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संस्मरण


मेरे अग्रज डॉ रामकुमार वर्मा
शकुंतला सिरोठिया
 


बाइस जनवरी को कुछ साहित्यकार मुझे राष्ट्रभाषा समन्वय समिति की एक विचार गोष्ठी में आमंत्रित करने आए थे। उनसे ही ज्ञात हुआ कि डा. राम कुमार वर्मा अस्वस्थ हैं और बनर्जी नर्सिंग होम में कई दिनों से भर्ती हैं। मैं स्वयं साइटिका के दर्द के कारण काफी दिनों से घर में कैद थी तथा नगर के ताजे समाचारों से अनभिज्ञ थी। डाक्टर साहब की अस्वस्थता का समाचार सुनकर दुखी और चिंतित हुई किन्तु वे नर्सिंग होम में ऊपर की मंजिल के कमरे में हैं यह जानकर मेरे सामने समस्या खड़ी हो गई कि पैर दर्द को लेकर मैं कैसे ऊपर जाऊँगी। मेरे निवास से अस्पताल काफी दूर था। कोई साथ जाने वाला नहीं था जो मुझे ऊपर की मंजिल तक पहुँचाने में सहायता करता। कई दिन ऐसे ही निकल गए।

जनवरी २९ की शाम ४ बजे पावन (पौत्र) मुझे स्कूटर पर डाक्टर साहब के पास ले गया। हाथ पकड़कर उनके रूम में ऊपर भी पहुँचा दिया। डाक्टर साहब मसनद के सहारे अधलेटे थे। मैंने प्रणाम किया – "आप को क्या हो गया डाक्टर साहब? अभी पिछले माह जब मैं आपके घर गई थी तब तो आप स्वस्थ दिख रहे थे?"
लगा मुझे देखकर डाक्टर साहब, प्रसन्न हुए – "आपने इतनी दूर आकर बड़ी कृपा की। सिरोठिया जी मुझे लगता है किसी का अभिशाप लग गया है मुझे।"

"अरे, यह क्या कह रहे हैं आप? अभिशाप जैसी बात आपके संग हो ही नहीं सकती डाक्टर साहब।"
"लेकिन है ऐसा ही। यद्यपि मैंने कभी किसी का अहित न किया न कभी चाहा है। ऐसा विचार भी मेरे मन में कभी नहीं आया। किन्तु मेरे अभ्युदय को कुछ लोग सहन नहीं कर पा रहे हैं। मै अभी कुछ दिन पूर्व तक बिल्कुल स्वस्थ था। फिर अचानक यह कैसा कष्ट कि जीवन–मरण की स्थिति पर पहुँच गया हूँ। वैसे आप लोगों के स्नेह और शुभ कामनाओं से अ
ब खतरे से मुक्त हूँ।"

कुछ देर मैं चुप रही। डाक्टर साहब शायद बीमारी और कमजोरी के कारण बहुत क्षीण स्वर में बोल रहे थे। मैं क्या बात करूँ समझ में नहीं आ रहा था –
"आप अतिशीघ्र पूर्ववत हो जाएँगे हम लोगों की ईश्वर से प्रार्थना है और आपके स्वास्थ्य के लिए शुभकामनाएँ जो जरूर फलीभूत होंगी।"

पलंग के पैर की तरफ एक सोफे पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी प्रवक्ता डॉ. राजेन्द्र वर्मा बैठे थे। डॉ. राजलक्ष्मी वर्मा (पुत्री) भी वहीं एक कुर्सी पर बैठी थीं। डॉ. राजेन्द्र वर्मा ने मुझे संकेत से अधिक बातचीत करने के लिए मना किया। मैं चुप हो गई किन्तु पाँच सात मिनट शांत रहने के बाद डाक्टर साहब स्वयं फिर बोलने लगे। आवाज उनकी इतनी धीमी थी कि मुझे झुककर सुनना पड़ता था।
"इस वर्ष बाल–नाटक पुरस्कार किसे दे रही हैं?"
"यही परामर्श लेने तो मैं यहाँ आपके पास आई हूँ। अब की बाल नाटक की एक भी पुस्तक पुरस्कार प्रतियोगिता के लिए नहीं आई हैं।"

मैं कई वर्ष से एक बाल साहित्य पुरस्कार योजना चला रही हूँ। डॉ. रामकुमार वर्मा मेरी इस योजना के सरंक्षक थे। प्रति वर्ष मेरे पुरस्कार समारोह में मुख्य या विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित होकर आशीर्वाद देते रहे हैं। १९८८ में मेरे सफल कार्यक्रमों से उल्लसित डाक्टर साहब ने मेरी संस्था अभिषेक श्री को ५००० रु का अनुदान प्रदान किया। मैंने माइक पर खड़े होकर आभार ज्ञापन के साथ–साथ उद्घोषणा की कि डाक्टर साहब के इस अनुदान से मैं प्रतिवर्ष डाक्टर साहब के नाम से – ' रामकुमार वर्मा बाल–नाटक पुरस्कार' किसी बाल–नाटक लेखक को ५००० रु की राशि का प्रदान करूँगी। और १९८९ से यह पुरस्कार प्रतिवर्ष प्रदान किया जाता है। इसी पुरस्कार के विषय में डॉ. वर्मा से परामर्श लेने गई थी नर्सिंग होम में। इस बार पुरस्कार के लिए किसी पुस्तक के न आने से समस्या उठ खड़ी हुई थी मेरे सम्मुख जिसका समाधान डॉ. साहब ने कर दिया ––

