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संस्मरण

एक छोटी यात्रा : एक नन्हीं सहयात्री
सूर्यबाला


वह न्यूयॉर्क का पेन स्टेशन था।
गगन चुंबी महत्वाकांक्षाओं के सिरमौर-शहर का सिंहद्वार! अपनी बृहत्तर सत्ता के भरपूर अहसास से, सैकड़ों सूचना पट्टों को रोशनियों से जगमगाता - जहाँ इस समय, मैं बुरी तरह घबराई, अपने धैर्य की लगभग समाप्तप्राय ऊर्जा के साथ सहमी खड़ी थी। मेरे सामने लगे इंडिकेटर पर लगी बीसियों ट्रेनों की सूचनाओं में सिर्फ मेरी ट्रेन ही लेट थी। और लगातार लेट होती जा रही थी।

बाहर अंधेरा घिरता जा रहा था लेकिन इसे बाहर के अंधेरे उजाले से भला क्या फर्क पड़ने वाला था!

फर्क तो मुझे पड़ रहा था क्योंकि निपट-अकेली और अनजान थी मैं। पिछले डेढ़ दिनों में, युनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया के हिंदी विभाग और छात्र-छात्राओं के साथ जो सक्रिय अनुभूति जुड़ी थी वह अचानक ही लुप्तप्राय थी और उसकी जगह एक बदहवास अजनबियत हावी थी मुझ पर।

इंडिकेटर पर और ज्यादा लेट होने की सूचना आई। कहीं ट्रेन कैन्सिल ही हो गयी तो? सामान्यत: ऐसा होता नहीं। लेकिन असंभव तो कुछ भी नहीं।

कितने चमत्कार की तरह इंडिकेटर पर ट्रेन आने की सूचना मिली।

बेसब्र लोग, अनुशासन की मर्यादा न तोड़ पाने की कसमसाहट के बावजूद भीड़ में एक दूसरे से आगे निकलते जा रहे थे। मैंने जल्दी से सामने खड़ी कंडक्टर को अपना टिकट दिखाया और उसने इतनी ही शीघ्रता से कहीं भी बैठ जाने का इशारा कर दिया।

वैसे भी ट्रेन वेस्टीब्यूल थी। सारे डिब्बे एक दूसरे से जुड़े। लोग किसी भी दरवाजे से घुस, मनचाही अकेली सीट की तलाश में आगे बढ़ते जा रहे थे। लेकिन मेरी बात अलग थी। क्रीम-सिल्क की साड़ी में लिपटी एक सिलबिली ब्राउन। पता नहीं, किसी के पास मेरा बैठना उसे सुहाये, न सुहाये। यह सोच मैं सहमी सी अटक अटक कर चल रही थी। खिड़की के साथ लगी सारी सीटें भर चुकी थीं। हर सीट पर कोई न कोई बैठ चुका था और मेरे हाथों ने बैग ढोने से अब इन्कार कर दिया था।

अचानक बायीं तरफ वाली खिड़की पर एक दस ग्यारह साल की बच्ची बैठी दिखी, अकेली ही। मैंने बैठने की इजाजत माँगी। थोड़ी झिझक भी थी। इन देशों में, बड़े ही नहीं, बच्चे भी बड़ी नाटकीय विनम्रता की बेमुरव्वती से मना कर देते हैं।

उसने स्वीकृति में सिर हिलाया। मेरे 'थैंक्यू' का जवाब भी सहज मुस्कान से दिया। होठों को बेजान इलास्टिक की तरह खींच कर नहीं।

