी
दिखनेवाली महिला अन्तर्मन से इतनी दृढ़ हो सकती है,
बार–बार भास्कर जी के मन में श्रद्धा का भाव उभारती
रही उनके लिए। करीब दो माह बाद बम्बई के पते पर पत्र
डाला, जिसका जवाब बम्बई से रिडाइरेक्ट होकर आया कहीं
से। पत्र में स्वयं सुनन्दा भाभी ने लिखा था ––
"भास्कर दा",
आपने जो रास्ता दिखाया था जीवन के मूल उद्देश्य का,
उसके लिए मैं आपकी आभारी हूँ। अब भविष्य में मुझे
कृपया पत्र न डालिये, मैंने संसार त्याग दिया है।
"सुनन्दा"
पत्र को पढ़कर भास्कर जी के मन में जिज्ञासा हुई जानने
की कि पत्र आया कहाँ से है। उलट–पुलट कर पत्र पर लगी
पोस्ट ऑफिस की मोहर से इतना ही पता लगा "हरिद्वार"।
भास्कर जी ने हिमालय के विचित्र स्थानों के दर्शन किए
हैं, पर जिन लोगों से मिले हैं वे अपनी यात्राओं में,
उनमें सुनन्दा भाभी जैसा अभूतपूर्ण इन्सान कभी भी उनके
सम्पर्क में नहीं आया। अपनी १९८४ की इस विचित्र यात्रा
का स्मरण बताते–बताते अचानक भास्कर जी भावुक हो कर
एकदम मौन हो गये।
हम सभी शान्त भाव से इस तरह सुन रहे थे, जैसे शास्त्र
की जीती जागती कोई कथा हो। किसी को पता भी नहीं लगा कि
सूरज उतर कर छिपने जा रहा है और थोड़ी देर में एकदम
ठण्ड बढ़ जाएगी। सभी लोग अपने–अपने टेन्टों में जाकर
घुस गये। कोई किसी से बात नहीं कर रहा था, शायद सभी एक
ही बात सोच रहे थे कि अब आठ साल के अन्तराल के बाद
कहाँ होगी सुनन्दा भाभी? कैसी होगी सुनन्दा भाभी?
स्नेहवश आँखें नम हो गई सभी की।
२४
सितंबर २००२