"सिरोठिया जी आप जिस प्रकार चाहें, या जिसे पुरस्कार देना चाहें स्वयं इसका निर्णय ले लें। पूरा अधिकार है आपको। आपकी समर्पित भावना और साहित्य वर्धन की लगन देखकर ही मैंने आपकी संस्था को यह राशि भेंट की है। आपसे अच्छा निष्पक्ष निर्णय और कौन ले सकता है? पुस्तक प्रतियोगिता में नहीं आई है तो किसी पुस्तक विक्रेता के यहाँ देखकर पुरस्कार योग्य पुस्तक का चयन कर लें। आपको पूरा अधिकार है इसका।"

इतना बोलकर वे फिर चुप हो गए। अत्यंत धीमे स्वर में वे रुक–रुक कर कहते रहे और मैं शांत सुनती रही। कुछ देर चुप रहकर उन्होंने पुनः बोलना प्रारम्भ किया – "यदि मैं मार्च तक अच्छा हो गया तो आपके समारोह में आवश्य आऊँगा।
और यदि आवश्यकता हुई तो कुछ और भी आप की समिति को दूँगा। मुझे अहसास है कि आप अति सीमित अर्थ–साधनों से कार्य कर रही हैं। आप भारती जी को अपनी योजना में सम्मिलित करें। उन्होंने जीवन भर साहित्य सेवा की है। अब वे सेवानिवृत्त भी हो गए हैं।" कुछ आश्चर्य से मैंने पूछा – "आप क्या धर्मवीर भारतीजी की बात कर रहे हैं? किन्तु डाक्टर साहब जिस उदारता ओर स्नेह से आप मेरे लिए सोचते तथा चिन्ता करते हैं सब तो ऐसा नहीं सोच सकते। आप इतने वर्षों से मेरे कार्य को देखते ओर मेरी भावनाओं को समझते आ रहे हैं। यह सच है कि मैं आर्थिक दृष्टि से इतनी मजबूत नहीं हूँ कि जो साहित्यकार दूर से अन्य प्रान्तों से आकर मेरा पुरस्कार ग्रहण करते हैं उन्हें आने–जाने का मार्ग व्यय तक दे सकूँ किन्तु फिर भी – ।"

डाक्टर साहब ने मेरी तरफ करवट ले ली। अभी तक वे दूसरी तरफ लेटे बात कर रहे थे। "एक मीटिंग बुलाइए। मैं सबको सम्बोधित करूँगा। मैं ऊपर शासन तक को खटखटाऊँगा। १० लाख की राशि एकत्र की जाएगी और आपकी तरफ से भविष्य में एक लाख के पुरस्कार दिए जायेंगे। बाल नाटक के लिए भी मैं आपको और राशि दूँगा। मैं जानता हूँ कि ५००० रु के पुरस्कार के लिए मेरे द्वारा प्रदत्त राशि पर्याप्त नहीं है। बस मुझे जरा खड़ा हो जाने दीजिए सिरोठिया जी मुझे आपके लिए बहुत कुछ करना है।" मेरे मुख से बरबस निकल पडा – वाह!

जैसी किसी भूखे को लड्डुओं के ढेर पर बिठा दिया जाय। काश डाक्टर साहब के वे सपने, जो मेरे लिए वे संजो रहे थे पूरे हो पाते। उनके पुरस्कार को लेकर भी मुझे अपने पास से प्रति वर्ष व्यय करना पड़ता है जिसे पूरा करने के लिए वे कृत संकल्प थे और कई बार मुझे देने के लिए कह भी चुके थे किन्तु उस वर्ष के बाद फिर वे मेरे समारोह में उपस्थित
नहीं हो सके। वे फिर पूर्ववत स्वस्थ नहीं हो सके।

राजलक्ष्मी जी किसी कार्यवश थोड़ी देर पूर्व कमरे से बाहर चली गई थीं वापस लौट आई..."पापा अब चुप भी हो जाइए। अपने को बहुत मत थकाइए।" डाक्टर साहब ने फिर दूसरी तरफ करवट बदल ली किन्तु पुनः बोल पड़े अपनी पुत्री से ––
"पुत्री देखो तुम्हें भी सिरोठिया जी के कार्यों से जुडना चाहिए और राजेन्द्र वर्मा जी को... "संकेत से उन्हें अपने पास बुलाया।"... तुम्हें भी... डॉ. वर्मा ने तुरन्त उत्तर दिया – "मैं तो जुड़ा ही हूँ पापा। सब हो जाएगा जैसा आप चाहते हैं सब हो जाएगा, पहिले आप ठीक तो हो लें बस अब अधिक न बोलें।"