मैंने बैग सामने रखकर सिर पीछे, सीट पर टिका दिया। शायद एक अस्फुट सा 'ओह' या 'उफ' जैसा भी मुँह से निकला होगा क्योंकि बगल की सीट से हल्के से एक मीठा स्वर उभरा 'टायर्ड!' बोलने और पूछने की समझदारी एक साथ निभा ले जाने वाला। 'ओह येस' मैंने कृतकृत्य भाव से उसकी ओर देखा। लोगों की हिदायतें याद आईं। नहीं, किसी की भी आँखों में सीधे नहीं देखना है। कार में बैठे हुए भी बगल से गुज़रती कार में बैठे लोगों को नहीं देखना चाहिये। यह शिष्टाचार के विरूद्ध है, ज्यादा कुछ बोलना, पूछना, बतियाना, लड़पड़ाना भी अशिष्टता लेकिन मेरी भारतीय आत्मा लगातार 'अशिष्ट' होने के लिये कसमसा रही थी। शिष्टाचार बनाम अजनबियत के बीच आजतक उसका दम घुट चुका था। मन बतरसी के लिये उतावला था, चाहे सहयात्री नौ-दस साल की सुनहले, लंबे रेशमी बालों वाली बच्ची ही क्यों न हो। हां, सबसे ज्यादा लुभाया था उसके लंबे बालों ने ही जिन्हें वह इस समय भी बैग से ब्रश निकाल कर बड़े एहतियात से संवार रही थी।

'तुम्हारे बाल तो बेहद खूबसूरत हैं और खूब लम्बे भी। मैंने ज्यादातर छोटी बच्चियों में, इतने लम्बे बाल किसी के नहीं देखे।'

'या..., उसका चेहरा उत्फुल्ल मुस्कुराहट से जगमगा उठा - 'मुझे लम्बे बाल पसंद हैं। मैंने अपनी माँ से जिद करके रखे हैं। मैं इन्हें बढ़ाना चाहती हूँ। देखूं कितने लम्बे होते हैं, यह जानने के लिए' अब तक उसने ब्रश रख कर लम्बे बालों में बादामी हेयरबैन्ड लगा लिया था।

'तुम्हारा मतलब है, तुमने अब तक अपने बाल काटे ही नहीं?'
'एक बार मेरी माँ ने पार्लर ले जाकर दो-दो इंच कम करवा दिये थे लेकिन तब मैं बहुत रोई थी न इसलिए' वह हल्के से शरमाई।
'समझी लेकिन तुम्हारी मम्मी को शैम्पू वगैरह करने में, तुम्हारे बालों को साफ, चमकीला रखने मे काफी मेहनत करनी पड़ती होगी।'

उसने मेरे वाक्य के बीच में ही कई बार बड़ी गम्भीरता से सिर हिलाकर, आँखें झपका कर अपनी सहमति जतायी।

मैं अभी तक सीट पर उसके अकेले होने का कारण टोह रही थी। उसके माता-पिता को देखने की उत्सुकता भी' तुम्हारे साथ नहीं बैठे हैं तुम्हारे मॉम-डैड?'

उसने बताया वह अकेली जा रही है। और इसके साथ ही मेरे चेहरे पर आई हैरानी का समाधान भी कर दिया कि साथ में एक पहचान का परिवार है, मात्र इस निगरानी के लिए कि 'बेस्टन' में वह ट्रेन से सुरक्षित उतर जाए।

बेस्टन? मैं खुशी से उछल पड़ी समवयस्का की तरह और उसके बिना पूछे ही बता गयी कि मैं भी तो वहीं जा रही हूँ। स्टेशन पर तुम्हारे मम्मी-पापा तुम्हें लेने आयेंगे न। (अप्रकट यह भी कि तब मैं उन्हें कहूँगी, उनकी बच्ची के लम्बे बालों का जिक्र और प्रशंसा भी करूँगी )
'लेकिन बॉस्टन के किस स्टेशन पर वहाँ कई स्टेशन हैं।' ओह सचमुच मेरा स्टेशन पहले आना था। मन बुझ सा गया लेकिन वह प्रकृत थी।
निरूद्वेग/औत्सुक्य और जिज्ञासाएँ मेरी ही कुलाचें मार रही थी। - 'तुम पढ़ती बेस्टन में हो या न्यूयार्क में?' उसने बताया वह रहती और पढ़ती बेस्टन में है।
दुबारा मेरे पूछने पर ही यह भी कि न्यूयॉर्क वह ईस्टर की छुट्टी और वीकेन्ड मिलाकर अपनी आन्टी और कजिन के पास गयी थी।

जितना पूछा जाए सिर्फ उतने का ही सही समुचित प्रत्युत्तर। अजनबियत की घुटन दूर हो जाने के बावजूद मैंने महसूसा कि जितनी आत्मविश्वस्त वह छोटी बच्ची है उतनी मैं प्रौढ़ा नहीं। मैं सोच समझ कर अपनी प्रश्नों के पिटारी से सवाल तजबीज रही हूँ और अनजाने उन्हें करीने से पेश करने की कोशिश कर रही हूँ। इसकी जगह अगर कोई हिंदुस्तानी बच्ची होती तो? यह आत्मविश्वास और निरद्वन्द्वता भी संस्कारों और संस्कृतियों की ही देन है? अपनी तरफ से शायद उसने मेरे बारे में एक भी सवाल नहीं पूछा था। सिर्फ नपे तुले जवाब दिये थे।

लेकिन उसके एक दो उच्चारण मेरी समझ में न आने पर जब मैंने उससे कहा कि हम इंडिया में अंग्रेजी पढ़ते जानते तो हैं लेकिन कभी-कभी उच्चारण समझ नहीं पाते तो उसके चेहरे पर एक उजास सी फैली। अजनबियत की जगह एक ऊष्मा भरी खुशबू।'

'इंडिया? आइ नो इंडिया। (मैं इंडिया को जानती हूँ।) वहाँ की ब्रेड के बारे में भी'।

मैं चमत्कृति थी, कहीं खुशी से गदगद भी - 'यू नो इंडिया? हाऊ? तुम्हारी भूगोल की किताबों में लिखा है क्या इंडिया के बारे में?
'नहीं, ज्योग्राफी तो हम हाइस्कूल में जाकर पढ़ते हैं लेकिन मेरे पास एक बुक है। आप देखना चाहेंगी?'

उसने अपने ठुसे हुए बैग में से एक बड़ी सी रंगीन चित्रों वाली किताब निकाली और सगर्व उसका एक पृष्ठ खोलकर मेरे सामने रख दिया, उस पृष्ठ पर रंगबिरंगे दुपट्टे ओढ़े गुरूद्वारे के लंगर के लिये सिख महिलाएँ रोटियाँ बना रही थी। बच्चों की वह किताब अलग-अलग देशों की ब्रेड के नामों और प्रकारों पर थी।

'आइ लाइक, दिस ड्रेस ऑलसो' उसने रंगबिरंगी सलवार कमीजों और दुपट्टों पर उँगली रखते हुए कहा। मैंने मुस्कराते हुए अपनी साड़ी की ओर इशारा किया
'और इसे?'
'इसे भी।'
'तुम्हारे लंबे बालों के साथ माथे पर चमकीली बिंदी भी खूब फबेगी।'
'इया ... आइनो ' वह बड़ी शालीनता से शर्माकर मुस्कुराई। फिर वापस अपनी निरूद्वेगी गंभीरता में लौट गई।
'मैं इंडिया के बारे में रोटियों और कपड़ों से ज्यादा भी जानती हूँ।'
'अच्छा? क्या?
'जैसे यह कि इंडिया में एक 'रिवर' है उसमें अगर कोई नहा ले तो उसके पाप धुल जाते हैं।
'वह थोड़ा रूकी फिर 'क्या आपने देखी है? कैसी है वह रिवर?'

घंटे डेढ़ घंटे की हुई पहचान में शायद यह पहला सवाल उसने किया था। जवाब के लिये उसकी आँखें मेरे चेहरे पर टिकी थीं।