"ठीक है!" कहकर डाक्टर साहब चुप हो गए। मैं समझ गई कि मैं जब तक सामने हूँ डाक्टर साहब बोलते ही रहेंगे मैं खड़ी हो गई। प्रणाम किया उन्हें और चली आई।

सोचती हूँ डाक्टर साहब आज होते तो क्या मैं अपने को इतना अकेला अनुभव करती। कोई भी तो ऐसा शुभचिन्तक मेरे साथ नहीं जुड़ा है, जो उस समय वहाँ उपस्थित थे वे भी नहीं। फिर जिन–जिन के नाम उन्होंने लिए उन्हें तो डाक्टर साहब की इच्छा का ज्ञान भी नहीं है आज तक। और मैं, सुअवसरों का लाभ उठाने में चतुर भी नहीं हूँ। हथेली पर बैठा
पंछी भी उड़ जाता है और मैं अपनी पकड़ शिथिल किए निर्निमेष शून्य में निहारती रह जाती हूँ।

डाक्टर साहब से मैंने एक अग्रज का सामाजिक अवलम्ब सदा प्राप्त किया है। उस दिन उनके स्वर्गवास का दुखद समाचार पढ़कर मुझे लगा जैसे मेरा वह अवलम्ब मेरे हाथ से छूट गया। उस दिन अखबार ५:३० बजे सुबह ही आ गया था। पलंग से उठते ही अखबार पर दृष्टि पड़ी उत्सुकता से उठाया। 'डॉ. रामकुमार वर्मा नहीं रहे? पढ़कर मैं स्तब्ध रह गई। क्या यह दुःखद समाचार देने के लिए ही आज अखबार एक घंटा पूर्व आ गया था। अभी गत १५ सितम्बर को ही तो उनको उनके जन्म दिवस पर शतायु होने की कामना प्रदान करने गई थी तब अपने स्नेहीजनों के मध्य प्रसन्न मुद्रा में, तकिये का सहारा लिए अधलेटे मिले थे। मुझे देखकर मुस्कराए। दुर्बल तो इन दिनों थे ही किन्तु २० दिन बाद ही वे साकेत सूनाकर जाएँगे ऐसी आशंका मुझे तथा कदाचित किसी को भी नहीं थी। निश्चय ही स्वयं उनको भी नहीं थी।

जीवन की उन्हें लालसा थी। वे अभी संसार छोड़कर जाना नहीं चाहते थे और हम तो उनके और अधिक जीवन की कामना हृदयसे करते ही थे किन्तु अप्रत्याशित आँधी के एक प्रबल झोंके ने साहित्य के भव्य भवन का एक और आधार स्तम्भ धराशायी कर दिया। हम हाथ मलते देखते रह गए। मेरा पुरस्कार और सम्मान–संस्था 'अभिषेकश्री' से डाक्टर साहब १९८४ से ही बराबर सम्बद्ध रहे थे। जिनका मैं सम्मान करती और जिन्हें बाल साहित्य का पुरस्कार प्रदान करती हूँ उनके प्रशस्ति और अभिनन्दन पत्र पर संरक्षक के स्थान पर डॉ. राम कुमार वर्मा के हस्ताक्षर रहते थे। पुरस्कृत और सम्मानित व्यक्ति को डाक्टर साहब अपने हाथ से तिलकायित करते, उसे पुरस्कार राशि देते तथा माँ सरस्वती की प्रतिमा प्रदान करते। इस प्रकार सम्मानित व्यक्ति इतने बड़े साहित्यकार का आशिर्वाद पाकर और उनके हस्ताक्षर युक्त अभिनन्दन पत्र पाकर गद्गद होकर जाता था।

मेरी संस्था का यश प्रसार डाक्टर साहब के आशीर्वाद और कृपा से और ऊँचा उठा था, जिससे मैं आज वंचित हो गई थी। आज अग्रज डाक्टर वर्मा का स्नेह संरक्षण मेरे ऊपर से उठ गया। उनका वह आश्वासन– "सिरोठिया जी मुझे अच्छा हो जाने दीजिए मैं आपकी इस संस्था के लिए १० लाख की राशि का प्रबन्ध कर दूँगा जिससे आप भी एक लाख का पुरस्कार प्रदान कर सकें।"

आज वह आश्वासन निरर्थक सिद्ध हो गया। वह वाणी ही शान्त हो गई। लेकिन उसकी गूँज आज भी मेरे अन्तर में तरंगायित है और उनका आशीर्वाद मेरे साथ रहेगा सदैव, इसका मुझे विश्वास है।

 
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