इतनी आश्वस्त और भोले विश्वास वाली आँखों के साथ धोखा नहीं किया जा सकता था। लेकिन मैं अंदर-अंदर बुरी तरह सकपका गई थी। मेरे लिये दो ही रास्ते बचे थे। या तो सवाल से कतरा कर निकल जाऊँ (लेकिन बीचोबीच उसकी आँखें रास्ता रोके जो खड़ी थीं ) या कोई बहुत ठोस, वैज्ञानिक और अपनी संस्कृति की पोषक व्याख्या करूँ वह भी छोटी उम्र के अनुरूप भारतीय संस्कृति की, पत्थरों, नदियों, और वनस्पतियों में आस्था-आरोपण की व्याख्या में जरा सी चूक, उसकी दृष्टि में हास्यास्पद हो सकती थी। अलावा इसके, वह लंबे विस्तार धैर्य और एक सही उम्र तथा मानसिक तैयारी की भी मांग करती है। जबकि यहाँ बोल भले ही वह बराबरी पर रही हो, थी तो दस वर्ष की बच्ची ही। मेरी जरा सी लापरवाही, उद्दंड सवालों के छत्ते भी उधेड़ सकती थी।

क्या मैंने नहाया है उस नदी में क्या सचमुच - मैंने उसे बताया कि हाँ नहाया है मैंने उस नदी में पाप धुलने वाली बात कुछ-कुछ वैसी ही है जैसे हम चर्च में जाकर अपनी गलतियों, अपराधों का 'कन्फेशन' करते हैं और उनके भार से मुक्त होकर सद्विचारों से संकल्पित होते हैं।

वह संतुष्ट लगी - 'मैं इंडिया जाना चाहती हूँ लेकिन' कहकर उसने कंधे उचकाये - 'यू नीड मनी सो माय माम सेज मैं मेहनत से पढ़कर अगर अच्छी सी नौकरी करने लगूँगी तो जरूर एक दिन इंडिया जा सकूँगी। लेट्स सी' - और उसने पुरखिनों सी लंबी साँस छोड़ी।

डिब्बे के नीचे की जगह से एक छोटी बच्ची अपने नौजवान पिता की उँगली पकड़े ठुनकती सी ' डाइनिंग - कार' की तरफ गुजर गई।

अचानक मैंने उससे कहा - ' तुम्हें मालूम है, मैं ग्रैण्ड मदर हूँ , ग्रैनी ' 'वाऊ ' वह मुस्कुराई।
'मेरी एक ग्रेंन्डडॉटर तुमसे थोड़ी ही छोटी है इस तरह से मैं तुम्हारी भी ग्रेन्डमदर '
'या... मैं इंडिया में पैदा हुई होती तो यह सब ज्यादा आसान होता।'

अभी-अभी गई बच्ची के पिता के साथ खाने के पैकेट, शीतलपेय लिये लौट रही थी, फिर 'आइ थिंक, मुझे भूख लग रही है। डाइनिंग-कार तक होकर आती हूँ।

मैंने उसे रास्ता दिया और सामने रखी पत्रिका पलटने लगी। वह काफी देर में लौटी, खाली हाथ। मेरी आँखों में आश्चर्य था। उसने भाँपा। थोड़ी काँपते हुए लेकिन स्पष्ट बोली - 'मेरे पास पैसे कम बचे हैं वैसे मुझे ज्यादा भूख नहीं। आइ थिंक, आइ कैन वेट।'

उसने समय काटने के लिये ताश की गड्डी निकाली और सामने वाली सीट की बैक से ट्रे खींच कर खुद अपने आपसे खेलने लगी। पेन्सिल पेपर निकाल कर अपने 'स्कोर' भी लिखती जा रही थी। एक खेल से ऊब जाती तो दूसरी तरह से पत्ते बाँट लेती।

मुझे खुद जोर से भूख लग आई थी। मैंने बैग से बिस्किट, चॉकलेट निकाले। एक पैकेट उसकी ओर बढ़ाया। उसने पलभर को मेरी ओर देखा, तत्क्षण निश्चय लिया और नो थेंक्यू , कहकर वापस पत्ते बाँटने लगी। मैंने एकाधा बार हल्के से अनुरोध की कोशिश की लेकिन उसने उसी तत्परता से नकार दिया।

जाने क्या हुआ कि मैं खुद भी न खा सकी। वह ताश से ऊब गई थी। गड्डी वापस रख, सिर पीछे टिका कर जैसे अपने आपसे बोली - 'आइ थिंक, मुझे अब सोना चाहिए।' और निश्चय पर अमल करने के लिये कस कर आँखें भी मूँदे रही लेकिन थोड़ी देर बाद ही आँखें खोलकर फिर से कागज पेन्सिल निकाल ड्राइंग करने लगी। फिर उससे भी ऊबी तो रंगीन किताब निकाल कर पढ़ने लगी।

वह भूखी थी और रोटियों/ब्रेड के बारे में पढ़ रही थी। जल्दी ही किताब भी बंद हो गयी और वापस ताश पर न्यू हेवेन पर ट्रेन रूकी तो एक बूढ़ा बूढ़ी जल्दी जल्दी चढ़े, बूढ़े ने बूढ़ी को किस किया, कंधे थपथपाये और जल्दी से उतर गया। 'तुम्हारे भी ग्रैनी, ग्रेंन्डमदर हैं'।
'येस' उसे दुबारा बातों का शुरू हुआ सिलसिला अच्छा लगा और सोत्साह लेकिन संक्षेप में, ग्रैनी से जुड़ी बातें, उनके साथ बितायी छुटि्टयों के बारे में बताने लगी।
ये तुम्हारी माँ की माँ है या पिता की?'
'माँ की माँ'
'और पिता की माँ? वो वाली ग्रैनी?'
'वो जर्मनी में रहती है।' उसे बातों में बहला कर अचानकर मैं दुबारा बोल पड़ी थी - 'तुम्हें चॉकलेट नहीं अच्छे लगते? तो तुम छोटी टॉफी ही ले लो।'

लेकिन उसने उसी दृढ़ता से 'नो थेंक्यू' कहकर बात खत्म कर दी। खत्म करने के साथ यह भी जोड़ा कि 'मॉम हेड गिवेन मी इनफ मनी खर्च करने में थोड़ी लापरवाही हो गयी। आइ कैन वेट ' मुझे अपने किये, कहे पर ग्लानि हुई। उसे जैसे कुछ याद आ जाए, एकदम से कह पड़ी - 'आप मेरी माँ की फोटो देखना चाहेंगी?'
'ओह श्योर ' उसने वापस अपने ठुँसे हुए बैग को टटोलना शुरू कर दिया। एक दो ज़िपर खोले, बंद किये, फिर एक मखमली बटुए में बड़े जतन से रखी प्रार्थना की छोटी सी पुस्तक और चौकोर काले फ्रेम में मढ़ी रंगीन फोटो निकाली। चित्र में एक हँसती हुई युवती की बाहों के घेरे में वह शांत तृप्त उन्मुक्त हँस रही थी।

'वाउ बहुत ही प्यारी है तुम्हारी माँ'

उसने एक सलज्ज मुस्कुराहट के साथ थैंक्यू कहा 'लेकिन तुमने अपने 'डैड को भी क्यों नहीं बुला लिया था इस फोटो में? अच्छा समझी, वे ही तो ये फोटो खींच रहे होंगे न!'

वह लम्हे भर को अन्यमनस्क सी हुई फिर जैसे स्थिर हो, शब्द पर शब्द चुनती हुई शांत भाव से बोली - 'माय डैड, डाइड लास्ट वीक '

क्या... ओह जैसे शब्दों को अंदर खींचते न खींचते मैं बुरी तरह लड़खड़ा गई थी। किसी तरफ जोड़-तोड़ कर कह पाई - 'आयम सॉरी मुझे नहीं पूछना चाहिए था शायद'

उसने कुछ क्षणों के लिये मेरे चेहरे पर आँखें टिकायीं। निर्दोष, भोली दृष्टि ने मेरी व्याकुलता भाँपी और जैसे मुझे उबारते हुए समझदारों की तरह दुनियाँदार लहजे में बोली - 'नेवर माइंड ही वाज माय स्टेप-फादर'

इस बार लड़खड़ाती हुई मैं सीधे नीचे आ गिरी थी। एक शॉक से उबरने भी नहीं पाई थी कि दूसरा जबरदस्त झटका। और इस झटके में दु:ख और संवेदना से ज्यादा हैरानी, विस्मय था। एक ओछी जिज्ञासा भी जिसे सतह पर उतराते देर नहीं लगी - 'बट व्हाट अबाउट योर ओन फादर?' (तुम्हारे अपने पिता? )

मैं यथासंभव अपने स्वर में करूणा, संवेदना घोलने की सतर्कता बरत रही थी पर उसका मेरी इन बेतुकी कोशिशों से कोई खास वास्ता नहीं लगा। बेशक, उन कुछ घंटों की हमारी दोस्ती (?) की साख रखना उससे ज्यादा ज़रूरी लगा था। इस रिश्ते को लेकर इमानदार थी वह - 'आय डोन्ट नो। आय हैव नेवर सीन हिम। (मुझे पता नहीं, मैंने आज तक उन्हें देखा नहीं ) इस प्रौढ़ उम्र में मैं एक सिलबिली भावुकता के बीच हिचकोले खा रही थी और उस छोटी वय में ही वास्तविकता की ठोस जमीन पर खड़ी जिन्दगी को पूरी तटस्थता के साथ नाप खोज कर इस्तेमाल कर रही थी। मेरी जिज्ञासाओं का सहज भाव से समाधान भी कि उसके सौतेले पिता की मृत्यु न्यूहैंपशायर के अस्पताल में हुई और उसका अपना पिता शायद जर्मनी के किसी शहर में रहता है।

सुनते हुए मुझमें एक अपराध बोध और शर्मिन्दगी व्यापी थी जैसे मेरी ढँकी जिज्ञासाओं की चोरी पकड़ी गई हो। अन्तर्मन से उससे क्षमा माँगने की सी बेचैनी भी। लेकिन अपनी तरफ से इस सबकी कोई गुंजाइश न छोड़ते हुए उसने प्रसंग का बड़ा स्वस्थ, सहज समापन कर दिया - ' मैं सोचती हूँ, मुझे थोड़ी और ड्राइंग कर लेनी चाहिए' और वापस अपने ठुँसे बैग के बीच से कागज़ क्रेयॉन तलाशने लगी।

मेरी दृष्टि अपने हाथों में थामी पत्रिका पर टिकी थीं लेकिन मस्तिष्क अभी पिछले सप्ताह ही पढ़ी उस किताब के पृष्ठ पलट रहा था जिसका नाम था ' द अनएक्पेक्टेड लैगेजी ऑफ डिवोर्स' और जिसके सर्वेक्षण के अनुसार समूचे विश्व में, अकेले अभिभावक (सिंगिल - पेरेण्टहुड) के संरक्षण में पलने वाले बच्चों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। अकेले अमेरिका में अठारह से चँवालीस की वय वाले व्यक्तियों में चौथाई से ज्यादा (२६%) तलाकशुदा माता -पिता की संताने हैं। लेखिका जुडिथ वार्ल्सेटीन के अनुसार विघटित और एकल परिवारों के बढ़ते आँकड़े, समाज के लिए खतरनाक और दुर्भाग्यपूर्ण हैं।

उसकी ड्रॉइंग लगभग पूरी हो चुकी थी। एक सौजन्यभरी मुस्कान के साथ कागज मेरी ओर बढ़ाते हुए उसने कहा - ' दिस इज़ फॉर यू आप इसे रख सकती है।'

'ओह थैंक्स ' मैंने देखा कागज के एक तरफ उसने एक हाथी और एक महावत बनाया था। महावत बिल्कुल बच्चों सा और दूसरी तरफ, कुछ पेड़, सूरज, बहती नदी सा पानी, बत्तखें, नावें और दो स्त्रियां जिनके बाल लंबे थे, और माथे के बीचो बीच बिंदी थी।

'सुन्दर बहुत सुन्दर ये स्त्रियाँ ' मैं अटकी।
'इंडियन' वह शालीनता से मुस्कुराई।
'लेकिन तुम चित्र के एक तरफ अपना यानी आर्टिस्ट का नाम तो लिख दो ओह, मैंने तुम्हारा नाम तो पूछा ही नहीं।' उसने सिर हिलाते हुए चित्र के कोने में लिखा 'शोल्बी' और कागज वापस मुझे थमा दिया।

१ मार्च २००२

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